Sunday 26 June 2016

सोच-समझ



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‘‘वाग्मिता भाषा का गुण है; लेकिन उसका लोभ संवरण करने में भाषा की बौद्धिक दृढ़ता का पता चलता है। वाग्मिता के साथ ही विवादात्मकता भी कोई कम बड़ा प्रलोभन नहीं। इससे गर्मी तो आती है लेकिन कटुता अधिक पैदा होती है। और सामूहिक समझ बनने के रास्ते में यह बड़ी बाधा है। - प्रो. अपूर्वानंद
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मंगलभावन विचार



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शिक्षकों से नये संस्कार, नई परिभाषा मिलनी चाहिए। इसके लिए नई कल्पना की भी जरूरत है। सफलता वह है जिसे आप पाना चाहते हैं, वह चाहना जिसे आपने प्राप्त किया है। वह जो आपको आनंद देता है। प्रेरणा एवं आकांक्षाएँ व्यक्ति को कुछ नया सीखने का अवसर प्रदान करती हैं। एक अध्यापक जब स्वयं में अंतर करता है; तभी दूसरे को प्रेरणा दे सकता है। - प्रो. शंभुनाथ

Tuesday 21 June 2016

हम आपको ‘नेट’ परीक्षा पास नहीं करा सकते, अधिकतम प्रयास जरूर कर सकते हैं : राजीव रंजन प्रसाद


आपका टीचर भगवान नहीं, लेकिन आपको सही रास्ते पर, आजीविका के स्थायी ठौर पर वही ला सकता है। आप अपने शिक्षक में अपनी धड़कनों को सुन सकते हैं; यदि आप नहीं सुन पा रहे हैं तो वह शिक्षक किसी और का  शिक्षक हो सकता है, आपका हरगिज़ नहीं!


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राजीव रंजन प्रसाद
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आइए जानें, क्या है नेट/जेआरएफ

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग विश्वविद्यालयों में अध्यापक/शिक्षक/लेक्चरर/रीडर/प्रोफेसर बनने का सुनहला मौका देता है। हमारे उत्तर-पूर्व के विद्यार्थियों के लिए भी यह विशेष मौका है जिसे वह अपनी प्रतिभा/योग्यता दिखाने के लिए सहज ही अपने प्रयोग में ला सकते हैं। वे सभी लोग जो यह सोचते हैं कि पढ़ी-लिखी दुनिया में ही शांति-खुशहाली, अमन-चैन, नाम-रूतबा, यश और सम्मान-प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकता है उन्हें यूजीसी द्वारा साल भर में दो बार आयोजित होने वाले राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा(NET) अवश्य देनी चाहिए। इस परीक्षा का आयोजन सीबीएसई के माध्यम से कराया जा रहा है। पहला परीक्षा जून के आखिरी सप्ताह में(अंतिम रविवार) तथा दूसरी परीक्षा दिसम्बर महीने के आखिरी सप्ताह(अंतिम रविवार) को कराया जाता है। दिनांक, दिन में फेर-फार हो सकता है। इसलिए इसे स्थायी मान लेना ग़लत है।

आज हम इस बारे में थोड़ी जानकारी आपके लिए लाए हैं। जानकारी के साथ इस ‘नेट/जेआरएफ’ की तैयारी को लेकर किए जाने वाले अभ्यास एवं प्रयास के बारे में विशेषज्ञ की राय भी प्रस्तुत है :  
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अर्हता : 55 प्रतिशंत अंक के साथ सम्बन्धित/सन्दर्भित विषय में परास्नातक/मास्टर्स यानी सिर्फ एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण होना होगा। जो विद्यार्थी अपने एम.ए. के दूसरे वर्ष यानी तीसरे सत्र में हैं, वे भी इस परीक्षा को देने के लिए अर्ह हैं और वे परीक्षा में बिल्कुल बैठ सकते हैं।

उम्र-सीमा : राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा यानी ‘नेट’ में बैठने के लिए उच्चतम सीमा निर्धारित नहीं है। कोई भी व्यक्ति जो उपर्युक्त अर्हता रखता है, इस परीक्षा में बैठ सकता है।

कनिष्ठ शोध-अध्येता : यह शोध-प्रणाली को गुणवत्तापूर्ण एवं समुन्नत बनाने के लिए है। इसके अन्तर्गत शोध हेतु संभावित योग्य विद्यार्थियों को एक तरह से आर्थिक अनुदान दिया जाता है जिसे शोध-अध्येतावृत्ति कहते हैं। यह उन्हीं विद्यार्थियों को दिया जाता है जो नेट परीक्षा में उत्तीर्णांक से अधिक किन्तु एक निर्धारित अंक-सीमा का अंकीय-मान प्राप्त कर लेते हैं। इसका निर्धारण कट-आॅफ से होता है। यदि कोई विद्यार्थी यह कट-आॅफ प्राप्त कर लेता है, तो विश्वविद्यालय अनुदान उसे कनिष्ठ शोध-अध्येता होने का प्रमाण-पत्र जारी करती है।

कनिष्ठ अध्येता का चयन एवं अध्येतावृत्ति : इसका चयन राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा(NET) के माध्यम से ही किया जाता है। कनिष्ठ शोध-अध्येताओं को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अगले पाँच सालों के लिए शोध-अध्येतावृत्ति देने का आश्वासन देती है। यदि कोई कनिष्ठ शोध-अध्येता पहले से शोध-कार्य में पंजीकृत हो, तो उसे उसी तारीख से जिस दिन नेट-परिणाम की घोषणा हुई थी; से शोध-अध्येतावृत्ति मिलनी शुरू हो जाती है।

अध्येतावृत्ति की राशि : 1) शुरुआत के दो वर्षों तक 25, 000 रुपए मासिक तथा इसके साथ अलग से एच.आर.ए. नियमानुसार दिया जाता है। एच.आर.ए. किराए का मकान लेकर रहने वाले विद्यार्थियों को ही प्राप्त होता है। इसके अतिरक्त पूरे वर्ष के लिए 10, 000 रुपए की राशि ‘आनुषंगिक’ तौर पर मिलता है जिसे ‘कन्टीजेसी’ कहा जाता है। 2) आंतरिक मूल्यांकन एवं संस्तुति के माध्यम से शोध-अध्येता को दो वर्ष के बाद वरिष्ठ शोध-अध्येतावृत्ति प्राप्त होती है। इस दौरान उसे 28,000 रुपए मासिक तथा एच.आर.ए. पूर्व नियमानुसार प्राप्त होता है। आनुषंगिक बिल शेष तीन वर्षों के लिए सलाना 20, 500 रुपए प्राप्त होते हैं। विज्ञान/तकनीक/कंप्यूटर से जुड़े अनुशासनों को सामाजिक एवं मानविकी विषयों की अपेक्षा कुछ अधिक अध्येतावृत्ति दी जाती है।

जेआरएफ हेतु उम्र-सीमा : सामान्य वर्ग के लिए अधिकतम उम्र-सीमा 28 वर्ष निर्धारित है। जबकि पिछड़ी जातियों/अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लिए नियमानुसार न्यूनतम 3 वर्ष और अधिकतम 5 वर्ष की छूट प्राप्त है।

आरक्षण : सामान्य वर्ग को छोड़कर सभी वर्ग के लिए परीक्षा-फीस से लेकर परीक्षा-परिणाम तक में विशेष छूट प्राप्त है। यह कोई कृपा अथवा अनुकम्पा नहीं उनका हक है जिसे सांविधानिक रूप से इस समय उन्हें प्राप्त है। यह आरक्षण जातीयता का सूचक नहीं। आर्थिक पिछड़ेपन और सामाजिक दुराव से उपजे विषमता/खाई को पाटने के लिए उन्हें दिया गया है। यदि पूरी तैयारी, तत्परता, लगन और श्रमबल के साथ आप इस परीक्षा को नहीं देते हैं, तो आपसे अधिक आलोचना ‘आरक्षण-प्रणाली’ की की जाती है। आरक्षण को ख़त्म करने के लिए राजनीतिक प्रयास शुरू हैं जबकि देश की एक बड़ी आबादी आरक्षण के लाभ क्या नाम तक से परिचित नहीं है।आपको लोकतांत्रिक भागीदारी की दिशा में आगे आने के लिए आरक्षण का उचित लाभ लेना अत्यावश्यक है।

