Thursday 22 September 2016

हिन्दी नाटक और कविता में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का योगदान


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राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
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साहित्य की लिखा-पढ़ी की थोड़ी भी जानकारी रखने वालों के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाम अनजाना नहीं है। वही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जिन्होंने कहा है-‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल/बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।’ इतनी महत्त्वपूर्ण बात भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने तब कही जब भारतीय स्वाधीनता का प्रथम संग्राम 1857 ई. में घटित हो चुका था। पूरे हिन्दुस्तान में नवजागरण की अलख जगी हुई थी और ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ के लोकप्रिय राग के साथ हिन्दी नई चाल में ढल रही थी। यह वक़्त 1873 ई. का था। दरअसल, नवजागरण काल ने हिंदी साहित्य को नए सिरे से रचा-बुना। नई लीक बनी। भाव, विचार, कहन और लेखन की इस धारा में बेजोड़ और जानदार चीजें बनी। कहानी, कविता, नाटक, कथा, उपन्यास बहुविध विधाओं में प्रभूत लेखन जिस तरीके और मनोयोग से हुआ, उसमें एक नाम अग्रणी है, वह है-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र। 

भारतेन्दु की अगुआई में युगांतर बदलाव हुए। साथ ही, इस काल में गद्य और पद्य दो भिन्न किन्तु विशिष्ट धाराओं का प्रादुर्भाव हुआ। भारतीय साहित्य के इतिहास को यह काल भाषा, समाज, संस्कृति, राजनीति आदि की दृष्टि से काफी हद तक प्रभावित करता दिखाई देता है। साहित्य लेखन के स्वरूप, शिल्प एवं शैली में अन्तर्वस्तु के अतिरिक्त तथ्यनिरूपण के स्तर पर भी ढेरों बदलाव आए। और इन सभी बदलावों के केन्द्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे। किताबी समझ तक अपनी सोच सीमित करने की जगह नई पीढ़ी को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के योगदान के बारे में अवश्य जानना चाहिए। क्योंकि जब भारत-भूमि परतंत्र और हम सबकी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना गुलाम थी। ब्रिटिश आकांक्षा भारतीय जन्मभूमि को लूटने-खसोटने में जुटी हुई थी। इंग्लैंड आधारित औद्योगीकरण भारत में अनौद्योगिकीकरण को पैदा कर रही थी। चारो ओर हताशा और निराशा का माहौल था। धनिक यानी आभिजात्य लोग अंग्रेजी सुख-वासना में अनुरत थे। सनातन-शास्त्रीय महापंडितों की जमात ढपोरशंखी क्रियाकलापों और कर्मकाण्डों में जुटी हुई थीं; भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सबसे आगे आए। 

यह कहा जाता है कि भाषा जहाँ मौन हो जाए, नाटक का जन्म वहीं होता है। अर्थात् नाटक जनता की चेतना का मूक-नायक होता है। शायद इन्हीं अर्थों में नाटक को आचार्य भरतमुनि ने पंचम वेद की संज्ञा दी है। सचमुच नाटक निरक्षर-ब्रह्म है। नाटक आम-आदमी का अख़बार है जो लिपि में नहीं साक्षात भाव-मुद्रा, मुखाकृति, सजीव भंगिमा, हस्त-संचालन, देहभाषा, मौन आदि में प्रकट होते हैं। श्रोतागण, हिन्दी नाटकों का मूल संस्कृत से ही है। संस्कृत में विश्व की सबसे प्राचीन नाट्य परम्परा मिलती है। आचार्य भरतमुनि का नाट्यशास्त्र इस विषय का सबसे प्राचीन ग्रंथ है। वास्तव में जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है; उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहा गया है। नाटक में श्रव्य-काव्य अधिक रमणीय होती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र स्वयं इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। भारतेन्दु जब कविताएँ लिखते थे, तो उसके लिए ब्रजभाषा और वैसे ही सुमेल, सुगठित छंदों का प्रयोग करते थे। परन्तु जब ये नाटकों या प्रहसनों की रचना करते थे, तो उनकी शैली बीच-बीच में कविताएँ लिखने की थी जो प्रायः खड़ी बोली की होती थी। यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि भारतेन्दु काल में आधुनिक गद्य साहित्य की परम्परा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ। बाद के समय में अभिनयशलाओं के न होने के कारण इस दिशा में अपेक्षित बदलाव नहीं हो सके। साहित्यिक दृष्टि से देखें, तो भारतेन्दु के नाटकों में देशभक्ति का स्वर मुखर और ऊँचा था। हम देख सकते हैं कि नीलदेवी, भारतदुर्दशा आदि नाटकों के भीतर आई हुई कविताओं में देश-दशा की जो मार्मिक व्यंजना है, वह तो है ही; बहुत-सी स्वतन्त्र कविताएँ भी उन्होंने लिखीं जिनमें कहीं देश की अतीत गौरव-गाथा का गर्व, कहीं वर्तमान अधोगति की क्षोभभरी वेदना, कहीं भविष्य की भावना से जगी हुई चिंता इत्यादि अनेक पुनीत भावों का संचार पाया जाता है। हम भारतेन्दु-काल का गंभीर अध्ययन करते हुए पाते हैं कि भारतेन्दु अपनी रचना-यात्रा में अकेले नहीं थे, बल्कि बंधु-बांधव की पूरी मंडली उनके साथ थी। यह मंडली भारतेन्दु मंडली के रूप में चर्चित हुई। इस मंडली में स्वनामधन्य जो महत्त्वपूर्ण लोग शामिल थे, वे थे-उपाध्याय पंडित बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’; पंडित प्रतापनारायण मिश्र; बाबू तोताराम;  ठाकुर जगमोहन सिंह; लाला श्रीनिवासदास; पंडित बालकृष्ण भट्ट, पंडित केशवराम भट्ट; पंडित अंबिकादत्त व्यास; पंडित राधाचरण गोस्वामी। 

