Tuesday 28 August 2018

भाषा, साहित्य एवं सांस्कृतिक बहुलता का खान है पूर्वोत्तर



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- हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय एवं उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान, लखनऊ के तत्त्वावधान में आयोजित हुआ राष्ट्रीय सेमिनार

- केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय को शाॅल, गमछा, स्मृति-चिह्न भेंट

- राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति प्रो. अमिताभ मित्र ने अभिनन्दन-पत्र दे कर प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय को किया सम्मानित

- पूर्वोत्तर के भाषा, साहित्य, संस्कृति को लेकर आयोजित इस बौद्धिक समागम में पूर्वोत्तर सहित  देशभर से जुटे विद्धान, प्राध्यापक एवं शोधार्थी
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भाषा, संस्कृति और साहित्य के विविध परिप्रेक्ष्य : सन्दर्भ पूर्वोत्तर भारत विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के ए. आई. टी. एस. कान्फ्रेंस हाॅल में आयोजित हुआ। हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय एवं उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान, लखनऊ के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित यह कार्यक्रम सुबह 10 बजे दीप-प्रज्ज्वलन एवं विश्वविद्यालय-गीत के साथ आरंभ हुआ। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से सेवानिवृत प्रोफेसर एवं अध्यक्ष प्रो. कृष्ण मुरारी मिश्र ने की, तो बीज-वक्तव्य केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय ने दिया। इस मौके पर विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति प्रो. अमिताभ मित्र की ओर से प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय के सम्मान में अभिनन्दन-पत्र भेंट किया गया जिसका वाचन हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. ओकेन लेगो ने किया।

प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय ने आह्लाद भरे स्वर में कहा कि, ‘उनका सीना गर्वित है, यह देखकर कि उनका पढ़ाया विद्याथी आज हिन्दी विभाग में प्रोफेसर है, विभागाध्यक्ष है; यह व्यक्तिगत रूप से गर्व अनुभव करने का समय है कि उनके द्वारा शिक्षा प्राप्त किए छात्र अरुणाचल के उच्च शिक्षा में महती योगदान दे रहे हैं, तो हिंदी भाषा के माध्यम से अपनी भाषा, बोली, संस्कृति और लोक-साहित्य को भी समृद्ध कर रहे हैं।’’ उन्होंने मुख्य रूप से डाॅ. जोराम यालाम नाबाम और डाॅ. जोराम आनिया ताना का नाम लेते हुए कहा कि यालाम कुछ वर्ष पूर्व न्यूयार्क हिन्दी सम्मेलन में उनके साथ थीं, तो इस बार डाॅ. आनिया मारीशस हिन्दी सम्मेलन में केन्द्रीय मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा सम्मानित हुई। उन्होंने अपने बीज वक्तव्य में भाषा के पुराने रूपों से लेकर वर्तमान स्वरूपों पर चर्चा करते हुए कहा कि कई भाषाएँ कालांतर में लुप्तप्राय हो जाती हैं और उनकी जगह उसी लोक-समाज की एक नई भाषा प्रचलन में आ जाती हैं। संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश के समय की भाषाएँ इसी तरह बदलाव को स्वीकार करती हुई आज हिंदी के खड़ी बोली के रूप में लोकप्रिय हो चली हैं। प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय ने कहा कि पूर्वोत्तर की भाषा, संस्कृति और लोक-साहित्य आज भी प्रचुरता में उपलब्ध हैं या बाहरी दबाव के बावजूद बची हुई हैं, तो उसका मुख्य कारण है कि यहाँ के लोगों ने इनको अपनी दाँत से कस के पकड़ रखा है। भाषा के संरक्षण-सुरक्षा के लिए प्रेम और समर्पण अनिवार्य है। लोक-कवियों, संतों ने इसे जिलाने और लोक में बनाये रखने का जो यत्न किया है, वह स्तुत्य है। असम में सांस्कृतिक स्वाभिमान उच्चतर है, कारण कि शंकरदेव, माधवदेव आदि ने लोक की सत्ता में भाषा-साहित्य सम्बन्धी ढेरों प्रयोग किए। सिर्फ लिखा ही नहीं नाटक भी किया, वाद्ययंत्रों का विकास तक की।

