Tuesday 19 December 2017

जवाबदेह सरकार आगामी जरूरत

!! सम्पादकीय!!

शुक्रवार; 19 दिसम्बर, 2017; ईटानगर

जवाबदेह सरकार आगामी जरूरत

कर्मवीर मनुष्य के जीवन में उपलब्धियाँ हैं, तो व्याधियाँ यानी बाधाएँ भी अनगिनत हैं। अवांछित और अनपेक्षित बदलाव का होना तो जैसे तय बात है। असल बात जो है वह यह कि हम अपनी मुसीबतों से निपटते कैसे हैं। समक्ष खड़ी परेशानियों से पार कैसे पाते हैं। कई बार ‘जान बची तो लाखों पाये’ की नौबत आ जाती है। किन्तु बच जाने के बाद हम कैंसे बचे हैं इसको बिसरा देते हैं। जीत पर जश्न हमारी प्रवृत्ति है। कई बार आवश्यकता से अधिक कुहराम मचाना जन्मसिद्ध अधिकार मान बैठते हैं। संकट की घड़ी में परिस्थितियों से छुटकारा पाने की छटपटाहट देखते बनती है। पर अच्छे दिन आते ही बीते अनुभव से सीख लेने की जगह अपनी ही हाथों अपने को गुदगुदी करने लग जाते हैं। हमारा अहंकार और गुरुर आड़े आ जाता है। हम परिणामवादी नज़रिए से सोचना शुरू कर देते हैं। हालिया गुजरात चुनाव ‘कवरेज़’ में मीडिया का रसूख़ छककर बोला। काॅरपोरेटी मीडिया के आगे अधिसंख्य नेतागण सिवाय लम्पटई दिखाने के कोई उल्लेखनीय भूमिका में नज़र नहीं आये। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अतिनाटकीयता का फ़ालतू अध्याय खोला, तो राहुल गाँधी पहली बार आलोचनात्मक राजनीति के पाठ से सही मायने में जुड़ते दिखाई दिए। नरेन्द्र मोदी की तुलना में उनकी भाषा और शैली दोनों में ताज्जुबकारी अंतर नज़र आया। वे विपक्षी पार्टी के साथ तंज की नए मुहावरेदानी में सार्थक ‘डिस्कोर्स’ करने में संलग्न रहे। अब तक राहुल गाँधी नरेन्द्र मोदी के ‘बिग इमेजिनेशन’ के आगे घुटने टेकते रहे हैं। लेकिन इस बार मुकाबले में राहुल गाँधी का प्रचारवादी रवैया बेहद संतुलित और स्थायी-भाव लिए रहा। दुःखद किन्तु सचाई है कि अन्य नेतागण राजनीतिक तमीज़ से बात करने से कन्नी काट गये। गुजरात में हुए विकास को ‘जैनुइन’ तरीके से जनता के समक्ष लाया जाये या कि ‘वाइब्रेंट गुजरात’ की वास्तविकता से आमजन को रू-ब-रू कराया जाए; इसका ‘होमवर्क’ बीजेपी नेताओं ने करना जरूरी नहीं समझा था। कुल के बाद भी भाजपा जीती है, तो इसका यह अर्थ कतई नहीं कि उसके नेताओं ने गलतियाँ नहीं की या कि वे सचमुच बहुत योग्य रणनीतिकार साबित हुए हैं। राजनीति में व्यक्ति-विशेष को श्रेय देने की परम्परा कांग्रेस ने शुरू की थी। आज भाजपा खुद इसी प्रभाव में है।

इन प्रवृत्तियों को राजनीतिक शब्दावली में कहा जाता है-अवसरवाद, समझौतापरस्ती, तुष्टिकरण, ध्रुवीकरण इत्यादि। कांग्रेस की फ़ितरत या कह लें कि उसकी पुरानी मानसिकता ऐसी ही रही है। लेकिन इस बार गुजरात चुनाव में कांग्रेस ने अलग तेवर, तरीके और तज़रबे से लड़ा। चुनाव में उसकी चहुँओर प्रशंसा दर्शनीय है। आलोचना करने वाली दृष्टियाँ राहुल गाँधी के ‘परफार्मेंस’ को बोनस अंक दे रही हैं तो यह अन्यथा नहीं है। कई सारे राजनीतिक विश्लेषक राहुल की बदली हुई भाषा और कहनशैली का जिक्र करते दिखे हैं। लगभग सबने यह माना है कि अब तक राहुल गाँधी अपनी परछाई के पीछे से बोलते थे। किन्तु इस बार उन्होंने सामने से बोलने का साहस जुटाया है। उनका इस तरह हिम्मतगर होना आगामी चुनावों के लिए शुभ-चिन्ह् है। सच कहें, तो यह बनते हुए राहुल की नई ‘सेल्फी’ है जिसमें परिपक्वता के नए ‘डिम्पल’ उभार ले रहे हैं। इसको कायम रखना टेढ़ी खीर है। अक्सर नेतागण जिनकी वजह से जीते उनको फौरी तरीके से याद करते हैं। बाद बाकी उन्हें भुला देना ही अपनी राजनीतिक सफलता का एकमात्र फ़लसफ़ा मानते हैं। सोचते हैं, संकट में पड़ना हमारी नियति हैं। जब संकट के ओले बरसेंगे, तो फिर संकटमोचन को याद कर लेंगे। पार्टी कार्यकर्ताओं में यह ‘परसेप्शन’ न बने इसको लेकर राहुल गाँधी को मुस्तैदी दिखानी होगी। राहुल गाँधी इस ‘चुनौती’ को जितनी भली-भाँति समझेंगे उनके कांग्रेस अध्यक्ष की पारी उतनी ही मजबूत, सुदृढ़ और पार्टी के लिए कारगर साबित होगी। ध्यान देना होगा कि आजकल नेता चमत्कारी होने को लेकर फ़िक्रमंद अधिक हो चले हैं। उनका कहना-सुनना, सोचना-समझना, जानना-बूझना जनता की भाषा में नहीं विज्ञापन और मीडिया की भाषा में प्रचारित-प्रक्षेपित है। अब टेलीविज़न डिबेट ‘आॅरिजनल’ की जगह ‘फे़क’ अधिक मालूम दे रहे हैं। यह नेतृत्वगत भेड़चाल की शनिदशा है जिसका प्रकोप सभी दलों के ऊपर है। प्रचारवादी राजनीति के इस युग में लोकप्रियता का ‘वन मैन शो’ शनि के साढ़े साती की माफ़िक ही ख़तरनाक है; लेकिन अक्सर चुनावों में सिक्का इनका ही चलता है। अतएव, नेता हो या पार्टी कार्यकर्ता हरेक व्यक्ति को यह समझना होगा कि राजनीतिक चुनौतियों और पार्टीगत कठिनाइयों से निपटना आसान काम नहीं है। समझदारी यही है कि राजनीतिक दल अपनी जवाबदेही और अपनी पद-गरिमा को लेकर पहले से सजग-सतर्क रहे। क्योंकि इस तरह की सावधानियाँ आत्मबल पैदा करने का काम करते हैं। द्रष्टव्य है कि नेतृत्व की दिशा सही होने पर अंदर-बाहर कई छोरों से संकल्पवान, निष्ठावान सहयोग-समर्थन मिलते हैं। जवाबदेह जनता स्वयं बढ़-चढ़ कर वैसे राजनीतिज्ञों को जिताती हैं जिनके लिए राजनीति सेवा और कर्तव्य का धराधाम हो, सद्भावना का मंदिर हो, संभावना का द्वार हो।

आज की विवेकी जनता ईमानदार कोशिश करने वालों को सबसे पहले और सर्वाधिक तरज़ीह देती है। भारतीय संस्कार और जीवन-दर्शन में पगी जनता की दृष्टि में कर्मण्यता की शक्ति ही किसी राष्ट्र की असल जमापूँजी है, तमाम विडम्बनाओं के बावजूद उसके सुरक्षित बचे रहने की मुख्य शर्त हैं। कई बार स्वयं अपने बारे में हमारा मूल्यांकन, नियामक सर्वथा भिन्न होता है। कर्मनिष्ठ व्यक्ति इस भिन्नता को भली-भाँति जानता है। दरअसल, आत्मचेतस होने का असली गुण यही है कि वह विजय के हर्षोल्लास के वक़्त भी अपनी मुर्खता और कमजोरी की खरी-खरी आलोचना करे और इस ग़लती पर बहस करने की बजाए उसे स्वीकारने का साहस जुटाए। राजनीति में इस गुणधर्म का होना राजनीतिक परम्परा को दीर्घायु बनाना है। इससे वैचारिक ठोसपन का पता चलता है। क्योंकि जनपक्ष की प्रस्तावना ही लोकतंत्र का केन्द्रीय-मर्म है। इतिहास साक्षी है, जिन भी नेताओं में पद की लालसा बेतहाशा रही, वह पद पाते ही अपना कब्र खोदने में लग गए। सत्ता के मद में उनका राजनीतिक कद छोटा होता गया। अस्तु, वर्तमानजीवी कई नेताओं का इतिहास में स्थान रत्ती भर नहीं है। कभी जिनके नाम का राजनीति में डंका बजता था, आज पार्टी में उनकी उपस्थिति तक को ‘नोटिस’ नहीं लिया जा रहा है। सो आज जिनके नाम की चर्चाएँ हैं, लोगों में हुंकार-जयजयकार हैं; वह देर-सवेर गुमनामी के अंधेरे कुएँ में दफ़न हो सकते हैं, कहा नहीं जा सकता हैं। कांग्रेस-भाजपा ही नहीं कई राष्ट्रीय दलों के कद्दावर नेता गवाह हैं जिनकी लोकप्रियता बीते दिनों चरम पर थीं, असर करिश्माई था; आज वे परिदृश्य से गायब हैं। फ़िलहाल गुजरात और हिमाचल दोनों प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी को मिला जनादेश सौ फ़ीसदी इस पार्टी की जीत है। इसका श्रेय आधा-अधूरा नहीं, बल्कि पूरा का पूरा नरेन्द्र मोदी के ‘वन मैन शो’ वाली भाजपा को ही मिलना चाहिए। कांग्रेस के हार का गुणगान अथवा महिमामंडन उचित नहीं होगा। यह और बात है, आगामी लोकसभा चुनाव से पूर्व होने वाले सभी प्रादेशिक चुनावों में कांग्रेस का पलड़ा भारी रहने वाला है। राहुल गाँधी ने इतना भरोसा जगा दी है।

