Monday 6 June 2016

आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास


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राजीव रंजन प्रसाद

नवजागरण काल ने हिंदी साहित्य को नए सिरे से रचा-बुना। लिखित साहित्य के स्वरूप एवं संरचना में बदलाव लाए। इस काल में गद्य और पद्य दो भिन्न किन्तु विशिष्ट धाराओं का प्रादुर्भाव हुआ। भारतीय साहित्य के इतिहास को यह काल भाषा, समाज, संस्कृति, राजनीति आदि की दृष्टि से काफी हद तक प्रभावित करता दिखाई देता है। साहित्य लेखन के स्वरूप, शिल्प एवं शैली में अन्तर्वस्तु के अतिरिक्त तथ्यनिरूपण के स्तर पर भी ढेरों बदलाव आए, जिस ओर साहित्य के मँजे हुए इतिहासकारों(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामकुमार वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. बच्चन सिंह) ने अपनी आलोचकीय दृष्टि रखी। द्विवेदीकालीन युग जो कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के बीच(1900-1920 ई.) अवस्थित है; पर स्वतन्त्रता आन्दोलन, विचार एवं परिवर्तनकामी राजनीति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ा। हम देख पाते हैं कि नवजागरणकालीन भावना एवं विचार का उद्वेग बाद के समय में अभिव्यक्ति अथवा कहन के स्तर पर काफी समुन्नत हुआ। भाषिक परिष्कार एवं लेखन सम्बन्धी अनुशासन ने हिन्दी साहित्य को धो-पोछ-माँजकर सर्जनात्मकता की कांति एवं आभा से लैस किया। नवजागरण काल में गद्य और पद्य दो महत्त्वपूर्ण विधाओं का विधान किया गया जिस मार्ग को आगे प्रशस्त करने में द्विवेदी काल का योगदान अप्रतिम है।

इस तरह साहित्य-साधना में तल्लीन मनस्वी साहित्यानुरागियों ने हिंदी भाषा विशेषतया खड़ी बोली की श्रीवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान दिया। यह वह बुरा वक्त था जब देशभूमि परतंत्र और वैयक्तिक-सामाजिक चेतना गुलाम थी। ब्रिटिश आकांक्षा भारतीय जन्मभूमि को लूटने-खसोटने में जुटी हुई थी। इंग्लैंड आधारित औद्योगीकरण भारत में अनौद्योगिकीकरण को बढ़ावा दे रही थी। चारो ओर हताशा और निराशा का माहौल था। धनिक यानी आभिजात्य लोग सनातन-शास्त्रीय सारे विधि-विधान, नीति-नैतिकता, कुल-मर्यादा छोड़कर अंग्रेजी सुख-वासना में रत हो चले थे। ‘भारत-दुर्दशा’ का जन्म इसी समय होता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की अगुवाई में भारतेन्दु मंडली नए तरह से चेतना-निर्माण, जन-जागरूकता, भाषा-विचार के उद्बोधन तथा उद्विकास में शामिल सहभागी होती है। दरअसल, छापेखाने के विकास ने नए नज़रिए को सूत्रबद्ध किया। ‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहिं’ की शब्दावली का सूत्रपात करने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसीलिए नवजागरण काल के प्रवर्तक कहे गए। उन्होंने हिंदी भाषा को खड़ी बोली में भास्वरित कर नागरी का जो अवलम्ब दिया; पीछे कई मनीषी साहित्यकारों ने उस पथ को अपनी काव्य एवं सर्जना प्रतिभा से गूँजार कर दिया। 

यही वह प्रगतिकामी समय था जब आवागमन के साधनों का विकास हो रहा था। तार-डाक-रेल के अधुनातन प्रयोग भारतीय धरा में नवागत परिवर्तन ला रहे थे। अंग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढ़ने से आमजन-जीवन में यथेष्ट बदलाव आने लगे थे। विचार की सजगता और दृष्टि की व्यापकता ने ईश्वर की दुहाई देकर ‘उदासीन-निष्प्राण-विमूढ़’ बने रहने वालों के ऊपर चोटिला प्रहार करना शुरू कर दिया। मानव परम्परा को पूज्य मानने के समान सामाजिक यथार्थ को भी समझने हेतु प्रवृत्त हुआ। इस प्रकार भावना के साथ साथ विचारों के सहमेल को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ साथ गद्य का भी समुचित विकास हुआ और छापेखाने के आते ही साहित्य के संसार में एक नयी क्रांति की सूत्रपात हो गई। आधुनिक हिन्दी गद्य का विकास हिन्दी और हिन्दीतरभाषी जनों में स्फूर्त ढंग से हुआ। समय के साथ हिन्दी के दायरे में इज़ाफा हुआ और उसे पूरे देश में लोकप्रिय राष्ट्रभाषा के रूप में फैलने का सुअवसर मिला। हिन्दीतरभाषी अनेक अन्य लेखकों ने हिन्दी में साहित्य रचना करके इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। अनुवाद-प्रवीण कई मसीजीवी लेखकों ने प्रभूत मात्रा में अनूदित सामग्री उपलब्ध कराई जिससे भारतीय विचार एवं विचारधारा में नई-नई धाराओं एवं वादों का सहज अवतरण हुआ। 