प्रश्न-पत्र प्रारूप :

1) प्रथम प्रश्न-पत्र : यह 100 पूर्णांक का बहुवैकल्पिक प्रश्न-पत्र होगा जिसमें 60 प्रश्न दिए गये होंगे जिनमें से कुल 50 प्रश्नों का जवाब देना होता है। प्रत्येक प्रश्न 2 अंक का होता है। ग़लत जवाब होने की स्थिति में उनका नंबर नहीं काटा जाता है। यानी ‘No Negative Marks’। यह पत्र नेट परीक्षा में बैठने वाले सभी विद्यार्थियों को एकसमान देना होता है। लेकिन प्रश्न-पत्र के क्रम उलट-पुलट दिया जाता है। इसलिए यह सावधानी आवश्यक है कि आप अपने आगे या पीछे से जवाब का मिलान हरग़िज न करें, क्योंकि उनको दिया गया प्रश्न-पत्र आपके प्रश्न-पत्र से सर्वथा भिन्न होगा। 

2) द्वितीय प्रश्न-पत्र : यह 100 पूर्णांक का होता है। इसमें बहुवैकल्पिक 50 प्रश्न होते हैं जिनमें से प्रत्येक 2 अंक का होता है। इसके लिए निर्धारित अवधि डेढ़ घंटे है और किसी प्रकार के ‘No Negative Marks’ माक्र्स नहीं होते हैं। यानी ग़लत जवाब होने की स्थिति में आपका अंक नहीं काटा जाता है। यह हमारे मुख्य विषय से सम्बन्धित होता है। इस विषय के प्रश्न अपने स्वरूप में जटिल तथा विशेष स्मृति-बोध एवं ज्ञानात्मक चेतना की माँग करते हैं।

3) तृतीय प्रश्नपत्र  :150 पूर्णांक का होता है और इसमें कुल 75 बहुवैकल्पिक प्रश्न होते हैं। इनमें से प्रत्येक प्रश्न 2 अंक का होता है और किसी प्रकार के ‘No Negative Marks’ माक्र्स नहीं होते हैं। यानी ग़लत जवाब होने की स्थिति में आपका अंक नहीं काटा जाता है। इस प्रश्न-पत्र को ढाई घंटे की समयसीमा में हल करना होता है। यह परीक्षा का मुख्य अंग है। इसमें अपने परास्नातक(एम.ए. डिग्री) के मुख्य विषय/अनुशासन से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। ये प्रश्न अपनी प्रकृति में गहन समझ, विचार-दृष्टि तथा विषय-बोध की माँग करते हैं। 

अकादमिक विशेषज्ञ प्रो. ऋषभदेव शर्मा के अनुसार इसकी तैयारी के लिए परीक्षार्थी का अतिसजग एवं संवेदनशील होना जरूरी है। उनके महत्त्वपूर्ण सुझाव हैं :

1) 3-4 महीने पहले से तैयारी करें।
2) तृतीय सत्र से ही तैयारी में जुट जाए।
3) नेट के निर्धारित पाठ्यक्रम को परीक्षक की दृष्टि से पढ़ें।
4) पिछले वर्षों के प्रश्न-पत्र/अभ्यास मालाएँ/ टेस्ट्स अधिकाधिक, नियमित और शांतचित्त तरीके से एकाग्र होकर करें।
5) रटने/निगलने की अपेक्षा अवधारणाओं/संकल्पनाओं को समझें।
6) पाठ्यक्रम को बहुविकल्पी वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के निर्माण की संभावना से देखें और उसी प्रकार पढ़े।
7) सतत् अभ्यास द्वारा उत्तर देने की अपनी गति सुधारते रहे।
8) दुहराए, दोबारा पढ़े, बार-बार पढ़े और पढ़ते ही रहें।
9) मुख्य बिन्दु नोट करें या उसे अंडरलाइन कर दें।
10) सरलता से दोहराने का मानसिक अभ्यास करें। बोझ उठाने की तरह उस पर कतई टूट न पड़े।
11) तथ्यों को अलग-अलग छाँटें, वर्गीकृत करें और उसे लिखें।
12) विषय-विशेषज्ञों अथवा अपने अध्यापकों से उचित मार्गदर्शन प्राप्त करें। इस सम्बन्ध में विनम्र रवैया अपनाएँ।
13) अपने यादास्त पर विश्वास करें और इसके लिए अपनी एकाग्रता को बढ़ाएँ।
14) थकने पर सिर्फ 3 मिनट का अंतराल/विश्राम लें।
15) तथ्यों के अन्तर्सम्बन्ध पहचानकर काल्पनिक चित्र/कथा बनाने अथवा गढ़ने की चेष्टा करें।
16) श्रेणीबद्ध और अंतःसोपानिक तरीके से विषय को तैयार करें। विषय से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण तथ्यों को हाईलाइट करें या उसे मार्कर द्वारा चिह्नित करें।
17) आत्मनिरीक्षण करके अपनी कमियों को सुधारें, बेहतर कोशिश करते रहने की आदत डालें।
18) प्रतिदिन कम से कम छह घंटे स्वाध्याय करें।
19) निरंतरता बनाए रखें।
20) सकारात्मक रूख अपनाएँ, अपने प्रति आलोचना की ही नहीं प्रशंसा का भाव भी रखें।


Thursday 9 June 2016

रूसी साहित्य



रूसी साहित्य बहुत महान और विशाल है। जैसे हमारा रूस महान है वैसे ही साहित्य में यह महानता रूस की रहस्यपूर्ण रूप से दिखाई देती है। हमारे लेखक अपनी रचनाओं के माध्यम से पूरे विश्व में बहुत लोकप्रिय हैं। उनकी रचनाएँ इतनी सुन्दर, मार्मिक, उदात्त और यथार्थपूर्ण हैं कि वे हर दिल में अपनी अमिट छाप छोड़ती हैं।
रूसी साहित्य का इतिहास सन 988 से शुरू होता है। पहले काल खंड का नाम प्राचीन रूसी साहित्य (988 से 1600 तक) है। इस काल का पूरा साहित्य धर्म-निष्ठ और बाइबिल से संबंधित था। लेखक ईसाई, धर्म, भगवान और आदमी के रिश्तों के बारे में लिखते थे। इस काल की मुख्य विद्या इतिवृत्त थी। सब साहित्य मठ में जमा था और सिर्फ मठवासी लिखते थे। इस प्रकार से रूसी साहित्य की शुरूआत में आध्यात्मिकता इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इस काल की सबसे प्रसिद्ध कृति है- "ईगोर की रेजीमेंट के बारे में बात" (Cuobo o nolky Uropebe)
दूसरा काल (1600-1800) में धर्म-निष्ठ साहित्य और दुनियाई साहित्य अलग लिखा गया। इस काल के बाद रूसी साहित्य का स्वर्ण काल आता है (1900-1900)। इस काल के सबसे लोकप्रिय लेख हैं-
  1. अलेक्सांद्र पुश्किन
  2. मिख़ाइल लेर्मोन्तोव
  3. इवान तुर्गेनव
  4. लेव तोल्सतोय
  5. फेदर दोस्तोएवस्की
  6. अंतोन चेख़ोव
इस समय का रूस "साहित्य का देश" हो गया। साहित्य सामाजिक समस्या हल करता था और लेखक समाज और राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। अगर यह काल गद्य का समय था तो इसके अगले काल (1900-1917) में विश्व साहित्य की सबसे अच्छी कविताएँ लिखी गयीं। इस काल के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकार हैं-
  1. बोरिस पस्तेर्नाक
  2. अन्ना अख़मातोवा
  3. अलेक्सांद्र बलोक
  4. मरीना त्सवेताएवा
इस काल को रूसी साहित्य का रजत काल कहते हैं। अक्टूबर क्रांति के बाद सोवियत काल था (1917-1991)। लेखक दो वर्ग में बंट गये। कुछ लोग साम्यवादी हो गये, जैसे मैक्सिम ग़ोर्की, ब्लादीमीर मथकोत्स्की, भिख़ाइल शोलोहोव आदि और कुछ लोगों ने उनका बहिष्कार किया, जैसे: इवान बूनीन, ब्लादीमीर नबोकोव आदि। सन 1919 से आधुनिक काल शुरू हुआ। अगर सोवियत काल में साहित्य राजनीतिक प्रभाव में आ रहा था तो अब भूले बिसरे नाम याद आ रहे हैं और साहित्यिक परंपरा पुनर्जीवित हो रही है।
पुराना और नया रूसी साहित्य हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर है।

