Monday 24 December 2018

हिंदी भाषा और उसकी अस्मिता

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-डा. यशस्विनी पाण्डेय

विचारों के आदान-प्रदान को भाषा कहा गया है | वाणी द्वारा अभिव्यक्ति ही भाषा है |भाषा का प्रारम्भिक रूप बोली है जिससे विकसित होकर बोली उपभाषा और उपभाषा भाषा का रूप ग्रहण करती है |भाषा सामाजिक सम्पति है जो अनुकरण से अर्जित की जाती है |हम जिस परिवेश ,समाज और परिवार में जन्म लेते हैं वहां जो भाषा जिस सुर,भाव ,लहजा या स्वराघात के साथ बोला जाता है हम वैसे ही सीखते हैं |बच्चा सबसे ज्यादा अपनी माँ से कोई भाषा सीखता है क्योंकि माँ की भाषा से संबंध गर्भ से ही शुरू हो जाता है |बाहर आने के बाद भी वो सर्वाधिक माँ के ही सम्पर्क में रहता है शायद इसीलिए हम उसे मातृभाषा की संज्ञा देते हैं |मातृभाषा में मौलिक विचार आते हैं। कल्पना के पंख लगते हैं और मौलिक विचार उसी भाषा में हो सकता है जिस भाषा में आदमी सांस लेता है, जीता है।हिंदी हमारी मातृभाषा और,राष्ट्रभाषा है |भाषाओँ की दुनिया मंदिर ,पहाड़ ,झरने ,समंदर और वृक्ष की तरह है उनकी उम्र में जितनी सदियाँ जुड़ेंगी उनका महत्व उतना ही बढ़ा हुआ माना जाएगा| इस संदर्भ में हिंदी का मामला थोड़ा अलग है उसके प्राचीन और आधुनिक संस्करणों में ज्यादा फर्क नहीं है इसलिय वो अपनी प्राचीनता का दावा करते हुए सामने नहीं आती |
भारोपीय,विश्व भाषाओँ का प्रमुख भाषा परिवार है |इसकी भारतीय ईरानी अर्थात आर्य से भारतीय आर्य कुल का विकास हुआ है |भारतीय आर्यभाषा के विकास को तीन कोटियों में विभक्त किया गया है -प्राचीन ,मध्युगीन एवं नव्य|| आधुनिक भारत की प्रमुख और प्रतिनिधि भाषा मध्यदेशीय हिंदी रही है |वर्तमान समय में मेरठ तथा दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली खड़ी बोली ने मानक हिंदी का रूप ही नही ले लिया बल्कि साहित्यिक हिंदी ,राजभाषा हिंदी ,राष्ट्रभाषा हिंदी तथा विश्वभाषा हिंदी का स्वरूप ग्रहण कर लिया है |विश्व के प्रायः सभी देशों में
विश्वविद्यालयी स्तर तक इसका अध्ययन अध्यापन किया जाने लगा है |इसके विकास और महत्ता का प्रमुख कारण हिंदी की मानकता ,उसकी देवनागरी लिपि और उसकी वैज्ञानिकता है |
विशाल भारत देश की सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयोग होने से इसके विकास और दिशा को गति मिली है |भाषा, व्याकरण, साहित्य, कला, संगीत के साथ-साथ अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों में हिंदी ने अपनी उपयोगिता, प्रासंगिकता एवं वर्चस्व कायम किया है। हिंदी की यह स्थिति हिंदी भाषियों और हिंदी समाज की देन है।