कार्यक्रम के शुरुआत में ही विषय-प्रस्तावना प्रस्तुत करते हुए भाषा संकायाध्यक्ष और हिंदी विभाग के प्रोफेसर हरीश कुमार शर्मा ने कहा कि भाषा के प्रति हमारा अनुराग, लगाव कम है जिसे महात्मा गाँधी सबसे अधिक महत्त्व देते थे। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विविध पक्षों पर पूर्वोत्तर के आलोक में गहन विचार-मंथन हो और नए सन्दर्भों, अर्थो, अभिप्रायों की खोज की जाए यह इस आयोजन का मुख्य प्रयोजन है।अपने वक्तव्य में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अमिताभ मित्र ने कहा कि, ‘भारत में कई स्तरों पर भिन्नता और विविधता हैं। पूर्वोत्तर की भाषा, साहित्य एवं संस्कृति में भी जाति, धर्म, समुदाय, वर्ग इत्यादि के स्तर पर अनेकानेक बहुलताएँ हैं। अरुणाचल की भी यही विशेषता है। इस संगोष्ठी के माध्यम से विद्वानगण जो चर्चा या विमर्श करेंगे वह पूर्वोत्तर के भाषा, साहित्य एवं संस्कृति को बचाने की दृष्टि से बेहद महत्त्वपूर्ण होगा। प्रो. कुष्ण मुरारी मिश्र ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि, ‘‘भाषा मनुष्य के पास सबसे बड़ी सम्पत्ति है। इसके माध्यम से वह साहित्य एवं संस्कृति को बचाने का सारा उपक्रम कर सकता है। पूर्वोत्तर में भी यह होना समय की माँग है। अपनी लोक-धारणा, स्मृति, अनुभव, सांस्कृतिक पहचान आदि को बचाने के लिए आवश्यक है कि हम इसके महत्त्व को समझे और इसका उपयोग हम सांस्कृतिक मनुष्य के निर्माण के लिए करें।

इस द्वि-दिवसीय संगोष्ठी के पहले दिन चले दो तकनीकी सत्रों में कई वक्ताओं ने अपनी बातें रखीं। तुम्बम रीबा ने अपने वक्तव्य में अरुणाचल के गालो जनजाति की स्त्रियों के वर्तमान स्थिति का उल्लेख किया। उन्होंने अपनी संस्कृति में मान्य पारम्परिक प्रथाओं का उदाहरण देते हुए कहा कि, ‘‘समाज में जितने भी  बंधन है, नियम है, कानून है सब के सब स्त्रियों के लिए है; पुरुष तो शासक है, निर्णायक है। गालो लोककथाओं में स्त्री सम्बन्धी रूढ़ियों का जीवंत चित्रण है जिनका उल्लेख यहाँ प्रचलित मुहावरों, लोकोक्तियों आदि में भी देखे जा सकते हैं। यद्यपि गालो जनजाति में स्त्रियाँ अपराजिता एवं सृष्टिकर्ता के रूप में सम्मानित हैं।‘’  सोनम वामू ने अपने वक्तव्य में कहा कि, ‘‘हर भाषा की अपनी प्रवृत्ति और व्याकरणिक पद्धति होती है। इसे पूरी तरह ग्रहण करने में कई सारी कठिनाइयाँ सामने आती हैं। हिन्दी शिक्षण की चुनौतियाँ भी उनमें से एक है। अरुणाचल में हिन्दी पढ़ाते हुए अध्यापक का दायित्व बड़ा है। उसे सिर्फ भाषा का ही ज्ञान नहीं कराना है, अपितु हिन्दी भाषा के मानक एवं शुद्ध रूप से भी अवगत कराना है।दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी मणि कुमार ने असमिया साहित्य-संस्कृति में माधवदेव के अवदान को लेकर अपनी बातें रखीं और कहा कि माधवदेव की रचनाओं में अखण्ड भारत की अभिव्यक्ति है, तो सांस्कृतिक एकता के सारे तत्त्व विद्यमान हैं।दिल्ली विश्वविद्यालय से आए प्रो. चंदन कुमार ने प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता करते हुए असम-अरुणाचल सहित पूरे पूर्वोत्तर में फैले भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विभिन्न उपादानों को गहरी अन्तर्दृष्टि से देखने तथा उन्हें सूक्ष्मता के साथ पहचानने पर बल दिया। उन्होंने पूर्वोत्तर की सांस्कृतिक एवं भावात्मक एकता का उदाहरण देते हुए कहा कि हिंदी के साथ उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों का निकट का रिश्ता है। लेकिन हिंदी को यदि राष्ट्रीय छवि बनानी है, तो उसका मानकीकरण करना होगा; लेकिन उसमें भी स्थानिक छवियों एवं लोक-बिम्बों का पुट होना आवश्यक है।