Tuesday 7 June 2016

Know about Film


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पहली मोशन फिल्म किसने बनाई (द हॉर्स इन मोशन, 1878)
पहली ‘होम मूवी’ कब बनी (राउंधे गार्डन सीन, 1888)
पहली शॉट आधारित सिनेमा किसने बनाई (मंकीशाइन्स नंबर 1, 1889-1890)
पहली कॉपीराइट फिल्म का निर्माण किसने किया (फ्रेड ऑट्स स्नीज, 1893-94)।
प्रोजेक्शन की गई पहली फिल्म कौन-सी है (वर्कर्स लीविंग द ल्यूमिरे फैक्ट्री, 1895)
और वह पहली फिल्म कौन है, जिसे दर्शकों को दिखाया गया (बर्लिन विंटरगार्टन नोवेल्टी प्रोग्राम, 1895)।
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भारत में इस तरह के तथ्य थोड़े विवादित हैं। जानकारी के मुताबिक दादासाहब फाल्के (30 अप्रैल 1870-16 फरवरी 1944) ने भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई। फाल्के की यह फिल्म तीन मई 1913 को मुंबई के जिस कोरोनेशन सिनेमेटोग्राफ में प्रदर्शित हुई थी, उसके एक वर्ष पहले अठारह मई 1912 को इसी हॉल में रामचंद्र गोपाल उर्फ ‘दादासाहब तोरणे’ (13 अप्रैल 1890-19 जनवरी 1960) की फिल्म ‘पुंडलिक’ दिखाई जा चुकी थी।

नेल्सन मंडेला के बारे में

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- हमें वैसी ही दुनिया बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए, जैसा कि हम इसे बनाना चाहते हैं।
नेल्सन मंडेला
- प्यार से उनके पिता ने उन्हें ‘रोहिल्हाला’ कहा, जिसका अर्थ है-प्यारा किन्तु शैतान बच्चा। 

-नेल्सन मंडेलाः जन्मः 18 जुलाई, 1918; निधनः 05 दिसम्बर, 2013

-प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति, दक्षिण अफ्रिका(1994-99)

-रंगभेद की नीति के खिलाफ़ जीवन के 27 वर्ष रॉबिन द्वीप जेल में गुजारे।

- नवम्बर, 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने हर साल 18 जुलाई को नेशनल मंडिला डे मनाने की घोषणा की। इस खास दिन के लिए यूएन ने खास अपील की, ‘‘67 मिनट दूसरों की मदद के लिए निकालें। अपने जीवन के 67 साल, जिन्होंने इंसानियत की मदद के लिए न्योछावर कर दिए, हम सबको उनके लिए इतना समय तो निकालना ही चाहिए।’।

- 1993 में नेल्सन मंडेला और डी. क्लार्क दोनों को संयुक्त रूप से शांति के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। 

- 1990 में भारत सरकार की ओर से नेल्सन मंडेला को देश के सबसे बड़े सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया।

- ‘कनवरसेशन माईसेल्फ’ नाम की किताब में नेल्सन मंडेला की वे चिट्ठियाँ शामिल हैं जो मंडेला ने 27 साल के कैद के दौरान लिखी थी।

जानने के लिए-1


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भाषागत अल्पसंख्यक वर्ग में वे आते हैं जिनकी भाषा राज्य या उसके किसी भाग के बहुसंख्यक समुदाय से भिन्न है। अनुच्छेद 350(क) के अन्तर्गत राज्य को यह कर्तव्य सौंपा गया है कि वह भाषागत अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों को मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने के लिए पर्याप्त सुविधाएँ दें।
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   1905 : रूसी आन्दोलन
   1906 : पर्सियन क्रांति
   1908 : तुर्की आन्दोलन
   1911 : चीनी क्रांति
   1913 : गदर आन्दोलन जिसे लाला हरदयाल ने सैन फ्रांसिस्कों में आरंभ किया।
   1917 : बोल्शोविक क्रांति
   1917 : मांटेग्यू घोषणापत्र का ‘क्रमिक स्वशासन की नीति’
   1918 : इंग्लैण्ड के लॉयड जार्ज द्वारा उपनिवेशों को दिया गया ‘आत्मनिर्णय का अधिकार’
   1919 : मई फोर्थ आन्दोलन
   1920 : पैन अफ्रिकन कांग्रेस
   1920 : बाकु में बोलशेविकां का सम्मेलन
   1920 : खि़लाफत आन्दोलन
   1920 : गाँधी युग से पहले के सबसे बड़े राजनीतिक नेता तिलक का निधन(1 अगस्त, 1920)
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   1928 : बारदोली सत्याग्रह

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Monday 6 June 2016

‘आप विजेता हैं, जीतेंगे ही’ के हौसले को समर्पित एक कविता

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वक्त का तकाजा है
बातों के बवण्डर से
डरिए मत
ऋण अदा करने में
जितना हो सके
खपिए
खाद होते जाने में
खुद को
आत्मा की अपनी गहराइयों की
गूँज को दबाकर
चुनिंदा बातों को
सुनिए और गुनिए
अकेले पड़ जाने में
अपनी औकात को
पहचानकर चलिए
पूरी तरह कोशिश में रहकर
अपने स्वभाव में
तल्लीन होकर
धार के प्रवाह में
अपनी कर पाने को उतरिए
अकेले नहीं हैं आप
आपकी गहराई
साथ लहरती है
हो सके तो
इस पहचान में
इस लहरते ज्ञान में
खुद तरल हो जाइए
लोगों की रगों के
खून में लहरिए
बाहर आकर भी
पूरा भीतर हो जाइए
वक्त का तकाज़ा है
सतर्क होकर चलना
रहना जरूरी है
रास्ता बढ़ाते
आगे तक जाना है!
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मलय, वागर्थ, जून, 2015 में प्रकाशित

