Wednesday 31 May 2017

भाषा और भाषेतर मौन


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राजीव रंजन प्रसाद
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‘मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है
उतना ही कहो।’
- अज्ञेय

सचेतन मनुष्य के भीतर जीने की चाह उत्कट है। उसकी प्राणवत्ता बेहद शक्तिशाली है। प्रकृतितः अपने होने का कारण-बिन्दु मनुष्य खुद है; इसीलिए वह अपनी इयता को बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करता है, जी-तोड़ प्रयास जारी रखता है। यह जिजीविषा ही है जिसमें ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की अन्तर्भावना समोयी हुई है। मनुष्य सामाजिक परिसम्पत्ति बाद में है; प्राकृतिक जीव-सम्पदा पहले है। राजनीतिक और आर्थिक नफे़-नुकसान की सोचने वाला तो एकदम आखिर में है। आज यह साँचा उलट गया है। निकष बदल गए हैं। अब शब्द ही सत्य हैं; उसकी कर्मठता और अर्थवत्ता नहीं। ‘‘कर्म से शब्द का अलगाव पहले वैसा न था जैसा आज है। इस बीच कर्म से शब्द की आत्मीयता को तोड़ने पाली प्रक्रिया की ऐसी आँधी चली है कि शब्द की संस्कृति और उसकी सार्थकता संकट में पड़ गई है। उस प्रक्रिया ने शब्द को कर्म से ही नहीं, अर्थ से भी अलग किया है। हाल के वर्षों में व्यक्ति के जीवन और समाज में कर्म के प्रेरक और मार्ग-दर्शक अनेक शब्दों के अर्थ बदले हैं, बिगड़े हैं; बल्कि भ्रष्ट और नष्ट भी हुए हैं।’’ (प्रो. मैनेजर) 

यह संकट इतना गहन है कि कोई राह नहीं सूझ रहा। इस बारे में दार्शनिक-भाव से बोलने वाला भी झूठ उवाच रहा है। जबकि शब्दार्थ से अलगाव अथवा विलगाव का सीधा परिणाम समाज की सेहत पर पड़ता है। यह समझना उतना ही जरूरी है; जितना हम पदार्थ और ऊर्जा के परस्पर सम्बन्ध को समझते हैं। अभी यह देखें कि रोजमर्रा की समस्याओं में इज़ाफा, घटनाओं में बढ़ोतरी, आसन्न संकटों में अँधाधुँध वृद्धि, आपसी विवाद, मनमुटाव, हिंसक झड़प, लूट, हत्या, दंगा-फ़साद, आतंक, युद्ध आदि सार्वजनिक कारोबार बन चुके हैं जिसके अन्दर मानवीय समाज घुट रहा है। मानुषिक जीवन इस घोर संत्रास से त्राहिमाम्-त्राहिमाम् करता दिखाई दे रहा है। तकनीकी-प्रौद्योगिकी का उन्नत संसार अर्थात् कृत्रिम दुनिया जिस पर हमारा भरोसा इन दिनों बढ़ा है; वह बिल्कुल असहाय है। आज की स्मार्ट-पीढ़ी जो स्मार्ट-फोन में रात-दिन नधायी हुई है; के पास इन चुनौतियों से सामना करने का कौशल नहीं है, सूझ-बूझ और दृष्टि तो बिल्कुल नहीं। युवतर पीढ़ी अलग किस्म के तिलस्मी ढोंग और पाखण्ड में फँसी है। उसके ऊपर ‘डिजीटल’ सम्मोहनास्त्र इतना जबर्दस्त है कि उसका वर्तमान के प्रति कोई भाव-बोध और विचार-बोध नहीं है। जबकि यह कोई सर्वमान्य हल अथवा समुचित निदान नहीं है। नतीजतन, युवा पीढ़ी की प्रतिक्रिया (अकर्मण्य, किंकर्तव्यविमूढ़, निष्कम्प, निष्प्रभ आदि) मौजूदा पारिस्थितिकी-तंत्र से सिर्फ पलायन है, उनका मुकाबला हरग़िज नहीं।