दूसरे तकनीकी सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए दलित चिंतक-लेखक जयप्रकाश कर्दम ने कहा कि असमानता और भेदभाव भारतीय समाज की बुनियाद में हैं। इन्हें आसानी से नकारा नहीं जा सकता है। हम सिर्फ एक ज़बान बोलने से एक हो जाते हैं, ऐसा नहीं है। पूर्वोत्तर के लोगों को आज भी अपनी भारतीय पहचान साबित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, आए दिन ज्यादतियाँ झेलनी पड़ती हैं। भाषा एवं विचार की अभिव्यक्ति के स्तर पर भी हमें समान अवसर और अधिकार मिलने चाहिए। हमें आपस के भाषाई एवं सांस्कृतिक अन्तर्विरोध को दूर करने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए।“  इस सत्र में वक्ता के रूप में मनोज कुमार मौर्य, मेमा चेरी, मोहिनी पाण्डेय, अजय कुमार, विजय कुमार ने अपनी बातें रखीं। उद्घाटन सत्र में स्वागत वक्तव्य इस संगोष्ठी के संयोजक डाॅ. सत्यप्रकाश पाल ने दी, तो संचालन डाॅ. जोराम यालाम नाबाम ने किया। दूसरे और तीसरे सत्र का संचालन डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद एवं वन्दना पाण्डेय ने किया। संगोष्ठी के प्रथम दिन का समापन सांस्कृतिक कार्यक्रम से हुआ जिसमें हिन्दी विभाग के विद्यार्थियों, शोधार्थियों, संगीत एवं चारु कला के कलाकारों ने रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किए।
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रिपोर्ट:
राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्राध्यापक
हिंदी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश-791 112

Wednesday 15 August 2018

विश्व की पहली ट्रांसजेंडर प्रधानाचार्या मनोबी बंद्योपाध्याय का साक्षात्कार

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https://www.jankipul.com/2018/08/an-interview-with-manobi-bandyopadhyaya.html