प्रतिभा के धनी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का हिन्दी नाटक की दुनिया और काव्य-संसार में जो अप्रतिम योगदान है; उस पर एक नज़र डालें तो :

उनकी प्रमुख पत्रिकाएँ थीं : कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैग्जीन(चन्द्रिका), बालबोधिनी

मौलिक नाट्य जिसकी रचना भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने की  : वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चन्द्रावली, विषस्य विषमौषाधम्, भारत-दुर्दशा, नीलदेवी, अंधेरनगरी, प्रेमयोगिनी, सतीप्रताप(अधूरा)

अनूदित सामग्री में महत्त्वपूर्ण हैं : विद्यासुन्दर, पाखण्डविडम्बन, धनंजयविजय, कर्पूरमंजरी, मुद्राराक्षस, सत्यहरिश्चन्द्र, भारतजननी

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को सिद्ध वाणी का अत्यन्त सरस हृदय कवि कहा है। उनकी दृष्टि में प्राचीन और नवीन का सुन्दर सामंजस्य ही उनकी सर्जना-कला का विशेष माधुर्य है। भारतेन्दु की भाषा चाहे जिस ढंग की हो उनके वाक्यों का अन्वय सरल होता है, उसमें जटिलता नहीं होती। उनके लेखों में भावों की मार्मिकता पाई जाती है, वाग्वैचित्र्य वा चमत्कार की प्रवृत्ति नहीं। भारतेन्दु रचित नाटकों एवं कविताओं का भाषा और साहित्य पर गहरा असर पड़ा। दरअसल, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने गद्य की भाषा को परिमार्जित करने उसे चलता, मधुर और स्वच्छ रूप प्रदान करने का श्रमसाध्य कार्य किया। इसीलिए यह माना जाता है कि उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा, अवस्था अथवा स्थिति प्रदान की। इस प्रकार उनको हिन्दी गद्य के प्रवर्तक के रूप में लोकमान्यता प्राप्त हुई। 

हमें यह स्वीकार करना होगा कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने न सिर्फ गद्य की भाषा को माँजा, अपितु पुराने घिसे-पिटे अथवा रिवाजी शब्दों को प्रयोग से अलग करते हुए काव्यभाषा को काफी हद तक परिष्कृत एवं संस्कारित किया। भारतेन्दु का सबसे मुख्य अवदान हिन्दी भाषा को जनता के मुख एवं वाणी की भाषा बनाना था। इस लक्ष्य की षष्ठीपूर्ति में उन्होंने जागरूक जनता को शिक्षा के एक महत्त्वपूर्ण माध्यम के रूप में हिंदी भाषा को अपनाने पर बल दिया। आमजन को उन्होंने अपने भाव, संवेदना, विचार, अनुभव, दृष्टि, कल्पना, स्वप्न आदि को हिंदी भाषा में अभिव्यक्त करने हेतु प्रेरित किया। 

भारतेन्दु बँगला में नए ढंग के सामाजिक, देश-देशांतर सम्बन्धी ऐतिहासिक-पौराणिक नाटक, उपन्यास आदि देखे और हिंदी में वैसी पुस्तकों के अभाव का अनुभव किया। इसका इतना गहरा असर पड़ा कि उन्होंने हिंदी भाषा के लिए हरसंभव उद्यम किया। ‘कविवचन सुधा’ और ‘हरिश्चन्द्र मैग्जीन’(हरिश्चन्द्र चन्द्रिका) निकालकर साहित्य-सेवा में जुटे। ‘कविवचन सुधा’ की लेखन-शैली मनोहर और भाषा प्रभावशाली थी। भारतेन्दु ने नई सुधरी हुई हिंदी का उदय इसी समय से माना है। उन्होंने ‘कालचक्र’ नाम की अपनी पुस्तक में नोट किया है कि हिंदी नई चाल में ढली, सन 1873 ई. में। भारतेन्दु जी स्त्री-शिक्षा को लेकर सजग थे और उन्होंने पीछे ‘बालबोधिनी’ पत्रिका निकाली। भारतेन्दु लिखित ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ नाम का प्रहसन लिखा। इसमें धर्म और उपासना की आड़ में किए जा रहे अनाचारों-व्याभिचारों पर करारा व्यंग्य साफ सुनाई पड़ता है। परतंत्रता की बेड़ी तोड़ने और हर तरह की जड़ता को समाप्त करने को लेकर भारतेन्दु में असीम जुनून दिखाई देता है। अपनी साहित्यिक यात्रा में अंग्रेजों की ताड़ना का भी वे शिकार हुए; किन्तु देशवासियों के प्रति उनकी लेखनी सदैव निष्ठावान बनी रही। उदाहरण के रूप में ‘नीलदेवी’ में वर्णित यह पंक्ति रख सकते हैं-‘कहाँ करुणानिधि केशव सोए ?/जागत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए।।’ वह यह भी कहते नहीं चूकते-‘अँगरेज राज सुख साज सजे सब भारी/पै धन बिदेश चली जात यहै अति ख्वारी।।’