मूल्य आधृत संस्कृति की बात यहीं उठ खड़ी होती है। आत्मबल तथा आत्मविश्वास से पूरित इतिहास-बोध की ओर देखने तथा उस ओर मुड़ने की जरूरत यहीं आन पड़ती है। अक्सर हम पूछ बैठते हैं-‘लोक-विश्वास में क्या है?’, ‘बौद्ध वाङमय में क्या है?’, ‘ऋग्वेद में क्या है?’, ‘अथर्ववेद में क्या है?’, ‘ब्राह्मणों में क्या है?’, ‘उपनिषदों में क्या है’ आदि-आदि। यह हमारे अपढ़ नहीं कुपढ़ होने की निशानी है। निरक्षर नहीं, हमारे अज्ञानी होने का प्रमाणपत्र है। यह सच है, हर तरह के अंधविश्वास, कुरीति, प्रथा, दकियानुसी सोच, अवैज्ञानिक क्रिया-कलाप और असंगत मान्यताओं आदि का समूल नाश होना मानवता का हित-रक्षक है। यह निरोग जीवन हेतु बेहद जरूरी कदम है। लेकिन स्तुत्य सांस्कृतिक-विधान से मुँह फेर लेना कहाँ तक सही है? हमें इस बात को समझना होगा कि हमारी संस्कृति में अनुस्यूत बहुत सारी चीजें अन्यत्म महत्त्व की हैं। उनसे न तो किनारा कसना संभव है और न उन्हें दरकिनार किया जाना वाज़िब है। हमें बल देकर यह विचार करना होगा कि क्योंकर मिथक, प्रतीक, संकेत, आद्यबिंब आदि ने भारतीय हृदयस्थली में वरीय स्थान प्राप्त किया है। कुमारस्वामी की चिंतन-परम्परा का उल्लेख करते हुए मनीषी साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र उचित ही सवाल उठाते हैं कि-‘यक्ष ने क्यों एक जीवन के सूत्र-रूप में, जीवन की यात्रा के रूप में हमारे पूरे चिन्तन में, कला-सृष्टि में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है।’’ आगे उन्होंने स्वयं कहा है, ‘‘किसी भी अभिप्राय या मिथक को सम्पूर्णता में देखने की जरूरत है। प्रतीक कैसे रचे जाते हैं, कैसे मिथक का विस्तार होता है, उस विस्तार में कैसे नई सृष्टि हो जाती है, संसार ही नया बदल जाता है।’’

हर चीज में कार्य-कारण-सम्बन्ध खोजने वालों को विज्ञान और तर्क से परे जाकर सोचने की जरूरत है। यद्यपि व्यष्टिगत-मूल्य एवं व्यक्तिगत-रक्षा को भारतीय दृष्टि में सर्वोपरि माना गया है, तथापि ‘विश्व-मंगलकामना’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के लिए सर्वस्व उत्सर्ग कर जाना अधिक श्रेयस्कर है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जी. लेबान का कहना है कि-‘‘मनुष्य केवल तार्किक प्राणी ही नहीं है, वह अपने संवेगों एवं भावनाओं के अनुरूप अपने अतार्किक एवं अविवेकपूर्ण वस्तुओं में भी विश्वास करता है।’’ इस विश्वास में लोकहित समाहित है, तो सामाजिक उन्नयन का सामूहिकता-बोध अन्तर्भूक्त है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्खीम के अनुसार, ‘‘ईश्वर और मनुष्य के बीच वही सम्बन्ध है जो मनुष्य और समाज के बीच है।’’ ध्यातव्य है कि इस तरह के भाव-बोध एवं विचार-बोध हमारे भीतर ही उमगते हैं। कई बार हम इसे ‘अन्तरात्मा की आवाज़’ कहते हैं जो हमारी आन्तरिक उद्गारों, उद्भावनाओं, उदात्त संकल्प-विकल्पों को पूर्णकाय बनाते हैं। यह वह मूल उद्गम स्थान है जहाँ ‘आत्म’ की चेतस-सत्ता निवास करती है। स्थूल-सूक्ष्म विवेक से परिचालित मनुष्य की यह वह मुख्य धुरी है जहाँ ‘वाक्’ प्रथमतः संवलित-संवेदित होता है; तदुपरान्त अभिव्यक्त-अभिव्यंजित। सचाई के सम्प्रत्यय वाक् में अभिव्यक्त हों या न हों, किन्तु वे अंतःप्रकाशित रहते अवश्य हैं; क्योंकि ‘आत्म्’ से साक्षात्कार अथवा उसका दर्शन इसी लौ में संभव है। इस लौ के नानाविध-बहुविध रूप हैं। यथा: भाव, संवेग, संवेदना, स्वर, लय, गूँज, ओज, नाद, ध्वनि, आवाज़ आदि। ध्वनिगुण और शब्दगुण के इस मिश्रित स्वरूप को ‘आत्म’ की अंतःप्रकृति कहा जा सकता है। इनके चार भेद या स्तरीकरण हैं-1) परा, 2) पश्यन्ती, 3) मध्यमा और 4) बैखरी; और ये सभी ‘आत्म’ के ही उन्मीलन अथवा उसके उद्विकास का संयुक्त-सामूहिक परिमाण हैं। 