विश्व की पहली ट्रांसजेंडर प्रधानाचार्या ,बंगाल ट्रांसजेंडर सेल की प्रमुख, ट्रांसजेंडर पर पहला शोध देने वाली , अबोमनोब (शुभुमन) पहली बंगला ट्रांसजेंडर पत्रिका की सम्पादिका, A Gift of goddess Lakshmi की लेखिका मानोबी बंद्योपाध्याय के साथ एक बहुत शोधपूर्ण साक्षात्कार लिया है प्रियंका कुमारी नारायण ने. प्रियंका बीएचयू की शोध छात्रा हैं. यह साक्षात्कार उनकी पुस्तक ‘किन्नर : सेक्स और सामाजिक स्वीकार्यता’ का हिस्सा है- मॉडरेटर 
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  • सोमनाथ से मनोबी वंद्योपाध्याय तक आपके अनुभव क्या रहे हैं ? कैसा लगा मनोबी बनना और फिर उसके बाद के अनुभव ?
  • सोमनाथ से मनोबी या मनोबी से सोमनाथ ऐसा मैं नहीं मानती | विज्ञान भी नहीं मानता क्योंकि गर्भ में तीन माह तक भ्रूण का निर्धारण नहीं होता है | तीन माह के बाद भ्रूण का निर्धारण होता है | तीन माह बाद ‘y’क्रोमोसोम के कारण क्लिटोरिस और पेनिस का निर्धारण होता है , पुरुष या स्त्री का निर्धारण होता है | आदि शक्ति महिला ही है | बाद में पुरुष का जन्म होता है |ब्रह्मा ,विष्णु महेश हिन्दू मिथकों में पुरुष शक्ति है लेकिन ‘दुर्गा शक्ति’, ‘चंडी’ का मिथ ट्रांसजेंडर का है | उनका क्रोमोसोम पुरुष मिथकों से आया है और वह महिषासुर का संहार करती है | एक स्त्री में इतना बल नहीं हो सकता है | ये हमारी सत्ता है | असल में मैं भावना से आत्मा से , विचार से मनोबी ही थी हूँ और रहूँगी | सोमनाथ तो सिर्फ एक शारीरिक भ्रम है | मैं नारी शक्ति हूँ |
  • आपकी सोच सेक्स और प्यार को लेकर क्या रही है ?
  • सेक्स और प्यार दोनों एक साथ है | कभी प्यार के बाद सेक्स है कभी सेक्स के बाद प्यार है | दोनों एक दूसरे के पूरक हैं | मैं पहले प्यार में विश्वास करती हूँ | मैं कभी प्लेटोनिक प्रेम में विश्वास नहीं करती | हाँ उसके बाद सेक्स आता है क्योंकि हम मानव शरीर हैं | कभी बारिश हो तो रोमांस आता है लेकिन सेक्स के बिना रोमांस भी अधूरा है | कभी ख़ुशी कभी गम दोनों साथ – साथ चलता है |
  • ट्रांसजेंडर के अधिकांश बायोग्राफी चाहे वह लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का रहा हो या कुछ अन्य लोगों का, सेक्स को बहुत महत्व दिया जाता है ,ऐसा क्यों ?
  • ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारा समाज इससे अलग नहीं है | हमारे समाज में सेक्स खुल कर सामने न आये लेकिन इससे बहुत ऊपर की मानसिकता भी नहीं है हमारे समाज की | महाकाव्यों में देखें, शूर्पनखा के आकर्षण को ले, मत्स्यगंधा की कहानी या सती प्रथा के पीछे के कारणों पर गौर करें  | शादी क्या है – सेक्स का एक प्रकार ही तो है | बनार्ड शॉ ने कहा कि “ विवाह कानूनन वेश्यावृत्ति है” लेकिन ‘कानूनन’|
  • लेकिन कभी – कभी चर्चा चलती है कि जिस प्रकार कुछ लोगों ने ‘फेमिनिज्म’ के लिए लगन से काम किया लेकिन एक बड़ी संख्या ने उसका राजनीतिक इस्तेमाल किया तो क्या आप के यहाँ ‘सेक्स’ को राजनीतिक रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है ? क्या ‘सेक्स’ के द्वारा ही आप अपनी जगह बनाना चाह रहे हैं , अपने को केंद्र में रखना चाह रहे हैं ? वास्तविकता क्या है ?
– देखिए कोई बोल रहा है ‘सेक्स पॉलिटिक्स’, कोई बोल रहा है ‘जेंडर पॉलिटिक्स’ | जिन्हें ‘सेक्स’ बोलने में हिचक है वो ‘जेंडर पॉलिटिक्स’ बोल कर निकल लेते हैं लेकिन मेरा मानना है दोनों एक ही है | आपके बनारस में ही देखिए न, सुबह से गंगा स्नान करते हैं और हिन्दू विधवाओं को जगह देने के नाम पर क्या होता है ? दीपा मेहता ने जब वाटर फ़िल्म बनाई तो हंगामा होने लगा लेकिन यह कितना क्रूर है | वहाँ वेश्यावृत्ति कराते हैं | अगर हम बोलेंगे तो कहेंगे अरे बाप ! हिजड़ा लोग तो सेक्स भी देखते हैं | इस सब में पुरोहित और समाज के वो भद्र लोग हैं जो समाज में सफ़ेद ज़िन्दगी जीते हैं | उन भद्र संयमित लोगों को कभी सेक्स कि जरूरत नहीं होती लेकिन बच्चा पैदा हो जाता है | उनके अनुसार ये तो भगवान ने दिया है लेकिन ये भगवान ने नहीं दिया न ये तो रात दिया | रात बाकी बात बाकी …ऐसा ही है | मेरा एक ट्रांसजेंडर दोस्त है जो बिहार में नाचता है वो हमेशा कहता है तुम क्या बनना चाहते हो ..