हिन्दी नाटक और कविता के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के योगदान की इस सम्पूर्ण चर्चा में हम यह पाते हैं कि भारतेन्दु जिस समयकाल में साहित्य रचना कर रहे थे; वह काल आज की तरह स्वतंत्र, आजाद, उन्मुक्त बिल्कुल नहीं था। ‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहिं’ की शब्दावली का सूत्रपात करने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसलिए भी नवजागरण काल के प्रवर्तक कहे गए कि उन्होंने हिंदी भाषा को खड़ी बोली में साकार कर नागरी का जो अवलम्ब दिया; पीछे कई मनीषी साहित्यकारों ने उस पथ को अपनी काव्य एवं सर्जना प्रतिभा से गूँजार कर दिया। इस प्रकार भावना के साथ साथ विचारों के सहमेल को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ साथ गद्य का भी समुचित विकास हुआ। नाटक इन दो विधाओं के बीच की मुख्य कड़ी थी जिसे भारतेन्दु ने प्रमुखता के साथ आजमाया और इसे लोकमानस से सीधे जोड़ने का काम किया। भारतेन्दु के अतिरिक्त हिन्दीतरभाषी अनेक अन्य लेखकों ने हिन्दी में साहित्य रचना करके इसके विकास का मार्ग प्रशस्त किया। अनुवाद-प्रवीण कई मसीजीवी लेखकों ने प्रभूत मात्रा में अनूदित सामग्री उपलब्ध कराई जिसके कारण भारतीय विचार एवं विचारधारा में नई-नई धाराओं एवं वादों का सहज अवतरण हुआ। अतः हिन्दी नाटक और कविता के क्षेत्र में हिन्दी भाषा के मुख्य उन्नायक तथा प्रस्तावक की भूमिका में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का महती योगदान न सिर्फ महत्त्वपूर्ण है, अपितु अविस्मरणीय है। 
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Saturday 17 September 2016

मेरा बच्चा हमीं से अनजान क्यूँ है...!

@ राजीव रंजन प्रसाद
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हमारे बच्चों को प्रोफेशनलकिस्म का बड़े विचार या बड़ा दृष्टिकोण नहीं चाहिए; उन्हें समझदारी वाला वह भाव भी नहीं चाहिए जो कहता है-बड़े सोच का बड़ा जादू।अपने दुलरूओं को आपसदारी के संगत और संवाद से मिलने वाला मानवीय विचार, भावनात्मक लाड़-दुलार, वैज्ञानिक तथ्य, सामाजिक बोध, मूल्य आधारित नैतिक चेतना चाहिए होता है। बाल-साहित्य बीसवीं सदी में इसका मालगोदाम रहा है। हम-सबकी परवरिश और संस्कार-निर्मिति में बाल-साहित्य का योगदान खूब है। जैसे : बाल-भारती, चंदा मामा, नंदन, चंपक, बाल हंस, नन्हें सम्राट, सुमन सौरभ आदि।

दुनिया काफी बदल गई है और सदी आज सहस्त्राब्दी में तब्दील हो गई है, तथापि इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के मद्देनज़र आज की पड़ताल अत्यावश्यक है। वस्तुतः बाल-साहित्यकार होने के लिए अपने भीतर के अबोधपन को कुरेदना होता है; उसे मुखर बनाते हुए अपने कहन में बचपनापन सिरजना होता है। ठीक वैसे ही जैसे हमसब छुटपन में बड़ी सफाई से लकड़ी को काँट-छाँटकर, छिल-छालकर गुली-डंडे बनाने का काम कर लिया करते थे। बच्चों के लिए जो तिपहिया गाड़ी बनती थी; क्या भली सवारी थी। छोटे-छोटे किन्तु गोलमटोल अंटों की आपसी टकराहट से दिनभर गुँजार रहता था। कबड्डी, छुआ-छुअंत, बाघ-बकरी, आइस-पाइस, असेरी-पसेरी, पिट्ठों आदि उन दिनों हमारी मासूम जरूरियात या कहें शौक का असली साधन-संसाधन थं। चार लड़कियाँ मिली नहीं कि कित्तकित्ता खेलने लगती; रस्सी फांगने-कुदने लगती थीं। बाज़ार और उपभोक्ता समाज उस समय हाशिए पर क्या; हम-सबके जेहन में था ही नहीं। इक्कीसवीं सदी में शास्त्र का ज्ञान बढ़े हैं। शास्त्रियों की संख्या बढ़ी है। आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता को लेकर अकादमिक बहस की शुरुआत हुई है। स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श ने हालीय दशक में अपना एक मजबूत मुकाम हासिल किया है। लेकिन इस घेरे में हमारे घर और घरौंदे नहीं हैं; हमारे बच्चों के लिए सुचिंतित और सुविचारित विकल्प नहीं है। बच्चों को अब फुलझड़ी, गुब्बारे, गुड्डे-गुड्डियाँ कम लुभाते हैं। अब उनकी माँग में नकली ही सही परन्तु बंदूके, राइफल, मिशिनगन आदि प्रमुख हो चले हैं। प्रत्यक्षतः बाल-मनोविज्ञान, बाल-मन और बाल-कर्म के लिए भी एक संगठन-समवाय चाहिए जिसका भारत में इस घड़ी अकाल है। नतीजतन, बच्चे बड़ी जल्दी सयाने हो जा रहे हैं। उनका बचपना आँख झपकते बीत जा रहा है।

