Saturday 17 November 2018

‘पूर्वोतर भारत की जनजातियों का दर्शन एवं संस्कृति’ विषय पर संगोष्ठी आयोजित

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राजीव रंजन प्रसाद

दो दिवसीय संगोष्ठी
भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद्, नई दिल्ली एवं
हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय का संयुक्त आयोजन

15-16 नवम्बर, 2018

पूर्वोत्तर की जन-संस्कृति है-समन्वय के साथ समरूपता



भारतीय संस्कृति में दर्शन विवाद रहित है, लेकिन वादों की परम्परा जबर्दस्त है। यहाँ के दर्शन और चिन्तन-मनन में एकत्व से बहुत्व की यात्रा देखी जा सकती है। पूर्वोतर की जनजातीय संस्कृति से काफी कुछ सीखा जा सकता है। समर्पण, सद्भावना, समाज-सेवा के सांस्कृतिक मूल्य-बोध को संरक्षित एवं सुरक्षित रखे जाने की जरूरत है। उसे राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित करने की आवश्यकता है। इसकी पुनःस्थापना भारत के दर्शन एवं संस्कति के साक्षात्कार द्वारा ही संभव है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति एवं दर्शन का मूल स्वर है-समन्वय के साथ समरूपता।
 उक्त बातें भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय संगठन सचिव डाॅ. बालमुकुन्द पाण्डेय ने बीजवक्ता के रूप में बोलते हुए कहीं। डाॅ. पाण्डेय राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग तथा भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद्, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में पूर्वोतर की जनजातियों का दर्शन एवं संस्कृतिविषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोल रहे थे। उद्घाटन सत्र का आरंभ दीप-प्रज्ज्वलन के साथ ताकु तावत की स्थानीय रस्म को निभाते हुए किया गया। इस मौके पर संगोष्ठी से सम्बन्धित स्मारिका का विमोचन हुआ; साथ ही गुवाहाटी स्थित केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के क्षेत्रीय निदेशक डाॅ. राजवीर सिंह ने राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. साकेत कुशवाहा को हिन्दी-निशी अध्येता कोशभेंट की।
विश्वविद्यालय के ए.आई.टी.एस. सम्मेलन कक्ष में उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. साकेत कुशवाहा ने कहा कि-“जनजातीय समाज में प्रकृति के प्रति निष्ठा गहरी है, तो उनसे लगाव बेजोड़ है। पूर्वोत्तर में जनजातियों की बहुलता है। इसके बावजूद सामूहिकता एवं समभाव प्रचुर है। उनके दर्शन एवं संस्कृति में शोध-अनुसन्धान किए जाने की आवश्यकता है। उनके दर्शन तथा संस्कृति को केन्द्र में रखते हुए गंभीर कार्य करने की जरूरत है। सांस्कृतिक-बोध से लैस नैतिक कर्तव्य की आवश्यकता आज सबको है जिसका मुख्य स्वर है-राष्ट्र को एकीकृत कर के रखना।मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए पूर्व कुलपति प्रो. तामो मिबाङ ने कहा कि-इतिहास-निर्माण का काम हमने किया है। इस क्रम में मनुष्य ने समाज एवं संस्कृति की रचना कई स्तरों पर की है। जनजातीय संस्कृति एवं दर्शन का इतिहास पुराना है, लेकिन आज किस दशा में है; उसकी भाषा की स्थिति कैसी है; यह पक्ष विचारणीय है। शोध-अनुसन्धान की दृष्टि से अकादमिक कार्यो द्वारा यहाँ की संस्कृति एवं दर्शन पर गंभीर रूप से सोचने-विचारने की आवश्यकता है। हमें यह भी देखे जाने की जरूरत है कि विकास के मार्ग पर हम आगे बढ़े हैं या पीछे की ओर धकेले जा रहे हैं। जनजातीय संस्कृति तो उस बगीचे की तरह है जो सबको फलने-फूलने का समान अवसर और समय प्रदान करती है;’ परन्तु आज सर्वाधिक खतरा उसी के दर्शन एवं संस्कृति पर मंडरा रहा है।“ विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. तोमो रिबा ने कहा कि-‘’भूगोल और जलवायु आधारित जनजातीय संस्कृति की विविधता दर्शनीय है। सांस्कृतिक-बोध से लैस अरुणाचल में जैसे-जैसे यात्रा की दिशा बदलेंगे, दृश्य दूसरी होती चलीं जाएगी। शहरीकरण ने यहाँ की लोक-संस्कृति को बदल दिया है। नई पीढ़ी अपनी परम्परा और स्मृति से कटती जा रही है। जबकि हमारे यहाँ बच्चों के नामकरण तक की परम्परा में दर्शन व संस्कृति कूट-कूट कर भरे हैं। हमारे लिए प्रत्येक शब्द का महत्त्व है, इसलिए पुरखों से आती अपनी वंश-परम्परा का अनुपालन हम स्वाभाविक रूप से करते आ रहे हैं। उनसे छेड़छाड़ को हमारी दर्शन एवं संस्कृति में पाप माना जाता है।
विषय-प्रस्तावना प्रस्तुत करते हुए करते हुए हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. ओकेन लेगो ने कहा कि-‘‘पूर्वोत्तर के साथ मुख्य भारत का रिश्ता भावनात्मक रूप से मजबूत है। पूर्वोत्तर भारत की दर्शन एवं संस्कृति को पहचान एवं अस्मिता का पर्याय माना गया है। पूर्वोत्तर कुल मिलाकर जनजातियों का घर है। अज्ञानता के कारण हम पूर्वोत्तर को भारत से भिन्न मान बैठते हैं, लेकिन यहाँ की दर्शन एवं संस्कृति ही वह मुख्य चीज है जिसके द्वारा यहाँ की जनजातियों को पहचाना जा सकता है। यहाँ के दर्शन में सूक्ष्म विचारों की मूल अभिव्यक्ति को ही दर्शन का नाम दिया गया है।इस मौके पर भाषा संकायाध्यक्ष प्रो. हरीश कुमार शर्मा ने कहा कि-‘‘समय के साथ चीजें परिवर्तित होती हैं। बदलाव स्वाभाविक तौर पर होते रहे हैं। दर्शन एवं संस्कृति में पूर्वजों की स्मृति भी शामिल हैं। ऐसे में संस्कृति और दर्शन से दूर जाने का अर्थ है-अपने पुरखों की परम्परा और विरासत से कट जाना। अरुणाचल की जनजातियों में पितृपुरुष के रूप में आबोतानी की उपस्थिति यहाँ के दर्शन एवं संस्कृति का द्योतक है।उद्घाटन सत्र में स्वागत वक्तव्य इस संगोष्ठी के संयोजक डाॅ. सत्यप्रकाश पाॅल ने दी, तो धन्यवाद ज्ञापन डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद ने दिया। उद्घाटन सत्र का संचालन डाॅ. विश्वजीत कुमार मिश्र द्वारा तो अन्य दो सत्रों का संचालन क्रमशः तुनुङ ताबीङ और डाॅ. तादाम रूटी ने किया।
ध्यातव्य है कि 15-16 नवम्बर को आयोजित इस दो दिनी राष्ट्रीय संगोष्ठी के विभिन्न तकनीकी सत्रों के अन्तर्गत अरुणाचल सहित पूर्वोत्तर के विभिन्न क्षेत्रों से आये प्राध्यापकों, शोधार्थियों आदि ने अपने शोध-पत्र का वाचन किया तथा पूर्वोत्तर की जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया।  