जानने की जिज्ञासा और प्रेरणा-2


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राजीव रंजन प्रसाद

-सन् 1957 में विश्व का प्रथम उपग्रह आकाश में भेजा गया जबकि 1968 में प्रथम संचार उपग्रह।
-टेलीग्राफ का आविष्कार सन् 1837 में अमेरिकी वैज्ञानिक सैम्युल मोर्स ने किया था।
-टेलीप्रिंटर का आविष्कार सन् 1874 में फ्रांसीसी वैज्ञालिक एमाइल बोडेट ने किया था।
-टेलेक्स को टेलीप्रिंटर, टेलीग्राफ और टेलीफोन का मिश्रित रूप कहा जा सकता है।
-11 मार्च, 1702 को पहला अंग्रेजी दैनिक पत्र ‘डेली कोरांट’ प्रकाशित हुआ। ‘लंदन डेली एडवाइजर’ का प्रारंभ 1726 में हुआ।
-भारत में पहला समाचार-पत्र निकालने का प्रयत्न ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी विलियम वोल्ट ने किया।
-पहला भारतीय समाचार-पत्र गंगाधर भट्टाचार्या ने ‘बंगाल गजट’ के नाम से प्रकाशित किया।
-राजाराममोहन राय ने 1822 में एक फ़ारसी भाषा का पत्र ‘मिरात-उल-अख़बार’ और अंग्रेजी भाषा में 'ब्रहमेनिकल मैग्जीन’ प्रकाशित किए।
-सन् 1823 में जाॅन एडम ने भारत में प्रथम प्रेस अधिनियम जारी किया।
-जेम्स बकिंघम ने इंग्लैण्ड में ‘ओरिएन्टल हेराल्ड’ नामक पत्र निकाला।
-लार्ड केनिंग का प्रेस एक्ट, 1857 गलाघोंट कानून(गैगिंग एक्ट) के नाम से प्रसिद्ध है।
-बम्बई से प्रकाशित होने वाले ‘टाइम्स आॅफ इण्डिया’ का प्रकाशन 1861 में हुआ। सन् 1865 में इलाहाबाद से ‘पायनियर’ तथा शिशिरकुमार घोष तथा मोतीलाल घोष के प्रयासों से बांग्ला भाषा में साप्ताहिक पत्रिका ‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ 1868 में हुई। कलकता के प्रसिद्ध समाचार-पत्र ‘स्टेटस मैन’ का जन्म 1875 में हुआ।
-1853 में गिरिशचन्द्र घोष ने ‘हिन्दू प्रोट्रिएट’ निकाला।
-ईश्वरचन्द्र विद्याासागर ने ‘सोमप्रकाश’ का प्रकाशन प्रारंभ किया।
-‘इंडियन मिरर’ जिसे मनमोहन घोष और द्वारकानाथ टैगोर ने मिलकर निकाला तथा बाद में केशवचन्द्र सेन द्वारा सम्पादित किया गया। केशवचन्द्र सेन ने सबसे पहले एक पैसे कीमत का ‘सुलभ समाचार’ प्रकाशित करवाया।
-1877 में सरदार हरदयाल सिंह मजीठिया ने लाहौर से ‘ट्रिब्यून’ अंग्रेजी में निकाला।
-लार्ड लिटन ने भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों पर नियंत्रण करने के लिए 1 मार्च, 1878 को विशेष अधिनियम पारित किया जो ‘वर्नाकुलर प्रेस एक्ट-1878’ के नाम से प्रसिद्ध है।
-बांग्ला भाषा की ‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ इस अधिनियम से बचने के लिए रातोंरात अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित होने लगी।
-'इल्बर्ट बिल' में भारतीय जजों और मजिस्ट्रेटों को भी वही अधिकार प्रदान करने की व्यवस्था की जो अंग्रेज जजों व मजिस्ट्रेटों को प्राप्त थे।
-के.सी.राय ने सन 1905 में भारत में ‘एसोसिएटेड प्रेस’ की स्थापना की। वे भारत में समाचार समिति के संस्थापक माने जाते हैं। एसोसिएटेड प्रेस की स्थापना के साथ ही भरत में व्यावसायिक पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ।
-जून 1908 में लार्ड मिन्टो ने 'समाचार-पत्र अधिनियम' पारित किया।
-'भारतीय मुद्रणालय अधिनियम' 1910 में लागू किया गया।
-हिन्दी पत्रकारिता पर पहला अनुसन्धान डाॅ रामरतन भटनागर ने किया जिस पर प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा ‘डाॅक्ट्रेट’ की उपाधि प्रधान की।। उनके शोध-प्रबन्ध का नाम ‘दि राइज़ एण्ड ग्रोथ आॅफ हिन्दी जर्नलिज़म’ था।
-प्रो. रोडेण्ड ई. बूल्कले ने ‘जर्नलिज़म इन माडर्न इण्डिया’ लिखी है जिसका हिन्दी अनुवाद ‘भारतीय पत्रकार कला’ के नाम से ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस ने प्रकाशित किया है।
--1843 में विश्व की पहली महिला फोटोग्राफर अनितनेटी डी. कोरावोट ने म्युनिख़ में अपना एक फोटो स्टूडियो स्थापित किया। जबकि होमी बयारवाला भारत की पहली महिला फोटोग्राफर थी।
-श्रीसदानंद ने 1927 में ‘फ्री प्रेस एजेंसी आॅफ इंडिया’ की स्थापना की।
-1 सितम्बर, 1933 को कलकता से श्री वी. सेन गुप्ता ने ‘यूनाइटेड प्रेस आॅफ इंडिया’ की शुरुआत की। बिना मुनाफे से चलने वाली सरकारी संस्था के रूप में ‘प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया’ का पंजीकरण 27 अगस्त, 1947 को किया गया। 1 फरवरी, 1949 से एजेंसी ने अपनी सेवाएं शुरू कीं। पी.टी.आई. 1957 तक रायटर के निर्देशन में कार्य करती रही। इसके बाद स्वतंत्र अस्तित्व बना लिया।
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नवभारत टाइम्स=> 1974
धर्मयुग=>1950
इकोनाॅमिक्स टाइम्स=>1961
महाराष्ट्र टाइम्स=>1962
दिनमान=>1965
फिल्म फेयर=>1952
फेमिना=>1959
ओवरसीज हिन्दुस्तान टाइम्स=>1950
कादम्बिनी=>1960
जनसत्ता=>1952(हिन्दी)
जनसत्ता=>1983(गुजराती)
रोजगार समाचार और योजना=>1957
बाल भारती=>1948
कुरुक्ष्ेत्र=>1955
इंडियन एक्सप्रेस=>1933
मार्निंग स्टैण्डर्ड=>1944
दि फाइनेंशियल एक्सप्रेस=>1961
मार्निंग क्राॅनिकल=>1769
मार्निंग पोस्ट=>1772
डेली न्यूज़=>1846
डेल टेलीग्राफ=>1855
डेली स्टैण्डर्ड=>1875
आॅवजर्बर=>1791
संडे टाइम्स्=>1822
न्यूज आॅफ दि वल्र्ड=>1843

आत्मकथा : भारतीय साहित्य लेखन परम्परा में आपबीती कहती/सुनाती पुस्तकें

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आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री-हंस बलाका
पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र’ –अपनी खबर
बनारसी दास चतुर्वेदी की आत्मकथा
महात्मा गाँधी सत्य के मेरे प्रयोग
ओमप्रकाश बाल्मीकि जूठन
राजेन्द्र यादव -मुड़-मुड़ के देखता हूँ मैं
मन्नू भंडारी एक कहानी यह भी
हरिवंश राय बच्चन क्या भूलूं क्या याद करूं (1969) , नीड़ का निर्माण फिर (1970),(बसेरे से दूर) (1977) .दशद्वार से सोपान तक (1985)
श्योराज सिंह बेचैन - मेरा बचपन मेरे कंधो पर
सुरजपाल चौहान - तिरस्कृत
लक्ष्मण गायकवाड उचक्का
सुशीला टाकभौरे शिकंजे का दर्द
दया पवार अछूत ,
तुलसी राम मुर्दहिया और मणिकर्णिका
कौशल्या बैसंत्री दोहरा अभिशाप
शरणकुमार लिम्बाले अक्करमाशी
इंदिरा गोस्वामी-जिन्दगी कोई सौदा नहीं
रवीन्द्र कालिया-ग़ालिब छूटी शराब
रमणिका गुप्ता-हादसे
कमलेश्वर-जो मैंने जिया
जानकी वल्लभ शाष्त्री-अष्टपदी
उर्मिला पवार-आयदान(मराठी)
लक्ष्मीबाई टीळक-स्मृतिचित्रे(मराठी)
माधवी देसाई-नाच री घुमा
तुलसीराम-मुर्दाहिया
आबिद सुरती-सूफी
रामदरश मिश्र-सहचर है समय
हरदर्शन-हर अगर पर मगर
अमृता प्रीतम- रसीदी टिकट, अक्षरों के साये(दोनों)
ओमप्रकाश वाल्मीकि-जूठन
प्र . ई . सोनकांबळे-यादो के पंछी(मराठी)
दया पवार-अछूत
केशव मेश्राम-हकीकत

मवलन कलकत्ते-अनोखी भेंट(मराठी)

आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास


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राजीव रंजन प्रसाद

नवजागरण काल ने हिंदी साहित्य को नए सिरे से रचा-बुना। लिखित साहित्य के स्वरूप एवं संरचना में बदलाव लाए। इस काल में गद्य और पद्य दो भिन्न किन्तु विशिष्ट धाराओं का प्रादुर्भाव हुआ। भारतीय साहित्य के इतिहास को यह काल भाषा, समाज, संस्कृति, राजनीति आदि की दृष्टि से काफी हद तक प्रभावित करता दिखाई देता है। साहित्य लेखन के स्वरूप, शिल्प एवं शैली में अन्तर्वस्तु के अतिरिक्त तथ्यनिरूपण के स्तर पर भी ढेरों बदलाव आए, जिस ओर साहित्य के मँजे हुए इतिहासकारों(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामकुमार वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. बच्चन सिंह) ने अपनी आलोचकीय दृष्टि रखी। द्विवेदीकालीन युग जो कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के बीच(1900-1920 ई.) अवस्थित है; पर स्वतन्त्रता आन्दोलन, विचार एवं परिवर्तनकामी राजनीति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ा। हम देख पाते हैं कि नवजागरणकालीन भावना एवं विचार का उद्वेग बाद के समय में अभिव्यक्ति अथवा कहन के स्तर पर काफी समुन्नत हुआ। भाषिक परिष्कार एवं लेखन सम्बन्धी अनुशासन ने हिन्दी साहित्य को धो-पोछ-माँजकर सर्जनात्मकता की कांति एवं आभा से लैस किया। नवजागरण काल में गद्य और पद्य दो महत्त्वपूर्ण विधाओं का विधान किया गया जिस मार्ग को आगे प्रशस्त करने में द्विवेदी काल का योगदान अप्रतिम है।