भद्रलोक बनना चाहते हो लेकिन जानते हो इनके बीच क्या चलता है …दिन में भैया रात में सैंया | पॉलिटिक्स तो है ही सब पॉलिटिक्स है लेकिन ये समाज का पॉलिटिक्स है ,भद्र लोगों का , राजनेताओं का पॉलिटिक्स है | मैं इस पर क्या बोलूँ लेकिन मैं राजनीति नहीं बल्कि कार्यनीति में हूँ |
   ५. सेक्स अपने आप में एक बेहतरीन अनुभव है और यह बायोलॉजिकली भी शरीर के लिए जरूरी है | भारत में कामसूत्र , खजुराहो में इसे जीवन एक कला के रूप में दर्शाया गया है लेकिन हम अपने समाज में कभी भी इसे एक सामान्य ‘शारीरिक प्रक्रिया’ के रूप में नहीं स्वीकार कर पाते हैं और उसमें भी कोई लड़की या महिला इसके लिए बात करे तो यह शर्मनाक माना जाता है | आज बलात्कार की घटना बढ़ती जा रही है | आप क्या कहेंगी जबकि आपको खुद भी “मेन स्टैकर” और “सेक्स मैनियक” कहा  गया ?
– देखिए हिम्मत करनी पड़ेगी | तस्लीमा नसरीन को देखिए | जिन वजहों से भी उन पर फतवा जारी किया गया , बांग्लादेश से निकाल दिया गया लेकिन वो फ्रांस जाकर रह रही थी| लडकियां ख़ुद बात नहीं कर पाती हैं | उन्हें हिम्मत जुटानी होगी | जब द्रौपदी महाकाव्यों में बोल रही है कि अर्जुन के साथ उसे कैसा लगता है ,युधिष्ठिर के साथ कैसा लगता है ,भीम कैसा लगता है …लेकिन जब महाकाव्यों में बोला जाता है तब वह संगम हो जाता है और सामान्य लोगों में आता है तब इसे गंदगी के रूप में लेते हैं ,कुछ ‘सेक्स मेनियक’ हैं वो सही नहीं है ,पतिता होना अलग है, लेकिन इसे गंदगी मानना सही नहीं है | ट्रांसजेंडर के साथ तो इसे और गलत तरीके से लिया जाता है | सेक्स वंश आगे बढ़ाने के लिए शुरू किया गया | हाँ ,ट्रांसजेंडर के साथ वंश वाली बात में समस्या है, वो अलग बात है , लेकिन इसमें विकृति सही नहीं है | सेक्स का इस्तेमाल बिल्कुल गलत दृष्टि से होता है | वात्स्यायन के यहाँ यह दर्शन है | और समाज सिर्फ बायोलॉजिकल को लेता है , यह सही नहीं है ,उसमें प्रेम और रोमांस होना जरूरी है | इन सब से ऊपर जाने के लिये मस्तिष्क को विकसित करने वाली शिक्षा होनी चाहिए तब ही हम निश्चित कर पाएंगे सही क्या है गलत क्या है |मैं तो ख़ुद विवेकानंद को मानती हूँ और उनके कर्मयोग और ज्ञानयोग में विश्वास करती हूँ लेकिन सेक्स को गलत नहीं मानती हूँ |
६ . बंगाल में तो काफ़ी ख़ुलापन है शायद देवी पूजन की अलग परम्परा के कारण लेकिन जैसे जैसे आप हिन्दी पट्टी की ओर बढ़ती हैं , ख़ासकर उत्तरप्रदेश , बिहार , मध्य प्रदेश, सेक्स को पुरुषों के द्वारा एक “टूल” के रूप में इस्तेमाल किया जाता है |स्त्रियों को मानसिक और शारीरिक दोनों ही स्तर पर हैरेस करने की  कोशिश की जाती है | अभी भी वहाँ स्त्रियाँ मानसिक और शारीरिक रूप से स्वतंत्र नहीं है ,आप क्या कहेंगी ?
आप विदेशों में चले जाइये वहाँ स्वस्थ संबंध होता है | लेकिन ये प्रदेश पुरुष तंत्रात्मक है | वे एक स्त्री से संतुष्ट नहीं होते | उनकी कुलीनता और पुरुष होने की परिभाषा ही यही है | अन्नपूर्णा का विग्रह देखिए वो अन्न डालती हैं | पुरुष ऐसे ही है | खाने के समय और भूख के समय ही स्त्री के पास आते हैं | लेकिन लड़कियों को ख़ुद ही हिम्मत करनी होगी, लड़ना होगा, आगे आना होगा | जब तक वो ख़ुद पारम्परिक शिक्षा से हटकर अपने अधिकारों को नहीं जानेंगी कुछ नहीं होगा | लड़कियां भी आँचल में चाभी बांध कर खुश हो जाती हैं | उन्हें इस तरह के सोच से बाहर निकलना होगा | कह सकते हैं विपरीत से महिला तंत्र भी चल रहा है जो लडकियों के पैर खींचती हैं ,उन्हें भी सही से लड़कियों का सहयोग करना चाहिये | सब कुछ उनके अपनी ताकत को विकसित करने और समझने पर है |