इस संगोष्ठी में साफतौर से इस बात की पुष्टि हुई कि भारत के सभी हिस्सों में ज्ञान, सूचना एवं जानकारियों का आदान-प्रदान सम्यक् नहीं है। संचारगत साधनों की अधिकता और उपस्थिति के बावजूद शेष भारत के निवासी पूर्वोत्तर भारतवासी के दर्शन एवं संस्कृति से अपरिचित हैं, उनके वैचारिक दर्शन एवं ऋत-व्यवस्था से अनभिज्ञ हैं। अकादमिक शोध-अनुसन्धान की वर्तमान परिस्थितियाँ भी मुख्य वजह कही जा सकती हैं जहाँ उत्तर-पूर्व के बारे में स्थूल-सूक्ष्म गहन विचार-विश्लेषण एवं सरोकारी-अध्ययन का सर्वथा अभाव है। अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, असम, मेघालय के विभिन्न क्षेत्रों से आये पत्र-वाचको ने भारत के सीमांत भू-भाग में अवस्थित पूर्वोत्तर के निवासियों की लोक-आस्था, जन-विश्वास आदि से सम्बन्धित मान्यताओं, स्थापनाओं, सामूहिक आकांक्षाओं, मूल-प्रवृत्तियों, दार्शनिक अवधरणाओं, साहित्यिक रचनाओं आदि के परिप्रेक्ष्य में न सिर्फ अपनी बातें रखीं; बल्कि उन्हें नई दिशा-दृष्टि के साथ जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति को समझने के लिए जरूरी आधार भी प्रदान किया। कई सारी जिज्ञासाओं एवं वैचारिक उद्वेलनों का गवाह बने इस संगोष्ठी की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि हिन्दीतरभाषी क्षेत्र होने के बावजूद हिंदी में प्रस्तुत शोध-पत्र और प्रकाशित स्मारिका हिदी के तथाकथित गुणीजनों, चिंतकों, विद्वानों को नई सूझ और नवोन्मेषी विचार-बिन्दु देती हुई प्रतीत होती हैं। इनमें से मुख्य रूप से डाॅ. जमुना बीनी तादर, डाॅ. राजवीर सिंह, डाॅ. तारो सिंदिक, डाॅ. तादाम रूटी, डाॅ. रीतामणि वैश्य, डाॅ. जोनाली बरुआ, डाॅ. दिनेश साहू, डाॅ. ङूरी शांति, डाॅ. श्याम शंकर सिंह, डाॅ. अमरेन्द्र त्रिपाठी, डाॅ. नंदिता दत्ता, यशोदरा, पूजा बरुआ, डिम्पी कलिता, सरिफुल जमान, हरिव्रत सइकिया, उदित, ताल्लुकदार, रूबी मोनी एवं अनन्या दास, प्रांजल नाथ, इंग परमे, तेली मेचा, चारु चैहान आदि की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण रही।
 प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. के. एन. तिवारी ने कहा कि-“यह संगोष्ठी इस मामले में अभूतपूर्व है कि यह भारत के सभी हिस्सों को आपस में जोड़ती है। एक-दूसरे को जानने को प्रेरित करती है। तकनीकी सत्र की वक्ताओं को सुनते हुए लगा कि जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति में ऐसा बहुत कुछ है जिसे जाने बगैर एकीकृत राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती है।हिन्दी विभाग में प्राध्यापिक डाॅ. जोराम यालाम नाबाम ने कहा कि-‘‘अपना जनजातीय समाज अनीश्वरवादी है। ईश्वर हमारी कल्पना में नहीं है और न ही अवतार की अवधारणा हमारी जनजातीय संस्कृति में है।  तानी दर्शन अवतारवाद नहीं है। इसी तरह हमारी संस्कृति में प्रकृति की पूजा नहीं है उसके साथ हमारा तदाकार भाव है। जनजातीय संस्कृति में जो जैसा है उस सत्य को उसी रूप में जानने की कला दर्शन कही जाती है। यही नहीं जनजातीय समाज की स्त्री-दृष्टि भिन्न है, इसे दूर से नहीं निकट से देखने एवं जानने की जरूरत है।इससे पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय से आये प्रो. चंदन कुमार ने कहा कि-‘‘पूर्वोत्तर के हर भू-भाग में लीला-भाव के दर्शन होते हैं। उत्सवधर्मिता यहाँ के लोक-मानस की संस्कृति है। यहाँ की जनजातियाँ प्रकृतिपूजक हैं। वाचिक परम्परा की समृद्ध निधि यहाँ की मुख्य पहचान है। बीएचयू से आए प्रो. राकेश कुमार उपाध्याय ने कहा कि-‘‘अरुणाचल की संस्कृति के मूलभाव और मूलदृष्टि में सामूहिक आकांक्षा और चित्तवृत्ति है। संस्कृति का अर्थ है-जीवन का दर्शन, उसका अध्ययन। भारतीय दर्शन-संस्कृति में शून्य से सबके निर्माण की संकल्पना है। असल मीमांसा भारत को समग्रता में देखने एवं संस्कृति के आलोक में गंभीरतापूर्वक अध्ययन एवं अनुसन्धान द्वारा ही संभव है।’’ वक्ता के रूप में डाॅ. मणि कुमार ने कहा कि-‘‘लोकगीत, लोकनृत्य जनजातीय संस्कृति की मुख्य परम्परा है। असम में सत्र के विधान हैं, तो पूर्वोत्तर के अन्य क्षेत्रों में जलवायु और वातावरण के अनुसार पर्व, त्योहार, उत्सव आदि हैं। नृत्य में संस्कृति की झाँकी मिलती है, तो लोकगीत में दर्शन साफ दिखाई पड़ता है।’’
15-16 नवम्बर को आयोजित इस कार्यक्रम के पहले दिन बोलते हुए डाॅ. आशुतोष तिवारी ने गारो संस्कृति एवं दर्शनपर अपनी दृष्टि डाली और कहा कि-गारो साहित्य में दर्शन एवं संस्कृृति की मौजूदगी जीवंत और समृद्ध है। संस्कृति स्वभाव तथा संस्कार में घुली हुई है। उनके क्रियाकलाप, गृह-निर्माण, शिल्प-कला आदि पर गारो जनजाति की छाप देखी जा सकती है।’’ इस सत्र में वक्ता के रूप में बोलते हुए डाॅ. शिव नारायण ने कहा कि-‘‘जनजातियों की अपनी लिपि न होने की वजह से साहित्य की अनुपलब्धता हमारे अज्ञान का बड़ा कारण बनती हैं। जनजातीय दर्शन एवं संस्कृृति वाचिक रूप से समृद्ध है, लेकिन लिखित साहित्य में उनकी हिस्सेदारी कम है। इसके लिए शोध-अनुसन्धान जरूरी है। सिर्फ प्राचीन कथाओं से उनके दर्शन एवं संस्कृति को जान पाना मुश्किल है।डाॅ. कोयल विश्वास ने कहा कि-‘‘यहाँ के लोगों में आपस में प्रेम और विश्वास अनोखा है। धर्म तक में दयाए परोपकार, स्नेह एवं सेवा-भाव प्रचुर है। जनजातियों के दर्शन एवं संस्कृति पर विचार करते हुए जरूरी है कि अकादमिक पाठ्यक्रमों को बदला जाए। उसमें जनजातीय जीवन-संस्कृति, दर्शन आदि को जोड़ा जाना जरूरी है।’’ दूसरे तकनीकी सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. महेन्द्र पाल शर्मा ने कहा कि-‘‘भाषाओं के बीच सम्बन्ध मजबूत होने चाहिए। आपसी आदान-प्रदान से संस्कृति एवं दर्शन का परिचय मिलता है। जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति को जानने के लिए गंभीरतापूर्वक कार्य करने और इस बारे में कुछ ठोस पहलकदमी की आवश्यकता है।’’
संगोष्ठी के दूसरे दिन समानान्तर सत्र सहित चार तकनीकी सत्र हुए जिसकी अध्यक्षता क्रमशः प्रो. एम. वेंकेटेश्वर, प्रो. राकेश उपाध्याय, डाॅ. शिवनारायण व प्रो. चन्दन कुमार ने की। समापन सत्र के मुख्य अतिथि डाॅ. रवि प्रकाश टेकचंदाणी एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में हैदराबाद से पधारे वरिष्ठ विद्वान प्रो. एम. वेकेटेश्वर ने अपना गरिमामय उद्बोधन दिया। उन्होंने विशेष रूप से अरुणाचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार येशे दोरजी थोंगछी के साहित्यिक कृतियों के हवाले से पूर्वोत्तर के जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति को सही मायने में समझे जाने पर बल इिया और कहा कि मुझे प्रसन्नता है कि मैंने इनकी रचनाओं पर सबसे पहले समीक्षा लिखकर आत्मिक संतोष प्राप्त किया है।“ प्रो. वेंकेटेश्वर अरुणचाल की नई साहित्यिक पौध से भी ऐसी ही महत्पूर्ण अवदान की अपेक्षा रखते हुए उनको अपनी रचना-संसार को उत्तरोत्तर समृद्ध करते रहने का सलाह दिया। भारतीय सिंधी अकादमी के निदेशक और अपनी वाग्मिता के लिए प्रसिद्ध डाॅ. रवि प्रकाश टेकचंदाणी ने यह स्मरण दिलाते हुए कहा कि हिन्द को सिन्ध से जोड़े बगैर हिन्दुस्तान की परिकल्पना बेमानी है। विस्थापन और विप्लव की तमाम त्रासदियों को झेलते हुए भी आज सिन्धी खड़ी है, तो उसके पीछे सैंधव सभ्यता का दर्शन एवं संस्कृति मूल में है। आज पूर्वोत्तर के जनजातीय संस्कृति एवं दर्शन को भी अपने विस्थापन, दुराव, कटाव, अलगाव से स्वयं उबरने का प्रयत्न करना होगा जो राष्ट्रनिर्माण की खुराक है और आज की अनिवार्य जरूरत भी।“ आखिर में धन्यवाद ज्ञापन इस संगोष्ठी के संयोजक डाॅ. सत्यप्रकाश पाल ने दिया, तो संचालन डाॅ. जमुना बीनी तादर ने किया। अरुणाचल की सांस्कृतिक परम्परा और लोक-चेतना की झाँकी सांध्यकालीन सांस्कृतिक कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रस्तुत हुई जिसे हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों व शोधार्थियों ने प्रस्तुत किया।

