Monday 6 June 2016

जानने की जिज्ञासा और प्रेरणा-1

- ‘‘प्रान्तीय ईर्ष्या-द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी,उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए,उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है।’’  -सुभाषचन्द्र बोस

- हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है। -सुभाष चन्द्र बोस

-‘‘मैं उन लोगों में से हूं,जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।’’
 -बाल गंगाधर तिलक

- है भव्य भारत, हमारी मातृभूमि हरी भरी,हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी। -मैथिलीशरण गुप्त

- हिन्दी भारतवर्ष के हृदय-देश स्थित करोड़ों नर-नारियों के हृदय और मस्तिष्क को खुराक देने वाली भाषा है। यही नहीं हिन्दी को संस्कृत से विच्छिन्न करके देखने वाले उसकी अधिकांश महिमा से अपरिचित हैं।  
-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

- हिन्दी को गंगा नहीं बल्कि समुद्र बनना होगा। -विनोबा भावे

- हिन्दी एक जानदार भाषा है। वह जितनी बढ़ेगी देश का उतना ही नाम होगा। -पंडित जवाहरलाल नेहरू

- विश्व हिन्दी दिवस प्रतिवर्ष 10 जनवरी को मनाया जाता है। प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था इसीलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस के रूप मनाए जाने की घोषणा की थी। अभी विश्व के 130 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है और विश्व भर में करोड़ों लोग हिंदी बोलते हैं। चीनी भाषा के बाद यह दूसरी विश्वभाषा है जो दुनिया भर के लोग बोलते हैं।

- राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा 1917 में भरुच (गुजरात) में सर्वप्रथम राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता प्रदान की गई थी। तत्पश्चात 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने का निर्णय लिया तथा 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के द्वारा हिन्दी को देवनागरी लिपि में राजभाषा का दर्जा दिया गया। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से 14 सितंबर को हिन्दी-दिवसके रूप में मनाया जाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 से लेकर अनुच्छेद 351 तक राजभाषा संबंधी सांविधानिक प्रावधान किए गए। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग का गठन किया गया। महामहिम राष्ट्रपति के आदेश द्वारा 1960 में आयोग की स्थापना के बाद 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित हुआ, तत्पश्चात 1968 में राजभाषा संबंधी प्रस्ताव पारित किया गया। राजभाषा अधिनियम की धारा 4 के तहत राजभाषा संसदीय समिति 1976 में गठित की गई। राजभाषा नियम 1976 में लागू किए गए तथा राजभाषा संसदीय समिति की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा नीतिबनाई जाकर लागू की गई। राजभाषा अधिनियम 1963 द्वारा राजभाषा के शासकीय कार्यों, नियमन हेतु प्रावधान किए गए। तीन भाषायी क्षेत्र बनाए गए जिसके तहत क्षेत्र में- उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, हरियाणा, हिमाचल, उत्तरांचल, झारखंड, राजस्थान, दिल्ली एवं अंडमान द्वीप समूह। क्षेत्र में- गुजरात, महाराष्ट्र तथा क्षेत्र में-उपर्युक्त के अतिरिक्त सभी राज्य एवं संघ क्षेत्र रखे गए। यह सुनिश्चित किया गया कि राजभाषा में प्राप्त पत्रों के जवाब शत-प्रतिशत राजभाषा में दिए जाएं। अन्य भाषा में प्राप्त पत्रों के जवाब क्षेत्र में हिन्दी तथा अंग्रेजी में, ‘में 60 प्रतिशत हिन्दी-अंग्रेजी व शेष अंग्रेजी में तथा में 40 प्रतिशत हिन्दी-अंग्रेजी तथा शेष अंग्रेजी में दिए जा सकते हैं। यह आँकड़ा धीरे-धीरे हिन्दी-अंग्रेजी की ओर बढ़ाया जाए तथा भाषी क्षेत्रों में पूर्णतः राजभाषा हिन्दी का प्रयोग सुनिश्चित किया जाए। प्रत्येक कार्यालय में राजभाषा संबंधी एक त्रैमासिक बैठक का प्रावधान पिछली तिमाही में किए गए कार्यों, पत्राचार, तिमाही में आयोजित कार्यशाला एवं राजभाषा के प्रशिक्षण संबंधी उपलब्धता एवं परिमार्जन हेतु सुझाव आमंत्रित किए जाने हेतु किया गया। राजकीय विभागों में राजभाषा के प्रयोग हेतु सर्वाधिक प्रभावी प्रक्रिया पत्राचार है, क्योंकि उसी के आधार पर मिसिल अथवा फाइलों में टीप लिखी जाती है। अतः जब भी त्रैमासिक बैठकों में विचार-विमर्श होता है, तब सबसे ज्यादा सूक्ष्म विश्लेषण त्रैमासिक पत्राचार पर होता है, आंकड़ों की निगरानी भी होती है, कठिनाइयां सामने आती हैं और सुधार हेतु उपाय भी खोजे जाते हैं ताकि राजभाषा का अधिकाधिक प्रयोग पत्राचार में बढ़ाया जा सके।