इस तरह साहित्य-साधना में तल्लीन मनस्वी साहित्यानुरागियों ने हिंदी भाषा विशेषतया खड़ी बोली की श्रीवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान दिया। यह वह बुरा वक्त था जब देशभूमि परतंत्र और वैयक्तिक-सामाजिक चेतना गुलाम थी। ब्रिटिश आकांक्षा भारतीय जन्मभूमि को लूटने-खसोटने में जुटी हुई थी। इंग्लैंड आधारित औद्योगीकरण भारत में अनौद्योगिकीकरण को बढ़ावा दे रही थी। चारो ओर हताशा और निराशा का माहौल था। धनिक यानी आभिजात्य लोग सनातन-शास्त्रीय सारे विधि-विधान, नीति-नैतिकता, कुल-मर्यादा छोड़कर अंग्रेजी सुख-वासना में रत हो चले थे। ‘भारत-दुर्दशा’ का जन्म इसी समय होता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की अगुवाई में भारतेन्दु मंडली नए तरह से चेतना-निर्माण, जन-जागरूकता, भाषा-विचार के उद्बोधन तथा उद्विकास में शामिल सहभागी होती है। दरअसल, छापेखाने के विकास ने नए नज़रिए को सूत्रबद्ध किया। ‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहिं’ की शब्दावली का सूत्रपात करने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसीलिए नवजागरण काल के प्रवर्तक कहे गए। उन्होंने हिंदी भाषा को खड़ी बोली में भास्वरित कर नागरी का जो अवलम्ब दिया; पीछे कई मनीषी साहित्यकारों ने उस पथ को अपनी काव्य एवं सर्जना प्रतिभा से गूँजार कर दिया। 

यही वह प्रगतिकामी समय था जब आवागमन के साधनों का विकास हो रहा था। तार-डाक-रेल के अधुनातन प्रयोग भारतीय धरा में नवागत परिवर्तन ला रहे थे। अंग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढ़ने से आमजन-जीवन में यथेष्ट बदलाव आने लगे थे। विचार की सजगता और दृष्टि की व्यापकता ने ईश्वर की दुहाई देकर ‘उदासीन-निष्प्राण-विमूढ़’ बने रहने वालों के ऊपर चोटिला प्रहार करना शुरू कर दिया। मानव परम्परा को पूज्य मानने के समान सामाजिक यथार्थ को भी समझने हेतु प्रवृत्त हुआ। इस प्रकार भावना के साथ साथ विचारों के सहमेल को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ साथ गद्य का भी समुचित विकास हुआ और छापेखाने के आते ही साहित्य के संसार में एक नयी क्रांति की सूत्रपात हो गई। आधुनिक हिन्दी गद्य का विकास हिन्दी और हिन्दीतरभाषी जनों में स्फूर्त ढंग से हुआ। समय के साथ हिन्दी के दायरे में इज़ाफा हुआ और उसे पूरे देश में लोकप्रिय राष्ट्रभाषा के रूप में फैलने का सुअवसर मिला। हिन्दीतरभाषी अनेक अन्य लेखकों ने हिन्दी में साहित्य रचना करके इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। अनुवाद-प्रवीण कई मसीजीवी लेखकों ने प्रभूत मात्रा में अनूदित सामग्री उपलब्ध कराई जिससे भारतीय विचार एवं विचारधारा में नई-नई धाराओं एवं वादों का सहज अवतरण हुआ। 

आधुनिक काल की कविता के विकास को निम्नलिखित धाराओं में बांट सकते हैं। 
  • नवजागरण काल (भारतेंदु युग) ः 1850 ई.-1900 ई. तक
  • सुधार काल (द्विवेदी युग) ः 1900 ई.-1920 ई. तक
  • छायावाद                 ः 1920 ई.-1936 ई. तक
  • प्रगतिवाद/प्रयोगवाद         ः 1936 ई.-1953 ई. तक
  • नई कविता व समकालीन कविता ः 1953 ई. से आजतक


द्विवेदी युग में कविताएँ सामान्य मानवता को सम्बोधित थीं तथा नीतीपरक रचनाओं की प्रधानता मिलती है। 

इस काल की कविताओं में इतिवृत्तात्मकता अधिक हैं। रचनाएँ भाषिक संस्कार की दृष्टि से बेहद अनुशासित और पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के शब्दानुशासन से बँधी हुई थीं।

श्रीधर पाठक : प्रथम स्वच्छन्दतावादी कवि। ‘एकांतवासी योगी’ और ‘श्रांत पथिक’ उनकी खड़ी बोली की रचनाएँ हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल उनके बारे में कहते हैं-‘‘श्रीधर पाठक की सीधी सादी खड़ी बोली और जनता के बीच प्रचलित लय ही ध्यान देने योग्य नहीं है, अपितु उनकी कथा की सार्वभौम मार्मिकता भी ध्यान देने योग्य है। भारतीय हृदय का सामान्य स्वरूप पहचानने के लिए पुराने प्रचलित ग्रामगीतों की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, केवल पंडितों द्वारा प्रवर्तित काव्यपरम्परा का अनुशीलन ही अलम् नहीं है। ध्यान देना होगा कि पंडितों की साहित्यभाषा के साथ-साथ लोकभाषा की स्वाभाविक धारा भी बराबर चलती रहती है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल बताते हैं कि श्रीधर पाठक प्रतिभाशाली, भावुक और सुरुचि सम्पन्न कवि थे। भद्दापन इनमें न था-न रूपरंग में, न भाषा में, न भाव में, न चाल में, न भाषण में। इन्हें छंद, पदविन्यास, वाक्यविन्यास आदि के सम्बन्ध में नई-नई बंदिशें खूब सूझा करती थीं। यथा :
छिन छिन पर जोर मरोर दिखावत, पलपल पीर आकृतिकोर झुकावत
यह मोर नचावत, सोर मचावत, स्वेत स्वेत बागपाँति उड़ावत।।
नंदन प्रसून-मकरंद-बिन्दु-मिश्रित समीर बिनु धीर चलावत।

अपने समय के कवियों में प्रकृति का वर्णन पाठक जी ने सबसे अधिक किया, इससे हिंदियों में वे प्रकृति के उपासक कहे जा सकते हैं।
चार डग हमने भरे तो क्या किया।
है पड़ा मैदान कोसों का अभी।।
मौलवी ऐसा न होगा एक भी।
खूब उर्दू जो न होवे जानता।।
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क्यों पले पीस कर किसी को तू ?
है बहुत पालिसी बुरी तेरी
हम रहे चाहते पटाना ही;
पेट तुझसे पटी नहीं मेरी।।
 - अयोध्यासिंह जी उपाध्याय ‘हरिऔध’

हरिऔध जी ने अपनी रचना ‘प्रिय प्रवास’ में दिखाया है कि किसी के वियोग में कैसी-कैसी बातें मन में उठती हैं और क्या-क्या कह कर लोग रोते हैं, इसका जहाँ तक संभव विस्तार हो सकता था हरिऔध जी ने किया है। 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचकीय दृष्टि ठीक ही लक्ष्य करती है कि जब पंडितों की काव्यभाषा स्थिर होकर उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हुई लोकभाषा की स्वाभाविक धारा से दूर पड़ जाती है और जनता के हृदय पर प्रभाव डालने की उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपनी काव्यपरम्परा में नया जीवन डालता है। अर्थात् जब पंडितों कह काव्यधारा इस स्वाभाविक भावधारा से विच्छिन्न पड़ कर रूढ़ हो जाती है तब वह कृत्रिम होने लगती है और उसकी शक्ति भी क्षीण होने लगती है। ऐसी परिस्थिति में इसी भावधारा की ओर दृष्टि ले जाने की जरूरत होती है। 

