Thursday 14 June 2018

बाज़ार से इतर का व्यक्तित्व 'भारतमना'


!! सम्पादकीय!!
15 जून, 2018; शुक्रवार; ईटानगर

यह समय का फेर है कि इन दिनों फ़रेब, जालसाजी, षड़यंत्र, धोखा, ईष्र्या, कटुता, कपटता आदि का बोलबाला है। इसका कारण एक यह भी है कि हमारा व्यक्तित्व अब ‘ह्युमन बिइंग’ से ‘डिजिटल बिइंग’ में तब्दील हो रहा है। नेट-वेब आधारित तकनीकी-प्रौद्योगिकी आश्रित संजाल ने हमारे व्यक्तित्व को ‘आॅक्टोपस’ की भाँति जकड़ लिया है। अब पूरा राष्ट्र ‘पाॅलिटिक्ल वर्चुअलिटी’ की गोद में है। राजनीति हमें सिखा रही है कि-‘आदर्श जीवन’ क्या है? जन-जन के मन में क्या है? यही नहीं सरकारी-तंत्र का शासकीय-मानस भी अब ‘इवेंट कंटेंट मैसेन्जर’ द्वारा नियंत्रित, निर्धारित है। यदि देश का प्रधानमंत्री योग करते हुए, ‘हाइपर-डेकोरेटेट गार्डेन’ में टहलते हुए, आसन-प्राणायाम में ध्यानमग्न दिखाई दे रहे हैं, तो फिर देशवासियों को दुःख, तकलीफ, कष्ट, जार, क्षोभ, टीस, हुक, कसक, तनाव, अवसाद, ऊब आदि कैसे घेर सकती है? रोजगार, गरीबी, सूखा, हिंसा, अपराध, अशांति, असमानता, सुनियोजित भेदभाव आदि की फिर क्या बिसात? इसीलिए अब घोषित तौर पर टेलीविज़न अथवा अन्य जनमाध्यम में दिख रहा व्यक्तित्व (नरेन्द्र मोदी, विराट कोहली, सलमान खान इत्यादि) ही पूरे देश का तकदीर-तदबीर है। यानी वे खुश, तो सब खुश।

शायद इन्हीं तस्वीरों को देखते हुए अब हम अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं सम्मान को सुरक्षित-संरक्षित रखना सीखेंगे। भारतीयता के मूल बीज को अब व्यक्ति नहीं ‘यू ट्यूब’ में अपलोड कर कालजयी बनाया जाएगा। ‘प्रोपेगेण्डा’ और ‘प्रोजेक्शन’ के इस खेल में सत्ता-पक्ष और विपक्ष सभी शामिल हैं। समानता यह है कि जो भी सुविधाग्रस्त स्थिति में वह राष्ट्रीय-विकास का नारा और जयकारा लगा रहा है। सबसे विचित्र बात तो यह कि उनके ही चेहरे-मोहरे, नाज-नख़रे टेलीविजन से लेकर सभी जनमाध्यमों तक नमूदार हैं। ऐसे में क्या राहुल गाँधी और क्या अरविन्द केजरीवाल? सब के सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। 

सनद रहे, यह सब करतब या कारामात सायास नहीं, इरादतन घटित हो रहे हैं। विश्व बाज़ार ने अपने इरादों का सरकारीकरण कर दिया है। यह और बात है कि विचारहीन और नैतिक बल से क्षीण भारतीय राजनीतिज्ञ और उनके हुक्मरां इसे अपनी वैदेशिक कूटनीति एवं सफलता मान रहे हैं। उनका मानना है कि भारत को विकसित, सक्षम और प्रभावशाली राष्ट्र बनाने में पूरी दुनिया एकजुट हो चुकी है। नरेन्द्र मोदी स्वयं इसके सबसे बड़ा झंडाबदार हैं। यह भूल बाद में भारतीय जनमानस के लिए कितना घातक सिद्ध होने वाली है। इसे भारत की नई पीढ़ी के सोच, विचार, चिंतन, दृष्टि आदि को देखकर समझा जा सकता है। युवा पीढ़ी की पहचान के तरीके हैं-हर हाथ में स्मार्ट फोन, गैजेट्स, फैशनेबुल ड्रेसअप, अंग्रेजीदां स्टाइल आदि। लेकिन वास्तविकता यह है कि अधिसंख्य युवा अनुभव से खाली और स्मृति से विहीन एक ऊब और खीज भरी जिंदगी जी रहे हैं। ऐसे नौजवानों के लिए व्यक्ति, समाज, संस्कृति, सभ्यता, मूल्य, ज्ञान, विवेक, निर्णय, नेतृत्व, स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारा, राजनीति, विश्व, वैश्विकता इत्यादि महज़ शब्द मात्र हैं।