नोट: प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्यार्थियों के लिए सम्पादकीय-लेखन का माॅडल

Thursday 14 December 2017

अरुण हिंदी-शब्दकोश : शब्दार्थ से साक्षात्कार

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राजीव रंजन प्रसाद

यह मैंने एक फ़ितूर के तहत शुरू किया। कोई शब्द मिलता और उसके बारे में लिखा भी। झट नोट कर लेता। यह शौक धीरे-धीरे दस्तावेज की शक़्ल अख़्तियार कर ली। प्रकाशन संभव नहीं था। क्योंकि यह मेरा कोई मौलिक लेखन नहीं था। हाँ, उसे अपनी भाषा में अपने अनुसार व्यवस्थित कर दिया था मात्र। साथ के लोगों में इसको लेकर कोई दिलचस्पी नहीं थी तो मेरे प्राध्यापकों में भी इसमें कोई नई बात नहीं दिखी। लोग इसके महत्त्व को इसलिए भी नहीं समझ रहे थे क्योंकि मैंने इसे कोई अकादमिक-परियोजना के अन्तर्गत करना नहीं शुरू किया था।

यकायक ध्यान में आया कि हूँ तो मैं एक अध्यापक; क्यों न अपने ब्लाॅग 'https://arunaai.blogspot.in' पर इसका डिजिटल संस्करण बनाकर संजो लूँ। भविष्य में साथीजन प्रोत्साहित करेंगे या उनका सकारात्मक प्रत्युत्तर मिलेगा तो और जीजान से जुटकर इसे करता जाऊँगा। वैसे भी कितने पन्ने बनारस से अरुणाचल आने के क्रम में इधर-उधर हो गए। अब जो बचे हैं उन्हें बचा लेना ही उपयुक्त है। इसी क्रम में यह नाम जे़हन में-‘अरुण हिंदी शब्दकोश’। यानी अरुणाचल प्रदेश के हिन्दी-मित्रों के लिए सहज सरल ढंग से शब्दार्थों का उल्लेख, मूल्यांकन और परिभाषा की प्रस्तुति।

इसमें एक बात की छूट ली जाएगी कि किसी भी शब्द को बाद में कभी भी ‘माॅडरेट’ किया जा सकेगा। सुधार, संसोधन एवं परिष्कार के बाद अंततः ‘अरुण हिंदी शब्दकोश’ का जो कलेवर और संयोजन होगा, उससे मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।

अतः आपसबों का अमूल्य सहयोग अपेक्षित है। अरुण हिन्दी-शब्दकोश के अन्तर्गत प्रकाशित सामग्रियों के बारे में आपलोग कुछ कहें, सुझाव दें या कि पकड़ में आई गलतियों से मुझे अवगत कराएँ तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।

सादर,

भवदीय

राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्याालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश-791112
मो. 9436848281
ई.मेल: rrprgu@gmail.com
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अरुण हिंदी-शब्दकोश


: लोकवृत्त (पब्लिक स्फियर) :

लोकवृत्त अथवा लोकक्षेत्र को विद्वानों ने आज के सन्दर्भ में बेहद महत्त्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार लोक-क्षेत्र नागरिक समाज का वह हिस्सा है जहाँ विभिन्न समुदाय और संस्कृतियाँ अन्योन्य-क्रिया करती हैं। ऐसा करके वे किसी मुद्दे पर आम-राय बनाने और उसके ज़रिए राज्य-तंत्र को प्रभावित करने का प्रयास करतीं हैं। लोक-क्षेत्र सभी के लिए खुला रहता है जिसमें अपने विमर्श के ज़रिए कोई भी हस्तक्षेप कर सकता है। हैबरमाॅस इसके महत्त्वपूर्ण प्रतिपादक हैं। यहाँ नागरिक-समाज कहने का आशय ‘सिविल सोसायटी’ से है। अर्थात् समाज का वह रूप जो राज्य एवं परिवार जैसी संस्थाओं से अलग माना जाता है। यह नागरिकों के अधिकारों और उनकी सत्ता को व्यक्त करने वाली प्रक्रियाओं और संगठनों से मिलकर बनता है। वह राज्य को सयंमित कर उसे नागरिक नियंत्रण में लाता है।  समाजविज्ञानियों के अनुसार, समाजशास्त्र में नागरिक समाज के एक ऐसे दायरे की चर्चा भी है जिसमें संस्कृति और समुदाय की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ अन्योन्यक्रिया करती हैं। साथ ही, सार्वजनिक दायरे की गतिविधियाँ किसी मुद्दे पर आम राय बनाने और उसके जरिए राज्य-तंत्र को प्रभावित करने की भूमिका निभाती हैं। सार्वजनिक दायरा सबके लिए खुला रहता है जिसमें अपने विमर्श के जरिए कोई भी हस्तक्षेप कर सकता है। फ्रैंकफुर्त स्कूल के विख्यात विचारक युरगन हैबरमास ने इस धारणा का प्रतिपादन किया था; जिसका भारत की हिन्दीपट्टी तक दृढ़ विस्तार हुआ है। इस बाबत फ्रांचिस्का आॅरसेनी लिखित पुस्तक ‘हिन्दी का लोकवृत्त’ द्रष्टव्य है। फ्रांचिस्का आॅरसेनी लिखित पुस्तक ‘हिन्दी का लोकवृत्त’ भारतीय सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण कृति है। 

: अभिजात वर्ग : 

अभिजात-वर्ग औद्योगिक पूँजीवाद के कारण उभरा वह वर्ग था जो आर्थिक रूप से मालामाल था। जिसके पास लाखों के आभूषण-जेवरात थे, तो धन-माल की कहीं कोई कमी नहीं थी। इस वर्ग को सामाजिक-राजनीतिक विशेषाधिकार प्राप्त था। माक्र्स के शब्दों में ‘privileges bestowed by blood’। ऐसे विशेषाधिकार जरूरी थे जो रक्त-सम्बन्ध के कारण प्राप्त थे अर्थात् जो लोग वंशगत अभिजात थे, उनको चर्च में उँची जगहें मिलती थीं। चर्च और फौज दोनों में कुछ जगहें ऐसी होती थीं जो बेच ली जाती थीं। एक तरफ तो सामन्ती ढंग से अभिजात वर्ग अपने बेटों के लिए फौज और चर्च में कुछ पद सुनिश्चित कर लेता था, दूसरी तरफ सौदागिरी ढंग से ये पद बेचे जाते थे। ब्रिटिश पूँजीपति वर्ग को अभिजात-वर्ग ने रहन-सहन के तौर-तरीके जैसे भी वे थे, सिखाए, उसके लिए फैशन ईजाद किए, उसने फौज और जलसेना के लिए अफसर जुटाए। इस तरह अभिजात वर्ग विशेष दबाव समूह के रूप में अपना दखल और दबदबा ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों में बनाए हुआ था। भारत में भी अभिजात-वर्ग की पैठ बहुत अधिक थी। बाद में यहाँ यह एक प्रवृत्ति के रूप में फैला और जनमानस को अपनी अभिजात मानसिकता में दबोच लिया। वर्तमान में परिवारवाद, वंशवाद, भाई-भतीजावाद की जड़े अभिजात वर्ग की इसी अंतहीन शृंख्ला से जुड़ी हुई हैं। जनतंत्र में आम-आदमी बहिष्कृत है, कारण की अभिजात-वर्ग पहले से कुंडली मारे बैठा हुआ है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध कवि शेली ने ब्रिटिश सदन के सन्दर्भ में जो कहा था वह आज भी समीचीन है, ‘‘अभिजात वर्ग के पास ‘हाउस आॅफ पियर्स अथवा हाउस आॅफ लाॅडर्स नाम का सदन अभी भी है, इसके सिवा बादशाह भी इसी अभिजात-वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए आम-जनता के लिए कम-से-कम एक सदन तो होना चाहिए जहाँ उसके प्रतिनिधि इकट्ठे हो सकें।’’


: पूँजीवादी आधिपत्य :