Wednesday 14 November 2018

‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ : करोड़ों गुमनाम बहादुर घुमंतू जातियों के लोगों की दास्तान

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आमिर खान और अमिताभ बच्चन द्वारा अभिनित यह फिल्म ‘फिलिप मेडोव टेलर’ द्वारा 1839 में लिखे गए उपन्यास ‘कन्फेशंस ऑफ ए ठग’ पर आधारित है। यह देश के दस करोड़ विमुक्त-धुमंतू जातियों के साहस व शौर्यपूर्ण अतीत का चित्रण करता है, जिन्हें पहले अंग्रेजों ने क्रिमिनल ट्राइब की संज्ञा दी और जो स्वतंत्रता के बाद भी अपनी पहचान और अधिकारों के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। जर्नादन गोंड का लेख :

विमुक्त-धुमंतू जातियों के इतिहास पर बनी है यह फिल्म

बताया जा रहा है कि फिल्म ‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ का बजट लगभग 300 करोड़ है। मतलब भारत की मंहगी फिल्म है, जिसे हिंदी, तमिल और तेलुगू में 3डी और आईमेक्स फॉर्मेट में एक साथ पूरी दुनिया में रिलीज किया गया है। निश्चित रूप भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह अपने तरह की अनूठी फिल्म है, क्योंकि फिल्म की कहानी ठगों अर्थात ब्रिटिशकाल के ‘एंटी हीरो’ पर आधारित है। एक प्रकार से ‘एंटी हीरो’ में हीरो की तलाश की गई है। जाहिर तौर पर यह आजाद भारत में ही हो सकता है। अंग्रेजों के समय में इस तरह के विषय का चुनाव फिल्म बनाने के लिए नहीं किया जा सकता था। पर यह भी सच है कि जिस समाज को हीरो दिखाया गया है, वह समाज आज भी गुलामों सी जिंदगी जी रहा है।
यशराज की फिल्म है, इसलिए मनोरंजन से कोई समझौता नहीं किया गया है। जांबाज ठगों के जीवन और आचरण को बड़े परदे पर दुनिया ने देखा है। पर विमुक्त-घिमंतू जनजातियों पर इतनी बड़ी फिल्म बनी है, यह कम बड़ी बात नहीं।  