मूल्यतः सामाजिक व्यक्तित्व हमारी आत्मा है जो न तो पूर्णतया स्वायत है और न ही निरपेक्ष। अर्थात् हमारा अन्तर्जगत (मनोजगत) बाह््य से उसी तरह संयुक्त-संपृक्त है जिस तरह शब्द और अर्थ का आपसी तादात्मय और सहकार-भाव ‘वाक्’ में सन्निहित है। ‘वाक्’ की उत्त्पति के सम्बन्ध में भारतीय धारणा उच्चतर है। भारतीय वैयाकरण के अनुसार, जहाँ ‘वाक्’ उत्पन्न होता है वह स्थान ‘स्फोट’ का है जो ‘स्फट’ के रूप में आर्भिभूत है। पतंजलि ने ‘महाभाष्य’ रचते हुए उच्चतर वाक् (स्फोट) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। वैयाकरण ‘स्फोट’ उस अर्थबोधक शब्द को कहते हैं जो मानसिक रूप से प्रकट होता है। स्फोट सिद्धांत अपनी मूल संकल्पना में शब्द और अर्थ दोनों को मानव की आंतरिक संरचना में निहित मानता है। भर्तृहरि ने पतंजलि के सिद्धान्त का विस्तार किया और कैय्यट, नागेश आदि वैयाकरणों ने उनका अनुसरण किया तथा यह प्रतिपादित किया कि हम जो ‘भाषा’ बोलते हैं, केवल वही भाषा नहीं है। हम जो बोलते हैं, वह केवल ध्वनिगुण है जो शब्दार्थ का निर्माण करती है। ‘‘जिस प्रकार पदार्थ और शक्ति परस्पर परिवर्तनीय हैं अर्थात् एक ही तत्त्व कभी स्थूल रूप से अणु होता है, तो कभी विशुद्ध ऊर्जा (इनर्जी), उसी प्रकार (साहित्य, काव्य, शास्त्र, ग्रंथ आदि) शब्द और अर्थ का क्रम भी चलता है।’’ भारतीय भाषिक-दृष्टि इस बात से सहमत है कि मनस-प्रक्रिया के अन्तर्गत स्फोट या स्फुरण होना निश्चित है जो भीतरी प्रत्ययों के संयोजन से भाषिक उड़ान लेना चाहता है और सदैव पात्र की तलाश में रहता है। संचार की इस स्फूर्त प्रक्रिया में किसी पात्र के न मिलने पर वह स्वयं से आत्मालाप (मोनोलाॅग) करने लगता है। दूसरी तरफ शब्द सम्प्रेषित होते ही लोक-वस्तु या लोक-संपत्ति हो जाते हैं जिसमें विषय, सन्दर्भ, देशकाल, मूल्य, विचार, प्रतीक, मिथक आदि से भीने-गुँथे अर्थबिंब सर्वाधिक होते हैं। प्रकट रूप में शब्दार्थ का रूपायन कर्म तथा व्यवहार में होता है जिसकी संभाव्य चेतना साहित्य द्वारा अपना मार्ग प्रशस्त करती है। साहित्य वैसे भी कोई अभौतिक अथवा आध्यात्मिक वस्तु नहीं है। यह संभाव्य चेतना से पूरित समवाय है। जीवन-मूल्य एवं मानव-मूल्य से सम्बद्ध मानुषिक बीजतत्त्व है जिसे साहित्यिक मूल्य कहा जाना श्रेयस्कर होगा। साहित्य लिखित-अलिखित बहुविध कार्यकलापों, गतिविधियों, अनुष्ठानों, प्रयोजनों, प्रयुक्तियों आदि का प्रामाणिक दस्तावेज है; अर्थपूर्ण संधान है। अपने इसी शीलगुण के कारण साहित्य सदैव प्रतिपक्ष में जाता है क्योंकि सत्ताओं के ऊपर प्रश्नचिहृ खड़ा करते हैं। साहित्य कभी किसी की स्वीकृति-अस्वीकृति पर निर्भर नहीं करता है। अतएव, साहित्य जब लीलामंच पर प्रवेश करती है, तो उसकी मर्मांतक चीख देर तक गूँजती है; उसकी मुट्ठियाँ विद्रोह में तनी हुई दिखाई देती है। आलोचक मैनेजर पाण्डेय की दृष्टि में, ‘‘भाषा साहित्य का साधन है, माध्यम है। भाषा सामाजिक संपत्ति है। वह मनुष्य की जीवन-प्रक्रिया में बोध और सम्प्रेषण का माध्यम बनती है।...भाषा क्रियाशील मनुष्य के यथार्थ से सम्बद्ध की अभिव्यक्ति का साधन है। मनुष्य क्रियाशील जीवन में ही संवाद का आकांक्षी होता है। वह भाषा के माध्यम से अपने विचारों एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण करता है।’’  