आजकल स्मार्टशब्द खूब चलन में है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, बाज़ारीकरण, ब्रांडीकरण आदि अब स्मार्टीकरण के नक़्शेकदम पर हैं। आधुनिक तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी का आपसी गणित इतना बेजोड़ है कि हर कोई डिजीटल क्रांति का राग अलाप रहा है। यद्यपि इससे फायदे बेशुमार हुए हैं तथापि स्मार्टफोन, टैबलेट, ई-रीडर्स, लैपटाॅप जैसे गैजेट्स ने नई पीढ़ी की एकाग्रता व गहरे चिंतन की स्वाभाविक क्षमता को भयानक तरीके से क्षतिग्रस्त किया है। सयाने बच्चे इस विडम्बना और त्रास का सबसे अधिक शिकार है। अंग्रेजीदान ज्ञान-कौशल हासिल करनेे में रात-दिन नधाए ऐसे ही युवजन को लक्ष्य कर लेखिका विजया शर्मा ने मानीखे़ज बात कही है-‘‘अमूूमन युवा वर्ग शिक्षा को ज्ञान हासिल करने लिए अर्जित नहीं करता, बल्कि डिग्री पाने के लिए शिक्षा ग्रहण करता है। इससे होता यह है कि ज्ञान उसके पास कम होता है और डिग्रियाँ ज्यादा। तकनीकी विकास ने व्यक्ति के काम करने की शक्ति को घटाया है। आज कंप्यूटर तथा इंटरनेट के चलते युवा को कम मेहनत कर ज्यादा मनोरंजन और जानकारी हासिल हो जाती है जिससे उसकी पठन और लेखन की शक्ति घटती जा रही है। आज विद्यार्थियों के पास लिखित नोट्स कम होते हैं, जेराॅक्स काॅपियाँ ज्यादा होती हैं। वह अपना रहन-सहन, खान-पान सभी चीज अपनी रुचि के अनुसार ग्रहण नहीं करता, बल्कि दूसरों को क्या अच्छा लगता है, उसको केन्द्र में रखता है। इससे वह अपने को कठमुल्ला बनाता है और निजी अस्मिता, शक्ति और रुचि को नष्ट करता है।’’ हाल ही में न्यू साइंटिस्ट में प्रकाशित एक आलेख के बारे में भारतीय समाचारपत्रों के हवाले से यह पता चलता है कि तकनीकी बदलावों की तेज गति का अर्थ है अनेक विषयों के व्यापक अध्ययन से वंचित रह जाना। जब हम चिंतन करते हैं, तो कामचलाऊ स्मृति एवं दीर्घकालिक स्मृति दोनों का प्रयोग करते हैं। कामचलाऊ स्मृति जल्द ही बोझिल हो जाती है। उसके पास विकल्प कम होते हैं। वे अधिक से अधिक पाँच-सात चीजों को अपनी यादाश्त से स्मरण कर पाते हैं। वहीं दीर्घकालिक स्मृति व्यापक होते हैं। यह शनैः शनैः तथ्यों को मस्तिष्क में संजोता जाता है। हमसब इस स्मृति के कारण ही किसी कार्य को कुशलतापूर्वक अंजाम देते हैं और उनकों नए तथ्यों के साथ जोड़ते हुए नवीन अथवा अद्यतन भी करते जाते हैं। वस्तुतः दीर्घकालिक स्मृति मस्तिष्क का भीतरी हिस्सा है। यह हमारी विचार-प्रक्रिया का एक अनिवार्य व आधारभूत अंश है।  