सबने माना था जांबाजी का लोहा

ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित है कि अंग्रेजों की खिलाफत करने वाले आदिवासी, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे, को कभी ठग कहा गया, कभी पिंडारी। ये दोनों नाम अंग्रेजों द्वारा दिया गये गये थे (है)। इस आदिवासी समूह को कानून बनाकर अपराधी घोषित कर दिया गया। एक बात यहां स्पष्ट कर दिया जाए कि अपनी सुविधानुसार विमुक्त जनजातियां कहीं हिंदू, कहीं मुसलमान तो कहीं सिख हो गईं। पर सामुदायिकबोध इतना सघन था (है) कि कभी भी सांप्रदायिकता इन पर हावी नहीं हो पाया। इसीलिए पिंडारियों के रूप में ये एक मजबूत इकाई की तरह लंबे समय तक अस्तित्व में रह पाए। एकता और जांबाजी ने विदेशी व्यापारियों का जीना दुश्वार कर दिया था। पिंडारी और ठगों को किंवदंती के रूप में देखा जाने लगा। हजारों खौफनाक कथाएं इनके नाम पर रची गईं। दरअसल भारत के असली गब्बर सिंह यही लोग माने गए। इनका नाम सुनते विदेशी और लूटेरे किस्म के व्यापारियों का खून जम जाया करता था।

1857 के पहले ही पिंडारियों ने कर रखा था अंग्रेजों के नाक में दम

पिंडारियों से गोरी सरकार इतना परेशान हो चुकी थी कि इनके खात्मे के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो गई। गोरी गवर्नमेंट ठोस कार्रवाई करना चाहती थी। पिंडारी और ठगों का समूह गोरों की अजेय छवि के सामने चुनौती पेश कर रहा था। बिना उन्हें मिटाए, गोरी श्रेष्ठता स्थापित नहीं हो पा रही थी। लेकिन यह सब इतना आसान नही था। पिंडारियों का देशी रियासतों के साथ राजनीतिक कनेक्शन भी हो चुका था। इन लोगों ने जरूरतमंद राजाओं-महाराजाओं को वीरता की आउटसोर्सिंग करना शुरू कर दिया था। दक्षिण से लेकर मध्य भारत के अलग रियासतों में ये समूह सैन्य सेवायें देने लगे थे। पिंडारी मराठा अजेयता के भी रीढ़ थे। वे मराठा सेना में अवैतनिक सैनिकों के रूप में अपनी सेवा दिया करते थे, जहां विजय प्राप्त होने पर विजय सामग्री से कुछ हिस्सा इनके लिए भी निश्चित कर दिया गया था। अंग्रेजों के अनुसार मराठा सेना के साथ ये लूटमार करने वाले दलों के रूप में हमला करते थे। इनकी वीरता अप्रतिम थी। इसी योग्यता से प्रभावित होकर बाजीराव-प्रथम के समय से इनकी सेवायें मराठा सेना में बाकायदा शुरू हुई। पिंडारियों की सेवा से मराठा सेना अजेय रही। पिंडारियों के दमन और मराठा शक्ति को नष्ट करने के लिए लॉर्ड हेस्टिंग्स ने 1817 में मराठा संघ को नष्ट करने के पूर्व कूटनीति द्वारा पिण्डारी सरदारों में फूट डाल दी तथा संधियों (सहायक संधियों) द्वारा देशी राज्यों से उनके विरुद्ध सहायता ली। गोरी सरकार के सामने घूटना टेकने वाली रियासतें अपने सेना के अभिन्न हिस्से अर्थात पिंडारियों के खिलाफ जासूसी कराने लगीं। हेस्टिंग्स हिसलप के नेतृत्व में बड़ी आसानी से 120,000 सैनिकों तथा 300 तोपों सहित पिंडारियों के इलाक़ो को घेरकर नष्ट कर दिया। हज़ारों पिण्डारी मारे गए, बंदी बने या जंगलों में चले गए। चीतू जैसे वीर और संगठन निर्माता बहादुर पिंडारी को असोरगढ़ के जंगल में चीता ने शिकार बना डाला। वसील मुहम्मद ने कारागार में आत्महत्या कर ली। चीतू की दहशत उस दौर में काफी बढ़ गई थी। गोरे उसके नाम से थर्राते थे। वह जाट परिवार में दिल्ली के निकटवर्ती गाँव में पैदा हुआ था| इसको दोब्बल ख़ाँ ने ग़ुलाम बनाया और बाद में अपना पुत्र बना लिया। इसके बेटे बरुन दुर्राह के सरदार थे। करीम खाँ को गोरखपुर ज़िले में गणेशपुर की जागीर दी गई। इस प्रकार पिंडारियों के संगठन एक-एक कर टूट गए और वे तितर-बितर हो गए। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में उन्होंने मिर्जापुर, शाहाबाद, निजाम के क्षेत्र आदि पर आक्रमण कर वहां लूटमार मचा दी। लॉर्ड हेसिटंग्स ने पिंडारियों के दमन के लिए सेना भेज दी। यह संघर्ष तृतीय अंग्रेज-मराठा युद्ध में परिवर्तित हो गया।
विमुक्त-घुमंतू जनजातियों का रिश्ता धर्म से परे का रिश्ता (था) है, जिस तरह वे आज हिंदू, ईसाई और बौद्ध और सिख हैं, उसी तरह से मध्यकाल में भी थे और उसके पश्चात में भी रहे। आज भी इस तरह की स्थिति कहीं-कहीं देखी जाती है। इनमें से अनेक आदिवासी कबीले, कहने के लिए मुसलमान के रूप में जाने जाते थे पर उनका स्वरूप सर्वधर्म समभाव का था।