७ .A gift of goddess lakshmi “की लेखिका हमेशा समाज कि जबर्दस्त आलोचना का शिकार होती है | हमेशा कोर्ट रूम में आना जाना लगा रहता है और वो आपको कहते हैं –“झारग्राम का प्रसिद्ध हिजड़ा प्रोफेसर जो साड़ी पहनने का नाटक करती है और जिसका पेनिस साये के अन्दर छुपा है और औरत बनी फिरती हैं |” आपको “सेक्स मनियक” और “मेन स्टैकर” तक कहा गया | एक स्वतंत्र देश में एक अच्छे खासे शिक्षित प्रोफ़ेसर को जेंडर के स्तर पर इस तरह की प्रताड़ना झेलनी पड़ी ,ऐसे में आपके लिए “स्वतंत्रता” और “लोकतंत्र” के क्या मायने हैं ?
– देखिए  ‘स्वतंत्रता’ और ‘लोकतन्त्र’ ये सब एक मिथ है हमारे लिए | हम एक वृत्त में हैं सीता की तरह जैसे सीता घेरे से बाहर निकली और रावण लेकर चला गया वैसे ही हम निर्वासित हैं और अपने घेरे में रहने को मजबूर हैं | इससे बाहर हमारे लिए बहुत जगह नहीं है | हाँ अपने घेरे में हम राजा – रानी हैं | अगर लोकतंत्र और आज़ादी की बात कर रहे हैं तो लडकियाँ इतनी परेशान क्यों हैं ? ट्रांसजेंडर इतने परेशान क्यों हैं ? बलात्कार पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा हैं | आपकी इतनी बड़ी जनसंख्या प्रताड़ित है | असल में डेमोक्रेसी राजनेताओं का मुखौटा है | वो बतंगड़ ,बातेला है , रुपक है | ‘सदा सत्य बोलो | माता – पिता कि सेवा करो | सत्यमेव जयते | सब लिखने बोलने की बातें हैं | मानता कौन है ??
८ .यानी आपके लिए आज़ादी नहीं है ?
-रवीन्द्रनाथ का एक गाना है जिसमें कहा गया हम ख़ुद ही राजा है | ये हमारा आत्मविश्वास है | हाँ जिस दिन हमें स्वीकार कर लिया जायेगा तब हम मानेंगे कि हम स्वतंत्र हैं ,आजाद हैं |
९ . यानी अभी आप आजाद नहीं मानती ख़ुद को ?
नहीं |
 १०. जब आपके ऊपर अरिन्दम (अभिजीत –यह नाम बायोग्राफी में नहीं है ) का केस चल रहा था और  उस समय आपको यह जाँच कराना पड़ा कि सर्जरी के बाद आपका वेजीना पेनीट्रेशन और सेक्स के लायक है या नहीं और डॉक्टर्स और नर्स की भीड़, कैसा लग रहा था आपको ? कितना अपमानजनक था यह सब जबकि एक भीड़ आपके जेनिटल का निर्णय ले रही थी ?
– हाँ , जब यह सब सामने आ रहा था कि ‘पेनिट्रेट’ होता है या नहीं ,इन्टरकोर्स होता है कि नहीं ,मेरी हालत ख़राब हो गयी | मैं दिन – रात रोती थी | मैं नींद की गोलियां लेने लगी | मुझे होमोसेक्सुअल कहा जाने लगा | लेकिन मैं बस पत्नी बनना चाहती थी और प्रेम चाहती थी | लेकिन सब मुझे धोखा देते रहे |
११. आप अरिन्दम से बहुत प्यार करती थी और कमिटेड होना चाहती थी और यह आपके बचपने का प्रेम भी नहीं था, एक परिपक्व प्रेम था बावजूद ऐसा हुआ ?
– हाँ ! बस मैं प्रेम और परिवार चाहती थी केवल सेक्स नहीं लेकिन बदले में मुझे कोर्टरूम और तरह – तरह के डूब मरने वाले जाँच से गुजरना पडा सिर्फ अपनी सेक्सुअलिटी को प्रूव करने के लिए | मैं तो लड़कियों से बदतर रही |लगता था यह ज़िन्दगी क्यों मिली | मुझे होमोसेक्सुअल बोला गया ,मुझे गाली लगता था | हालाकि होमोसेक्सुअल की लड़ाई को मैं समर्थन देती हूँ लेकिन मैं ख़ुद होमोसेक्सुअल नहीं हूँ | मैं आत्मा से,दिल से लड़की हूँ, औरत हूँ |
१२.  इसके ठीक बाद आप लिखती हैं कि डॉक्टर्स की टीम अवाक् थी कि उन्होंने क्या देखा है ? वे आपके ब्रेस्ट ,निप्पल और वेजिना सब जाँच रहे थे और स्तब्ध थे ,क्या लगा उस समय आपको जबकि उससे पहले एक मनोवैज्ञानिक ने आपका प्रेम संबंध ही बिखेर दिया था आपको बीमार घोषित करके ?
 हाँ ,ओल्ड स्कूल के डॉक्टर बहुत अलग हैं | वे बहुत पुरानी सोच रखते हैं लेकिन नये डॉक्टर अब ऐसी सोच नहीं रखते | वे बहुत अलग हैं | आज उनकी वजह से ही मैं अपनी ज़िन्दगी जी रही हूँ | हालाकि अभी भी पहले साइकि टेस्ट से गुज़रना पड़ता है उसके बाद हार्मोनल ट्रीटमेंट होता है | कुछ तो अभी भी पागल मानते हैं ,लेकिन ऐसा नहीं है | असल में वो मुख्य धारा के हैं जल्दी नहीं समझते | वो भी सोचते हैं कि इतना अच्छा पुरुष जीवन और शरीर है तुम स्त्री क्यों बनाना चाहते हो ?