हमें यह देखना होगा कि विचार-प्रक्रिया, चिंतन और स्मृति इन सभी के समिश्रण में हमारे बच्चों के हृदय भी शामिल हैं या कि नहीं। यदि हमारी वैचारिकी और चिंतन-परम्परा में उनका बोध और संज्ञान उपस्थित नहीं है, तो निश्चय जानिए कि आपकी पूरी कमेस्ट्रीही किसी भयंकर भूल अथवा दोष का शिकार हो चुकी है; और इस त्रुटि को दूर किए बगैर हम चाहे इक्कीसवीं सदी में तकनीकी-प्रौद्योगिकी के रथ पर सवार होकर कितनी भी दूर चले जाने की कल्पना कर लें, योजना बना लें; किन्तु यह रथ टस से मस नहीं होने वाला है; क्योंकि भविष्य के घुड़सवार ये बच्चे और किशोर ही हैं, जिनके बारे में हम न तो पूरी संवेदनशीलता और मानवीयता बरत रहे हैं और न ही उनके खिलाफ चल रहे बाजार और सत्ता के सामूहिक गठजोड़ एवं कुचक्र का कोई माकुल तोड़ निकाल पा रहे हैं। प्रो. यशपाल इस समस्यापरक स्थिति की पड़ताल करते हैं। उनकी दृष्टि में, ‘‘एक समय था जब इन विकसित देशों के अपने खास बौद्धिक सम्पदा अधिकार हुआ करते थे, जो उनकी आर्थिक और प्रौद्योगिक स्थिति के अनुरूप थे। लेकिन अब जब वे शक्तिषाली देश बन चुके हैं, तो सारी दुनिया को एक ऐसी व्यवस्था थोप रहे हैं जो उनकी लाभ की स्थिति को हमेशा-हमेशा के लिए बचाए रखेगी। हम इसका प्रतिवाद कर सकते थे, बशर्ते अपने देश के लिए अच्छे जीवन को परिभाषित करने के अधिकार को हमने अपने यहाँ व्यवहार में उतारा होता। हमने ऐसा नहीं किया; क्योंकि हमारे नीति निर्माता और ऊपर की ओर बढ़ रहे मध्यवर्ग के लिए उससे अलग कुछ सोच पाना संभव ही न हो सका; जैसा सोचने के लिए उनका दिमाग बनाया गया था। इस क्षेत्र में मूलभूत चिंतक बहुत कम रह गए हैं। दिमाग के मनचाहे ढाँचे में ढल जाने की प्रवृत्ति व कम होती मनोवैज्ञानिक मनोवृत्ति एक महत्त्वपूर्ण परिणति है; लेकिन पिछले कई दशकों में विज्ञान की अपनी दिशा क्या रही है? मूल प्रश्न यह है!’’

यह मूल प्रश्न इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के मद्देनजर बाल-साहित्य के सन्दर्भ में भी लागू होता है। प्रो. यशपाल सामयिक विसंगतियों और विरोधाभासों को नजरअंदाज नहीं करते हैं। उनकी दृष्टि टेलीविज़न के उस तमाशे पर भी है, जिसका उपभोक्ता-संस्करण बच्चों और किशोरों को भी जिंस/कमोडिटी/कंज्यूमर मानता है। वह अपनी इस पीड़ा को एक व्यावसायिक विज्ञापन को लक्ष्य करते हुए कहते हैं-‘‘टीवी विज्ञापन की संवेदनहीनता और अशालीनता मुझे चकित कर देती है। बकरी चरा रहा एक ग्रामीण बच्चा बारिश और कीचड़ में खुशी से नाचता और खेलता हुआ दिखाया जाता है; क्योंकि उसके बगल में एक ट्रक खड़ा है जिस पर बोतलबंद पानी और शीतल पेय बनाने वाली एक प्रसिद्ध कंपनी का नाम लिखा है। यह कंपनी ग्रामीण भारत में पेयजल पहुँचा रही है! दिमाग में कारीगरों और छवि निर्माताओं की चालाक दुनिया में शायद इस विज्ञापन को पुरस्कृत किया जाए।...हर कोई इस विज्ञापन से यह संदेश ग्रहण करता है कि साफ पानी, तो सिर्फ बोतलों में ही आता है।’’ दरअसल, बच्चों को लेकर हमारा नज़रिया बेहद चलताऊ है, तो रवैया बहुरूपिया है। इस दूषित नज़रिए और रवैए ने बच्चों को कार्टूनजीवी बना दिया है। उन्हें पिकाचू पसंद है। पोकेमाॅन उनका पाॅकेट मान्स्टर है जिसे जेबी दानव भी कहा जाता है। आज हमारे बच्चे हमसे नहीं हम जैसों के प्रतिरूपों से अपनापा और दोस्ताना गाँठने लगे हैं; उन्हें अधिक सम्मान की दृष्टि से देख रहे हैं और उन्हें अपने द्वारा अपनी तरह से दुलारते भी खूब हैं।