अंग्रेजों ने कहा – क्रिमिनल ट्राइब

हालांकि यह समूह काफी हद तक अंतरराष्ट्रीय भी था, जिसमें अफगानी नस्ल के लोग भी शामिल थे। लड़ाकू आदिवासी कबीलों को मुगलों और राजपुताना के सेना में हमेशा नौकरी मिलती रहती थी। मुगलों के कमजोर होने पर इनलोगों ने देशी रियासतों का रूख किया। अंग्रेजों के वर्चस्व के कारण धीरे-धीरे रियासतें कमजोर होने लगीं। लिहाजा कई आदिवासी समूहों को जीविकोपार्जन के दूसरे रास्ते देखने पड़े जिसमें खेती, व्यापार, लूटमार से लेकर ठगी तक शामिल रहा। पराजित और रोटी-रोजी में फंसे रहने के कारण इस तबके के समूहों को कभी पीछे मुड़कर देखने का अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ। बिगड़ते हालात ने इनके घर की औरतों को देह व्यापार करने तक को मजबूर किया। कंजर, बेंड़नी और सहरिया कुछ ऐसी ही जातियां हैं। इन पर जो कुछ लिखा गया दूसरों के द्वारा लिखा गया। इतिहास का रूख बदलने वाले खुद अपना इतिहास नहीं जानते। अतीत के भारत के लगभग सभी रियासतों के लड़ने वालों के पास आज चूटकी भर जमीन नहीं है। अंग्रेजों को इनसे दिक्कत थी। उन्होंने इनकी पहचान ‘क्रिमिनल ट्राइब’ के रूप में किया। अंग्रेज देश भक्तों को भी फसादी कहा करते थे, परंतु आजादी के बाद देशभक्तों को इनाम-वकराम से नवाजा गया। सरकारी नौकरी में आरक्षण मिली। आदिवासी यहां भी ठगे गए। उनकी पहचान तक न की गई। बात अंग्रेजों की करते हैं, जहां से चले थे, फिर वहीं चलते हैं। ठगों की ओर लौटते हैं। तीन सौ करोड़ी फिल्म की बात करते हुए उस कृति की बात करते हैं, जिस पर यह फिल्म आधारित है।
यह फिल्म ‘फिलिप मेडोव टेलर’ द्वारा 1839 में लिखे गए उपन्यास ‘कन्फेशंस ऑफ ए ठग’ पर आधारित है, जिसने 1970 और 1805 के बीच अंग्रेजों के नाम में दम कर दिया था। उस ठग का नाम अमिर अली था। हालांकि उपन्यास में नाम बदल दिया गया था। यह उपन्यास अपने समय की बेस्ट सेलर रहा और 19वीं सदी के मध्य तक इसका यह सम्मान बना रहा। इसके पाठकों में रानी विक्टोरिया भी शामिल थीं। जिस साल यह उपन्यास छपा उसी साल इसके नायक बेहराम (उपन्यास में अमिर अली कर दिया गया) को फांसी दे दी गयी।

कन्फेशंस ऑफ ए ठग’ की लोकप्रियता से रूडयार्ड किपलिंग भी नहीं बच पाए। उन्होंने कथा स्थल और युद्धरत शक्तियों को बदल दिया। ‘कन्फेशंस ऑफ ए ठग’ में सिर्फ दो शक्तियां थीं- अंग्रेज और ठगों का नेता और उसका गिरोह। परंतु इस उपन्यास में दो बड़ी राजनीतिक शक्तियों को शामिल किया गया – ब्रिटिश शासन और रूस। दो महाशक्तियों के ग्रेट गेम के स्थल के रूप में सेंट्रल एशिया को लिया गया। दो महाशक्तियों की तिजारत में सेंट्रल एशिया के निवासियों के सांस्कृतिक प्रतिरोध को दर्शाते हुए उपन्यास भारत के विविध रंगों को प्रदर्शित करता है, जिसमें यहां के कुछ कबीले इन दोनों महाशक्तियों को सबक सिखाने में कामयाब हो पाते हैं। कहा जाता है कि इस उपन्यास में द्वितीय अफगान युद्ध की छाया है। बीबीसी (2003) के बिग रीड सर्वे में इसे सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हुआ।

गुमनामी का अंधेरा कब छंटेगा?

विमुक्त-घुमंतू आदिवासियों के विषय में मेरी जानकारी का आधार खुद उस तबके के नुमाइंदे रहे। पढाई के दौरान इस तबके के तमाम छात्रों से मुलाकात होती रही। दोस्ती कायम हुईा। उनके यहां आना-जाना शुरू हुआ। उनकी परेशानियों को एकदम नजदीक से देखने और अनुभव करने का अवसर प्राप्त हुआ। इस क्रम में वे मुझे जाने और मैंने उन्हें जानने का प्रयास किया। उनके सपनों में झांकने की कोशिश की, वहां आक्रोश, संघर्ष और उम्मीदों का समंदर लहरा रहा था। तमाम छात्र संविधानिक अधिकारों जैसे, नागरिकता और वोट की मुहिम से जुड़े हुए थे। तमाम संघर्ष के बाद भी बात नहीं बन पा रही थी। ऐसे ही एक दिन भूषण पारधी से मुलाकात हुई। बात-बात में उनकी लड़ाई, जिसे उसके समूह के लोग ‘उम्मीद और रौशनी’ की लड़ाई कहा करते थे, के विषय में पूछ लिया। बहुत मायूसी में आधे से कम जले सिगरेट को घास पर रगड़ते वह बोला, “हम ना समझे थे, बात इतनी सी ,ख्वाब शीशे के, दुनियां पत्थर की” कह कर आसमान को देखने लगा, जहां पानी से भरे नीले बादल तेजी से भागे जा रहे थे। कहीं बरसने की जल्दी थी शायद। बड़े गौर और संजीदगी से उन्हें जाते देखते रहा और बोला, हमारी उम्मीदों के बादल कब बरसेंगे? हम कब तक अपने ही देश में होकर भी नहीं रहेंगे? गुमनामी का अंधेरा कब छंटेगा? इस धरती पर पहचान कब मिलेगी?
जैसाकि ऊपर के हिस्से में यह चर्चा की गयी है, यह सवाल भूषण पारधी के अकेले का सवाल नहीं है। देश में लगभग दस करोड़ विमुक्ति-जनजाति समुदाय के लोग यह सवाल कर रहे हैं। सवाल को हल करने में कई पीढ़ियां तबाह हो गईं। स्वाधीनता से लेकर आज तक न जान कितनों को उस सजा के रूप में मौत के घाट उतार दिया गया, जिसे उन्होनें कभी किया ही नहीं, परंतु एक खास समुदाय के होने के नाते उन्हें अपराधी मान लिया गया (जाता है) और सजा मुकर्रर कर दिया गया। आज की पीढ़ियां न खाली सरकार से बल्कि इतिहास से हिसाब मांग रही हैं। आदिवासियों के साथ अन्याय का ऐतिहासिक रिकार्ड है, कहीं – कहीं अन्यास के फोड़ों पर मरहम भी लगाया गया परंतु विमुक्ति-घुमंतू जनजातियों के साथ भूल सुधार संविधान लागू होने के बाद भी न हो सका।
संविधान सन 1950 में लागू हो गया, जिसके साथ ही गणतंत्र की स्थापना का अनुष्ठान भी पूरा हो गया। इस उपलब्धि पर डॉ. आंबेडकर ने कहा, ‘जनतंत्र का सार एक मनुष्य, एक मूल्य के सिद्धांत में निहित है। खेद है कि जनतंत्र के राजनीतिक ढांचे ने ‘एक मनुष्य-एक वोट’ के सिद्धांत को अपनाया है।’[1]/