‘वाक्’ आधृत संचार-बोधक सत्ता से इतर होकर देखें तो इस शब्दज संसार में भाषा ही सर्वस्व है, यह धारणा ग़लत है। भाषा के बिना भी प्राणशक्ति की इयता अर्थात् उसकी उपस्थिति देदिप्यमान है। यह भाषेतर तत्त्व है जिसकी अभिव्यंजना मौन है। अर्थात् यह भाषेतर मौन की स्वतन्त्र स्थिति है। अभिव्यंजकता जिसे शब्द का प्राण-तत्त्व माना जाता है; मौन के लिए भी समानधर्मा प्रयुक्त होता है। तत्त्वतः ‘‘चित्त का शांत होना मन का मौन होना है। वाणी मन से ही अनुप्रेरित होकर क्रियाशील होती है। मौन की स्थिति में वाक्-शक्ति सुषुप्ति में स्थगित रहती है, लेकिन उसका लोप नहीं होता। मौन मनुष्य म नही मन भाषण करता है।’’ अस्तु, शब्दार्थ आधारित अभिधा, लक्षणा और व्यंजना से भिन्न कुछ ऐसा है जो गोचर नहीं है, मूर्त नहीं है; लेकिन दृष्टिपथ में आलोकित-प्रकाशित अवश्यमेव है। ‘भाषेतर मौन’ की अवस्था इसी को कहते हैं। यहाँ व्यंजना निषिद्ध नहीं, निःशब्द है। अर्थात् यहाँ जैविक-सत्ता गौण है। घटना सन्दर्भित क्रिया-प्रतिक्रिया गायब है। वाद-विवाद-संवाद विषयक तत्त्व अनुपस्थित है। यद्यपि मन-मस्तिष्क की चेतस इकाइयाँ निरुत्तर हैं; लेकिन भीतरी संज्ञान-बोध, संकल्प-विकल्प की वेधकता, आवेग, ज्ञानात्मक संवेदन, संवेदनात्मक ज्ञान आदि उच्चतम कोटि पर संयोजित-संचालित हैं। ‘‘मौन में चित्त की संज्ञाशून्यता का प्रसंग उपस्थित नहीं होता, संज्ञा वहाँ स्थगित या स्तब्ध हो सकती है, शून्य नहीं; क्योंकि आत्मचेतना वहाँ किसी न किसी रूप में बनी रहती है।’’

स्पष्टतया ‘मौन’ भाषिक पंगुता नहीं है, अपितु शब्दार्थ की पराशक्ति है जहाँ मौन दृश्य होता है; शेष सारी इकाइयाँ अदृश्य। उदाहरण से समझें, तो हम एक ही समय में कई विषयों के साथ आसक्त होते हैं। कई भिन्न-भिन्न अर्थछवियों अथवा अर्थच्छटाओं का मन ही मन स्मरण और उनका दृश्यांकन करते हैं। चेतस मन एकसाथ कई रूपाकृतियों के साथ जुड़ता चला जाता है। हम प्रत्यक्षतः किसी एक के बारे में शांतचित्त हो विचार कर रहे होते हैं और उसी क्षण अपने बच्चे के स्कूल-बस से लौटते हुए देख रहे होते हैं या कि रसोई में रखे जूठे बरतनों के बारे में सोच रहे होते हैं। यह भाषेतर मौन की सजीव स्थिति है। एक ऐसा क्रियाकलाप जिसमें चेतन से अधिक अचेतन सक्रिय होता है। पूर्णतया गतिमान। इस परोक्ष दृश्यबोध या उसकी गतिमानता को हम अस्वीकार कर सकते हैं; यदि नहीं तो वाक्-व्यंजना के अतिरिक्त भाषेतर मौन की संगति अपनेआप में पूर्णतया सही है। आचार्य शिवबालक राय ‘मौन’ के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण बात उल्लिखित करते हैं, ‘‘आदिकाल में मनुष्य वस्तुगत प्रतीकों के माध्यम से चिन्तन करता होगा; क्योंकि तब शब्द का आविष्कार नहीं हुआ था। अतएव, मौन-शैली की अभिव्यक्ति में प्रतीक या अप्रस्तुत विधान आवश्यक है। आदिम मौन की भाषा प्रतीक है।’’

समग्रतः दोनों एकमेक हैं; उनमें पूरकत्व का संहति-भाव है। पृथकत्व न होने के कारण ही वैयाकरणों ने मौन संकल्पित वाक् को ‘ब्रह्म’ की संज्ञा से अभिहित किया है।  

पीजीडीएफएच के विद्याार्थियों के नाम एक अध्यापक की पाती

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दो सत्रों के एकवर्षीय प्रयोजनमूलक हिन्दी पोस्टग्रेजुएट डिप्लोमा कोर्स की समाप्ति के उपलक्ष्य पर
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राजीव रंजन प्रसाद


सुनो। आप ही को कह रहा हूँ। थोड़ा कान दो मेरी बातों को। मेरे कहे शब्दों को रंगीन चश्मे की जगह सादे चश्मे से देखो। जैसे सादे पानी में दिख जाता है अपना चेहरा। मेरे शब्दों के अर्थ भी दिखेंगे। जानो आप।