यही नहीं अब उनकी बालसुलभ हरकतों में कार्टूनी पात्र एवं चरित्र परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष ढंग से स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं। मनोविज्ञानियों की स्वीकारोक्ति इस बात की पुष्टि करते है,-‘‘ऐसे कार्यक्रमों को देखते हुए बच्चे फंतासी की ऐसी दुनिया में चले जाते हैं जहाँ उनके प्रतिरूपी नायक अपनी जादुई शक्तियों से मनुष्य तथा बुरी आत्माओं पर विजय प्राप्त करते हैं। हिंसा से भरे इस बैठे-ठाले खेल में बच्चों को इतना जुड़ाव उनमें उत्तेजना बढ़ा रहा है। इन कार्यक्रमों में हिंसा को हर समस्या के समाधान के रूप में स्थापित किया जाता है। बालमन वास्तविक और काल्पनिक चरित्र में फर्क नहीं कर पाते। इसी कारण वे अपने पसंदीदा यानी फेबरेट पात्र का अंधानुकरण करते हैं। आजकल कार्टूनों के अन्तर्गत तकनीकी-प्रौद्योगिकी की जाल हमारे भीतरी तंतु को अपनी चपेट में ले रहे हैं। वे इसके लिए आॅपरेड कंडीशनिंगका फंडा अपनाते हैं। इस विधि में तेज गीत-संगीत और तीव्र प्रकाश द्वारा बच्चों को कार्यक्रम बार-बार देखने के लिए बाध्य किया जाता है। यह बाध्यता कई तरह के दुष्प्रभाव को जन्म दे रही है। यथा-क्रोध, उन्माद और अस्थिर संवेग।’’

ऐसी नाजुक घड़ी में बच्चों के लिए सुरुचिपूर्ण और सर्जनात्मक लेखन अत्यावश्यक है। क्योंकि बच्चों के लिए लिखना बाजार और सत्ता के खि़लाफ बोलने-लिखने से कमतर नहीं है! बच्चे हमारे भविष्य की मूल कड़ी हैं। अतः वर्तमान में उनकी ओर हमारा विशेष ध्यान देना जरूरी है। आजकल अधिसंख्य माता-पिता एवं अभिभावकों की आदत-सी बन गई है, हर विचार को आँकड़ेबाजी और फार्मूलेबाजी के गणित अथवा समीकरण में फांस लेना, घसीट लेना। वे बच्चों के मेरिट इंडेक्स का ग्राफ ऊँचा अवश्य चाहते हैं; लेकिन उनके द्वारा किए गए अभ्यास अथवा सीखे हुए अनुभव को सुनने-समझने का धैर्य नहीं रख पाते है। अफसोस! कि अपने बच्चों को लेकर, किशोरों को लेकर हम-सबके भीतर छटपटाहट और चिंताएँ अधिक हैं; किन्तु समुचित कार्रवाई कम या कहें बिल्कुल नगण्य। दरअसल, बच्चों की अंतःप्रकृति एवं मनोजागतिक अभिरचना के निर्माण में सहायक सामाजिक सोच तथा अकादमिक गतिविधियाँ पर्याप्त हरग़िज नहीं है। यानी बच्चों और किशोरों के लिए माकुल भाषा, विचार, दृष्टिकोण, माध्यम, दिशा, लक्ष्य, गतिविधि, कार्यकलाप, प्रयोग, प्रेक्षण, अनुभव, अंतःक्रिया, कल्पना, स्वप्न आदि जितने भी संस्तर शैक्षणिक एवं अकादमिक प्रविधि के रूप में मौजूद हैं, उनमें मौलिक सर्जना, स्वतंत्र निर्णय, अधिकारसम्मत ज्ञान का पूर्णतया अभाव है।

अतएव, इस बदलते समय में हमारे बच्चों का मानस कैसा तैयार हो रहा है? उनकी निर्मिति में देश, काल, परिवेश, परम्परा, संस्कृति, समाज आदि का योगदान क्या और किस तरह का है? जरा ठहरकर इस बारे में चिंतन करना अत्यावश्यक हो गया है। दरअसल, हमारे बच्चे जिस भाषा और लहजे में आजकल अपनी मांग और फरमाइश रखने लगे हैं; जिद और कभी-कभी तो अनचाहा आक्रमण तक करने लगे है; वह बेहद चिंतनीय परंतु गौरतलब है। बच्चों के बोल-बर्ताव, व्यक्तित्व-व्यवहार, पसंद-नापसंद आदि का ढर्रा बड़ी तेजी से बदला है। इस अनपेक्षित बदलाव की मुख्य वजहें क्या हैं? यह जानना जरूरी है। प्रायः बच्चों में एक ऐब समान रूप से लग चुकी है कि वे कार्टूनजीवी हो चले हैं, तो किशोरवय छोटे उम्र से ही तेज संगीत सुनने और आधुनिकतम मौज-मस्ती के ठिकानों(रेव पार्टी, डिस्कोथिक, क्लब, बार, रेस्टोरेंट इत्यादि) में बेसुध नजर आ रहे हैं।