हिंदी अपनी भाषा में कई छोटे -छोटे रूप ले चुकी है जैसे साहित्यिक हिंदी ,व्यवसायिक हिंदी ,राजभाषा हिंदी ,सिनेमाई हिंदी इत्यादि |पहले पहल ग्रीनफ़ील्ड ने परिवार,धर्म, मित्रता ,शिक्षा और कार्य इन पांच प्रयोग क्षेत्र के संदर्भ में भाषा का प्रारूप निर्धारित किया था |बाद में फिशमैन ने भाषा के प्रयोग क्षेत्र और रूप को अधिक वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित और निर्धारित करने का प्रयास किया |उनका प्रयोग क्षेत्र -घर ,शिक्षा अर्थात विद्यालय ,प्रशासनिक/कार्यालयी ,कानून ,व्यवसाय /व्यापार ,धर्म ,साहित्य ,संचार माध्यम रहा |आज भी उनका वर्गीकरण वर्तमान संदर्भों में सार्थक है |हिंदी भाषा के ये रूप हमारे सामने अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग तरह से आते हैं |हिंदी भाषा पर कुछ अन्य भाषाओँ का भी काफी प्रभाव है और रहा है |जिसमे सबसे पहले संस्कृत है| साहित्यिक हिंदी में संस्कृत के अधिक शब्द पाये जाते हैं |बोलचाल की हिंदी क्षेत्र क्षेत्र पर निर्भर करती है |आजकल बोलचाल की हिंदी में तद्भव ,अंग्रेजी और उर्दू शब्दों का ज्यादा प्रभाव रहता है|
अपनी भाषा पर दूसरी भाषाओँ के शब्द या प्रभाव को समाहित करने की बात या प्रवृति तो ठीक है पर उस भाषा को ही अपनी भाषा मान लेना कहाँ तक ठीक है ?हिंदी भाषा के साथ यही स्थिति पैदा हो गयी है और यह समस्या बढ़ती ही जा रही है |यहां अंग्रेजी भाषा का ही वर्चस्व है |विश्व के तमाम ऐसे देश हैं जो अपनी निज भाषा के साथ ही विकास कर रहे हैं| तमाम ऐसे देश हैं  जिन्हे अंग्रेजी नहीं आती फिर भी वो विश्व का चक्कर लगा रहे हैं |कुछ महीने पहले अंडमान यात्रा में हैवलॉक नामक द्वीप पर दस दिन रुकना हुआ था वहां कई सारे विभिन्न देशों के लोग आये थे |कुछ देश के लोग ऐसे थे  जिन्हे न हिंदी आती थी न अंग्रेजी फिर भी वो वहां रह रहे थे, पूरा आनंद ले रहे थे और वहां की सारी गतिविधियों में हिस्सा ले रहे थे | निसंदेह उन्हें दिक्क्त तो हो ही रही होगी फिर भी वो खुश थे और लोगों से अपनी भाषा में ही ऐसे बात कर रहे थे जैसे सभी उनकी भाषा समझ रहे हों | मेरे कहने का ये तातपर्य ये नही की दूसरी भाषा नहीं सीखनी चाहिए या दूसरी भाषा का सम्मान नहीं करना चाहिए ,मगर अपनी भाषा को प्राथमिकता देते हुए |
देखते देखते हम कब अंग्रेजी के प्रभाव में गुलाम बन गए पता नहीं चला और ये प्रभाव अब ऐसे है की जहाँ किसी को अंग्रेजी नही आती वो अपमानित महसूस करता है या उसे कराया जाता है |
दरअसल दोष हमारे देश की भाषा नीति में ही है हमारे देश की भाषा न एक है न भाषायी एकता है |दक्षिण पूरब पश्चिम उत्तर की भाषा भी ४ नहीं दक्षिण की बात करें तो यहां भी तमिल ,तेलुगु ,कन्नड़ ,मलयालम जैसे मोर्चे खड़े हैं सबमे एक दूसरे से सर्वश्रेष्ठ होने की होड़ है |मानसिकता का हनन यहां तक है भाषा को लेकर की दक्षिण में अगर रास्ता उत्तर भारत के लहजे में पूछा जाए तो जानते हुए भी लोग मदद नहीं करते और उनके लहजे में पूछने पर करते हैं |उत्तर भारत में दक्षिण भारत वालों को सहयोगी भाव से नहीं रखा या लिया जाता दक्षिण भारत में उत्तर भारत वालों को यही नही एक प्रान्त वाले भी दूसरे प्रान्त वालो की भाषायी मदद नही करना चाहते |हमारे देश की तमाम समस्यायों में सबसे बड़ी समस्या भाषा को लेकर है |