आधुनिक काल की कविता के विकास को निम्नलिखित धाराओं में बांट सकते हैं। 
  • नवजागरण काल (भारतेंदु युग) ः 1850 ई.-1900 ई. तक
  • सुधार काल (द्विवेदी युग) ः 1900 ई.-1920 ई. तक
  • छायावाद                 ः 1920 ई.-1936 ई. तक
  • प्रगतिवाद/प्रयोगवाद         ः 1936 ई.-1953 ई. तक
  • नई कविता व समकालीन कविता ः 1953 ई. से आजतक


द्विवेदी युग में कविताएँ सामान्य मानवता को सम्बोधित थीं तथा नीतीपरक रचनाओं की प्रधानता मिलती है। 

इस काल की कविताओं में इतिवृत्तात्मकता अधिक हैं। रचनाएँ भाषिक संस्कार की दृष्टि से बेहद अनुशासित और पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के शब्दानुशासन से बँधी हुई थीं।

श्रीधर पाठक : प्रथम स्वच्छन्दतावादी कवि। ‘एकांतवासी योगी’ और ‘श्रांत पथिक’ उनकी खड़ी बोली की रचनाएँ हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल उनके बारे में कहते हैं-‘‘श्रीधर पाठक की सीधी सादी खड़ी बोली और जनता के बीच प्रचलित लय ही ध्यान देने योग्य नहीं है, अपितु उनकी कथा की सार्वभौम मार्मिकता भी ध्यान देने योग्य है। भारतीय हृदय का सामान्य स्वरूप पहचानने के लिए पुराने प्रचलित ग्रामगीतों की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, केवल पंडितों द्वारा प्रवर्तित काव्यपरम्परा का अनुशीलन ही अलम् नहीं है। ध्यान देना होगा कि पंडितों की साहित्यभाषा के साथ-साथ लोकभाषा की स्वाभाविक धारा भी बराबर चलती रहती है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल बताते हैं कि श्रीधर पाठक प्रतिभाशाली, भावुक और सुरुचि सम्पन्न कवि थे। भद्दापन इनमें न था-न रूपरंग में, न भाषा में, न भाव में, न चाल में, न भाषण में। इन्हें छंद, पदविन्यास, वाक्यविन्यास आदि के सम्बन्ध में नई-नई बंदिशें खूब सूझा करती थीं। यथा :
छिन छिन पर जोर मरोर दिखावत, पलपल पीर आकृतिकोर झुकावत
यह मोर नचावत, सोर मचावत, स्वेत स्वेत बागपाँति उड़ावत।।
नंदन प्रसून-मकरंद-बिन्दु-मिश्रित समीर बिनु धीर चलावत।

अपने समय के कवियों में प्रकृति का वर्णन पाठक जी ने सबसे अधिक किया, इससे हिंदियों में वे प्रकृति के उपासक कहे जा सकते हैं।
चार डग हमने भरे तो क्या किया।
है पड़ा मैदान कोसों का अभी।।
मौलवी ऐसा न होगा एक भी।
खूब उर्दू जो न होवे जानता।।
..... 
क्यों पले पीस कर किसी को तू ?
है बहुत पालिसी बुरी तेरी
हम रहे चाहते पटाना ही;
पेट तुझसे पटी नहीं मेरी।।
 - अयोध्यासिंह जी उपाध्याय ‘हरिऔध’

हरिऔध जी ने अपनी रचना ‘प्रिय प्रवास’ में दिखाया है कि किसी के वियोग में कैसी-कैसी बातें मन में उठती हैं और क्या-क्या कह कर लोग रोते हैं, इसका जहाँ तक संभव विस्तार हो सकता था हरिऔध जी ने किया है। 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचकीय दृष्टि ठीक ही लक्ष्य करती है कि जब पंडितों की काव्यभाषा स्थिर होकर उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हुई लोकभाषा की स्वाभाविक धारा से दूर पड़ जाती है और जनता के हृदय पर प्रभाव डालने की उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपनी काव्यपरम्परा में नया जीवन डालता है। अर्थात् जब पंडितों कह काव्यधारा इस स्वाभाविक भावधारा से विच्छिन्न पड़ कर रूढ़ हो जाती है तब वह कृत्रिम होने लगती है और उसकी शक्ति भी क्षीण होने लगती है। ऐसी परिस्थिति में इसी भावधारा की ओर दृष्टि ले जाने की जरूरत होती है। 