पीछे के कवियों की व्यक्तिगत, विद्यागत और बुद्धिगत प्रवृत्तियों और विशेषताओं(रहस्यात्मकता, दार्शनिकता, स्वातंत्र्य भावना, कलाकार आदि) के अधिक प्रदर्शन से वह कुछ ढँक-सा गया। स्कॉटलैण्ड के किसानी झोपड़े में रहनेवाले कवि राबर्ट बर्न्स ने स्वच्छन्द तरीके से जनता के मानस में संचरण करने की शक्ति प्राप्त की। उसने अपने देश के परम्परागत प्रचलित गीतों की मार्मिकता परखकर देशभाषा की रचनाएँ कीं, जिन्होंने वहाँ के सारे जनसमाज के हृदय में अपना घर किया। वाल्टर स्कॉट ने देश की अंतर्व्योपिनी भावधारा से शक्ति लेकर साहित्य को अनुप्राणित किया था।

यह मुक्ति यूरोप के लिए अनिवार्य थी। बँधी हुई अलंकृत पदावली, वस्तुवर्णन की रूढ़ियाँ, छंदों की व्यवस्था सब ज्यों की त्यों रखी जाने लगी थीं। इस प्रकार अंग्रेजी काव्य, विदेशी काव्य और साहित्य की रूढ़ियों से इतना आच्छन्न हो गया कि वह देश की परम्परागत स्वाभाविक धारा से विच्छिन्न-सा हो गया।

भारतीय सन्दर्भ में देखें, तो संस्कृत काव्य और उसी के अनुकरण पर रचित प्राकृत अपभ्रंश काव्य भी हमारा अपना ही पुराना काव्य हैं, पर पंडितों और विद्वानों द्वारा रूप ग्रहण करते रहने और कुछ बँध जाने के कारण जनसाधारण की भावमयी वाग्धारा से कुछ हटा-सा लगता है। पर ये समान जातीय चेतना पर अवलम्बित होने के कारण भिन्न मालूम नहीं देते हैं।

स्वच्छंदता(रोमांटिसिज़्म) का आभास पहलेपहल पं. श्रीधर पाठक ने ही दिया। उन्होंने प्रकृति के रूढ़िबद्ध रूपों तक ही न रह कर अपनी आँखों से भी उसके रूपों को देखा। ‘गुनवंत हेमंत’ में वे गाँव में उपजने वाली मूली, मटर ऐसी वस्तुओं को भी प्रेम से सामने लाए जो परम्परागत ऋतुवर्णनों के भीतर नहीं दिखाई पड़ती थी। उन्होंने खड़ी बोली पद्य के लिए सुंदर लय और चढ़ाव-उतार के नए ढाँचे भी निकाले और इस बात का ध्यान रखा कि छंदों का सुंदर लय से पढ़ना एक बात है, रागरागिनी गाना दूसरी बात। 

ख्याल या लावनी की लय पर जैसे ‘एकांतवासी योगी’ लिखा गया वैसे ही सुथरे साइयों के सधुक्कड़ी ढंग पर ‘जगत सचाई सार’ लिखा गया। इसमें कहा गया है-‘जगत है सच्चा, तनिक न कच्चा, समझो बच्चा! इसका भेद’।

द्विवेदी जी ‘सरस्वती’ पत्रिका द्वारा बराबर कविता में बोलचाल की सीधी सादी भाषा का आग्रह करते रहे जिससे इतिवृत्तात्मकता(मैटर ऑव फैक्ट) पद्यों का खड़ी बोली में ढेर लगा। 

रामनरेश त्रिपाठी ने ‘पथिक मिलन’ एवं ‘स्वप्न’ नाम से रचनाएँ कीं।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की रचना ‘प्रिय प्रवास’ को खड़ी बोली का पहला महाकाव्य कहा गया।

बाबू मैथिलीशरण गुप्त ने 1912 ई. में ‘भारत-भारती’ की रचना की। उनकी अन्य रचनाओं में ‘साकेत’, ‘जयद्रथ वध’, ‘पंचवटी’, ‘जयभारत’ आदि प्रमुख हैं।

मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं में राष्ट्रप्रेम का भाव अधिक है; राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर अभिव्यक्ति अत्यंत मुखर है।

अन्य कवि :

पं. रामचरित उपाध्याय
बालकृष्ण नवीन
सियाराम शरण गुप्त
सुभद्राकुमारी चौहान
नाथुरामशंकर शर्मा
गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
पं. गिरिधर शर्मा ‘नवरत्न’
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय
पं. सत्यनारायण ‘कविरत्न’
लाला भगवानदीन
पं. रामनरेश त्रिपाठी
पं. रूपनारायण पाण्डेय
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जानने की जिज्ञासा और प्रेरणा-1

- ‘‘प्रान्तीय ईर्ष्या-द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी,उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए,उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है।’’  -सुभाषचन्द्र बोस

- हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है। -सुभाष चन्द्र बोस

-‘‘मैं उन लोगों में से हूं,जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।’’
 -बाल गंगाधर तिलक

- है भव्य भारत, हमारी मातृभूमि हरी भरी,हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी। -मैथिलीशरण गुप्त

- हिन्दी भारतवर्ष के हृदय-देश स्थित करोड़ों नर-नारियों के हृदय और मस्तिष्क को खुराक देने वाली भाषा है। यही नहीं हिन्दी को संस्कृत से विच्छिन्न करके देखने वाले उसकी अधिकांश महिमा से अपरिचित हैं।  
-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

- हिन्दी को गंगा नहीं बल्कि समुद्र बनना होगा। -विनोबा भावे

- हिन्दी एक जानदार भाषा है। वह जितनी बढ़ेगी देश का उतना ही नाम होगा। -पंडित जवाहरलाल नेहरू

- विश्व हिन्दी दिवस प्रतिवर्ष 10 जनवरी को मनाया जाता है। प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था इसीलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस के रूप मनाए जाने की घोषणा की थी। अभी विश्व के 130 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है और विश्व भर में करोड़ों लोग हिंदी बोलते हैं। चीनी भाषा के बाद यह दूसरी विश्वभाषा है जो दुनिया भर के लोग बोलते हैं।

- राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा 1917 में भरुच (गुजरात) में सर्वप्रथम राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता प्रदान की गई थी। तत्पश्चात 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने का निर्णय लिया तथा 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के द्वारा हिन्दी को देवनागरी लिपि में राजभाषा का दर्जा दिया गया। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से 14 सितंबर को हिन्दी-दिवसके रूप में मनाया जाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 से लेकर अनुच्छेद 351 तक राजभाषा संबंधी सांविधानिक प्रावधान किए गए। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग का गठन किया गया। महामहिम राष्ट्रपति के आदेश द्वारा 1960 में आयोग की स्थापना के बाद 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित हुआ, तत्पश्चात 1968 में राजभाषा संबंधी प्रस्ताव पारित किया गया। राजभाषा अधिनियम की धारा 4 के तहत राजभाषा संसदीय समिति 1976 में गठित की गई। राजभाषा नियम 1976 में लागू किए गए तथा राजभाषा संसदीय समिति की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा नीतिबनाई जाकर लागू की गई। राजभाषा अधिनियम 1963 द्वारा राजभाषा के शासकीय कार्यों, नियमन हेतु प्रावधान किए गए। तीन भाषायी क्षेत्र बनाए गए जिसके तहत क्षेत्र में- उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, हरियाणा, हिमाचल, उत्तरांचल, झारखंड, राजस्थान, दिल्ली एवं अंडमान द्वीप समूह। क्षेत्र में- गुजरात, महाराष्ट्र तथा क्षेत्र में-उपर्युक्त के अतिरिक्त सभी राज्य एवं संघ क्षेत्र रखे गए। यह सुनिश्चित किया गया कि राजभाषा में प्राप्त पत्रों के जवाब शत-प्रतिशत राजभाषा में दिए जाएं। अन्य भाषा में प्राप्त पत्रों के जवाब क्षेत्र में हिन्दी तथा अंग्रेजी में, ‘में 60 प्रतिशत हिन्दी-अंग्रेजी व शेष अंग्रेजी में तथा में 40 प्रतिशत हिन्दी-अंग्रेजी तथा शेष अंग्रेजी में दिए जा सकते हैं। यह आँकड़ा धीरे-धीरे हिन्दी-अंग्रेजी की ओर बढ़ाया जाए तथा भाषी क्षेत्रों में पूर्णतः राजभाषा हिन्दी का प्रयोग सुनिश्चित किया जाए। प्रत्येक कार्यालय में राजभाषा संबंधी एक त्रैमासिक बैठक का प्रावधान पिछली तिमाही में किए गए कार्यों, पत्राचार, तिमाही में आयोजित कार्यशाला एवं राजभाषा के प्रशिक्षण संबंधी उपलब्धता एवं परिमार्जन हेतु सुझाव आमंत्रित किए जाने हेतु किया गया। राजकीय विभागों में राजभाषा के प्रयोग हेतु सर्वाधिक प्रभावी प्रक्रिया पत्राचार है, क्योंकि उसी के आधार पर मिसिल अथवा फाइलों में टीप लिखी जाती है। अतः जब भी त्रैमासिक बैठकों में विचार-विमर्श होता है, तब सबसे ज्यादा सूक्ष्म विश्लेषण त्रैमासिक पत्राचार पर होता है, आंकड़ों की निगरानी भी होती है, कठिनाइयां सामने आती हैं और सुधार हेतु उपाय भी खोजे जाते हैं ताकि राजभाषा का अधिकाधिक प्रयोग पत्राचार में बढ़ाया जा सके।