जीवित रहने के लिए मनुष्य खाने-पीने की चीजें पैदा करते हैं; पहनने के लिए कपड़े बनाते हैं, रहने के लिए घर बनाते हैं। इस क्रम में वे आपस में उत्पादन का सम्बन्ध कायम करते हैं। भारत में लोक की भूमिका निर्णायक थी जो सभी को आपसी सामंजस्य और संतुलन के साथ गुजर-बसर करने की अनुमति प्रदान करता था। बाद में औद्योगिक पूँजीवाद ने लोक-संस्कृति अथवा ग्राम-स्वराज की सार्वभौम धारणा को खंडित कर दिया। उसने औद्योगि पूँजीवाद की जो अवधारणा रखी उसमें बड़ा पूँजीपति छोटे पूँजीपति को खा जाता है। वह मजदूरों की श्रम-शक्ति का ही अपहरण नहीं करता, वरन् छोटे पूँजीपतियों का, उनके व्यवसाय का, अपहरण भी करता है। वर्तमान में पूँजी का केन्द्रीकरण जिस खतरनाक तरीके से हो रहा है, भयावह है। यह पूँजीवादी आधिपत्य की नई स्थिति है जिसमें बाज़ार पूँजीकरण के सहारे वैश्विक कब्जे की तैयारी अन्दर ही अन्दर की जाती है। पूँजीपति जो काम करते हैं वह यह है कि उत्पादन के साधनों में तेजी से तरक्की करते हैं। इस तरह वे बड़े पैमाने पर बिकाऊ माल पैदा करते हैं। इस बिकाऊ माल से पिछड़े हुए देशों के बाजार को तोप देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ये जो पिछड़े हुए लोग थे, जिन्हें किसान जातियाँ कहा जा सकता है, ये अब परिवर्तित हो जाते हैं। बड़े देशों के पूँजीपति इन्हें भी पूँजीपति बना देते हैं। इससे पहले जो प्रक्रिया घटित होती है, वह यह है कि किसानों की जातियाँ पूँजीपतियों की जातियों पर निर्भर हो जाती हैं, उनके अधीन हो जाती है। पूरब के देश पश्चिम के देशों के अधीन हो जाते हैं। अभी तक का इतिहास गवाह है कि बड़े देशों के पूँजीपतियों ने, जब अन्य देशों पर अधिकार किया, तो वहाँ पूँजीवादी परिवर्तन नहीं हुआ। वे ऊपर उठकर बड़े पूँजीवादी देशों के बराबर नहीं आ गए, वे जहाँ थे उसके भी नीचे ढकेल दिए गए। उनकी हालत और भी ख़राब हो गई। वित्तीय पूँजी की प्रमुख विशेषता, जैसा कि लेनिन ने बताया था; यह है कि वह प्रभुत्व करना चाहती है। यह किसी विशेष कार्यक्षेत्र के अन्दर शांतिपूर्ण ढंग से, ‘आम कारोबार’ के लिए नहीं; बल्कि अधिग्रहण के लिए प्रयासरत रहती है। इसलिए यही पर्याप्त नहीं है कि विŸाीय पूँजी की विचारधारा जनता को सामूहिक प्रतिरोध की क्षमता से वंचित करे और उनको ऐसे अलग-अलग व्यक्ति बनाकर रख दे जो अपनी वस्तुगत परिस्थितियों को मन मारकर स्वीकार कर लें, बल्कि वह लोगों के भीतर (लुकाच के शब्दों का प्रयोग करें तो) एक ‘प्रतिक्रियावादी क्रियाशीलता’ को संगठित किया जा सके। सामाजिक अर्थविज्ञानियों द्वारा पूँजीवाद की सात विशेषताएँ गिनाई गई हैं, 1) अन्तरराष्ट्रीय पूँजी एक नई इकाई का उदय है जो किसी विशेष राष्ट्र पर आधारित या किसी विशेष राष्ट्रीय पूँजीवादी रणनीति से जुड़ी हुई नहीं है। मनमाने मुनाफ़ों की चाहत में यह दुनिया के स्तर पर बेहद गतिशील है और इसका चरित्र ऐसा नहीं है कि यह कहीं की औद्योगिक पूँजी से जुड़ जाए, किसी राष्ट्रीय औद्योगिक पूँजी की बात तो जाने ही दीजिए; 2) अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के उभार ने राजसत्ता की प्रकृति को भी बदल दिया है जिसके कारण अब वह पूरी तरह वित्तीय निगमों को बढ़ावा दे रही है; उसका अब अपनी उस छवि से कुछ लेना-देना नहीं जिसमें वह हर वर्ग के हितों की नुमांइदगी करने वाली दिखती थी, अब तो एक ही तर्क दिया जा रहा है कि पूरे समाज के हित तो वित्तीय पूँजी के हितों के जरिए ही बेहतरीन ढंग से पूरे किए जा सकते हैं; 3) राजसत्ता की प्रकृति में इस बदलाव के चलते सार्वजनिक हित पर और कल्याण कार्यों पर खर्चे में कटौतियाँ की जा रही हैं और आमतौर पर इस तरह के खर्च घटाने की नीतियों को अपनाया जा रहा है। वित्तीय पूँजी हमेशा राल्य के व्यय में कटौती को प्राथमिकता देती है; 4) पूँजीवादी दुनिया में विकास की दर के धीमे पड़ने पर एक दीर्घकालिक परिवर्तन आया है अर्थात् प्राथमिक मालों और उसके उत्पादों के बीच व्यापार के मामले में उतार-चढ़ाव के द्वारा औसत में तब्दीली हुई है जो कि प्राथमिक मालों के हितों के खि़लाफ है। इसके चलते पूरी दुनिया में जहाँ-जहाँ किसानी उत्पादन होता है, किसान काफी हद तक बदहाल हुआ है। इसी तरह विश्व के स्तर पर मांग में आई कमी के कारण छोटे उत्पादकों का एक पूरा दायरा बदहाली का शिकार हुआ है; 5) छोटे उत्पादन का यह संकट ऐसे उत्पादकों के साधनों के और खासकर भूमि के छिन जाने का कारण बन रहा है। उन्नीसवीं सदी में पूँजीवाद का फैलाव ऐसे हालात में हुआ था जब दुनिया के शीतोष्ण क्षेत्र के खासे बड़े-बड़े हिस्सों को उन्नत देशों ने अपने उपनिवेश बना लिए थे जहाँ ज़मीने या तो खाली पड़ी थीं या ‘मूलनिवासियों’(इंडियन) के हाथ में थी जिनसे उन्हें खदेड़ दिया गया। संक्षेप में इन दोनों कारणों से, पूँजीवाद के सामने एक ‘खुला मैदान’ मौजूद था। इसके अलावा उपनिवेशों के छोटे उत्पादकों की कीमत पर वहाँ अपने औद्योगिक मान बेचकर और वहाँ के उद्योग-धंधे तबाह करके पूँजीवाद ने अपने अधीन उपनिवेशों में भी अपनी ‘घरेलू बेरोजगारी का निर्यात’ किया; 6) किसानों की ज़मीन का यह अधिग्रहण पूँजीवाद के इस चरण की एक कहीं अधिक सामान्य विशेषता का सिर्फ एक हिस्सा है। यह ‘कब्जे के जरिए संचय’ (एक्युमुलेशन थू्र एनक्रोचमेंट) है। यह ‘प्रसार के जरिए संचय’ के सर्वथा विपरीत है जिसमें पूँजी के बड़े-बड़े जखीरे एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाए बिना बढ़ते, और बढ़ते जाते हैं। वहीं अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के वर्चस्व के मौजूदा दौर की विशेषता यह है कि ‘कब्जे के जरिए संचय’ की सापेक्षतया भूमिका काफी बढ़ चुकी है। राजकीय क्षेत्र की परिसंपत्तियों का निजीकरण और ‘कौड़ियों के मोल’ उनका अधिग्रहण, किसानों का शोषण और उनकी ज़मीनों पर कब्जे, छोटे उत्पादकों का विस्थापन और उनके अब तक के कार्यक्षेत्र पर कब्जा तथा बड़ी पूँजी के हाथों छोटी पूँजी का विस्थापन-यह ऐसा परिदृश्य है जिसमें ये प्रवृत्तियाँ आज के दौर में बहुत अधिक बढ़ रही हैं; 7) दुनिया को फिर से उपनिवेश बनाने का एक सुव्यवस्थित प्रयास जारी है, खासकर कच्चे मालों और सबसे बढ़कर तेल की चाहत में, जिसके लिए तेल उत्पादक देशों के ऊपर घातक हमले करके युद्ध छेड़े जा रहे हैं जिनके भयानक परिणाम सामने आ रहे हैं।

(जारी....,)

Wednesday 13 December 2017

बोलने का बदलता सामाजिक-दायरा और भाषा

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http://sablog.in

-राजीव रंजन प्रसाद
राजनीति राष्ट्रीय आत्मसम्मान की रीढ़ है। इस रीढ़ की मजबूती सुनिश्चित करने के लिए जनप्रतिनिधियों का चुनाव होता है। देश अपने राजनेता पर गर्व करता है जब उसका नेता सार्वजनिक रूप से बोल रहा होता है; कहीं किसी को सम्बोधित कर रहा होता है। भारतीय राजनीति के वे दिन देखें, जो ब्रिटिश राज की हुकूमत के थे; हमारे राजनीतिज्ञ जिस साहस, आत्मबल, दृढ़-संकल्प से अपनी बात लोगों के बीच रखते थे; अपनी सोच और इरादे को उनसे साझा करते थे; वह ‘कम्यूनिकेशन’ की आधुनिक शब्दावली में भी सर्वोत्तम तरीका कहा जाएगा। दरअसल, सार्वजनिक जीवन में बोलना एक शऊर का काम है। तब तो और जब हम किसी खास ओहदे पर हों। राजनीति का विस्तार और प्रभाव चौतरफा होने के नाते राजनीतिक व्यक्तित्व से शालीन और मर्यादित आचरण की अपेक्षा अधिक की जाती है। हाल के दिनों में राजनीति की जन-माध्यमों पर निर्भरता बढ़ी है। प्रचार-संस्कृति के बाजारू-संस्करण ने नई चिंताओं को सिरजा है। आजकल राजनेता बिना किसी पूर्व तैयारी और समीक्षा के बोल रहे हैं। (हाँ, वे जनता के मुद्दों का ‘गेटकीपरिंग’ खूब कर रहे हैं) यह जानते हुए भी कि उनका बोला अब राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर तक अपनी पहुँच और दख़ल रख रहा है। फिर वह क्यों अनर्गल प्रलाप अथवा बिलावज़ह आरोप-प्रत्यारोप करते दिखते हैं; समझ से बाहर है। जबकि उनके द्वारा कही जाने वाली इन सब बातों से देश की गरिमा को ठेस पहुँचता है, अपनी छवि जो धुमिल होती है सो अलग। भारत में पहले बोलना दिल से होता था, अब दिमाग से। अब बोलने का मिज़ाज और लहजा बदला है, तो बोलने वाले की नियत और नेक-ईमान भी बदल चुकी है। मौजूदा राजनीति में आत्मबल से हीन व्यक्ति भी राजनेता बन सकते हैं। वे धनबल-बाहुबल, वंशवाद या फिर भाई-भतीजावाद के बूते जन-प्रतिनिधि होने का गौरव हथिया सकते हैं। सो वे क्यों राजनीति में ज़मीनी अनुभव और अनुभवी ज्ञान को तरज़ीह दें। किसी तजु़र्बे या तज़रबे के आगे शीश नवाए। आखिर उन्हें जरूरत ही क्या है कि वे सही बोलने का जिम्मा उठाए जबकि उनके कुछ भी बोल देने का रत्ती भर नुकसान उनको या उनकी पार्टी को न होता हो।

Tuesday 12 December 2017

जीवन से सीधा और सधा हुआ साक्षात्कार है त्रिलोचन का काव्य - दिविक रमेश से मनोज कुमार झा की बातचीत