यह आरोप नहीं, बल्कि जिस राह पर हमारी निगाहें और बाहें हैं उसकी ‘लाइव रिपोर्टिंग’ है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आज की इस भूमंडलीकृत दुनिया में व्यक्ति के ‘इमेज’ को अधिक महत्त्वपूर्ण मान लिया गया है जबकि भारतीयता की असल कसौटी चरित्र हुआ करती है, छवियाँ नहीं। कारण कि मनुष्य का ‘व्यक्तित्व’ (Personality) उसके चरित्र, कर्म और संस्कारों का समुच्चय है। व्यक्तित्व में अच्छे और बुरे दोनों पहलू या गुण समाहित होते हैं। इतना अवश्य है कि विषयभेद के अनुसार व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों में से कोई एक प्रमुखता प्राप्त कर लेता है, जैसे-चिकित्सा-शास्त्र में व्यक्ति के शारीरिक व्यक्तित्व को प्रमुखता मिलती है, तो नीति शास्त्र में व्यक्ति के चरित्र को। ध्यातव्य है कि चरित्र व्यक्ति के व्यक्तित्व की साँस है। यहाँ चरित्र से अभिप्राय व्यक्ति की प्रकृति, उसका गुण, उसकी विचारधारा, उसकी क्रियात्मकता, भाषा, रुचि, शौक, आदत, व्यवसाय एवं उसके लोक-व्यवहार से है। यद्यपि व्यक्तित्व और चरित्र का आपसी सम्बन्ध पूरकत्व का है जिसमें शब्दावली का लोकवृत्त इसी के अनुरूप घटित और प्रयुक्त होता है। विभिन्न मुद्दों, मन्तव्यों, धारणाओं, मान्यताओं, प्रश्नों इत्यादि पर बहस-मुबाहिसे की गुँजाइश भी इन्हीं चरित्र-व्यक्तित्व का अवलम्ब अथवा आश्रय ग्रहण कर व्यवहार में फलित होती है। ज्ञान का बौद्धिक-तंत्र (एपेस्टीम) स्वयं भी इन्हीं भारतीय-पाश्चात्य रूपों एवं प्रारूपों का अनुसरणकर्ता है। 

अतएव, इस उत्तर शती में जिनका व्यक्तित्व विवेकशील और आत्मा चिन्तनशील है, वह अपने कथन के शब्दार्थ से ही नहीं, बल्कि जिससे कहा जा रहा है उसके कर्म और मर्म से भी सुपरिचित होते हैं। सही व्यक्तित्व की पहचान यह है कि वह आधुनिक जुमले और मुहावरों को भर मुँह उवाचता मात्र नहीं है, बल्कि उसे करने हेतु दृढ़संकल्पित भी होता है। उसे सदैव यह भान होता है कि एक विकासशील देश का नेतृत्वकर्ता यदि चरित्रहीन, भ्रष्ट और पतित हुआ, तो देशवासियों का जीवन नरक होते देर न लगेगा। इसीलिए भारतीय चिन्तन-दृष्टि में ‘भारतमना’ को विशेष महत्त्व प्राप्त है।

Wednesday 13 June 2018

भारत में शिक्षा से संबंधित प्रमुख समितियों और आयोगों का गठन कब किया गया?