शिक्षक हूँ। पढ़ाना मेरा धर्म है। सीखाना कर्तव्य। इन सबसे बढ़कर आपको अपने दमखम पर ऊँची बातों को जानने के लिए प्रेरित करना मेरा नैतिक लक्ष्य है। आपमें बड़ों के कहे खास वाक्यों का अर्थ अपनी भाव-संवेदना, भाव-भंगिमा, देह-भाषा आदि में समझ लेने की क्षमता विकसित करना मेरे शिक्षक होने की सर्वोत्तम उपलब्धि है। अपनी भाषा और शब्दों में अपनी दुनिया को जानना; कितना जरूरी है, क्यों जरूरी है। एक शिक्षक ही तो बताता है। मैं आपसे कोई उम्मीद नहीं पालता लेकिन अपनेआप से कभी भी उम्मीद छोड़ने की बात नहीं कहता। अपने से किया प्राॅमिश आप न तोड़ें; बाकी दुनिया को नाराज कर दें; चलेगा।

विद्यार्थियों, आप भाषा को उस नज़रिए से देखो जिस ‘एंग्ल’ से एक तैराक स्वीमिंग पुल को देखता है। सबसे पहले जो है उसके प्रति अपने अन्दर अनुराग पैदा करें। भाषा के प्रति दिलचस्पी जगने से अभिरुचि को ऊपर उठने का अवसर मिलता है जिससे हमारे अन्दर जिज्ञासा जन्म लेती है। यह जिज्ञासा बड़ी गुणों की खान है। जिज्ञासा महाबलि है, बाहुबलि है। आप ऐसे सोचेंगे तो हिंदी भाषा के प्रति आप सजग हो लेंगे। उसके प्रयोग के प्रति, व्यवहार के प्रति आपका सजग हो जाना ही इस बात की गारंटी है कि आप भाषा को बहुत चाहते हैं।

इसके बाद आता है विषय। भाषा गणितीय फार्मूला नहीं है। पाइथोगोरस प्रमेय या सूत्र तो हरगिज़ नहीं। लेकिन भाषा के शब्दकोश असल रामबाण हैं। इन्हें कम से कम दो भाषाओं में अधिकारपूर्व जानने की चेष्टा कीजिए। अंग्रेजी और हिंदी आसान विकल्प हो सकते हैं।

हिंदी भाषा में कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, निबंध, यात्रा-वृत्तांत के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है जो भाषा कौशल या कि व्यावहारिक अनुप्रयोग के नाम से जाना जाता है। अब इस पोस्ट को ही ले लीजिए। मैं आपके लिए यह चिट्ठी ‘यूनिकोड फाॅण्ट’ में टाइप कर रहा हूँ और आप बिना किसी बाधा के पढ़ रहे हैं। हुई न मजे की बात। यह हिंदी की व्यावहारिक क्षमता यानी कौशल है जिसे प्रयोजनमूलक हिंदी कहना सही है। आप फंक्शनल हिंदी सीखकर अनुवाद न करें, सम्पादक के नाम पत्र न लिखें, प्रतिवेदन यानी ‘रिपोर्ट’ न तैयार करें, प्रेस विज्ञप्ति न बनाए, सरकारी विभागों में काम आने वाले नाना प्रकार के पत्रों के नमूने न बना सकें; तो फिर यह अच्छी बात कैसे मानी जाएगी। 

आपसबों को शुक्रिया कि आप एक वर्ष यानी दो सेमेस्टर राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में बतौर पीजीडीएफएच के विद्याार्थी रहे। आप कितना सीखें और हम आपको जनाने में कितना सफल रहे; यह तो बाद की बात है। अगर आप इस कोर्स में दाखिला लेकर कुछ जान सके जिसका लाभ आपको आने वाले समय में होगा; तो यह हमारे लिए आपकी ओर से दिया गया सबसे बड़ा उपहार होगा।

आशा है, आप अन्य विद्यार्थियों को भी इस पाठ्यक्रम में आने की सलाह देंगे। हिंदी-कौशल का ज्ञान पाने, मीडिया की समझ बढ़ाने, कार्यालयी पत्राचार को जानने, राजभाषाधिकारी के रूप में कार्य करने, अनुवाद सम्बन्धी दक्षता विकसित कर सकने आदि में यह कोर्स कितना उपयोगी और अनिवार्य है, यह आप अन्य लोगों को बताएँ यह अभिलाषा रखना एक शिक्षक की उत्कंठा है जिसका आप सम्मान करेंगे।

आप अच्छे से रहें, अपना ध्यान रखें और दूसरों के प्रति ईमानदारी दर्शाने से पहले स्वयं के प्रति सदैव ईमानदार रहे इसी आशा के साथ मैं अब लिखना बंद करता हूँ। 

ढेरों बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ आपको।

राजीव सर
हिंदी विभाग,
राजीव गाँधी विश्वविद्याालय।



Thursday 18 May 2017

बातचीत की प्रक्रिया में ‘सुनने’ का क्या महत्व है?