12 साल के बच्चों तक को देनी पड़ती थी थाने में हाजिरी

बाबा साहेब बड़ी बात कह रहे थे। वे ‘एक मनुष्य-एक वोट’ के सिद्धांत से संतुष्ट नहीं थे। वे इसके अधूरेपन को समझ रहे थे। मनुष्य की पहचान एक वोट तक में महदूद हो जाने से वे दुखी थे। पर उस समय और आज भी ऐसे कई करोड़ लोग हैं, जिन्हें वोट देने तक का अधिकार नहीं मिल पाया है। आजादी उनके लिए एक सारहीन संज्ञा से अधिक नहीं है। वे आज भी वैसे ही जी रहे हैं, जैसे ब्रिटिशकाल में जी रहे थे। आज भी उन्हें उतने ही संदेह से देखा जाता है, जितना गुलामी के दौर में। विमुक्त-घुमंतू जनजातियों की यह आबादी, जितना बदहाल पहले थे उतने ही आज भी हैं। आज भी वे जन्मजात अपराधी मान लिए जाते हैं। इस समाज में पैदा होते ही बच्चों की शिनाख्त अपराधी के रूप में की जाती है। इस विडंबना पर रमणिका गुप्ता कहती हैं, “अंग्रेजों के समय में उन्हें जन्मजात अपराधी घोषित करके तार के बाड़ों से घेरकर रहने के लिए मजबूर कर दिया गया था। इनके बच्चों को जन्मते अपराधी का सर्टिफिकेट दे दिया जाता है। 12 साल के बच्चे तक को हर रोज थाने में हाजिरी देनी पड़ती थी।“[2]
अंग्रेजों ने इनके रहवास को एक बेड़े से घिरवा दिया था, जिसे टांडा कहा जाता था। बिना पुलिस की अनुमति के ये लोग घेरे के बाहर नहीं जा सकते थे। टांडे तीन प्रकार के होते थे – साधारण अपराधियों के घेरे वाला एक तार वाला टांडा। बड़े चोरों, या अपराधियों वाला दो तार वाला टांडा। संगीन अपराध को अंजाम देने वाले, जिन्हें डकैत कहा जाता के लिए तीन तार वाला टांडा। पहली श्रेणी को दिन में एक बार, दूसरी श्रेणी को दो बार और तीसरी श्रेणी तीन बार थाने में हाजिरी देनी होती थी। इतना सब होने के बाद भी अंग्रेजों ने घेरों में शिक्षा, स्वास्थ्य की सारी व्यवस्था कर दी थी, जो ‘हैबिटाट ऐक्ट ऑफ इंडिया’ के पारित होने के बाद ये सुविधाएं भी 1952 में छीन ली गईं। देश के अन्य आदिवासी समूहों की तरह विमुक्ति-घुमंतू जनजातियों का गौरवपूर्ण योगदान इस देश के इतिहास से अमिट रूप से जुड़ा हुआ है।
सन् 1857 की आजादी की लड़ाई में यही बंजारे थे, जो गधों पर हथियार लादकर क्रांतिकारियों को पहुंचाते थे। ये बंजारे ही हैं जो फ्रांस, यूगोस्लोविया तथा यूरोप के अन्य देशों में माल पहुंचाने के बाद भी गोरबोली भाषा और अपने पहनावे को बरकरार रखे हुए हैं। दिल्ली का राष्ट्रपति भवन और गुरुद्वारा रकाबगंज, लखीशाह बंजारे की जमीन पर स्थित है। आज बंजारों के नाम पर एक कट्ठा जमीन भी दर्ज नहीं।[3]
विडंबनाएं कई हैं। सूरजपाल नांगिया सांसी जाति के होने पर अफसोस जताते कहते हैं, ‘हमारा देश 1947 में आजाद हुआ था और 31 अगस्त 1952 में यानि पांच साल सोलह दिन तक हम अपने ही देश में रहकर गुलामी की जिंदगी जीते रहे और आज हमें आजाद हुए 50 साल हो गए हैं, तब भी हम गुलाम हैं।‘[4] 