भारतीय भाषाओँ के इस आपसी वैमनस्य के कारण हम भारतवासियों का ही व्यापक स्तर पर हानि है और हो रहा है |भाषा को लेकर प्रान्त विभाजन ये सब कितना शर्मनाक है इससे अच्छी स्थिति तो तब थी जब हमारे पास कोई भाषा नहीं थी और संकेतों से भी काम चल ही जाता था |मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए भाषा का निर्माण किया और सबसे ज्यादा असुविधा भाषा के कारण ही हो रही है |
भाषा पर एक कठोर कानून बनना चाहिए कम से कम समस्त विश्व की नही तो भारत की भाषा तो एक होनी ही चाहिए चाहे वो एक नई भाषा का निर्माण किया जाए या भारत की तमाम भाषाओँ में से एक वैज्ञानिक भाषा का चुनाव कर लिया जाए |
अंग्रेजी को भी महत्व दिया जाए उतना ही जितना कि दिया जाना चाहिए |पर अंग्रेजी को सर का ताज बना दिया गया है |शिक्षा प्रणाली पर जबरदस्त तरीके से अंग्रेजी का प्रभाव है |आजकल तो हर वर्ग के लोग यहां तक कि वो लोग भी जो अंग्रेजी के सख्त विरोधी हैं वो भी अपने बच्चों को कान्वेंट में ही पढ़ाते हैं |दोष पूरी तरह उनका नहीं है उनकी नौकरी तो जैसे तैसे लग गयी पर उनकी भावी पीढ़ी का तो ऐसे है कि स्टाइल भी अंग्रेजी में मारना है ,हंसना भी अंग्रेजी में है रोना भी और प्यार भी अंग्रेजी में ही करना है नहीं तो कुछ नहीं होने वाला जैसी स्थिति है |
परिस्थिति जैसी है और हो गयी है अब नियंत्रण मुश्किल ही है |हर अच्छी और उच्च शिक्षा अंग्रेजी में है ,चाहे व्यवसायिक शिक्षा हो तकनीकि या चिकित्सीय |कहीं साक्षात्कार है तो वो भी अंग्रेजी में ही एकाध क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है | ऐसे में हिंदी के सामने बहुत चुनौतियाँ हैं |ऐसी प्रतिकूल और विकट परिस्थिति में खुद को ज़िंदा रख पाना और अपनी अस्मिता बनाये रख पाना ही हिंदी की चुनौतियाँ हैं |
या तो सरकार अंग्रेजी को ही मातृभाषा घोषित कर दे जिसमे कि शायद कोई बुराई नहीं क्योंकि हम हर जगह अंग्रेजी के ही बीज बो रहे हैं जो पौधे पत्तियां फूल और शाखाएं निकलेंगी वो अंग्रेजी की ही होंगी |
दूसरा ये की अपनी मातृभाषा के साथ खुद हमारी अस्मिता नही जुडी रह गयी सरकारी स्कूल में पढ़ो तो करियर में दस तरह की समस्या ,हिंदी माध्यम में पढ़ो तो अंक कम आने की संभावना औए आगे के अंग्रेजी माध्यम के उच्च शिक्षा के लिए हिंदी आधार का होना हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या बन कर आती है |
ये हुई हिंदी भाषा का वर्तमान स्वरूप और समस्याओं का संक्षेपीकरण अब आइये हिंदी भाषा पर बाजारीकरण और भूमंडलीकरण पर एक नजर डालते हैं |
उपरोक्त जो मैंने हिंदी के सामने आने वाली समस्यायों को गिनाया है उन सबके बावजूद देशी व्यापार हो या विदेशी उनको अपनी प्रगति और वृद्धि के लिए हिंदी का आँचल पकड़ना पड़ रहा है |मीडिया और समाचार पत्रों में भी हिंदी का बाजारीकरण हो गया है |हिंदी व्यापार और व्यवसाय के साथ आगे बढ़ रही है इसमें बुराई क्या है ?किसी भी तरीके से बढ़ तो रही है बाजार अपना फायदा देख रहा है हमे अपना फायदा देखना चाहिए |संस्कृत ,प्राकृत और अपभ्रंश से विकसित होता हिंदी आज निरंतर परिपक्व और विकसित हो रहा  है |हिंदी के भविष्य की चिंता करने वालों को चिंता करने की बजाय इसकी व्यापकता और बढ़ते विभिन्न क्षेत्रों और रूपों को देखना चाहिए |किसी भी भाषा ,भाषा के स्वरूप ,क्षेत्र कार्यक्षेत्र में परिवर्तन या लचीलापन नही होगा तो वो भाषा कभी आगे नही बढ़ पाएगी |