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भारत में शिक्षा को लेकर होने वाले प्रयासों की कहानी का एक सिरा आज़ादी के पूर्व के ब्रिटिश हुकूमत वाले दिनों की तरफ जाता है तो दूसरा सिरा स्वतंत्रता मिलने के बाद की कहानी से जुड़ा हुआ है।
शिक्षा से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर विचार करने के लिए समय-समय पर कई शिक्षा आयोगों का गठन किया गया, मगर जिस आयोग ने शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर समग्रता से विचार किया उसमें 14 जुलाई 1964 में बने कोठारी कमीशन का जिक्र किया जाता है। जैसे साल 1948-49 में बनी राधाकृष्णनन् कमीशन ने केवल उच्च शिक्षा पर विचार किया। वहीं मुदालियर कमीशन ने केवल माध्यमिक शिक्षा पर विचार किया।

भारत में स्वतंत्रता पूर्व बनी शिक्षा समितियां/आयोग

  1. कलकत्ता विश्वविद्यालय परिषद – साल 1818
  2. चार्ल्सवुड समिति – 1824 – इसे भारतीय शिक्षा का मैग्नाकार्टा भी कहा जाता है
  3. डब्लू डब्लू हंटर शिक्षा आयोग – 1882-1883 – भारत में महिला शिक्षा का विकास करना
  4. सर थॉमस रैले आयोग – साल 1902 – इसी आयोग की रिपोर्ट पर 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया
  5. एम ई सैडलर आयोग – 1917 – स्कूली शिक्षा को 12 वर्ष करने का सुझाव दिया गया।
  6. सर फिलिप हार्टोग समिति – साल 1929 – इसमें व्यावसायिक व औद्योगिक शिक्षा पर जोर दिया गया
  7. सर जॉन सार्जेण्ट समिति – साल 1944 – इसमें 6 से 11 साल की उम्र तक के बच्चों को निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा की बात कही गई।

भारत में स्वतंत्रता के बाद बनी शिक्षा समितियां और आयोग

  1. डॉ. एस. राधाकृष्णनन् आयोग – साल 1948-49 – विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की स्थापना।
  2.  मुदालियर शिक्षा आयोग  – साल 1952-53 – इसे माध्यमिक शिक्षा आयोग भी कहा जाता है
  3. डॉ. डीएस कोठारी आयोग – साल 1964  – इसमें सामाजिक उत्तरदायित्व व नैतिक शिक्षा पर ध्यान दिया गया
  4. राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर पुनर्विचार – 1992 – एक सजग व मानवतावादी समाज के लिए शिक्षा का इस्तेमाल। इसे आचार्य राममूर्ति समिति भी कहा जाता है।
  5.  एम. बी. बुच समिति – साल 1989 – दूरस्थ शिक्षा माध्यम पर बनी पहली शिक्षा समिति।
  6. जी.राम रेड्डी समिति – साल 1992 – दूरस्थ शिक्षा पर केन्द्रीय परामर्श समिति
  7. प्रोफ़ेसर यशपाल समिति – 1992 – बोझमुक्त शिक्षा की संकल्पना
  8. रामलाल पारेख समिति – 1993 – बीएड पत्राचार समिति
  9. प्रो. खेरमा लिंगदोह समिति – 1994 – पत्राचार बीएड अवधि 14 माह तय की गई
  10. प्रो. आर टकवाले समिति – साल 1995 – सेवारत अध्यापकों हेतु पत्राचार से बीएड
  11. राष्ट्रीय ज्ञान आयोग – 2005 – ज्ञान आधारित समाज की संकल्पना व प्राथमिक स्तर से अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा को अनिवार्य करने की सिफारिश की गई
  12. जस्टिस जे एस वर्मा समिति – साल 2012 – शिक्षकों की क्षमता की समय-समय पर जाँच
  13. राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 2017 – राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2017 का मसौदा तैयार करने के लिए प्रख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक एवं पद्मविभूषण डॉ. के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में 9 सदस्यीय समिति का गठन किया गया है। इसकी रिपोर्ट जून, 2018 तक आने की उम्मीद जताई जा रही है।                                         ------------------