- हिंदी की चार प्रमुख रूप या शैलियाँ हैं : उच्च हिंदी, दक्खिनी, रेख़्ता और हिंदी।

- यह हमारी विडंबना रही है कि देश में राजभाषा के रूप में हिन्दी को संविधान लागू होने के पूर्व कभी भी आधिकारिक मान्यता नहीं मिली थी। मुगलों के समय राजभाषा के रूप में अरबी-फारसी का बोलबाला था, तो अंग्रेजों ने अंग्रेजी और उर्दू को राजकाज चलाने में इस्तेमाल किया। दरअसल, हिन्दुस्तान में खड़ी बोली और हिन्दी जनभाषा के रूप में मान्य रही और पुष्ट होती चली गई। 

- संस्कृत संगणक (कम्प्यूटर) पर सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा के रूप में मान्य की गई है, मगर संस्कृत का प्रचार-प्रसार अत्यल्प होने के कारण उसकी निकटतम भाषा के रूप में तथा व्यापकता की दृष्टि से हमारी राजभाषा हिन्दी को फायदा मिलना सुनिश्चित है। साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज भौतिकतावादी हुआ है, उसकी सोच अर्थवादी हो गई है, विश्व बाजारवाद पर चल पड़ा है, तब हमारा देश वैश्विक संस्कृति से अलग नहीं रह पा रहा है। हमने राजभाषा को पूर्णता होते हुए भी बाजारीय अर्थवादी सोच नहीं दी। यही कारण है कि हमारा लेखक याचक है और प्रकाशक दाता। हिन्दी की किताब छापना और बेचना घाटे का सौदा है, जबकि अंग्रेजी में किताब छापना मुनाफे का धंधा है। अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद हिन्दी की किताबों से ज्यादा प्रसद्धि और पैसा बटोर रहा है। मौजूदा समय में विश्व स्तर पर अंग्रेजी के सबसे अच्छे लेखक मूलतरू भारतीय हैं। गीता जैसी सूक्ष्म प्रबंधकीय किताब होने के बावजूद हम राष्ट्रभाषा के प्रबंधन में कहीं न कहीं चूक गए हैं और यही चूक राजकीय स्तर पर भी हुई। हमारे नीति-निर्माताओं ने व्यापक सोच के स्थान पर भाषायी संकीर्णता और क्षेत्रीयता को तरजीह दी, फलतः 22 भाषाओं को राज्यों की राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गई। हम एक भाषा को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके और यही कारण है कि हमें आज राजकीय त्रैमासिक पत्रों के विश्लेषण के माध्यम से अधिकारी-कर्मचारियों के राजभाषा हिन्दी के विकास में योगदान पर चर्चा करनी पड़ती है।
- यह हिन्दी की जीत है कि जिन क्षेत्रों से हिन्दी का विरोध हुआ उन्हीं क्षेत्रों के नाम पर श्चेन्नई एक्सप्रेसश् जैसी हिन्दी फिल्में 3 दिन में 100 करोड़ और 300 करोड़ का आंकड़ा पार कर वैश्विक फिल्म का दर्जा पा रही है। शासकीय कर्मचारी-अधिकारी देश के एक भाग से दूसरे भाग में आ-जा रहे हैं। स्थानांतरण के कारण तो वे राजभाषा के ध्वजवाहक बने हुए हैं। वैश्वीकरण का लाभ निश्चित रूप से हिन्दी को देश में पुष्टता प्राप्त करने में हुआ है। 

- इंटरनेट ने देशों की दूरियां कम की हैं तब अधिकारियों-कर्मचारियों को भाषा की महत्ता समझ में आ रही है। वे यह जान गए हैं कि वैश्चिक स्तर की तरक्की के लिए अंग्रेजी जरूरी नहीं है। हमारे देश में विदेशी प्रतिनिधिमंडल आते हैं तो सरकारी दुभाषिए से काम चलाते हैं, क्योंकि इंग्लैंड-अमेरिका के लोगों को छोड़ दें तो ज्यादातर लोग अंग्रेजी नहीं जानते।

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भारतीय विद्याविद्(इंडोलॉजिस्ट)

 आप जितना जानते हैं वह बहुत कुछ हो सकता है, सबकुछ नहीं। इसलिए और जानने का प्रयास करें। आजीवन सीखते रहने की आदत डालें। अपने को हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें। खुद पर और अपने अध्यापक पर पूरा भरोसा करें। : राजीव रंजन प्रसाद
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फादर कामिल बुल्के-(बेल्जियम) : 
फादर कामिल बुल्के एक ऐसे विद्वान थे जो भारतीय संस्कृति और हिन्दी से जीवन भर प्यार करते रहे। फादर कामिल बुल्के हिन्दी के एक ऐसे समर्पित सेवक रहे, जिसकी मिसाल दी जाती है। 1909 में बेल्जियम में जन्में फादर कामिल बुल्के ने अपने युवा दिनों में संन्यासी बनने का फैसला करके भारत की तरफ रुख किया और झारखंड के रांची में आकर एक स्कूल में पढ़ाने लगे। खुद इंजिनियरिंग के स्टूडेंट रहे कामिल बुल्के को भारत में बोली से ऐसा लगाव हुआ कि उन्होंने न सिर्फ हिन्दी ,बल्कि ब्रज,अवधी और संस्कृत भी सीखी। इन भाषाओं को भारतीय विश्वविद्यालयों में सीखने और उनमें मानक डिग्रियां हासिल करने के दरम्यान उन्हें राम नाम की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने राम कथा की उत्पत्ति पर सबसे प्रामाणिक शोध किया। बुल्के का यह हिन्दी प्रेम ही था कि शोध के दौरान उन्होंने अपनी पीएचडी थीसिस हिन्दी में ही लिखी। जिस समय वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे उस समय देश में सभी विषयों की थीसिस अंग्रेजी में ही लिखी जाती थी। उन्होंने जब हिन्दी में थीसिस लिखने की अनुमति मांगी तो विश्वविद्यालय ने अपने शोध संबंधी नियमों में बदलाव लाकर उनकी बात मान ली। उसके बाद देश के अन्य हिस्सों में भी हिन्दी में थीसिस लिखी जाने लगी। बाद में वह सेंट जेवियर कॉलेज,रांची में हिन्दी और संस्कृत के विभागाध्यक्ष भी रहे। कामिल बुल्के का एक और महत्वपूर्ण काम हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश की तैयारी थी,जिसे उन्होंने उम्र भर बहुत जतन से बढ़ाया। बाद के दिनों में वह चर्च में पुजारी बने और उनके नाम के आगे फादर लगा। भारत में उन्होंने बाइबल का हिन्दी अनुवाद भी पेश किया। उन्होंने लिखा भी है, श्ईश्वर का धन्यवाद, जिसने मुझे भारत भेजा और भारत के प्रति धन्यवाद,जिसने मुझे इतने प्रेम से अपनाया। 7 अगस्त 1982 को फादर बुल्के का निधन हो गया। हिन्दी सेवा के लिए उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर नित्यानंद तिवारी उनके बारे में सम्मानपूर्वक कहते हैं-‘‘मैंने उनमें हिंदी के प्रति हिंदी वालों से कहीं ज्यादा गहरा प्रेम देखा. ऐसा प्रेम जो भारतीय जड़ों से जुड़ कर ही संभव है. उन्होंने रामकथा और रामचरित मानस को बौद्धिक जीवन दिया।’’ एक स्थान पर वह स्वयं कहते हैं,-‘‘ मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में रॉंची पहुँचा और मुझे यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है। मेरे देश की भाँति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है. इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया।’’