१३. जब भी आप इस तरह के अपमान से गुजरती हैं आपकी एक्सैक्ट फीलिंग क्या होती है ?     
– अरे फीलिंग को मत पूछिए,दिन – रात रोती रही हूँ | बस लगता है आज खुदखुशी कर लूं | कहाँ जाऊं | यहाँ तक कि लोग भी रास्ता देखते हैं कि मैं कब सुसाईड कर रही हूँ ? मेरे डॉक्टर को भी फ़ोन करके कहते हैं कि मैं मर गयी हूँ | अफ़वाह उड़ाते हैं मुझे लेकर | डॉक्टर फ़ोन करके पूछते हैं कि तुम ठीक तो हो !! हर रोज वो मेरे साथ इतना ख़राब व्यवहार करते हैं कि मैं दिमागी रूप से कमज़ोर पड़ कर आत्महत्या कर लूँ | मेरे प्रिंसिपल बनने से भी वो खुश नहीं हैं | कभी मुझ पर मार- पीट का आरोप लगाते हैं कभी कुछ का |
१४. लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी भी कुछ ऐसा ही कहती हैं ?
 हाँ ,लेकिन वो मुख्य धारा का काम नहीं करती,सरकार का काम नहीं करती इसलिए उनकी समस्याएँ अलग हो सकती है ,मेरी बहुत अलग | मुझे एक चपरासी से भी सुनना पड़ जाता है | मुझे सीधे मध्यवर्गीय जड़ताओं और मूल्यों से टकराना पड़ता है | इन्हें झेलना सामान्य लड़कियों के लिए मुश्किल है ,मैं तो बहुत अलग हूँ आपके समाज में |
१५ . आप मंजूश्री चाकी (नृत्यांगना) के साथ भी थी | वहां आप कई ट्रांसजेंडर से मिलती हैं लेकिन वे अपना ‘ जेंडर ओरिएंटेशन’ सामने नहीं आने देना चाहते | अपने ‘एक्सप्रेशन’ को नृत्य में छुपा ले जाना चाहते हैं फिर वे किस तरह एक सामान्य ज़िन्दगी जिएंगे ? लेकिन ऐसे में उन्हें समाज में जगह कैसे मिलेगी | वे बाहर नहीं आयेंगे और अपनी लड़ाई लड़ेंगे,अपना जेंडर एक्सप्रेस नहीं करेंगे , हम उन तक पहुँच नहीं पाएंगे ?
देखिये जब आन्दोलन होता है तब शुरुआत में अकेले होते हैं | राजा राममोहन राय,विद्यासागर  स्वामी विवेकानंद, ………टैगोर कहते हैं न कि जब तुम्हारा कोई न सुने तुम एकला चलो | बस एकला चलो फिर सब आ जायेंगे | लीडर अकेला ही लड़ता है फिर सब आ जाते हैं  समय के साथ |
१६ . बटलर वर्ष १९९० में अपने प्रोजेक्ट ‘जेंडर ट्रबल’ में ट्रांसजेंडर को फेमिनिस्ट थ्योरी के अंतर्गत रखने कि वकालत करते हैं | उनके अनुसार यह ज्यादा आसान और स्वीकार्य होगा ट्रांसजेंडर को समाज में स्थान दिलाने में – आप क्या मानती हैं ?
वो भारत में बहुत मुश्किल है | महिलाएं ही ट्रांसजेंडर को स्वीकार नहीं कर पाएंगी | वो नहीं स्वीकार करेंगी |
आप क्या चाहती हैं ?
नहीं हो पायेगा | लड़कियां हमें गन्दा समझती हैं | हम साड़ी पहनती हैं लड़कियों को हमें देखकर शर्म आती है | वो नहीं समझती कि हम भी उन्हीं की तरह है | अलग तो हमें पहले से ही कर दिया गया है  ठीक है अब थर्ड जेंडर आ गया है तो हम ख़ुद ही अलग हो गये हैं | अब हम पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं ,क्या करेंगे, क्या पहनेंगे ?
१७. इन सबसे हटकर आप बेलूर मठ से दीक्षित हैं | स्वामी विवेकानंद को आप आदर्श मानती हैं | भारतीय परम्परा और स्वामी विवेकानंद से आपको क्या मिला ?
मैं विवेकानंद को बहुत मानती हूँ | उनके विचारों से मुझे लड़ने की ताकत मिलती है | मेरे जीवन को दिशा मिली उनके भाव आन्दोलन से | जब भी जीवन में अँधेरा हुआ उनके विचारों से दिशा मिली | मैं ज़िन्दा ही आज उनकी वजह से हूँ | मेरे जीवन के झंझावातों में बस वहीं सहयोगी रहे | यह कह सकने की बात नहीं है |
१८. और अंत में एक हिजड़ा को हिजड़ा कहना कितना सही है ?
बिल्कुल सही नहीं है | बहुत दुःख होता है | ट्रांसजेंडर ,थर्ड जेंडर नया टर्म है | लेकिन हाँ हिजड़ा शब्द तो निष्पाप था लेकिन इसका इस्तेमाल कर करके गाली बना दिया गया |
१९. तो क्या फिर से  इसका इस्तेमाल कर करके इसे पवित्र नहीं बना देना चाहिये ?
– देखिए  बिहार में छठ पूजा होता है ,हमें बहुत आदर के साथ बुला कर नचवाया जाता है लेकिन जैसे ही पूजा समाप्त होता है हमें हटाओ हटाओ कह कर हटा दिया जाता है | ऐसे ही सारे अवसरों पर होता है | शब्द में क्या है ,यह तो पवित्र ही है ,समाज ने इसे गाली बना दिया है फिर समाज ही इसे सुधार सकता है |