शिक्षा और संवाद



Posted by Virjesh Singh
quality-education-girls-going-to-schoolप्रभावशाली वक्ता कैसे बनें? इस सवाल के जवाब में सैकड़ों आलेख और किताबों लिखी गयीं। मगर इसका सबसे आसान सा जवाब है कि एक अच्छा श्रोता होना। एक अच्छे श्रोता में चीज़ों को ग्रहण करने की सामर्थ्य या क्षमता का विकास स्वभाविक ढंग से होता है। मगर वक्त बनने की एक जरूरत उस मनोवैज्ञानिक डर को भी पार करने की होती है, जिसे ‘पब्लिक फियर’ कहते हैं। इससे पार पाने के बाद व्यक्ति अपनी बात को ज्यादा सहज ढंग से कह पाता है।
शिक्षा के साथ संवाद का गहरा रिश्ता है। एक शिक्षक का अपने छात्रों के साथ निरंतर होने वाली बातचीत बेहद जरूरी है। इससे शिक्षक और छात्रों के बीच का रिश्ता मजबूत होता है। इस संवाद की एक अहम कड़ी है सुनना। छात्र, अपने उस शिक्षक को सबसे ज्यादा पसंद करते हैं जो उनकी बात सुनते हैं। उनके पक्ष को समझने की कोशिश करती हैं। उनके सवालों को प्रोत्साहित करते हैं। उनकी जिज्ञासा को बाहर आने के लिए प्रेरित करने वाला माहौल बनाते हैं।

दोस्ती और सुनना

आमतौर पर कहा जाता है कि एक शिक्षक को अपने छात्रों का दोस्त होना चाहिए। दोस्ती का यह रिश्ता माता-पिता व बच्चों के बीच भी होना चाहिए। ऐसे रिश्ते की बुनियाद में निरंतर संवाद और एक-दूसरे को सुनने की आदत का विकास एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। किसी आवाज़ के प्रति सजग होना मात्र ही सुनना नहीं है।
सुनने का वास्तविक अर्थ है कि सुनी हुई बात की व्याख्या या उसके संदर्भ तक पहुंचना, इसके जरिए ही किसी बात के मर्म या अर्थ तक पहुंचा जा सकता है। यानि सुनना वास्तव में तभी होता है जब हम किसी बात को उसके संदर्भ में पकड़ पाते हैं या समझ पाते हैं। शायद ऐसे ही किसी लम्हे में एक किरदार दूसरे से कहता होगा, “सही पकड़े हैं।” यानि एक वक्ता अपने श्रोता का शुक्रिया कहता है कि आपने सही समझा है।

प्रभावशाली तरीके से कैसे सुनें?

बहुत सारी समस्याओं की बुनियाद में सामने वाले व्यक्ति को प्रभावशाली ढंग से न सुन पाना ही होता है। किसी को समझने का सबसे आसान तरीका है। उसको सुनने। उसकी कही हुई बातों के पैटर्न को समझना। क्योंकि हर किसी के अपनी बात को कहने का या सलीका अलग-अलग होता है। आमतौर पर भाषायी कौशलों के चार प्रकार बताए जाते हैं सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। इसमें एक का जिक्र नहीं है, उसे सोचना या चिंतन करना कहते हैं। इसके जरिए ही हम किसी की बात सुनकर समझ पाते हैं। इसके अनुरूप उसको जवाब देते हैं। किसी की लिखी बात को पढ़कर समझना और किसी को लिखकर जवाब देना भी भाषायी कौशलों के विकास की प्रक्रिया में शामिल होते हैं।

Friday 12 May 2017

एक अक़्स, दो रंगपुरुष

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राजीव रंजन प्रसाद

भारतीय नाटक रचनाधर्मिता के जिस आयाम को छूते हैं, वह बहुपरतीय है, बहुस्तरीय है, तो बहुभाषिक भी। यह ज़मीन के भूगोल पर खड़ा अवश्य होता है, किन्तु इसकी दृष्टि सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्वभौमिक हुआ करती है। नाटक का सर्वप्रमुख लक्षण है-मानवीयता। इसी से जुड़ी अन्य चीजें हैं: मार्मिकता, करुणा, लगाववृत्ति, सहोदरपन, साझापन, सामूहिकता, आधुनिकता, प्रगतिशीलता आदि। इसीलिए नाटक जनसमाज का आईना बन यथार्थ का जो अक़्स उभारता है उसमें हम अपने देशकाल, परिवेश, पारिस्थितिकी-तंत्र, समाज, समुदाय, संस्कृति आदि सबसे साक्षात्कार पाते हैं; उन्हें पढ़ते-देखते हुए अभिभूत होते हैं।  इस औंरा में हम अपने जीवन-मूल्य, आदर्श, नैतिकता, शुचिता, रीति-नीति, प्रथा, मान्यता, कथा, लोक-धारणा सबको समाहित पा अपने होने की सार्थकता को रंग-रूप या कि वास्तविक आकार देते हैं। 