डॉ.जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन-(आयरलैंड) :
जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन का भारतीय विद्याविशारदों में,खासकर भाषाविज्ञान के क्षेत्र में,उनका स्थान अमर है। ग्रियर्सन को भारतीय संस्कृति और यहां के निवासियों के प्रति अगाध प्रेम था। भारतीय भाषाविज्ञान के वे महान् उन्नायक थे। वह 1873 में इंडियन सिविल सर्विस के अफसर के तौर पर भारत आए था। वह उन कम गोरे ऑफिसरों में थे,जिन्होंने अंग्रेजों के शासनकाल में राज करने से ज्यादा अपनी प्रजा के हित में मेहनत और निष्ठा से काम करने पर जोर दिया। उन्हें इस बात का श्रेय है कि उन्होंने कई भाषाओं वाले इस मुल्क में भाषाओं का एक परिवार श्लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाश् जैसी ऐतिहासिक कृति के जरिए बनाया। कुल 21 जिल्दों में छपा यह सर्वे स्थाई महत्व का है। 7 जनवरी, 1851 को आयरलैंड के डब्लिन में जन्मे ग्रियर्सन का बचपन से ही भाषाओं के प्रति लगाव था। आम दफ्तरी के उलट ग्रियर्सन दफ्तर के बाद अपना बचा हुआ वक्त संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और बांग्ला भाषाओं और साहित्य के अध्ययन में लगाते थे। जहां भी उनकी नियुक्ति होती थी,वहां की भाषा, बोली, साहित्य और लोक जीवन की ओर वह खिंचते चले जाते थे। जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को ‘आम बोलचाल की महाभाषा’ कहा था। परदेसी होने के बावजूद उन्होंने श्खड़ी बोली हिन्दी श्को न सिर्फ सीखा,बल्कि उस सीख को उन्होंने हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकें तैयार कर हिन्दी को ही लौटा भी दिया। उनके काम का दायरा इस तरह अकादमिक जरूर था,लेकिन एक नई भाषा में यह पहली और असरदार कोशिश थी, जिसने आगे की राह खोली। 1941 में उनकी मृत्यु हो गई। सरकार ने उनकी सेवाओं की याद में श्डॉ.जॉर्ज ग्रियर्सन पुरस्कारश्की स्थापना की है,जो केंदीय हिन्दी संस्थान द्वारा किसी गैर भारतीय कोहिन्दी के क्षेत्र में विशिष्ट सेवा के लिए दिया जाता है। 

रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर -(न्यूजीलैंड) :
रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर सच्चे हिन्दी प्रेमी थे। उन्होंने पश्चिमी दुनिया में हिन्दी की अलख जगाई। 1964 से लेकर 1997 तक कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में वह हिन्दी पढ़ाते रहे। वह चोटी के भाषा विज्ञानी, व्याकरण के विद्वान, अनुवादक और हिन्दी साहित्य के इतिहासकार थे।  मेक्ग्रेगॉर ने हिन्दी की शिक्षा 1959-60 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ली। उसके बाद उन्होंने 1972 में हिन्दी व्याकरण पर ‘एन आउटलाइन ऑफ हिन्दी ग्रामर’ नाम की अहम किताब लिखी। इस विनम्र हिन्दी सेवी का हाल ही में 84 साल की उम्र निधन हो गया।

पीटर वरान्निकोव- (रूस)
पीटर वरान्निकोव के बारे में मशहूर है कि भले ही वह रूसी हों,पर कभी किसी जन्म में जरूर हिंदुस्तानी रहे होंगे। भारत उनके दिल में बसता है। उन्हें तुलसीदास की अमर रचना ‘रामचरितमानस’ ने इतना प्रभावित किया कि उन्होंने इसका रूसी में अनुवाद किया। यह अनुवाद बेहद चर्चित हुआ। वह 70 के दशक में दिल्ली स्थित सोवियत सूचना केंद से जुड़े थे और हिन्दी लेखकों और दिल्ली के कॉफी हाउस में होने वाली उनकी बैठकों में पाबंदी से आते थे। सोवियत संघ के विघटन तक उन्होंने यहीं रहकर काम किया। रूस लौटने के बाद उन्होंने वहां हिन्दी सिनेमा पर केंदित एक पत्रिका भी निकाली। पीटर बढ़ती उम्र की वजह से अब सक्रिय तो नहीं हैं,लेकिन रूस में हिन्दी जानने वालों के बीच एक प्रेरक शख्सियत जरूर हैं।

प्रोफेसर च्यांग चिंगख्वेइ (चीन) :
प्रफेसर च्यांग चिंगख्वेइ ने चीन में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। वह लगभग 25 बरसों से पेइचिंग यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग से जुड़े हैं। वह आजकल पेइचिंग यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इंडियन स्टडीज के अध्यक्ष हैं। हिन्दी के महाकवि जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आंसू’ के मर्मज्ञ प्रोफेसर च्यांग हिन्दी में कहानियां भी लिखते हैं। वह कहते हैं, ‘‘चीन में भारत और हिन्दी को लेकर हमेशा से जिज्ञासा का भाव रहा है।’’ उनका मानना है कि भारत-चीन के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों के चलते चीन में हिन्दी का सही तरीके से प्रसार नहीं हो पाया। उन्हें 2007 में न्यूयॉर्क में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी सेवा के लिए सम्मानित किया गया। 

अकियो हागा (जापान)
यह जापान में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए काम करते हैं। जापानी और हिन्दी भाषा के विद्वान एवं कवि अकियो हागा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा में प्रोफेसर के पद पर हाल ही में नियुक्त हुए हैं। वे विश्वविद्यालय में जापानी भाषा के विद्यार्थियों को पढाएंगे। भारत से उनका शुरुआती जुड़ाव भगवान बुद्ध की वजह से हुआ। उन्होंने टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज से हिन्दी में एम.ए.करने के बाद वहीं हिन्दी पढ़ाना शुरू किया। टोक्यो यूनिवर्सिटी में हिन्दी 1909 से पढ़ाई जा रही है। भारत से बाहर सबसे पहले हिन्दी की कक्षाएं यहीं शुरू हुई।

इमरै बंघा (हंगरी) 
कहां हंगरी, कहां हिन्दी। लेकिन जब लगन लगती है, तो लोग दूर-दराज से खिंचे चले आते हैं। बुडापेस्ट यूनिवर्सिटी में इंडोलॉजी की पढ़ाई करते वक्त इमरै बंघा को भारतीय कवि आनंदघन की कविता से ऐसा जुड़ाव बना कि उन्होंने न सिर्फ हिन्दी की विधिवत पढ़ाई की, बल्कि इस कवि पर भारत स्थित शांतिनिकेतन यूनिवर्सिटी से हिन्दी में पीएचडी भी की। उनकी लिखी किताब श्सनेह को मारगश् ने हिन्दी प्रेमियों को अपने ही एक पुरखे कवि को एक नई रोशनी में देखने की सहूलियत दी। बंघा के इस काम की प्रामाणिकता इसी बात से जाहिर है कि उन्होंने आनंदघन की जीवनी लिखने के साथ-साथ उनके गुम हुए ऐसे कई पदों को भी ढूंढ निकाला,जिसे पाने की जहमत किसी भारतीय हिन्दी सेवक ने कभी नहीं उठाई। फिलहाल बंघा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ा रहे हैं। 
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