Tuesday 14 August 2018

भारत में लाइब्रेरी साइंस के जनक थे डॉ. एस आर रंगनाथन

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डॉ. एस आर रंगनाथ को एक गणितज्ञ और भारत में लायब्रेरी साइंस के के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म 12 अगस्त 1892 को हुआ। इनके जन्मदिन 12 अगस्त को पूरे भारत में राष्ट्रीय पुस्तकालय दिवस (नेशनल लाइब्रेरी डे) के रूप में मनाया जाता है। लाइब्रेरी मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए सैद्धान्तिक आधार प्रदान करने का श्रेय उनको दिया जाता है। उन्होंने अपने अनुभवों, विचारों व सिद्धांतों को एक किताब का स्वरूप प्रदान किया। उनकी पुस्तक का नाम है, “न्यु एजुकेशन एंड स्कूल लाइब्रेरी’

स्कूल लाइब्रेरी की जरूरत
इस किताब में एस आर रंगनाथन ने स्कूल लाइब्रेरी की जरूरत क्यों? ऐसे सवाल का जवाब अलग-अलग नजरिये से देने की कोशिश की है। इसमें सत्ता, परंपरा और अनुकरण के नजरिए से इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की गई है। स्कूल की पाठ्यक्रम के नजरिये से भी स्कूल लाइब्रेरी को देखने की जरूरत को उनकी किताब में रेखांकित किया गया है। इसमें टेक्नोलॉजी ऑफ एजुकेशन, बदलाव के लिए शिक्षा, विचारों की दुनिया में शीघ्रता के साथ बदलाव के लिए शिक्षा, पाठ्यक्रम का बोझ बढ़ाने वाले कारकों, मौखिक संचार से किताबों की संस्कृति व समाजीकरण को भी समझने की कोशिश उनकी पुस्तक में दिखाई देती है।

स्कूल लाइब्रेरी की अवधारणा

उन्होंने स्कूल लाइब्रेरी की शुरुआत की संकल्पना को अपनी पुस्तक में शामिल करते हुए लिखा, “जब हम पुस्तकालय शब्द के बेहद शुरुआती इस्तेमाल को समझने के लिए इतिहास की तरफ नज़र दौड़ाते हैं तो हमारा सामना सबसे पहले एक ऐसे अर्थ से होता है जहां किताबें लिखी जाती हैं। लाइब्रेरी की यह अवधारणा स्कूलों में लागू होने के संदर्भ में कोई आधार प्रदान नहीं करती है। इसके बाद लाइब्रेरी को ऐसे स्थान के रूप में देखने की बात आती है जो किताबों के संग्रह से जुड़ा है। लाइब्रेरी की ऐसी अवधारणा जो केवल संग्रह को महत्व देती है, इसमें इसके उपयोगकर्ता यानि पाठक को अनिवार्य हिस्से के रूप में नहीं देखा जाता है।” साल 1901 में प्रकाशित न्यु इंग्लिश डिक्शनरी के संस्करण में पहली बार उपयोगकर्ता का अप्रत्यक्ष रूप से जिक्र एक परिभाषा में मिलता है। इस परिभाषा के अनुसार, “लाइब्रेरी या पुस्तकालय एक सार्वजनिक संस्था है जिसके ऊपर किताबों के संग्रह की देखभाल की जिम्मेदारी होती है और इसका उपयोग करने वालों तक किताबों की पहुंच सुनिश्चित करना उनका प्रमुख उत्तरदायित्व होता है।