पीछे के कवियों की व्यक्तिगत, विद्यागत और बुद्धिगत प्रवृत्तियों और विशेषताओं(रहस्यात्मकता, दार्शनिकता, स्वातंत्र्य भावना, कलाकार आदि) के अधिक प्रदर्शन से वह कुछ ढँक-सा गया। स्कॉटलैण्ड के किसानी झोपड़े में रहनेवाले कवि राबर्ट बर्न्स ने स्वच्छन्द तरीके से जनता के मानस में संचरण करने की शक्ति प्राप्त की। उसने अपने देश के परम्परागत प्रचलित गीतों की मार्मिकता परखकर देशभाषा की रचनाएँ कीं, जिन्होंने वहाँ के सारे जनसमाज के हृदय में अपना घर किया। वाल्टर स्कॉट ने देश की अंतर्व्योपिनी भावधारा से शक्ति लेकर साहित्य को अनुप्राणित किया था।

यह मुक्ति यूरोप के लिए अनिवार्य थी। बँधी हुई अलंकृत पदावली, वस्तुवर्णन की रूढ़ियाँ, छंदों की व्यवस्था सब ज्यों की त्यों रखी जाने लगी थीं। इस प्रकार अंग्रेजी काव्य, विदेशी काव्य और साहित्य की रूढ़ियों से इतना आच्छन्न हो गया कि वह देश की परम्परागत स्वाभाविक धारा से विच्छिन्न-सा हो गया।

भारतीय सन्दर्भ में देखें, तो संस्कृत काव्य और उसी के अनुकरण पर रचित प्राकृत अपभ्रंश काव्य भी हमारा अपना ही पुराना काव्य हैं, पर पंडितों और विद्वानों द्वारा रूप ग्रहण करते रहने और कुछ बँध जाने के कारण जनसाधारण की भावमयी वाग्धारा से कुछ हटा-सा लगता है। पर ये समान जातीय चेतना पर अवलम्बित होने के कारण भिन्न मालूम नहीं देते हैं।

स्वच्छंदता(रोमांटिसिज़्म) का आभास पहलेपहल पं. श्रीधर पाठक ने ही दिया। उन्होंने प्रकृति के रूढ़िबद्ध रूपों तक ही न रह कर अपनी आँखों से भी उसके रूपों को देखा। ‘गुनवंत हेमंत’ में वे गाँव में उपजने वाली मूली, मटर ऐसी वस्तुओं को भी प्रेम से सामने लाए जो परम्परागत ऋतुवर्णनों के भीतर नहीं दिखाई पड़ती थी। उन्होंने खड़ी बोली पद्य के लिए सुंदर लय और चढ़ाव-उतार के नए ढाँचे भी निकाले और इस बात का ध्यान रखा कि छंदों का सुंदर लय से पढ़ना एक बात है, रागरागिनी गाना दूसरी बात। 

ख्याल या लावनी की लय पर जैसे ‘एकांतवासी योगी’ लिखा गया वैसे ही सुथरे साइयों के सधुक्कड़ी ढंग पर ‘जगत सचाई सार’ लिखा गया। इसमें कहा गया है-‘जगत है सच्चा, तनिक न कच्चा, समझो बच्चा! इसका भेद’।

द्विवेदी जी ‘सरस्वती’ पत्रिका द्वारा बराबर कविता में बोलचाल की सीधी सादी भाषा का आग्रह करते रहे जिससे इतिवृत्तात्मकता(मैटर ऑव फैक्ट) पद्यों का खड़ी बोली में ढेर लगा। 

रामनरेश त्रिपाठी ने ‘पथिक मिलन’ एवं ‘स्वप्न’ नाम से रचनाएँ कीं।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की रचना ‘प्रिय प्रवास’ को खड़ी बोली का पहला महाकाव्य कहा गया।

बाबू मैथिलीशरण गुप्त ने 1912 ई. में ‘भारत-भारती’ की रचना की। उनकी अन्य रचनाओं में ‘साकेत’, ‘जयद्रथ वध’, ‘पंचवटी’, ‘जयभारत’ आदि प्रमुख हैं।

मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं में राष्ट्रप्रेम का भाव अधिक है; राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर अभिव्यक्ति अत्यंत मुखर है।

अन्य कवि :

पं. रामचरित उपाध्याय
बालकृष्ण नवीन
सियाराम शरण गुप्त
सुभद्राकुमारी चौहान
नाथुरामशंकर शर्मा
गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
पं. गिरिधर शर्मा ‘नवरत्न’
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय
पं. सत्यनारायण ‘कविरत्न’
लाला भगवानदीन
पं. रामनरेश त्रिपाठी
पं. रूपनारायण पाण्डेय
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