हर चीज वह चाहे सामाजिक रूप से मान्य हो या अमान्य, उचित हो या अनुचित, नैतिक हो या अनैतिक, हमारे बच्चे और किशोर उनमें अंतर करना भूलते जा रहे हैं; पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों की कद्रदानी, मोह और ममता में हम-सबने अपना बचपन गुजारा है; परिवार के लिए व्यक्तिगत इच्छाओं-आकांक्षाओं को समेटते हुए हम नित अपनी सोच और स्वप्न में आगे बढ़े हैं, जबकि आज के नौनिहाल उसे ठेंगा दिखा रहे हैं, हमारे सदाचरणी पाठ, अनुशासन और सहज मानवीय संस्कार तक को वे अपनी आधुनिक(?) भाषा में आउटडेटेडबता रहे हैं। हमसब जिन पारिवारिक-सामाजिक संस्कारों पर पेट के बल लोटते थे; वे अब हमारे बच्चों अथवा किशोरों को रास नहीं आ रहे हैं। यह माज़रा तकलीफदेह है। उससे भी तकलीफ़जनक पहलू यह है कि प्रायः बच्चों की दुनिया में हमसब अपनी आत्मा के साथ नहीं, अपने पद, रुतबे और हैसियत के साथ दाखिल होना चाहते हैं। यह घुसपैठ बच्चों की आत्मा पर चोट है। नतीजतन, पर्याप्त दुलार और लाड़-प्यार के अभाव में बच्चे खुद अपने माता-पिता और अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ दूरी बनाने लगते हैं। यह कटाव बच्चों के प्रति माता-पिता के लगाव में कमी होने का नतीजा है। बच्चों का मानस अजीबोगरीब व्यवहार करने लगता है। उनके दिमाग में अपने पैरेंटस की नकारात्मक छवि अंकित हो जाती है। वे माता-पिता को देखते ही सहम जाते हैं। लिहाजा, बच्चों और अभिभावकों के बीच संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यही आगे चलकर जैनरेशन गैपबन जाता है। हम अक्सर उन पर गुमराह और अपसंस्कृतियों का शिकार हो जाने का आरोप मढ़ते हैं; लेकिन हम अपने खि़लाफ कोई कार्रवाई या कि चार्जशीट दायर नहीं करते हैं। ऐसा क्यों? इसका जवाब बच्चों से अधिक गार्जियन के लिए मायनेपूर्ण है; क्योंकि हमारे बच्चे हम-सबकी इन्हीं छोटी-छोटी आदतों या कि व्यवहार से सर्वाधिक आहत होते हैं।

इसलिए यह समझना आवश्यक है कि जिन बातों को हम प्रायः मामूली मानकर नजरअंदाज कर देते हैं; वे मासूम और अबोध बच्चों को सबसे ज्यादा चोटिल और उनके मन-मस्तिष्क को दुखी करने वाले होते हैं। सबसे बड़ी दिक्कतदारी यह है कि बाजार और सत्ता के खिलाफ अधिसंख्य लोग बोलने, मुहिम छेड़ने, आंदोलनरत रहने की बातें पूरजोर ताकत संग कहते-सुनते हैं; लेकिन जब हम अपने घर के बच्चों का रिपोर्ट कार्ड देखते हैं, तो लाल-पिले होते हैं कि इस बार शत-प्रतिशत अंक क्यों नहीं लाए? सचाई यह है कि अब हमसब अपने बच्चों की सोशल टीआरपीतय करने लगे हैं; उनकी योग्यता और काबिलियत का प्रोफेशनल वैल्यूबनाने लगे हैं। आज हमारा बच्चा से कबूतर नहीं, ‘से कंप्यूटर कहना सीख गया है; वह सहज अभिवादन की जगह औपचारिक हैलो-हाय करने लगा है? क्या हमने इस वर्ड टरमिनेशनकी आधुनिक संस्कृति पर गौर फ़रमाया है? मुख्य बात यह है कि जब हमारे बच्चे हमारी अपनी ही भाषा में रींज-भींज नहीं रहे हैं, खिल-पक नहीं रहे हैं, तो सयाने होकर वे हम-सबको वृद्धाश्रम नहीं भेजेंगे, तो क्या आठों पहर आरती उतारेंगे?

अतः अपनी सोच एवं विचार में बड़ा होना, बड़ी बात करना और बड़े खतरों के लिए चिंतित होना वाजिब है। बाजार और सत्ता के खिलाफ मोर्चा लेना तक सही है। लेकिन जो बाजार और सत्ता हमारे बच्चों का बचपन छीन ले रही है। बच्चों के भीतरी भाव और बोध को अभिव्यक्त कर सकने वाली सक्षम भाषा और उसकी सहज उच्चारणीयता को उनसे अलगा दे रही है। बच्चों के आन्तरिक संज्ञान-बोध, चिंतन-दृष्टि, ज्ञान-विवेक, कल्पना-स्वप्न आदि पर जो चीजें ग्रहण लगा दे रही हंै। वैसी शिक्षा-नीति, शिक्षण-व्यवस्था और शैक्षणिक-क्रियाकलाप को बच्चों के हित में उचित ठहराना ग़लत है। विशेषतया, हिन्दीपट्टी के अधिसंख्य बुद्धिजीवियों या एकेडिमिशियनों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह कहकहे के स्वर में विचार रखते हैं; चिल्लाहट के तेवर में अपनी उपलब्धियाँ गिनाते हैं; इसी अंदाज में साहित्यिक-लिखा बखानते है; और समान शैली में ही आत्ममुग्ध और अतिरेकपूण व्याख्यान देने की प्रपंच रचते हैं। लेकिन, जब वे खुद अपने घर में दाखिल होते हैं, तो अपने बच्चों को उन्हीं तौर-तरीकों को अपनाने एवं मानने ख़ातिर बाध्य करते हैं; जिसका वे बाहर में पुरजोर विरोध कर रहे होते हैं; अपनी लच्छेदार किन्तु आक्रामक भाषा में जिन पर टूट पड़ रहे होते हैं। ऐसे दोहरे चरित्र का अभिनय किसी नाटक या सोप अपेराकहे जाने वाले टेलीविजन धारावाहिकों के लिए, तो ठीक है; लेकिन अपने बच्चों के माता-पिता अथवा अभिभावक के रूप में इसे स्वीकृत कर लेना अपने पैर पर कुल्हाड़ी चला लेने की माफ़िक है। 