- हिंदी की चार प्रमुख रूप या शैलियाँ हैं : उच्च हिंदी, दक्खिनी, रेख़्ता और हिंदी।

- यह हमारी विडंबना रही है कि देश में राजभाषा के रूप में हिन्दी को संविधान लागू होने के पूर्व कभी भी आधिकारिक मान्यता नहीं मिली थी। मुगलों के समय राजभाषा के रूप में अरबी-फारसी का बोलबाला था, तो अंग्रेजों ने अंग्रेजी और उर्दू को राजकाज चलाने में इस्तेमाल किया। दरअसल, हिन्दुस्तान में खड़ी बोली और हिन्दी जनभाषा के रूप में मान्य रही और पुष्ट होती चली गई। 

- संस्कृत संगणक (कम्प्यूटर) पर सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा के रूप में मान्य की गई है, मगर संस्कृत का प्रचार-प्रसार अत्यल्प होने के कारण उसकी निकटतम भाषा के रूप में तथा व्यापकता की दृष्टि से हमारी राजभाषा हिन्दी को फायदा मिलना सुनिश्चित है। साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज भौतिकतावादी हुआ है, उसकी सोच अर्थवादी हो गई है, विश्व बाजारवाद पर चल पड़ा है, तब हमारा देश वैश्विक संस्कृति से अलग नहीं रह पा रहा है। हमने राजभाषा को पूर्णता होते हुए भी बाजारीय अर्थवादी सोच नहीं दी। यही कारण है कि हमारा लेखक याचक है और प्रकाशक दाता। हिन्दी की किताब छापना और बेचना घाटे का सौदा है, जबकि अंग्रेजी में किताब छापना मुनाफे का धंधा है। अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद हिन्दी की किताबों से ज्यादा प्रसद्धि और पैसा बटोर रहा है। मौजूदा समय में विश्व स्तर पर अंग्रेजी के सबसे अच्छे लेखक मूलतरू भारतीय हैं। गीता जैसी सूक्ष्म प्रबंधकीय किताब होने के बावजूद हम राष्ट्रभाषा के प्रबंधन में कहीं न कहीं चूक गए हैं और यही चूक राजकीय स्तर पर भी हुई। हमारे नीति-निर्माताओं ने व्यापक सोच के स्थान पर भाषायी संकीर्णता और क्षेत्रीयता को तरजीह दी, फलतः 22 भाषाओं को राज्यों की राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गई। हम एक भाषा को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके और यही कारण है कि हमें आज राजकीय त्रैमासिक पत्रों के विश्लेषण के माध्यम से अधिकारी-कर्मचारियों के राजभाषा हिन्दी के विकास में योगदान पर चर्चा करनी पड़ती है।
- यह हिन्दी की जीत है कि जिन क्षेत्रों से हिन्दी का विरोध हुआ उन्हीं क्षेत्रों के नाम पर श्चेन्नई एक्सप्रेसश् जैसी हिन्दी फिल्में 3 दिन में 100 करोड़ और 300 करोड़ का आंकड़ा पार कर वैश्विक फिल्म का दर्जा पा रही है। शासकीय कर्मचारी-अधिकारी देश के एक भाग से दूसरे भाग में आ-जा रहे हैं। स्थानांतरण के कारण तो वे राजभाषा के ध्वजवाहक बने हुए हैं। वैश्वीकरण का लाभ निश्चित रूप से हिन्दी को देश में पुष्टता प्राप्त करने में हुआ है। 

- इंटरनेट ने देशों की दूरियां कम की हैं तब अधिकारियों-कर्मचारियों को भाषा की महत्ता समझ में आ रही है। वे यह जान गए हैं कि वैश्चिक स्तर की तरक्की के लिए अंग्रेजी जरूरी नहीं है। हमारे देश में विदेशी प्रतिनिधिमंडल आते हैं तो सरकारी दुभाषिए से काम चलाते हैं, क्योंकि इंग्लैंड-अमेरिका के लोगों को छोड़ दें तो ज्यादातर लोग अंग्रेजी नहीं जानते।

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