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http://rachanakar.com/

त्रिलोचन हिंदी की प्रगतिशील काव्य-धारा के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवियों में हैं। उनकी कविताओं में लोक-जीवन की अभिव्यक्ति हुई है। वे सामान्य जन के कवि हैं। उन्होंने स्वयं लिखा है – उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा है दूखा है कला नहीं जानता...। आलोचकों ने त्रिलोचन को लोकजीवन से जुड़ा मानने के साथ ही शास्त्रीय परम्परा का भी कवि माना है। प्रेम, प्रकृति, जीवन-सौंदर्य, जीवन-संघर्ष, मनुष्यता के विविध आयामों को समेटे हुए इनकी कविता का फलक बहुत ही व्यापक है। इस वर्ष त्रिलोचन की जन्म शताब्दी है। त्रिलोचन का नई पीढ़ी के कई कवियों से जुड़ाव रहा। दिविक रमेश से उनका लगाव कुछ खास ही गहरा था। दिविक रमेश ने त्रिलोचन के कई साक्षात्कार लिए जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। त्रिलोचन के जन्मशताब्दी वर्ष पर उनके जीवन और रचनाशीलता पर दिविक रमेश से मनोज कुमार झा ने बातचीत की। यहां पेश हैं कुछ खास अंश।

1. त्रिलोचन से आपका गहरा संबंध रहा। क्या आप बता सकते हैं कि ये संबंध कब बना और किस तरह आगे बढ़ा?
जी, शमशेर जी से मेरा सम्पर्क था। मेरे पहले कविता-संग्रह ‘रास्ते के बीच’ (1977) के लिए उन्होंने ही मेरी कविताएं चुनी थीं। उनसे बराबर मिलना होता था। दिलली में दयानन्द कॉलोनी वाले घर में भी और बाद में मॉडल टाउन वाले घर में भी। किसी भी समय। बातचीत में वे अक्सर कवि त्रिलोचन का भी नाम लेते जो दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले मेरे जैसे विद्यार्थियों के लिए बहुत अधिक परिचित नाम नहीं था। हम तो सप्तक के कवियों को ही जानते थे। एक दिन मैंने बातचीत में शमशेर जी से कह ही तो दिया कि त्रिलोचन जी की कविताओं ने मुझे आकर्षित नहीं किया। उन्होंने कहा कि निराला के बाद त्रिलोचन का नाम बसे ऊपर जाएगा। इस कवि का अभी मूल्यांकन होना है। मैं समझ गया था कि शमशेर जी त्रिलोचन की कविताओं को ज्यादा गम्भीरता, मेहनत और समझ के साथ पढ़ने की सलाह दे रहे थे। बाद में मैंने पाया कि ‘दिगन्त’ को पहले मैंने सचमुच ठीक तरह से नहीं पढ़ा था। मैं केवल तुकों और बंदिशों से ही बिदक गया था - अपने पूर्वाग्रहों के कारण। मैंने त्रिलोचन की कविताएं ठीक से पढ़ने का निश्चय किया। ‘धरती’ का दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो चुका था। वह खरीदा। ‘गुलाब और बुलबुल’ मिली नहीं। ‘धरती’ को पढ़ा तो ‘चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ कविता पढ़ कर मैं दंग रह गया। इतनी पुरानी कविता एकदम नयी लग रही थी। खासकर ‘कलकत्ता पर बजर पड़े’ पंक्ति ने तो हिला ही दिया।
2. किसी ने कहा है कि निराला के बाद त्रिलोचन ही हिन्दी की जातीय चेतना के प्रतिनिधि कवि हैं, आपका क्या मानना है?
त्रिलोचन तुलसी और निराला को लगभग सर्वोपरि मानते थे। इन्हीं की परम्परा में त्रिलोचन नि:संदेह जातीय परम्परा के कवि हैं जिन्हें दूसरे शब्दों में धरती के कवि भी कह सकते हैं। त्रिलोचन का विश्वास कवि के रूप में पूरे देश को आत्मसात करने में था। इस आत्मसात करने की उनकी राह जलसों आदि से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत संपर्कों से गुजरती थी। सामयिक आंदोलनों से अधिक प्रभाव ग्रहण करने से वे बचते थे तथा अखबारीपन को कविता के लिए अच्छा नहीं मानते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि कवि भाव की समृद्धि जन-जीवन के बीच से ही पाता है। वहीं से वह जीवंत भाषा भी लेता है। ताजगी तभी आती है और जीवंत भाषा किताबों से नहीं आती। वे जनता में बोली जाने वाली भाषा को पकड़ते हैं। हां, हिंदी के कवियों के लिए संस्कृत सीखने पर भी उनका जोर था। अपनी कविताओं के चरित्रों को उन्होंने जीवन से उठाया है। जैसे नगई महरा। शमशेर ने कहा था कि निराला के बाद यदि कोई कवि सबसे ऊंचा जाएगा तो वह त्रिलोचन है।
3. त्रिलोचन सम्भवतहिन्दी के पहले कवि हैं जिन्होंने सॉनेट लिखे। सॉनेट जैसे विदेशी छंद में इनके काव्य की उपलब्धि आपकी दृष्टि में क्या रही है?
त्रिलोचन ने सॉनेट खासतौर पर पढ़ा था। सॉनेट रवींद्रनाथ ने भी लिखे हैं। सॉनेट को उन्होंने फैशन के तौर पर नहीं अपनाया था, बल्कि वह उन्हें अनुकूल जान पड़ा था। सोन माने ध्वनि होता है। सॉनेट त्रिलोचन की निगाह में छंद न होकर अनुशासन था। उन्होंने 14 पंक्तियों के सॉनेट लिखे जो सॉनेट के लिए सामान्य संख्या मानी जाती है। मिल्टन ने जरूर 18 पंक्तियों के भी सॉनेट लिखे। प्रभाकर माचवे ने 15-20 पंक्तियों में सॉनेट लिखे। त्रिलोचन ने प्राया: रोला छंद में सॉनेट लिखे हैं। बरवे में भी लिखा है। वस्तुत: त्रिलोचन ने इस पश्चिमी अनुशासन को भारतीय और त्रिलोचनी बना दिया, बहुत ही सहज रूप में। इनके यहां वाक्य एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति में जाकर भी खत्म नहीं होता है। छायावादी प्रवृत्ति से अलग इन्होंने अधूरे वाक्य के स्थान पर पूरे वाक्य को अपनाया है। वैसे भी त्रिलोचन के सॉनेट कविता की दृष्टि से ऊंचे हैं, अपने फॉर्म के कारण नहीं। उनको पढ़ते समय शिल्प भूल जाता है, केवल रचना का रस आता है। श्रेष्ठ रचना की पहचान के मानक के रूप में उन्होंने कहीं लिखा भी है – रचना देखत बिसरहिं रचनाकार। कला या रूप की दृष्टि से यह सर्वमान्य तथ्य है कि सॉनेट के क्षेत्र में त्रिलोचन का काम अद्वितीय है।
4. उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध के समक्ष त्रिलोचन को आप किस रूप में देखते हैंत्रिलोचन के काव्य में जन’ किन रूपों में आता है?
ये सभी दृष्टि सम्पन्न या कहूं विचार की दृष्टि से प्रगतिशील सोच के कवि हैं और हिंदी-कविता के अलग-अलग शिखर हैं, अनुभव सम्पदा और कलात्मक वैभव दोनों ही स्तरों पर। जहां तक जन की बात है वह त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ के यहां अपने ठेठ या सहज जातीय रंग-ढंग के साथ मुखरित है। मुक्तिबोध और शमशेर के यहां वह झलक मारता हुआ मूर्तिमान है। थोड़ा जड़ाऊ भी। त्रिलोचन का जन बावजूद प्रहारों के जीवन का हिमायती, रोजमर्रा की जिंदगी को जीता हुआ, जो नहीं है, उसके लिए तैयारी करता हुआ जनपदीय जन है, जबकि नागार्जुन का जन थोड़ा व्यवाहारिक, मुंहफट और राजनीतिक उठा-पटक के बीच अपनी राह तलाशता अपेक्षाकृत चतुर जन है-अभिव्यक्ति के खतरे उठाता हुआ भी। मुक्तिबोध का जन डर और सहमी स्थितियों के बीच दबते-दबते खुद को बचा ले जाने की समझ को तलाशते और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की समझ को धार देता हुआ जन है। केदारनाथ अग्रवाल का जन अपनी अवांछित यथास्थितियों में भी अपने को कमजोर पड़ने की सोच से बाहर निकाल कर अपनी वास्तविक ताकत की पहचान बनाता और कराता जन है जो उत्सव भी मना सकता है। शमशेर का जन प्रकृति और ब्रह्मांड में सौंदर्य तथा प्रेम का एक विशाल और पूर्णत्व से सधा संसार रचता हुआ सशक्त, सकारात्मक और आत्मविश्वास से भरा अपनी धुन में जीता जन है। मैंने लिखा था – त्रिलोचन! न अतीत, न भविष्य और न ही वर्तमान। महाकाल! निरन्तरता में ही कोई पकड़ ले तो पकड़ ले। सतत गतिशील! न आदि न अंत। जानकार समझते हैं कि त्रिलोचन जब भी उभरे या उभरेंगे या उभरते हैं तो एक निरन्तर वाणी, एक निरन्तर गतिशीलता में ही। जड़ता या ठहराव को अर्थहीन करते हुए, रुके-रुके मुक्तिबोध से अलग, सतर्क और तैयार। नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के यहां कविता-स्तर ऊपर-नीचे होता रहता है, लेकिन त्रिलोचन के यहां वह एक औसत दर्जे से नीचे कभी नहीं जाता। त्रिलोचन की कविताएं कहीं भी आवेश की नहीं हैं, बल्कि गजब के धैर्य की हैं। मैं समझता हूं कि सबसे बड़ी खूबी तो यही है कि कवि समग्र प्रभाव के रूप में अपनी भाषा, तथ्य और अप्रोच की दृष्टि से रोमानी नहीं है। जीवन से सीधा और सधा हुआ साक्षात्कार जितना इस कवि में मिलता है, वह बहुत कम देखने में आता है।
4. कहा जाता है कि त्रिलोचन को साहित्य जगत में भारी उपेक्षा का सामना करना पड़ा। खासकर, लेखक संघों की राजनीति में वे उपेक्षित हुए। प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है...लिखा। आख़िर प्रगतिशीलों ने उनकी उपेक्षा क्यों की, क्या औरों की भी कीकुछ प्रकाश डालें इस पर।
त्रिलोचन को पहली मान्यता लोगों अर्थात उनके पाठकों जिनमें रचनाकार भी थे, से मिली। अपने समय के मान्य स्टार आलोचकों से नहीं मिली, जैसे मृत्यु के बाद ही सही, मुक्तिबोध को मिली थी। लोगों और पाठकों के दबाव ने ही आलोचकों की आंखें उनकी ओर की। तब जाकर आलोचकों के लिए वे ‘खोज के कवि’ के रूप में ही सही पर उभर कर आ सके थे। सुनकर ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि 1957 में प्रकाशित उनके ‘दिगंत’ का दूसरा संस्करण मेरे ही प्रयत्नों से एक उभरते प्रकाशक ने 1983 में जाकर छापा था। हांलांकि, पांडुलिपि काफी पहले दी जा चुकी थी। यही नहीं, उन पर पहली पुस्तक ‘साक्षात त्रिलोचन’ भी कमलाकांत द्विवेदी और मेरी ही देन थी। साहित्य अकादमी जैसी संस्था उन्हें निमंत्रण तक नहीं भेजती थी, जिसके लिए मैं लड़ा। जिस संग्रह पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, उसे भी तब के एक युवा कवि ने ही तैयार किया था। लेकिन इस इतिहास को कुछ ही लोग जानते हैं। नयी पीढ़ी तो श्रेय उन्हीं को देती प्रतीत होती है, जिनसे वे उपेक्षित रहे। त्रिलोचन न खुशामदी थे और न अपने स्वाभिमान से एक इंच भी डिगने वाले थे। उलटा आलोचक हो या कोई और, उन पर व्यंग्य करने से भी नहीं चूकते थे। त्रिलोचन उपेक्षित रहे, लेकिन उन्होंने उपेक्षा नहीं की। जैसे शमशेर को कवियों का कवि कहा गया है, वैसे ही त्रिलोचन को उपेक्षितों का उपेक्षित सहानुभूतिपूर्ण सहयात्री कहा जा सकता है। शिकायत केदारनाथ अग्रवाल को भी थी न केवल गैरों से, बल्कि अपनों से भी और जायज थी। पूरा मूल्यांकन तो अभी भी होना है त्रिलोचन का।
5. त्रिलोचन की कौन-सी कविताएं आपको विशेष प्रिय लगती हैं, उनकी खासियत के बारे में भी बताएं।
अनेक प्रिय हैं। मैंने कई लेख लिखे हैं जो मेरी पुस्तकों (कविता के बीच से, समझा परखा) में संकलित हैं और जिनमें पसंद की कुछ कविताओं का जिक्र आया है। यहां सब का जिक्र करना बहुत विस्तार में जाना होगा। हां ‘धरती’ को पढ़ा तो ‘चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ कविता पढ़कर मैं दंग रह गया। इतनी पुरानी कविता एकदम नयी लग रही थी। फिर इनके एक के बाद एक तीन संग्रह प्रकाशित हुए। ‘उस जनपद का कवि हूं’ के सारे सॉनेट किसी को भी पसंद आएंगे। ‘धरती’ के भी अधिकांश गीत पसंद के हैं। फिर भी ‘सोच समझ कर चलना’, ‘बह रही वायु सर सर सर सर’, ‘गंगा बहती है’, ‘लहराती लहरों वाली’, ‘पथ पर चलते रहो निरंतर’, ‘जब छिन मैं हारा’, ‘एक प्रहर दिन आया होगा’, ‘बादलों में लग गयी है आग’, ‘खिला यह दिन का कमल’, ‘धूप सुंदर’, ‘लौटने का नाम मत लो’, ‘मौत यदि रुकती नहीं’, ‘बढ़ अकेला’ और ‘उठ किसान ओ’ विशेष पसंद के हैं। चैती, जीने की कला, मेरा घर, शब्द आदि सभी संकलनों मेरी विशेष पसंद की कविताएं भी हैं।