2006 में बना बालकृष्ण रेणके आयोग

इसी विडंबना पर बोलते हुए वे आगे कहते हैं, ‘अगर ऐसा ही चलता रहा तो शायद यह गुलामी आगे भी हमें हमेशा झेलनी पड़ेगी।’[5]हालांकि केंद्र की सरकार ने 2006 में इनके कल्याण के लिए बालकृष्ण रेणके आयोग का गठन किया था, जिसे राष्ट्रीय विमुक्त/घूमंतू/अर्धघूमंतू जनजाति आयोग कहा गया था। आयोग ने 2008 में केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। छह वर्ष तक उस पर कोई कार्रर्वाई नहीं की गयी। बालकृष्ण आयोग ने विमुक्त/घूमंतू/अर्द्ध घूमंतू जनजातियों के लिए 72 अनुशंसाएं की थी, जिनमें से प्रमुख थीं:
  1. शिक्षा और नौकरी में अलग से 10% आरक्षण
  2. अलग बजट प्रावधान
  3. विमुक्त घुमंतू जातियों का पृथक मंत्रालय
  4. विमुक्त घुमंतू जातियों का स्थायी आयोग बनाया जाए
  5. विमुक्त जातियों के लिए आवासीय (बोर्डिंग) स्कूल खोले जाएं
  6. रहने के लिए जमीन तथा मकान बना कर दिए जाएं
आज तक इस आयोग की अनुसंशाएं धूल फांक रही हैं। केंद्र सरकार ने 2015 में इस समुदाय को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए केन्द्र सरकार ने विमुक्त और खानाबदोश जनजातियों के लिए आयोग का गठन किया है। इसकी प्रमुख बातें इस प्रकार हैं –
  1. यह आयोग तीन वर्ष की अवधि के लिए होगा।
  2. इस आयोग की संदर्भ शर्तों में विमुक्त और खानाबदोश जनजातियों से संबद्ध जातियों की राज्यवार सूची तैयार करना तथा विमुक्त और खानाबदोश जनजातियों के लिए केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार द्वारा किए जाने वाले उचित उपाय सुझाना शामिल है।
  3. इस आयोग में एक अध्यक्ष, एक सदस्य और एक सदस्य सचिव होगा।
  4. सरकार ने विमुक्त और खानाबदोश जनजातियों के राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष के रूप में भीखू रामजी इदाते और सदस्य सचिव के रूप में श्रवण सिंह राठौर की नियुक्ति की है।
जैसाकि ऊपर की पंक्तियों में दिया गया है कि ब्रिटिश शासन के दौरान बहुत सारी लड़ाकू जनजातियाँ कों क्रिमिनल ट्राइब्स यानी आपराधिक जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, जिसके माध्यम से उनको मारना, मिटाना और सजा देना आसान हो गया था। अंग्रेज सरकार यहीं नहीं रूकी आगे बढ़कर वह 1871 में एक नया कानून क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट ले आई, जिसके दायरे में उन आदिवासी जातियों को भी ले लिया गया, जो किंचित अर्थ में उनके लिए मुश्किलें पेश कर रही थीं। अब यह संख्या लगभग 500 हो गया। हालांकि 1952 में इन घुमंतू जनजातियों को विमुक्त कर दिया गया; तब से ये आपराधिक जनजातियां नहीं कहलाती और इन्हें विमुक्त-जनजाति के नाम से जाना जाने लगा। पर खाली नाम में बदलाव हुआ। स्थितियां जैसी की तैसी बनी रहीं।
महाराष्ट्र में पाधरी लोगों को तो गांव के लोग तीन दिन से ज्यादा गांव के बगल में पेड़ के नीचे या समतल में, तंबू गाड़कर रहने भी नहीं देते। कोई पारधी मर जाए तो कब्रगाह या श्मशान घाट में उसका मुर्दा गाड़ने व जलाने की इजाजत भी इन्हें नहीं है। गांव के लोगों को भय से अपने मुर्दे को जंगल में फेंक आते हैं।[6]
स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को सरसरी निगाह से देख भर लेने से इस समुदाय के कई उज्ज्वल पहलुओं का बोध होता है। इस समूह के कई बलिदानों का पता चलता है। ज्ञात होता है कि यह आदिम समूह मुख्यधारा की सामाजिक संरचना का हिस्सा था। ट्रांसपोर्टेशन से लेकर मनोरंजन और चिकित्सा से लेकर सूचनाओं तक के लिए समाज इन जनजातियों पर निर्भर था। बंजारे, गाड़िया लोहार, बावरिया, नट, कालबेलिया, भोपा, सिकलीगर, सिंगीवाल, कुचबंदा, कलंदर आदि सभी समाज का अभिन्न हिस्सा थे।[7]

घुमंतू जनजाति के लोगों का पेशा

उपलब्ध पुराने दस्तावेजों से पता चलता है कि ये समुदाय बाद मध्यकाल के अंतिम चरणों में मुख्यधार के लिए कई दुरूह कार्य करने लगा था। संपर्क सहजता का रूप लेता जा रहा था। इन तमाम घुमंतू जनजातियों और इनके पारंपरिक व्यवसायों के बारे में जो जानकारी मिलती है, उसके अनुसार ‘बंजारे’ पशुओं पर माल ढोने (मुख्यतः नमक और मुल्तानी मिट्टी) का काम किया करते थे; ‘गाड़िया लोहार’ जगह-जगह जाकर औजार बनाते और बेचते थे; ‘बावारिये’ जानवरों का शिकार और उनके अंगों का व्यापार करते थे; ‘नट’ नृत्य और करतब दिखाते थे; ‘कालबेलिया’ (सपेरा) सांपों का खेल दिखाते थे; ‘भोपा’ स्थानीय देवताओं के आख्यान गाते थे; ‘सिकलीगर’ हथियारों में धार लगाते थे; ‘सिंगीवाल’ हिरन के टूटे हुए सींग से लोगों का इलाज करते थे और इन्हें प्राकृतिक औषधियों का ज्ञाता समझा जाता था; ‘कुचबंदा’ मिट्टी के खिलौने बनाते थे; ‘कलंदर’ भालुओं और बंदरों से करतब दिखाते थे; ‘ओढ’ नहर बनाने और जमीन को समतल करने का काम करते थे; ‘जागा’ लोगों की कई पीढ़ियों का ब्यौरा रखते थे और जजमानी में जगह-जगह जाते थे; ‘बहरूपिये’ और ‘बाज़ीगर’ हाथ की सफाई दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते थे।”[8]
लोकतंत्र को अर्थवान और परिपूर्ण होने के लिए जिस सामाजिक जागरूकता को लाना हैं, उसमें पीछे छूटे समुदायों की बेहतरी का प्रयास पहले स्थान पर है। इसे लाए बिना समतामूलक समाज नहीं बनाया जा सकता है। विमुक्त-घूमंतु जातियां ऐसी ही वंचित जातियां हैं। स्वाधीनता संग्राम से लेकर अंग्रेजों के जाने तक यह जाति गोरी सरकार से मोर्चा लेती रही। आजाद के बाद अगर इस समुदाय को आजादी, नागरिकता, मतदान और विकास तक का अहसास तक नहीं हो पाया है, तो इससे बुरी बात क्या हो सकती है?
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
[1] विमुक्त – घुमंतू: भारत के नहीं बन सकते हैं, विमुक्त-घुमंतू आदिवासियों का मुक्ति-संघर्ष, पृ.9, संपादक – रमणिका गुप्ता, सामयिक प्रकाशन, सं. 2016
[2] विमुक्त – घुमंतू: भारत के नहीं बन सकते हैं, विमुक्त-घुमंतू आदिवासियों का मुक्ति-संघर्ष, पृ.9, संपादक – रमणिका गुप्ता, सामयिक प्रकाशन, सं. 2016
[3] विमुक्त – घुमंतू: भारत के नहीं बन सकते हैं, विमुक्त-घुमंतू आदिवासियों का मुक्ति-संघर्ष, पृ.10, संपादक – रमणिका गुप्ता, सामयिक प्रकाशन, सं. 2016
[4] सांसी होना जुर्म है, सूरजपाल नांगिया, पृ 82 विमुक्त-घुमंतू आदिवासियों का मुक्ति-संघर्ष, पृ.82, संपादक – रमणिका गुप्ता, सामयिक प्रकाशन, सं. 2016
[5] सांसी होना जुर्म है, सूरजपाल नांगिया, पृ 82, विमुक्त-घुमंतू आदिवासियों का मुक्ति-संघर्ष, संपादक – रमणिका गुप्ता, सामयिक प्रकाशन, सं. 2016
[6] विमुक्त-घुमंतू : भारत के नागरिक नहीं बन सकते हैं, रमणिका गुप्ता,विमुक्त-घुमंतू आदिवासियों का मुक्ति – संघर्ष, संपादक रमणिका गुप्ता, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.12, संस्करण 2016
[7] घुमंतू जनजातियां : अभिन्न रहा हमारे समाज का हिस्सा जिसे अपराधी बनाने के दोषी हम ही हैं, राहुल कोटियाल, सत्याग्रह, 17 अगस्त 2016, सत्याग्रह, राहुल कोटियाल
[8] घुमंतू जनजातियां : अभिन्न रहा हमारे समाज का हिस्सा जिसे अपराधी बनाने के दोषी हम ही हैं, राहुल कोटियाल, सत्याग्रह, 17 अगस्त 2016
जनार्दन गोंड
जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति : इलाहाबाद विश्वविद्याालय के हिन्दी विभाग में सहायक प्रोफेसर।
साभार : https://www.forwardpress.in/2018/11/thugs-of-hindostan-film-samiksha/

