Monday 6 June 2016

भारतीय विद्याविद्(इंडोलॉजिस्ट)

 आप जितना जानते हैं वह बहुत कुछ हो सकता है, सबकुछ नहीं। इसलिए और जानने का प्रयास करें। आजीवन सीखते रहने की आदत डालें। अपने को हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें। खुद पर और अपने अध्यापक पर पूरा भरोसा करें। : राजीव रंजन प्रसाद
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फादर कामिल बुल्के-(बेल्जियम) : 
फादर कामिल बुल्के एक ऐसे विद्वान थे जो भारतीय संस्कृति और हिन्दी से जीवन भर प्यार करते रहे। फादर कामिल बुल्के हिन्दी के एक ऐसे समर्पित सेवक रहे, जिसकी मिसाल दी जाती है। 1909 में बेल्जियम में जन्में फादर कामिल बुल्के ने अपने युवा दिनों में संन्यासी बनने का फैसला करके भारत की तरफ रुख किया और झारखंड के रांची में आकर एक स्कूल में पढ़ाने लगे। खुद इंजिनियरिंग के स्टूडेंट रहे कामिल बुल्के को भारत में बोली से ऐसा लगाव हुआ कि उन्होंने न सिर्फ हिन्दी ,बल्कि ब्रज,अवधी और संस्कृत भी सीखी। इन भाषाओं को भारतीय विश्वविद्यालयों में सीखने और उनमें मानक डिग्रियां हासिल करने के दरम्यान उन्हें राम नाम की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने राम कथा की उत्पत्ति पर सबसे प्रामाणिक शोध किया। बुल्के का यह हिन्दी प्रेम ही था कि शोध के दौरान उन्होंने अपनी पीएचडी थीसिस हिन्दी में ही लिखी। जिस समय वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे उस समय देश में सभी विषयों की थीसिस अंग्रेजी में ही लिखी जाती थी। उन्होंने जब हिन्दी में थीसिस लिखने की अनुमति मांगी तो विश्वविद्यालय ने अपने शोध संबंधी नियमों में बदलाव लाकर उनकी बात मान ली। उसके बाद देश के अन्य हिस्सों में भी हिन्दी में थीसिस लिखी जाने लगी। बाद में वह सेंट जेवियर कॉलेज,रांची में हिन्दी और संस्कृत के विभागाध्यक्ष भी रहे। कामिल बुल्के का एक और महत्वपूर्ण काम हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश की तैयारी थी,जिसे उन्होंने उम्र भर बहुत जतन से बढ़ाया। बाद के दिनों में वह चर्च में पुजारी बने और उनके नाम के आगे फादर लगा। भारत में उन्होंने बाइबल का हिन्दी अनुवाद भी पेश किया। उन्होंने लिखा भी है, श्ईश्वर का धन्यवाद, जिसने मुझे भारत भेजा और भारत के प्रति धन्यवाद,जिसने मुझे इतने प्रेम से अपनाया। 7 अगस्त 1982 को फादर बुल्के का निधन हो गया। हिन्दी सेवा के लिए उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर नित्यानंद तिवारी उनके बारे में सम्मानपूर्वक कहते हैं-‘‘मैंने उनमें हिंदी के प्रति हिंदी वालों से कहीं ज्यादा गहरा प्रेम देखा. ऐसा प्रेम जो भारतीय जड़ों से जुड़ कर ही संभव है. उन्होंने रामकथा और रामचरित मानस को बौद्धिक जीवन दिया।’’ एक स्थान पर वह स्वयं कहते हैं,-‘‘ मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में रॉंची पहुँचा और मुझे यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है। मेरे देश की भाँति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है. इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया।’’

डॉ.जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन-(आयरलैंड) :
जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन का भारतीय विद्याविशारदों में,खासकर भाषाविज्ञान के क्षेत्र में,उनका स्थान अमर है। ग्रियर्सन को भारतीय संस्कृति और यहां के निवासियों के प्रति अगाध प्रेम था। भारतीय भाषाविज्ञान के वे महान् उन्नायक थे। वह 1873 में इंडियन सिविल सर्विस के अफसर के तौर पर भारत आए था। वह उन कम गोरे ऑफिसरों में थे,जिन्होंने अंग्रेजों के शासनकाल में राज करने से ज्यादा अपनी प्रजा के हित में मेहनत और निष्ठा से काम करने पर जोर दिया। उन्हें इस बात का श्रेय है कि उन्होंने कई भाषाओं वाले इस मुल्क में भाषाओं का एक परिवार श्लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाश् जैसी ऐतिहासिक कृति के जरिए बनाया। कुल 21 जिल्दों में छपा यह सर्वे स्थाई महत्व का है। 7 जनवरी, 1851 को आयरलैंड के डब्लिन में जन्मे ग्रियर्सन का बचपन से ही भाषाओं के प्रति लगाव था। आम दफ्तरी के उलट ग्रियर्सन दफ्तर के बाद अपना बचा हुआ वक्त संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और बांग्ला भाषाओं और साहित्य के अध्ययन में लगाते थे। जहां भी उनकी नियुक्ति होती थी,वहां की भाषा, बोली, साहित्य और लोक जीवन की ओर वह खिंचते चले जाते थे। जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को ‘आम बोलचाल की महाभाषा’ कहा था। परदेसी होने के बावजूद उन्होंने श्खड़ी बोली हिन्दी श्को न सिर्फ सीखा,बल्कि उस सीख को उन्होंने हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकें तैयार कर हिन्दी को ही लौटा भी दिया। उनके काम का दायरा इस तरह अकादमिक जरूर था,लेकिन एक नई भाषा में यह पहली और असरदार कोशिश थी, जिसने आगे की राह खोली। 1941 में उनकी मृत्यु हो गई। सरकार ने उनकी सेवाओं की याद में श्डॉ.जॉर्ज ग्रियर्सन पुरस्कारश्की स्थापना की है,जो केंदीय हिन्दी संस्थान द्वारा किसी गैर भारतीय कोहिन्दी के क्षेत्र में विशिष्ट सेवा के लिए दिया जाता है। 

रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर -(न्यूजीलैंड) :
रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर सच्चे हिन्दी प्रेमी थे। उन्होंने पश्चिमी दुनिया में हिन्दी की अलख जगाई। 1964 से लेकर 1997 तक कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में वह हिन्दी पढ़ाते रहे। वह चोटी के भाषा विज्ञानी, व्याकरण के विद्वान, अनुवादक और हिन्दी साहित्य के इतिहासकार थे।  मेक्ग्रेगॉर ने हिन्दी की शिक्षा 1959-60 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ली। उसके बाद उन्होंने 1972 में हिन्दी व्याकरण पर ‘एन आउटलाइन ऑफ हिन्दी ग्रामर’ नाम की अहम किताब लिखी। इस विनम्र हिन्दी सेवी का हाल ही में 84 साल की उम्र निधन हो गया।

पीटर वरान्निकोव- (रूस)
पीटर वरान्निकोव के बारे में मशहूर है कि भले ही वह रूसी हों,पर कभी किसी जन्म में जरूर हिंदुस्तानी रहे होंगे। भारत उनके दिल में बसता है। उन्हें तुलसीदास की अमर रचना ‘रामचरितमानस’ ने इतना प्रभावित किया कि उन्होंने इसका रूसी में अनुवाद किया। यह अनुवाद बेहद चर्चित हुआ। वह 70 के दशक में दिल्ली स्थित सोवियत सूचना केंद से जुड़े थे और हिन्दी लेखकों और दिल्ली के कॉफी हाउस में होने वाली उनकी बैठकों में पाबंदी से आते थे। सोवियत संघ के विघटन तक उन्होंने यहीं रहकर काम किया। रूस लौटने के बाद उन्होंने वहां हिन्दी सिनेमा पर केंदित एक पत्रिका भी निकाली। पीटर बढ़ती उम्र की वजह से अब सक्रिय तो नहीं हैं,लेकिन रूस में हिन्दी जानने वालों के बीच एक प्रेरक शख्सियत जरूर हैं।

प्रोफेसर च्यांग चिंगख्वेइ (चीन) :
प्रफेसर च्यांग चिंगख्वेइ ने चीन में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। वह लगभग 25 बरसों से पेइचिंग यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग से जुड़े हैं। वह आजकल पेइचिंग यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इंडियन स्टडीज के अध्यक्ष हैं। हिन्दी के महाकवि जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आंसू’ के मर्मज्ञ प्रोफेसर च्यांग हिन्दी में कहानियां भी लिखते हैं। वह कहते हैं, ‘‘चीन में भारत और हिन्दी को लेकर हमेशा से जिज्ञासा का भाव रहा है।’’ उनका मानना है कि भारत-चीन के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों के चलते चीन में हिन्दी का सही तरीके से प्रसार नहीं हो पाया। उन्हें 2007 में न्यूयॉर्क में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी सेवा के लिए सम्मानित किया गया। 

अकियो हागा (जापान)
यह जापान में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए काम करते हैं। जापानी और हिन्दी भाषा के विद्वान एवं कवि अकियो हागा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा में प्रोफेसर के पद पर हाल ही में नियुक्त हुए हैं। वे विश्वविद्यालय में जापानी भाषा के विद्यार्थियों को पढाएंगे। भारत से उनका शुरुआती जुड़ाव भगवान बुद्ध की वजह से हुआ। उन्होंने टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज से हिन्दी में एम.ए.करने के बाद वहीं हिन्दी पढ़ाना शुरू किया। टोक्यो यूनिवर्सिटी में हिन्दी 1909 से पढ़ाई जा रही है। भारत से बाहर सबसे पहले हिन्दी की कक्षाएं यहीं शुरू हुई।

इमरै बंघा (हंगरी) 
कहां हंगरी, कहां हिन्दी। लेकिन जब लगन लगती है, तो लोग दूर-दराज से खिंचे चले आते हैं। बुडापेस्ट यूनिवर्सिटी में इंडोलॉजी की पढ़ाई करते वक्त इमरै बंघा को भारतीय कवि आनंदघन की कविता से ऐसा जुड़ाव बना कि उन्होंने न सिर्फ हिन्दी की विधिवत पढ़ाई की, बल्कि इस कवि पर भारत स्थित शांतिनिकेतन यूनिवर्सिटी से हिन्दी में पीएचडी भी की। उनकी लिखी किताब श्सनेह को मारगश् ने हिन्दी प्रेमियों को अपने ही एक पुरखे कवि को एक नई रोशनी में देखने की सहूलियत दी। बंघा के इस काम की प्रामाणिकता इसी बात से जाहिर है कि उन्होंने आनंदघन की जीवनी लिखने के साथ-साथ उनके गुम हुए ऐसे कई पदों को भी ढूंढ निकाला,जिसे पाने की जहमत किसी भारतीय हिन्दी सेवक ने कभी नहीं उठाई। फिलहाल बंघा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ा रहे हैं। 
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साभार :

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