यह अलग से कहना पहले कहे हुए को दुहराना मात्र होगा। लेकिन कई बार दुहराना हमारी विवशता हो जाती है। तब तो और जब उत्तर-पूर्व की प्रतिष्ठित हिंदी में ‘दो रंगपुरुष-मोहन राकेश: गिरीश कर्नाड’ की सद्यः प्रकाशित कृति आपके सामने हो और उसकी लेखिका साथगोई की प्रोफेसर हो। डाॅ. जमुना बीनी तादर अरुणाचल प्रदेश के राजीव गाँधी विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाती हैं। हमदोनों हिन्दी विभाग में हैं और बीनी जी मुझसे सीनियर हैं, किन्तु आपसी ‘फिल इन दि गैप्स’ में लाड़-प्यार बेशुमार है। अध्ययन-अध्यापन के अतिरिक्त अपनी सक्रियता और जवाबदेहपूर्ण सांगठनिक कार्य का दायित्व निर्वहन करने की वजह से जमुना बीनी कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं तो विभिन्न जनमाध्यमों से उनका याराना पुराना है। सम्प्रति लेखिका यह उनकी पहली आलोचनात्मक पुस्तक हैं जो धुर हिंदी और कन्नड़ के दो महान रंगकर्मियों मोहन राकेश और गिरीश कर्नाड के रंगकर्म पर केन्द्रित है। जमुना जी तुलनात्मक शोधाध्यन द्वारा बेबाक चित्रण करती हैं। इस बारे में प्रो. एम. वेंकटेश्वर की टिप्पणी समीचीन है, जिसे उन्होने इस पुस्तक की भूमिका में ‘एक चिंतनशील शोधग्रंथ’ शीर्षक से लिखा है, ‘‘डाॅ. जमुना बीनी तादर द्वारा रचित प्रस्तुत शोधग्रंथ ‘दो रंगपुरुष-मोहन राकेश: गिरीश कर्नाड’ भारतीय नाटक-रंगमंच के दो श्लाका पुरुषों के नाट्यचिन्तन और रंगकर्म का गंभीर आलोचनात्मक अनुशीलन प्रस्तुत करता है।"

इस वक्त ‘न्यू इंडिया प्लान’ के तहत भारत की बहुसांस्कृतिकी की दुहाई देने वाले ढेरों हैं, लेकिन अरुणाचल के करीबी बौद्धिक-जन गिनती के लायक। दिल्ली के इलाके को पूरा देश और विश्व मानकर उसके ही लिखंत-पढ़ंत को सम्पूर्ण भारतीय साहित्य घोषित करने वाले साहित्यिकों के लिए यह पुस्तक एक प्रकार से चुनौती की तरह है। वजह कि इस देश में अरुणाचल की ज्ञान-परम्परा से सुपरिचित लोगों की संख्या थोड़ी है फिर जमुना बीनी को लोग पहले से ही जानते हों, यह कहना मुश्किल है। यद्यपि समीक्ष्य पुस्तक को पढ़ते हुए प्रांजल भाषा और भाषा के शिल्प-विधान हमें लेखिका के हिन्दीतरभाषी होने का संकेत नहीं करते हैं। भाषा-प्रवाह की दृष्टि से जमुना जी ने सहजता का निर्वाह किया है, तो वैचारिकता के अंध-मोह या कि आयातीत-फैशन में न बहते हुए अपनी रंगभाषा में इस कृति को अपने पाठकों के लिए बेहद पठनीय बनाकर प्रस्तुत किया है। ‘दो रंगपुरुष-मोहन राकेश: गिरीश कर्नाड’ की भूमिका में इस बात का उल्लेख करते हुए प्रो. एम. वेंकटेश्वर कहते हैं, ‘‘लेखिका की तुलनात्मक दृष्टि दोनों ही महान साहित्य एवं संस्कृतिकर्मियों की रचनाधर्मिता और उनके रंगमंच के प्रति प्रतिबद्धता को विश्लेषित करने में सफल हुई है।''  