Monday 11 December 2017

केन्द्रीय मंत्री का सुझाव प्रधनमंत्री को सबसे पहले सुनना चाहिए

प्रधानमंत्री सुनते हैं। कान के तेज हैं। उनके प्रबंधक उनको देश में कब, कहाँ, किसने, उनके बारे में क्या कहा बतला देते हैं। लेकिन उन्हें कुछ अच्छी बातें भी सुननी चाहिए। खासकर उन बातों को जिन्हें सुनने को पुरानी सरकार आदी नहीं थी। नई सरकार को ‘सेल्फ पब्लिसिटी’ से बाहर आते हुए ‘प्रैक्टिकल’ मुद्दों एवं ‘जैनुइन’ समस्याओं पर व्यावहारिक संवाद कायम करने की आवश्यकता है। 

अच्छा जानिए क्या कहा केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने-
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केवल पुस्तकें या शोध-पत्र प्रकाशित करना प्र्याप्त नहीं है बल्कि सरकारी अनुसन्धान संस्थानों को ऐसे कार्यों को आगे बढ़ाना चाहिए जिससे सामान्य लोगों को फायदा पहुँचे, वरना ऐसी संस्थाओं को बने रहने का कोई मतलब नहीं रहेगा। हमें ऐसी सोच से ऊपर उठना होगा जो मतभेद, बहस और केवल चर्चा तक सीमित रह जाती हो। - नितिन गडकरी, केन्द्रीय मंत्री

Saturday 9 December 2017

बोलने का बदलता सामाजिक-दायरा और भाषा

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§  राजीव रंजन प्रसाद

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सार्वजनिक जीवन में बोलना एक शऊर का काम है। तब तो और जब हम किसी खास ओहदे पर हों। राजनीति का विस्तार और प्रभाव चैतरफा होने के नाते राजनीतिक व्यक्तित्व से शालीन और मर्यादित आचरण की अपेक्षा अधिक की जाती है। हाल के दिनों में राजनीति की जन-माध्यमों पर निर्भरता बढ़ी है। प्रचार-संस्कृति के बाजारू-संस्करण ने नई चिंताओं को सिरजा है। आजकल राजनेता बिना किसी पूर्व तैयारी और समीक्षा के बोल रहे हैं। (हाँ, वे जनता के मुद्दों का ‘गेटकीपरिंग’ खूब कर रहे हैं) यह जानते हुए भी कि उनका बोला अब राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर तक अपनी पहुँच और दख़ल रख रहा है। फिर वह क्यों अनर्गल प्रलाप अथवा बिलावज़ह आरोप-प्रत्यारोप करते दिखते हैं; समझ से बाहर है। जबकि उनके द्वारा कही जाने वाली इन सब बातों से देश की गरिमा को ठेस पहुँचता है, अपनी छवि जो धुमिल होती है सो अलग। भारत में पहले बोलना दिल से होता था, अब दिमाग से। अब बोलने का मिज़ाज और लहजा बदला है, तो बोलने वाले की नियत और नेक-ईमान भी बदल चुकी है। मौजूदा राजनीति में आत्मबल से हीन व्यक्ति भी राजनेता बन सकते हैं। वे धनबल-बाहुबल, वंशवाद या फिर भाई-भतीजावाद के बूते जन-प्रतिनिधि होने का गौरव हथिया सकते हैं। सो वे क्यों राजनीति में ज़मीनी अनुभव और अनुभवी ज्ञान को तरज़ीह दें। किसी तजु़र्बे या तज़रबे के आगे शीश नवाए। आखिर उन्हें जरूरत ही क्या है कि वे सही बोलने का जिम्मा उठाए जबकि उनके कुछ भी बोल देने का रत्ती भर नुकसान उनको या उनकी पार्टी को न होता हो।.....

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नोट: पूरा आलेख माॅडरेशन पर है!

Thursday 7 December 2017

शोहरत और हक़ीकत

!! सम्पादकीय!!