आज हिंदी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है -हिंदी फिल्में ,हिंदी गाने ,हिंदी पत्र पत्रिकाओं ,हिंदी टीवी चैनल,हिंदी में प्रचार तेजी से बढ़ रहे हैं| मार्केट ने अपनी नजर हिंदी पर गड़ाई है मजबूरी में ही सही पर हिंदी को बढ़ावा दे रही है |जब से विदेशी कंपनियों को भारतीय बाजारों में जगह और अनुमति दी गयी है तब से हिंदी भाषा का देश के ही नही विश्व के स्तर पर भी विकास हो रहा है |मार्केटिंग की गूढ़ सूझ और अनुभव रखने वाले इन कंपनियों को ये मालूम है की किसी भी देश में वहां की भाषा ,संस्कृति ,खानपान ,मानसिकता जाने बगैर वहां व्यापार करना और जमाना आसान नहीं है| ऐसे में इन कंपनियों ने अपने उत्पादों को भारतीय भाषा, मानसिकता और जरूरतों के हिसाब से पेश किया| अपने उत्पादों के प्रचार के लिय हिंदी भाषा को चुना क्योंकि उनके बाजार से ताल्लुक रखने वाले ६० प्रतिशत मध्यवर्गीय भारतीय हैं |
हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं कि भूमंडलीकरण ने भारतीय जीवन को गहरे में जाकर प्रभावित किया है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हिंदी खत्म हो जाएगी और अंग्रेज़ी उसका स्थान ग्रहण कर लेगी|वो कहते हैं, “भारत की 54 फीसदी आबादी 25 साल से कम उम्र के नौजवानों की है और भूमंडलीकरण ने उसकी आकांक्षाएं और चिंताएं बदली हैं. सूचना और आभासी दुनिया की नागरिकता के धरातल पर ग्वालियर, गुना और दिल्ली के युवा में ज़्यादा फर्क नहीं है. दोनों एक वर्चुअल वर्ल्ड में जी रहे हैं और रियल टाइम में चैट कर रहे हैं.”
प्रोफ़ेसर अग्रवाल कहते हैं कि टेलीविज़न के ज़रिए आज की पीढ़ी सारी दुनिया को अपने आसपास घटते देख रही है. इस क्रांति से जो कनेक्टिविटी का नया बोध उत्पन्न हुआ है, जो नई समस्याएं उत्पन्न हुई हैं और जो मर्यादा के नए प्रतिमान विकसित हुए हैं. उसे आज का हिंदी लेखक पकड़ नहीं पा रहा है. इस पीढ़ी से संवाद नहीं बना पा रहा है. इसीलिए आज के युवा किसी हिंदी लेखक को पढ़ने की बजाए चेतन भगत के उपन्यासों को मूल रूप में या उसके हिंदी अनुवाद को पढ़ना पसंद करते हैं.|
वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव कहते हैं, “हिंदी का लेखक आज की नब्ज़ को पकड़ने की बजाए महान साहित्य रचना चाहता है. जब वो इस ग्रंथि से आज़ाद हो जाएगा और वो उन विषयों की ओर जाएगा और उन संवेदनशीलताओं को पकड़ेगा जो आज के जीवन की सच्चाई है तो शायद ऐसी चीज़ लिखी जा सकेगी जिसे बड़े पैमाने पर पाठक पढ़ेंगे. हिंदी में क्षमता कम है ऐसा मैं नहीं मानता.”