इस सफलता के पीछे छुपे राज को लेखिका ने बड़े हौलेपन से कहा है मानो अपने भीतर की खिड़की खोल रही हों, ‘‘जहाँ तक राकेश और कर्नाड पर मेरा लिखने का प्रश्न है उसका उत्त् है राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, दोईमुख में जब मैं एम.ए. की छात्रा थी, उस दौरान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली तथा हिन्दी विभाग के संयुक्त तत्त्वाधान में पैंतालिस दिवसीय रंगमंच प्रशिक्षण शिविर का आयोजन हुआ। उस शिविर में मैंने भी प्रतिभागी के रूप में भाग लिया था। इस शिविर के दौरान सभी प्रतिभागियों ने ‘सीन वर्क’ के लिए हिंदी के प्रख्यात नाटककार मोहन राकेश को चुना और उनका चर्चित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ की प्रस्तुति की। शिविर की सफलतापूर्वक समाप्ति के पश्चात मेरी नाटकों में रुचि बढ़ने लगही। फलतः मैंने मोहन राकेश के अन्य नाटकों का भी गहरा अध्ययन किया। आगे मुझे कन्नड़ के मूर्धन्य नाटककार गिरीश कर्नाड को पढ़ते हुए दोनों में कई सारी समनानताएँ दृष्टिगोचर हुईं, जो यह सिद्ध करता है कि भिन्न-भिन्न भाषा और बोली वाले इस देश की अन्तरात्मा भाव के स्तर पर एक है और भाषा की भिन्नता से भारतीयता में कोई अन्तर नहीं आता। भारत में सृजित साहित्य का स्वरूप मूलतः एक है। यह पुस्तक इसी विचार का प्रतिफलन है।’’  

09 मई, 2017 को जब यह पुस्तक राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के ए.आई.टी.एस. सम्मेलन कक्ष में विमोचित हुई, तो जमुना बीनी के शुभचिन्तकों में विश्वविद्यालय परिवार और उनके अपने सगे-सम्बन्धियों के अलावे अरुणाचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित येशे दोरजी थोंग्छी विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे। इस लोकार्पण समारोह में हिंदी विभागाध्यक्ष डाॅ. ओकेन लेगो, भाषा संकायाध्यक्ष प्रो. हरीश कुमार शर्मा ने इस पुस्तक पर अपनी बात रखी। मुख्य अतिथि के रूप में राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो. तामो मिबाङ ने अपनी शुभाशंसा जताई और इस पुस्तक को पूरे अरुणाचल के लिए गौरव और विश्वविद्यालय के लिए विशेष उपलब्धि के रूप में गिना। लेखक वाई. डी. थोंग्छी ने अपने वक्तव्य में कहा कि जमुना जी इस पुस्तक को लिखने में जिन दिनों जुटी थीं हमें लग रहा था कि हमारा एक सक्रिय सांस्कृतिक-साहित्यिक दूत भूमिगत हो गया है। आज यह क्षण उसी त्याग, समर्पण और एकांत में बरते चिन्तन का प्राप्य है।  

इस पुस्तक की बड़ी विशेषता यह है कि यह अनावश्यक वैचारिकी और सैद्धान्तिक-विवेचन का स्वांग नहीं करती जिसकी अपेक्षा आजकल अकादमिक शोध-कार्यों में की जाती है। आकर्षक कलेवर और आँखों को थोड़ा भी न खटकने वाला ‘दो रंगपुरुष-मोहन राकेश: गिरीश कर्नाड’ का आवरण-चित्र इस बात के लिए साधुवाद का पात्र है कि इस पर जो दो चित्र बेहद पास-पास लगाए गए हैं वह अपनी निकटता में संवादधर्मी हैं और परस्पर ‘इनवाॅल्व’ मालूम देते हैं। छपाई में उत्कृष्ट इस पुस्तक को ‘हार्ड बाउंड’ (कीमत: 450/- रुपए मात्र) के साथ ‘पेपरबैक’ (कीमत: 150/ऋ रुपए मात्र) में पाठकों के हाथ में सौंपने के लिए ‘रीडिंग रूम्स’ प्रकाशन भी साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने डाॅ. जमुना बीनी तादर को अरुणाचल से नोटिस करते हुए दिल्ली के प्रकाशन-संसार में जगह दी है।

इस पुस्तक के बारे में सुधि पाठकों के अतिरिक्त नाट्य-परम्परा से जुड़े विद्याार्थी, शोधार्थी इसमें अभिरुचि रखने वाले पुस्तकप्रेमी तो चर्चा-विमर्श करेंगे ही; वे लोग भी जो हिन्दी को हिन्दीपट्टी की ठेकेदारी तक ही सीमित करके नहीं देखते; वह अपनी आलोचना-कर्म के माध्यम से अपना आशीर्वचन लिखे-छापे के अक्षरों में प्रस्तुत करेंगे; ताकि भारत की बहुआयामी, बहुधर्मी लेखन-परम्परा में नए पुष्प शामिल हो सकें; वह भी अपनी योग्यता, प्रतिभा और लेखकीय ताकत द्वारा स्वतन्त्र और माकुल जगह बना सकें। इसी आशा एवं प्रत्याशा के साथ हम उनकी लेखनी को और उत्तरोत्तर धारदार, पारखी और सहज आत्मीय होने की कामना करते हैं।