शुक्रवार; 08 दिसम्बर, 2017; ईटानगर

शोहरत और हक़ीकत

मणिशंकर अय्यर ने माननीय प्रधानमंत्री को ‘नीच’ कहा। इससे पहले भी विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने बहुत कुछ कहा था। आज टीवी डिबेट में इसी बात पर जंग छिड़ी थी कि कांग्रेस के लोगों को बोलना नहीं आता है। पिछली बार कांग्रेस हारी ही नहीं बल्कि वह एकदम बौनी-ठीगनी हो गई। इस बार भी वह इसी नक़्शेकदम पर है। कांग्रेस के हाथ से गुजरात निकल सकता है। हिमाचल भी। यद्यपि कांग्रेस के भीतर बदलाव के नए संकेत मिल रहे हैं। राहुल गाँधी ने पहले मणिशंकर अय्यर को माफी माँगने के लिए कहा था। लेकिन बाद में त्वरित कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी से ही बर्ख़ास्त कर दिया गया। कांगेस के लिए इस तरह के फैसले ही निर्णायक साबित होंगे। राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नामांकित हो चुके हैं और कुछ ही दिनों बाद वह कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन होंगे। अतएव, हालिया प्रकरण का तुरंत पटाक्षेप करने के लिए अभद्र भाषा-प्रयोग के मामले में मणिशंकर अय्यर का निष्काषन स्वागत योग्य है। कांग्रेस ही नहीं राजनीति में किसी भी दल के द्वारा इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप, व्यक्तिगत टिप्पणी, लांछन, अपमानसूचक शब्दों का प्रयोग निंदनीय है। भाजपा को अब स्वयं भी भाषिक शुचिता साबित करने होंगे। उसे अपनी भाषा के बोल ठीक रखने होंगे। क्योंकि आज मणिशंकर अय्यर ने ग़लत कहा है, कल उसके नेताओं ने ऐसा कहा तो जनता माफ़ नहीं करने वाली। वह खुद भी रिकार्ड मोड पर है। नरेन्द्र मोदी आज प्रधानमंत्री हैं, कल भी रहेंगे; लेकिन हमेशा उनका सितारा आज और कल माफ़िक बुलंद ही रहे, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है। झूठ की मियाद लम्बी नहीं होती, वहीं सत्य सदैव शाश्वत होता है। झूठ का जन्म अपनी मौत मरने के लिए होता है, तो सत्य का आविर्भाव अपनी पहचान और अस्मिता को कायम रखने के लिए। उन नेताओं के चेहरे याद कीजिए जो आज से दस साल पहले मंत्री थें, उन नेताओं की प्रशंसा करते हुएलोगों से सुनिए जिनकी राजनीति में कभी तूती बोला करती थी। आप पायेंगे कि सितारे ढहते हैं, लोकप्रियता गायब होती है। आँख-दीदा होने पर लोगों को बरगलाना आसान नहीं है। लोकतंत्र की तमीज़ ने जनता को विवेकवान बना दिया है। वे बापू के तीन बंदर नहीं है। यानी अपनी न देखें, अपनी न सुनें, अपनी न बोलें; बस दूसरों का कहा देंखे, सुनें, और बोलें। यह राज कांग्रेस ने कायम रखा। आज देखिए उसके दुर्दिन आ गए हैं। राहुल गाँधी की जन्मकुंडली में सारे संयोग ‘इंजेक्ट’ करने के बावजूद इस पार्टी का क्या और कितना भला होगा? यह तो भविष्य ही बताएगा। पर एक बात तो तय है कि अभी भी राहुल राजनीति के मँजे उस्ताद नहीं हैं। इस कारण कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से पार्टी को नवजीवन देना उनके लिए एक कठिन चुनौती है। जहाँ तक बात नरेन्द्र मोदी की है वे देश के प्रधानमंत्री हैं। उम्मीदों का सितारा। युवाओं को आसमान में मुक्के उछालने की सीख देने वाला। मेक इन इंडिया। डिजिटल इंडिया। न्यू इंडिया। कई नामों से गढ़े जा रहे हिन्दुस्तान के स्वप्नद्रष्टा हैं। उस हिंदुस्तान के नवनिर्वाचित नेता जिसे कांग्रेस ने पिछले कई दशकों से दीमक की तरह चाट रखा था। नरेन्द्र मोदी ने भारतीय युवाओं को झिंझोड़ा। उनकी चेतना को गति दी। युवजन मोदी की जय-जयकार करता हुआ चुनावी मुहिम में उनके साथ हो गया। अन्य लोगों को भी आस जगी। निराशा के बादल छँटे। उन्हें लगा जैसे कि उनका जनसमाज एकबारगी पुनर्नवा हो गया है। नई पीढ़ी को जीने की मकसद और मुक़ाम मिल गई है। कहन के ‘रेंज’ और साफगोई में नरेन्द्र मोदी का राहुल गाँधी से कोई तुलना नहीं है। उनकी लोकप्रियता का ‘ग्राफ’ भी बिल्कुल अलग है। सनद रहे, पाँचों ऊंगलियों की तरह हर व्यक्ति एकसमान नहीं है। प्रत्येक दूसरे से भिन्न है। यह भिन्नता जनसामान्य में है और पद-प्रतिष्ठा से लैस हुक्मरानों के बीच भी है। दरअसल, मनुष्य शरीर में रहता है, पर तैरता मन में है। चूँकि वह सोचने वाला प्राणी है। इसलिए बोलना उसकी नियति है। लेकिन ‘बोलना’ महज एक क्रिया मात्र नहीं है। भाषिक अभिव्यक्ति में मनुष्य का आंतरिक स्वभाव प्रकट होता है। यद्यपि इसकी प्रकृति बेहद सूक्ष्म, गहन और विस्तृत होती है। ध्यान रहे कि जब कभी आदमी बोलने की प्रक्रिया को ‘अंडरस्टिमीट’ करता है वह भारी गच्चा खाता है। मशहूर कहावत है-‘ज़बान की धार छुरे से भी तेज होती है’। खासकर राजनीति में इसका विशेष ख्याल रखना होता है। वैसे भी इन दिनों  चुनावी मौसम है। दो प्रान्तों हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। चुनाव में नेतागण दौरा करते हैं, रैलियों में भाषण देते हैं। अभिव्यक्ति के साधन के रूप में वे जो कुछ बोलते हैं वह सब भाषा में सम्बोधित होता है। भाषा में प्रयुक्त वाक्य, पद, शब्द आदि का विशेष महत्त्व होता है। हर भाषा चाहे जिस भी तरह व्यक्त-व्यंजित हो वह सामाजिक-माध्यम बनकर पेश होती है। उसका सामाजिक दायरा होता है, तो लोकानुशासनभी। 

आजकल कुछ भी बोलने की रवायत ने ‘वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का मजाक बना दिया है। राजनीति में बोलने का ढंग ही नहीं बदला है, बल्कि बोले जा रहे कथ्य का स्तर भी गिरा है। बोलने का लहजा और शैली तो बदचलनी का शिकार हो गई हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी पर ख़राब से ख़राब टिप्पणी की गई। उन पर भद्दी भाषा में तंज कसे गए। भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी ने स्वयं अपने ऊपर सयंम नहीं रखा। जवाबी हमले में उनकी भाषा भी दोयम दरजे की ठहरी। राहुल गाँधी और अरविन्द केजरीवाल जैसे कम राजनीतिक अनुभव वाले नेताओं के आगे उनका डर जिस तरह ज़ाहिर हुआ उससे इस बात की पुष्टि हुई कि नरेन्द्र मोदी डरपोक राजनेता हैं। लोहिया और जयप्रकाश जैसी हुंकार सुनने में जितनी कर्णप्रिय और शोभनीय है, उसके भीतर का माल-असबाब रेत का ढेर है। आम-अवाम अगर अपने लोकप्रिय नेता के बारे में ऐसी राय रखने लगे अथवा मंतव्य ज़ाहिर करने लगे, तो समझिए जनता अब ज्यादा दिन उन्हें बर्दाश्त करने वाली नहीं है। यह सच है, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बीच वाक्युद्ध नई बात नहीं है; लेकिन उसका स्तर छिछोरा नहीं होना चाहिए। भाषा की तमीज़ खोने का अर्थ अपनी आदमीयत को बिकाऊ बनाना है, अपने संस्कारों पर तोहमतजड़नाहै। लेकिन आजकल यही सब जोरों पर है। राजनीति की उठाईगिरी अपने बरअक़्स इतिहास, दर्शन, कला, साहित्य, स्थापत्य, सभ्यता, संस्कृति इत्यादि को समझ और समझा रही है। राजनीतिज्ञों के अगंभीर चाल-चलन नेभारतकी जीवंतता और सांस्कृतिक उपादानों पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। हमारे नेतागण सोशल मीडिया यानी फेसबुक, टिवटर, व्हाट्स-अप आदि की भाषा में लोगों का राजनीतिक मनोरंजन कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसा प्रभावशाली वक्ता खुद इसी ज़मात में शामिल है। वह नेता जिसे सुनने का चाव हर एक भारतीय को रहता है। वह नेता जिससे आमजन की अपेक्षा रहती है कि कम बोले, लेकिन बोले तो धारदार बोले; आज उसकी वाग्मिता ‘इको’ अधिक हो रहे हैं, जबकि अर्थ गायब है। इस तरह अर्थहीन हो जाना नरेन्द्र मोदी जैसे वाग्मी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा कलंक है। राहुल गाँधी से नरेन्द्र मोदी की कोई मुकाबला नहीं थी, पर अब दोनों विज्ञापनी राजनीति में इस कदर सराबोर हैं कि उन्हें एक-दूसरे से अलगा पाना संभव नहीं रह गया है। दुःख के साथ लेकिन कहना पड़ रहा है कि हमारा प्रधानमंत्री लोकप्रियता के पीछे पागल दिख रहे हैं। वे अपनी ही शोहरत के गुलाम हो गए हैं। अर्थात् व्यक्तिवादी राजनीति में अपनी ही छवि को लगातार प्रस्तावित करने की उनकी भूख ने बाकी नेताओं की पहचान को निगल लिया है। वैसे अमित शाह, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, रविशंकर प्रसाद, स्मृति ईरानी, योगी आदित्यनाथ इत्यादि नेता कल की तारीख़ में बचे रहेंगे, क्योंकि उनका अपना कुछ भी दाँव पर नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नहीं संभले, तो 2019 उनको पटखनी देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा। मैनेजमेंट का ‘रूल आॅफ थम्ब’ है जिसका सिक्का चलता है वह उसका गुणगान करती है, किन्तु जिस दिन नरेन्द्र मोदी जन-अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे; मार्केट उनके सारे पोस्टर उतार डस्टबीन में डाल देगा। अपने अनुभवों के तईं देखें तो, अच्छे बच्चे और सच्चे बच्चे की तरह किसी को ज्यादा देर बेवकुफ़ बनाकर नहीं रखा जा सकता है। सम्मोहन, तिलिस्म, चमत्कार या मुलम्मा हटते ही सारी शोखी नौ दो ग्यारह हो जाती है। जनता के साथ नैतिक नंगई करने वालों को जनता जो मौत मारती है वह बेहद जानलेवा सजा है। राजनीति में खतरा होना स्वाभाविक है, लेकिन खतरे को पहले ही भाँप लेना सबसे बड़ी समझदारी है।

नोट: प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्यार्थियों के लिए सम्पादकीय-लेखन का माॅडल

अच्छे प्रयासों की तारीफ मिले या आलोचना, आगे बढ़ते रहें

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रोजमर्रा की ज़िंदगी में छोटे-छोटे प्रोत्साहन कितने महत्वपूर्ण होते हैं? अगर यह सवाल आप किसी ऐसे इंसान से पूछें जो शाम को नौकरी या अपने काम से घर लौट रहा हो तो शायद वह भी यही कहेगा कि बहुत जरूर होता है।
शायद ही कोई इंसान इस सवाल के सकारात्मक जवाब से इनकार करेगा। क्योंकि हमारे आसपास हतोत्साहित करने वाले ऐसे लोगों की भरमार है जो हमारी पहली ही उड़ान पर पंखों के कमज़ोर होने की घोषणा कर देने को तैयार बैठे हैं।

तारीफ मिले या आलोचना ठहरें नहीं, आगे बढ़ते रहें

ऐसे माहौल में हमें अपने अच्छे प्रयासों को तारीफ और आलोचना की परवाह किये बिना जारी रखने की जरूरत होती है। हमारी खुशी का मूल हमारा काम ही है। हमको अगले दिन की ऊर्जा उसी से मिलनी है।
अपने वर्तमान समय का इस्तेमाल किसी की आलोचना में बिताने से अच्छा है कि हम अपने काम की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए प्रयास करें। क्योंकि लंबे समय में ऐसे प्रयास ही किस्मत बदलने वाले साबित होते हैं।