हिंदी की इसी क्षमता और उसके उत्तरोत्तर सक्षम होने की ओर इशारा करते हुए ‘कलिकथा वाया बाइपास’ नामक उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अलका सरावगी कहती हैं, “ये सच है कि अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है लेकिन साथ ही भाषा के स्तर पर एक नई शब्दावली का भी गठन हो रहा है जो आज के जीवन यथार्थ को पकड़ने में मददगार हो रही है और इस तरह हिंदी एक समृद्ध भाषा बन रही है.”
वो कहती हैं कि ज़रूरत इस बात की है कि सरकार के स्तर पर और लेखकीय स्तर पर भूमंडलीकरण के इस दौर को सकारात्मक रूप से लिया जाए.
इलाहाबाद में रहनेवाले हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार बद्रीनारायण कहते हैं, “भूमंडलीकरण ने हिंदी को बाज़ार तो दिया है लेकिन वो बाज़ार में सिर्फ विज्ञापन की भाषा होकर रह जा रही है. साहित्य और संस्कृति की भाषा के रूप में जो हिंदी थी उसकी संभावनाओं और क्षमता को इस भूमंडलीकृत बाज़ार ने मारा है. इससे हिंदी साहित्य हाशिए पर पहुंचता जा रहा है.”
बद्रीनारायण आगे कहते हैं कि पहले दूरदर्शन पर, समाचार पत्रों में, पत्रिकाओं में कविता-कहानी की एक जगह हुआ करती थी लेकिन अब धीरे-धीरे इसका स्पेस कम होता जा रहा है.
लेकिन इस कम होते स्पेस का नतीजा क्या निकलेगा. क्या हिंदी का साहित्य खत्म हो जाएगा या फिर उसका स्वरूप पूरी तरह बदल जाएगा.
भाषा पर भूमंडलीकरण के प्रभाव का अध्ययन करने वाले विद्वान प्रभु जोशी कहते हैं, “भूमंडलीकरण की जो सैद्धांतिकी है वो एकरुपता के पक्ष में जाती है. वो मानती है कि अगर एक भाषा होगी तो भूमंडलीकरण के विस्तार में मददगार साबित होगी.”
वो आगे समझाते हैं कि भारत एक बहुभाषा-बोली वाला देश है और साथ ही ये एक बहुत बड़ा बाज़ार है. यहां बाज़ार के विस्तार की एक बहुत बड़ी शर्त है कि लोग एक ही भाषा में संवाद करें, इसीलिए एक सोची समझी रणनीति के तहत अंग्रेज़ी का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है. इसे ज्ञान-विज्ञान और तरक्की की भाषा के रूप में पेश किया जा रहा है.
वर्तमान में सिनेमा ,साहित्य ,मीडिया ,इंटरनेट ,मोबाइल ,बाजार ,प्रचार आदि के माध्यम से नई हिंदी का निर्माण हो रहा है इस नए रूप का स्वागत होना चाहिए और इसे अपनाने में किसी तरह की रूढ़िवादिता या परम्परा आड़े नही आने देना चाहिए |किसी भी भाषा या धर्म के प्रचार प्रसार में संचार माध्यमो का विशिष्ट योगदान रहा है |विकास हमेशा पुरातन के मोह त्याग की मांग करती है |जो भाषा जितनी लचीली और उदार होगी वो नए परिवर्तन और चुनौतियों के साथ भी खुद को खड़ा और टिका रखेगी उसकी जीवनशक्ति उतनी ही अधिक होगी |बाजारीकरण, वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद संस्कृति को हिंदी का शत्रु नही मित्र समझना चाहिए |हिंदी का वर्तमान और भविष्य निसंदेह बहुत उज्जवल नही है पर अन्धकार से भरा भी नहीं है |हिंदी की ज्योति अपने आप जलेगी अगर रुख हवाओं का फेरने का जज्बा हर हिंदुस्तानी में हो |
(साभार : http://e-news.in/?p=1958)