हरिकृष्ण देवसरे, श्रीप्रसाद, कन्हैयालाल नंदन, प्रकाश मनु, दिविक रमेश, देवेन्द्र कुमार, क्षमा शर्मा, मनोहर वर्मा, शेरजंग गर्ग, सुरेन्द्र विक्रम जैसे बाल-साहित्यकारों के रचना-कर्म में ऐसी बातें नहीं दिखाई पड़ती हैं। इनका लेखन गंभीर एवं बच्चों के लिए मार्गदर्शी है। कारण यह है कि इन्होंने बच्चों के लिए जितना लिखा है, समकालीन का तज़वीज़ करते हुए और अतीत को आवश्यकता भर खंगालते हुए रचा-बुना-गुना है। सजग एवं संवेदनशील बाल-साहित्यकारों का अपना मानना है कि गार्जियन चाहे अपनी शानो-शौकत, पद-रुतबा, मान-प्रतिष्ठा, लोकप्रियता-श्रेष्ठता आदि में कितने भी बड़े तोप क्यों न हों; लेकिन अपने बच्चों के समाने उनका कद-काठी हमेशा साधारण होना चाहिए। यानी बच्चों के मन-मस्तिष्क में हमारी छवि(इमेजेज) वात्सल्यपूर्ण और ममताधर्मी ही होना चाहिए। हमारी सम्पूर्ण वैचारिकता एवं अंतःदृष्टि आंतरिक आत्मबल और संकल्पशक्ति में इस कदर बिलोया होना चाहिए कि हमारे बच्चों को अधिक प्रीतिकर, सुस्वादु लगे और उन्हें दिमागी तौर पर सेहतमंद तथा चेतस बनाएँ। इस मौके पर याद आते हैं, रामदरश मिश्र; वे मानीखे़ज कहते हैं:

‘‘तू है बड़ा, बड़ा रह गया भाई, मुझको छोटा ही रहने दे
तू बहता है महासिंध में, मुझे नदी में ही बहने दे
तू है पंडित सार्वभौम करता है महाज्ञान की बातें
मैं हूँ परम घरेलू मुझको लोगों के सुख-दुख कहने दे।’’

उपर्युक्त पंक्ति को अपने समय के संकटग्रस्त बच्चों से जोड़कर देखें, तो यहाँ परमघरेलू कहने का अर्थ विशेष है। आज बच्चों पर बात या बच्चों के बारे में बात चिकनी-चुपड़ी अर्थ-संदर्भों में करना उचित नहीं है। अर्थात् आज बच्चों के कोमल मनोभाव और मनोवृत्तियों को समझने के साथ-साथ उनसे तालमेल बिठाने और ताल्लुकात गाँठने का तजुर्बा भी हममें होना चाहिए। दरअसल, बाजारवाद की विकृतियों तथा उपभोक्तावाद के निरंतर प्रभाव ने साहित्य और कला के विकासात्मक प्रतिमानों, मौलिक संवेदनाओं तथा मनुष्य और प्रकृति के रागात्मक सम्बन्धों को जिस तरह नष्ट किया है; वह एक भयावह सचाई है। इस सचाई के जार से पीड़ित समाज का हरेक वर्ग है। हमारे बच्चों का बचपन और उनकी कोमल भावनाएँ तक बुरी तरह प्रभावित हैं। अतः हमारा चैकन्ना रहना जरूरी है। संचार माध्यमों की सहज पहुँच और सर्वसुलभ हस्तक्षेप(आक्रमण अधिक) ने हमारे बच्चों को अनाधिकृत ढंग से अपनी चपेट में ले लिया है। लिहाजतन, ऐसे बच्चे यांत्रिक मनुष्य अथवा मशीनी मानव बनने के लिए तो उपयुक्त हैं; लेकिन भारतीयता का संवाहक/संचारक बनने की अपनी काबिलियत, ऊर्जा और शक्ति खो चुके होते हैं। ऐसे में हमसब का बहसतलब होना जिम्मेदारपूर्ण आचरण है, तो दूसरी ओर अपनी परम्परा के प्रति विश्वास, निष्ठा, वास्तविक सम्मान और आदर भी। आमीन!


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राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश-791112
मो.: 9436848281

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