यह बात आम लोगों के साथ-साथ एक शिक्षक के लिए भी उतनी ही सच है। इसलिए आप सभी शिक्षक साथियों से कहना है, “कोई आपके अच्छे प्रयासों की तारीफ करे या आलोचना आगे बढ़ते रहिए। अपनी आंतरिक प्रेरणा पर बाहरी प्रोत्साहन को हावी न होने दें। आपकी प्रतिभा निरंतर अभ्यास से और निखरेगी, इस विचार में गहरा विश्वास करें। आपके काम करने की सकारात्मक ऊर्जा और प्रतिबद्धता ही आपके आलोचकों को आपका जवाब है।”

Tuesday 5 December 2017

शिक्षा एवं अनुसंधान में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी हस्‍तक्षेप

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https://archive.india.gov.in/hindi/spotlight/spotlight_archive.php?id=25


"जिस प्रकार संगमरमर के लिए शिल्‍प कला है उसी प्रकार मानवीय आत्‍मा के लिए शिक्षा है"
जोसेफ ए‍डीसन

पिछले कुछ दशकों से प्रौद्योगिकी ने हर संभव मार्ग से हमारे जीवन को पूरी तरह बदल दिया है। भारत एक सफल सूचना और संचार प्रौद्योगिकी से सज्जित राष्‍ट्र होने के नाते सदैव सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के उपयोग पर अत्‍यधिक बल देता रहा है, न केवल अच्‍छे शासन के लिए बल्कि अर्थव्‍यवस्‍था के विविध क्षेत्रों जैसे स्‍वास्‍थ्‍य, कृषि और शिक्षा, अनुसंधान आदि के लिए भी।

शिक्षा एवं अनुसंधान नि:संदेह एक देश की मानव पूंजी के निर्माण में किए जाने वाले सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण निवेशों में से एक और एक ऐसा माध्‍यम है जो न केवल अच्‍छे साक्षर नागरिकों को गढ़ता है बल्कि एक राष्‍ट्र को तकनीकी रूप से नवाचारी भी बनाता है और इस प्रकार आर्थिक वृद्धि की दिशा में मार्ग प्रशस्‍त होता है। भारत में ऐसे अनेक कार्यक्रम और योजनाएं, जैसे मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा, "सर्व शिक्षा अभियान", राष्‍ट्रीय साक्षरता अभियान आदि शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने के लिए सरकार द्वारा आरंभ किए गए हैं।

हाल के वर्षों में इस बात में काफी रुचि रही है कि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को शिक्षा एवं अनुसंधान के क्षेत्र में कैसे उपयोग किया जा सकता है। शिक्षा एवं अनुसंधान के क्षेत्र में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण योगदानों में से एक है-सीखने के समस्त साधनों-संसाधनों तक हम सबकी आसान पहुँ। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की सहायता से छात्र अब ई-पुस्‍तकें, परीक्षा के नमूने वाले प्रश्‍न पत्र, पिछले वर्षों के प्रश्‍न पत्र आदि देखने के साथ संसाधन व्‍यक्तियों, मेंटोर, विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं, व्‍यावसायिकों और साथियों से दुनिया के किसी भी कोने पर आसानी से संपर्क कर सकते हैं।

किसी भी समय-कहीं भी, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की सर्वाधिक अनोखी विशेषता यह है कि इसे समय और स्‍थान में समायोजित किया जा सकता है। इसे ध्‍यान में रखते हुए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी ने असमामेलित अधिगम्‍यता (डिजिटल अभिगम्‍यता) को संभव बनाया है। अब छात्र या अनुसंधानकर्ता किसी भी समय अपनी सुविधानुसार ऑनलाइन अध्‍ययन पाठ्यक्रम सामग्री को पढ़ सकते हैं।

सूचना और संचार प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा आपूर्ति (रेडियो और टेलिविजन पर शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण) से सभी सीखने वाले और अनुदेशक को एक भौतिक स्‍थान पर होने की आवश्‍यकता समाप्‍त हो जाती है।


जब से सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को एक शिक्षण माध्‍यम के रूप में उपयोग किया गया है, इसने एक त्रुटिहीन प्रेरक साधन के रूप में कार्य किया है, इसमें वीडियो, टेलिविजन, मल्‍टीमीडिया कम्‍प्‍यूटर सॉफ्टवेयर का उपयोग शामिल है जिसमें , ध्‍वनि और रंग निहित है। इससे छात्र और अनुसंधानकर्ता सीखने की प्रक्रिया में गहराई से जुडते हैं।

(थोड़े फेरफार के साथ....,)

Friday 1 December 2017

झींगुर नेता और युवा राजनीति


!! सम्पादकीय!!

झींगुर नेता और युवा राजनीति 

अच्छे नेताओं की देश में कमी नहीं है, लेकिन कई सारे अनाड़ी नेता होते हैं। युवा नेताओं में अनाड़ी ही अधिक हैं। निपट हरामखोर। यानी झपसू टाइप ऐसे नेता जिन्हें झाँसे में लेना अथवा रखना आसान है। इनको बस मौका चाहिए भाट और चारण बनने का। काम न धाम अलापे प्रभु नाम की तरह यह चुनावी जीत एवं जश्न मनाने के लिए लालायित होते हैं। पटाखा फोड़ने, गुलाल लगाने और बीच सड़क पर हुड़दंग करने को हरदम तैयार रहते हैं। ऐसे नेता मध्यवर्गीय टाइप के होते हैं। इनके पास भूखे मरने की नौबत नहीं है। बाप-दादे के पैसे से चिकेन उड़ाते हैं और चाय-सिगरेट भी पीते हैं। झींगुर प्रजाति के इन नेताओं को नौकरी की दरकार नहीं होती है। घर-परिवार की चिंता भी नहीं हुआ करती है। ऐसे में इन नेताओं का ईमान-धर्म फोकट में बिक जाता है। गाड़ी में पेट्रोल-डीजल डला दो बस। फिर ये झींगुर फ़लाना या अमुक सांसद-विधायक का पीपीहरी बजाने में जुट जाते हैं। अनाड़ी टाइप ये युवा नेता मुख्य नेता के साथ चिपके रहते हैं। इनका विज़न है-आराम में ही ऐश है। आज नेता बनने की खुमारी में डूबे झींगुर युवाओं से देश लबालब है। आँकड़े-रिपोर्ट सब में झींगुरों की तादाद बम-बम हैं। कांग्रेस पार्टी ने कई दशकों से इन्हें पाल-पोसकर रखा है। दूसरी पार्टियों ने भी इनका मजेदार तरीके से इस्तेमाल करती आई हंै। इन्हें थोड़ी सी पेशगी (मुर्ग-मशलम, शराब आदि) दे दो, काम हो गया। गला फाड़कर ये मोदी-मोदी कहेंगे या फिर राहुल-राहुल। जबकि बेगारी में अपनी कद-काठी-काया जोतते इन युवाओं को न उच्च शिक्षा मिल पाती है और न ही अच्छी नौकरी। इनका जीवन सदैव दूसरों की चाटुकरी करते हुए बीतता है। दूसरों को बनाने के चक्कर में यह भूल ही जाते हैं कि इनको जिसने पैदा किया है उसकी भी इनसे कुछ अपेक्षा है। उम्मीदें हैं। ज़वानी के जोश में राजनीति का अफ़ीम पीते ये झींगुर युवा नेता प्रायः असफल होते हैं। तब भी घर-परिवार के आस-विश्वास को ठेंगा दिखाते ऐसे युवाओं के लिए ‘बस इस पल जीना, इस पल मरना...और क्या करना यारों!’ फ़लसफ़ा काफी है।

लेकिन आपने कभी सोचा है? ज़वानी के जोश में अपनी बल, ऊर्जा, विवेक और विचार-शक्ति गँवाते इन युवाओं का ‘राजनीतिक हैंगओवर’ के बाद में क्या होता है? सब के सब अपनी मौत मरते हैं। गुमनामी और अँधेरे में ठिठूरते और लंगड़ाते हुए जीते हैं। तमाम ज़िल्लत बर्दाश्त करने के बावजूद कईंयों को आख़िर तक यह अहसास नहीं होता है कि उन्हें इस दशा में पहुँचाने वाला आज खुद कहाँ है और वे किस गर्त और गटर में है। राजनीति के कई धुरंधर युवा कार्यकर्ताओं को यह लगता है कि वह नपुंसक पैदा हुए हैं। उनके पास पुरुषार्थ नहीं है। बला की ऐसी सोच उन्हें दूसरों की चाकरी करने को न्योंतती है। दूसरों के नाम का झंडा उठाने के लिए अपना कंधा तैयार रखती है। पर सौ टके का सवाल है-इन सबमें उनका हिस्सा कितना अहम है। आजकल युवा सवालों से जूझना नहीं चाह रहे हैं। उनको हर हाल में जीने की जिद है। ऐश-मौज-पार्टी करने की जल्दी है। वाट्स-अप, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर मेसेज, फोटो, सेल्फी आदि ठेलने की हड़बड़ाहट है। झींगुर नेता ऐसे ही लोग बनते हैं। वे सभी लोग जो अपने बारे में बाद में और दूसरों के बारे में पहले सोचते हैं, झींगुर हैं।


कहना न होगा कि झींगुर नेता बेमकसद जीते हैं और बेवजह मर जाते हैं। उनके मरने-जीने से उन पर फ़र्क नहीं पड़ता जिनकी नेतागिरी इनके बदौलत बुलंद हुआ करती है। क्योंकि उनके पास ऐसे फ़ालतू कार्यकर्ताओं की बड़ी खेप है। बड़े नेता शातिर होते हैं। काम निकालने के लिए वे अपने झींगुर नेताओं पर निर्भर हो जाते हैं। इसके लिए बड़े नेता झींगुरों से अपनी पहचान और रिश्ता को अपना सौभाग्य मानते हैं। उनके साथ धर्म और जाति का निकट सम्बन्ध रखते हैं। आज के अधिसंख्य मालदार राजनीतिज्ञ कुछ का भला करने का दिखावा कर बहुतों को बरगलाना चालू रखते हैं। दरअसल, राजनीति पाॅवर के साथ भरपूर माइंड-गेम है। राजनीति में फ़ितूर है जो हर एक के फ़ितरत को हवा देती है। यह और बात है, हवाबाजी में असल करतब वे नेता ही कर पाते हैं जो वंशवाद से उपजे हों, बाहुबल के नवासे हों या कि जिनके धनबल के जोर-बल-दाब के आगे शासन-प्रशासन की भी एक न चलती हो। बाकी चुनावी जीत में जश्न मनाने के लिए झींगुरों की बेहिसाब फौज़ तो है ही। 