Thursday 8 November 2018

तुम्हारा यह स्कूल ड्रेस

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हजारों साल की यातनाओं का दर्द उभारता है तुम्हारा स्कूल ड्रेस 
दुर्ग की मजबूत दीवारों में कैद नहीं थी किताबें
पोथियाँ कैद नहीं रह सकती किसी कैदखाने में
वह तो हमारी जाति थी जिसके लिए दुर्ग की मजबूत दीवारें थीं
बुर्ज पर प्रहरी थे और उनके खतरे की घंटी हमारे खिलाफ़ बजती थी

एक रंग इतिहास की सैकड़ों परतों को उघाड़ सकता है
इसका उदाहरण है तुम्हारा स्कूल ड्रेस
एक आकृति हजारों स्मृतियों से संवाद कर सकती है
इसका उदाहरण है तुम्हारा स्कूली झोला
आज जब तुम स्कूल जाती हो
तो लगता है यातनाओं का दर्द कम हो रहा है
आसुंओं की नमी अब कुछ पतली हो चली है
तुम घर की चौखट से ऐसे निकलती हो
जैसे सूरज का रथ निकल रहा हो अँधेरे के खिलाफ
तुम न सिर्फ चौका बर्तन धो जाती हो
बल्कि उन अँधेरे कमरों को भी बुहार जाती हो
जो हमारे ही घरों में पुरुषों की सोच में कहीं टंगा होता है
तुम्हारा यह स्कूल ड्रेस
हजारों साल की प्रतीक्षा का आविष्कार है
यह उस गरिमा का प्रतीक है
जिसे हर देह में होना चाहिए
इसे इस्तेमाल किया जाना चाहिए
हर तरह के अपमान और गरीबी के खिलाफ
सत्ताओं के खिलाफ तो
इससे बेहतर और कोई दूसरा हथियार हो नहीं सकता
इसके आविष्कारकों ने यही कहा है
तुम्हारा यह स्कूल ड्रेस जितना सौम्य और शालीन है
यह उतना ही ताकतवर है
इसे बुनकरों ने कटी हुए अंगुली
और जली हुई रोटी से सेंक कर बुना है
तुम दूर नहीं हो सकती कभी इनकी कारीगरी से
यह इतिहास है तुम्हारे होने का
तुम जाओ और फ़ैल जाओ
चहकती हुई इस दुनिया की रस्मों-रिवाज पर
यातनाओं के हर रूप को मिटा दो
उस आँख की स्याही से इबारत लिख डालो
जो अब तक मेरे सीने में कसमसाती रही है |
अनुज लुगुन २/११/१८
(फेसबुक से साभार!)

Saturday 3 November 2018

दैनिक पूर्वोदय में प्रकाशित विज्ञापन : संरचना व स्वरूप

तोको यानी
प्रयोजनमूलक हिंदी (डिप्लोमा), 
पूर्व-छात्र
(मार्गदर्शन : डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद)
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(अध्ययन-विश्लेषण)

          वर्तमान समय में विज्ञापन एक प्रमुख व्यवसाय का रूप धारण कर चुका है। यह उभार हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ा है। आज लोगों के जीवन में विज्ञापन की भूमिका अहम है। विज्ञापन जिसका मुख्य लक्ष्य/कार्य वस्तुओं की बिक्री में सहायता करना है। इसके अतिरिक्त जनसमूह तक सम्बन्धित सूचना, संदेश, जानकारी, विचार आदि को पहुँचाना है; अपने उद्देश्य में सफल है। विज्ञापन का निर्माण कलात्मक और रचनात्मक ढंग से होना जरूरी है। इस कारण विज्ञापन के अपील और प्रभाव में इज़ाफा होता है। विज्ञापनदाता हरसंभव प्रयास करते हैं कि उनके द्वारा प्रस्तुत विज्ञापन लोक-अभिरुचि एवं पसन्द का हो। इसके लिए विज्ञापक में सृजनात्मक शक्ति का होना आवश्यक है। 
  समाचार-पत्र का जनसंचार माध्यमों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस माध्यम में विज्ञापनों की उपस्थिति सर्वाधिक है; क्योंकि यहाँ हर तरह के विज्ञापन प्रकाशित किए जाते हैं जिन्हें प्रकृति, रंग, भाषा, आकार इत्यादि के आधार पर अलग-अलग पहचाना जा सकता है। 
         जनसाधारण तक पहुँच के मामले में हिंदी सबसे आगे हैं। उत्तर-पूर्व के राज्यों में हिंदी भाषा स्वेच्छा से बोली-समझी जाती है। यही नहीं यहाँ के लोग हिंदी लिखने-पढ़ने में भी दक्ष एवं कुशल हैं। असम का गुवाहाटी मुख्य केन्द्र है जहाँ से कई समाचार-पत्र प्रकाशित किए जाते हैं। जैसे-दैनिक पूर्वोदय, सेंटिनल, पूर्वांचल प्रहरी, प्रातःख़बर इत्यादि। इनमें ‘दैनिक पूर्वोदय’ समाचार-पत्र एक लोकप्रिय हिंद समाचार-पत्र है। इस समाचार-पत्र में पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा देश के विभिन्न राज्यों से जुड़ी ख़बरें भी प्रकाशित की जाती हैं। इस पत्र का गुवाहाटी सहित जोरहाट संस्करण भी निकलता है। इसका प्रसार गुवाहाटी के निकटतम सभी राज्यों तक है। 

(जारी...)