नोट: प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्यार्थियों के लिए सम्पादकीय-लेखन का माॅडल

‘सत्यकाम’: अख़बार नहीं जन-जागरण

!! पहला सम्पादकीय!!
‘सत्यकाम’: अख़बार नहीं जन-जागरण

अख़बार जो घटित है उसका दस्तावेजीकरण है। वह समय की शिला पर सजीव विवरण दर्ज़ करता है। अख़बार की ताकत वर्तमान में है और उसके इतिहास बन जाने के बाद भी है। भारतीय सन्दर्भ में अख़बार भारत का दिग्दर्शन कराता है। भारतीयता की असल परिभाषा एवं इसकी अवधारणा गढ़ने में समाचार-पत्र अव्वल है। प्रश्न उठता है-असली भारत या भारतीय कौन है? वह, जिसके शास्त्रकार मनु और वशिष्ठ, दार्शनिक शंकर, रामानुज और वल्लभाचार्य तथा कवि वाल्मीकि, कंबन और तुलसीदास हैं? अथवा वह, जिसके शास्त्रकार स्वयं बुद्ध, दार्शनिक नागार्जुन और बसुबंधु तथा कवि तिरुवल्लुवर, वेमन्ना और कबीर हैं? ये सब हिन्दू धर्म के आदि-आचार्य हैं। रामधारी सिंह दिनकर अपने एक निबंध में भारत की बात करते हुएहिंदुत्वका मुद्दा उठाते हैं। हम सिर्फ उसका जिक्र करना भर चाहेंगे। आज हिंदुत्व पर शोर-शराबा अधिक है। वैचारिकी कम। दरअसल, दिनकर जी मानते थे कि, हिंदुत्व अब वही नहीं है, जो मनु की स्मृति तथा विद्यापति के निबंधों में लिखा मिलता है। उसका शाश्वत, चिर, नवीन और जाग्रत रूप अब वह है, जिसका आख्यान परमहंस और स्वामी विवेकानंद ने किया है, श्री अरविंद और महर्षि रमण ने किया है, गाँधी और स्वामी दयानंद ने किया है। यह ठीक है कि विवेकानंद और गाँधी के बताए हुए मार्ग पर सारी जनता अभी नहीं चल रही है, किन्तु यह भी ठीक है कि समाज के अग्रणी लोग, जिनका आचरण देखकर समाज अपना आचरण बदलता है, पुराने हिंदुत्व को छोड़कर अभिनव हिंदुत्व पर गए हैं और जहाँ समाज के अग्रणी लोग आज पहुँचे हैं, वहाँ सारा समाज कल पहुँचकर रहेगा। दिनकर जी की दूर-दृष्टि में हमलोग अपनी आँखों का अनुभव जोड़े, तो हम सही उत्तर पा सकेंगे। अथात् स्वातंत्र्योत्तर भारत में हम कहाँ से चलकर कहाँ पहुँचे हैं?

कांग्रेस की महाठगी और महालूट से भारत सन् 2014 में उबरा। केन्द्र में पहली बार गैर-कांग्रेसी सत्ता को आसीन होते देखा गया। बहुमत की सरकार बनी। कमान नरेन्द्र मोदी की हाथों में आया जिनकी लहरदार भाषा और आकर्षक व्यक्तित्व के आगे सबकी नेतागिरी झर गई। आम-चुनाव के बाद भारत अभिनव भारत का स्वप्न देखने लगा। आमजन लोहिया-जयप्रकाश की कर्मभूमि पर अभिनव हिंदुत्व को अकार लेते देख रही थी। साफ गंगा और स्वच्छ भारत अभियान में करोड़ो-अरबों रुपए लगाये जाने को सराह रही थी। जनता का विवेकपहले शौचालय फिर देवालयके नारे में राजी-खुशी शामिल हो चुकी थी। नोटबंदी से भ्रष्ट लोगों पर अंकुश कसने के सरकारी घोषणा को भारतीय जनमानस ने सर आँखों पर लिया। कुछ ही महीनों में एक हजार और पाँच सौ के सारे नोटों का देश से सफाया हो गया। इसके विकल्प के तौर पर दो हजार और पाँच सौ के नए नोट आए। सारे काले नोट सरकार ने ज़ब्त कर लिए। खाते में अधिक रकम जमा करने के एवज में एक लाख से ऊपर लोगों को आयकर की नोटिस जारी हुई। जनता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस आह्वान का कद्र कर रही थी जिसका नारा था, ‘सबका साथ, सबका विकास

देसी रिपोर्ट से लेकर विदेशी रुझान तक में भारतीय अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत स्थिति में है। जनता महंगाई की चपेट में है, लेकिन सरकार के खि़लाफ नहीं है। किसान कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन सरकार पर अपना आक्रोश ज़ाहिर नहीं कर रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, बिजली, कपड़ा, कोयला, मानव संसाधन इत्यादि किसी मंत्रालय को लेकर लोग बेतरह नाराज़ नहीं हैं। स्त्रियों के साथ छेड़छाड़, बदसलूकी, बलात्कार आदि की घटनाओं से सबका जी ख़राब है, लेकिन तब भी लोग शांतिपूर्वक प्रधानमंत्री के चुनावी हुंकार और मन की बात दिल से सुन रहे हैं। उन्हें मालूम है। संसार में जब भी कोई युग आरंभ होता है, वह युद्ध के कारण आरंभ नहीं होता। पराजय या विजय के कारण आरंभ नहीं होता। क्रांति के कारण आरंभ नहीं होता, देश का नक़्शा बदलने से आरंभ होता है। नया युग बराबर नए प्रकार के लोगों के जन्म के साथ उदित होता है। नरेन्द्र मोदी जिनका मीडियावी इतिहास (रिकार्ड) ख़राब रहा है। आज भारत के उज्ज्वल भविष्य के रागदाता हैं। वह देशसेवा में प्राणप्रण में जुटे हैं। वह संकल्पों का पिटारा हैं जिनके मन की बात में देश शामिल है सिर्फ व्यक्ति नहीं। विपक्षी जन जो जनादेश में बौने साबित हुए हैं लगातार पूछ रहे हैं-‘मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से क्या हुआ?’ जबकि यह पूछने वाले सब जानते हैं। प्रधानमंत्री ने भारतीय अर्थव्यवस्था कोक्लाइमेक्सदी है।स्मार्ट सिटीका नक़्शा तोबुलेट ट्रेनका रफ़्तार दिया है। नरेन्द्र मोदी पूरी दुनिया का सैर कर यह जान गए हैं कि नगर सभ्यता का प्राधान्य आधुनिकता का गुण है। सीधी-सादी अर्थव्यव्सथा मध्यकालीनता का लक्षण है। आधुनिक देश वह देश है, जिसकी अर्थव्यवस्था जटिल और स्वभावतः ही प्रसरणशील हो, जोटेक आॅफकी स्थिति को पार कर चुकी हो। बंद समाज वह है, जो अन्य समाजों से प्रभाव ग्रहण नहीं करता, जो अपने सदस्यों को भी धन या संस्कृति की दीर्घा, में ऊपर उठाने की खुली छूट नहीं देता है। आधुनिक समाज में उन्मुक्तता होती है, उस समाज के लोग अन्य समाजों में मिलने-जुलने में नहीं घबराते, वे उन्नति का मार्ग खास गोत्रों के लिए ही सीमित रखते हैं। आधुनिक समाज का एक लक्षण सह भी है कि उसकी हर आदमी के पीछे होने वाली आय अधिक होती है, हर आदमी के पास कोई धंधा या काम होता है। गतिशील और आधुनिक समाज में बेकार और बेगार लोगों की तादाद बिल्कुल नहीं होते है। इसी कारण अवकाश की शिकायत प्रायः हर एक को रहती है।

अभिनव हिंदुत्व का एजेंडा सर्वग्राही होता है कि सर्वग्रासी। कांग्रेस अपनी नीयत से खोटी थी जिस कारण उसकी योजनाएँ परवान नहीं चढ़ सकी। मौजूदा सरकार की नीतियाँ लोककल्याणकारी यानी जनहितकारिणी है जिसका आदर्श मंदिर है-‘नीति आयोग।  नीति आयोग की घोषणा है-‘हर एक व्यक्ति देश का नागरिक है-कांग्रेसी मुलम्मे का हिंदू या मुसलमान नहीं।‘ सरकारी-तंत्र का हर खंभा-स्तंभ साफ-सुथरा हो इसलिए सरकार का स्वर्णसूत्र है-‘काम, काम, काम। क्योंकि काम करते हुए हर एक भारतीय वह सबकुछ पा सकता है जिसका वह हकदार है। नरेन्द्र मोदी देश को आगे ले जाने को दृढ़प्रतिज्ञ हैं। उनका अभिनव हिंदुत्व पूरे विश्व में लोकप्रिय हो चला है।

भारत की ताकतवर छवि गढ़ने में नरेन्द्र मोदी की तरह ही हर एक व्यक्ति को जवाबदेह होने की जरूरत है। सत्ता और शासन में बैठे लोगों से एक-एक रुपए का हिसाब माँगने की दरकार है। वह अपने हक़-हकुक राजनीतिक मुहावरे में भूले नहीं यह अहसास जिंदा रखने के लिए ही हम आगे आए हैं। हमारा मोर्चा सत्य का है। हमारा संकल्प वादों का नहीं काम करके दिखाने का है। प्रचार और विज्ञापन से अख़बार के पन्ने रंगीन किए जा सकते हैं, किन्तु ईमानदारी की आभाब्लैक एण्ड व्हाइट’ में भी अपना कांति नहीं खोती हैं। इसीलिए हमारा अख़बार है-‘सत्यकाम’ जिसका नाम नहीं काम बोलेगा और आप सब सराहेंगे तो हमारा परचम ऊँचा लहराएगा। यद्यपि लहर के भरोसे ताउम्र जीने की ख़्वाहियश रखने वालों की आकाल मृत्यु जब होती है, तो रुदालियों को भी रोने का अवसर नहीं मिलता; हम तोजन गण मन’ के सच्चे सिपाही और योद्धा हैं।संपादक


नोट: प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्यार्थियों के लिए सम्पादकीय-लेखन का माॅडल