Sunday 15 May 2016

देशकाल की परिधि में हमारा परिवार

विशेष सन्दर्भ: अन्तरराष्ट्रीय परिवार दिवस/15 मई
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राजीव रंजन प्रसाद




चित्र गूगल से साभार

आज विश्व भर में परिवार को लेकर सजग और संवेदनशील प्रयास जारी है। पूरी दुनिया 15 मई को अन्तरराष्ट्रीय परिवार दिवस मना रही है। इस दिन परिवार की बुनियादी जरूरत और उसकी मुख्य अहमियत को जाना-परखा जाता है। आपसी संवाद एवं चर्चा इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य है। कई बार अहसास न होने पर अच्छी से अच्छी चीज हम भूल जाते हैं। परिवार संस्था को पश्चिमी समाज ने विकास की तीव्रता या कहें आँधी में लगभग बिसार दिया है। चकाचैंधी प्रगति ने भौतिक बदलाव के अतिरेक से मानुषिक क्रियाकलापों को भर अवश्य दिया है, लेकिन मानवीयता पीछे छूटती चली गई। सामाजिकता या कह लें परिवार की सांस्थानिक ढाँचा तो टूटकर बिखर-सा गया। हाल के दिनों में अप्राकृतिक यौन-सम्बन्ध और लिव इन रिलेशनशीपकी खुमारी में पश्चिमी देश ऐसे बहें कि वहाँ पचास प्रतिशत स्त्री-पुरुष बिना विवाह के संग-साथ रहते हैं। इस रवायत के पीछे वजहें कई हैं जिसमें एक प्रमुख यह है कि वे अपनी जिम्मेदारियों से बरी रहना चाहते हैं। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों की सहमति है। युवा लड़के-लड़कियाँ वैवाहिक दायरे में जीना अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन मानते हैं। इसलिए पश्चिमी समाज के लोग ऐसा सम्बन्ध और साहचर्य चाहते हैं जिसमें जरूरत भर की भावनाओं की आपूर्ति हो, शेष अपनी-अपनी राह और ठौर-ठिकाना तलाशते रहते हैं। पर सचाई है कि ऐसे सम्बन्ध ठोस एवं टिकाऊ नहीं होते है। रिपोर्ट बताते हैं कि यौन-सम्बन्ध बनने के बाद पुरुष का दबाव गर्भपात का होता है या फिर स्त्रियाँ विवाह-पूर्व बच्चा जनने को विवश होती हैं। पश्चिम में स्त्रियाँ इस मामले में अधिक एकांकी, तनावग्रस्त और अवसाद की अवस्था में गुजर-बसर कर रही हैं। यह स्थिति परिवार-संस्था की अनुपस्थिति और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण के कारण उत्पन्न हुई हैं। अतएव, इसे नैतिक क्षरण, मूल्य-ह्रास, अधोपतन, अपसंस्कृति आदि कहकर खुश होना सही नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि विश्व भर में परिवार-संस्था विपदाग्रस्त है। संघ महासचिव बान की मून टिकाऊ और सतत विकासशील परिवार की रूपरेखा बनाने को लेकर बेहद आग्रही दिखाई देते हैं। वे समूचे विश्व में परिवार-संस्था की दयनीय स्थिति को लेकर चिंतित हैं और व्यथित भी। लिहाजा, इसे सुदृढ़ बनाने हेतु कारगर उपाय तथा ठोस पहलकदमी करने सम्बन्धी उनका आह्वान जैनुइनमालूम देता है। इस घड़ी युद्धरत देशों का परिवार सर्वाधिक घुटन-टूटन-विघटन का शिकार है। भौतिकवादी संस्कृति की भोगवादी प्रवृत्तियों ने भी हाल के दिनों में पारिवारिक सम्बद्धता को तोड़ा है, भीतर से कमजोर किया है। देखना होगा कि विकास की आधुनिक परिपाटी और रहवास के उत्तर आधुनिक ठिकानों ने परिवार-संस्था को आत्मसात कम अपदस्थ अधिक किया है। नई परिस्थितियों के बीच समन्वय भारतीय परम्परा की विकसनशील पद्धति मानी गई है; लेकिन इससे पूर्ण अथवा आंशिक अलगाव/कटाव वर्तमानजनित समस्या है। पश्चिम की तरह आज अधिसंख्य भारतीय परिवार इस संकट से जूझ रहा है। हम यह भूलते जाने को अभिशप्त हैं कि परिवार हमसब के जीवन की धुरी है, मुख्य केन्द्र है। यह हममें ज्ञान पाने का संस्कार रोपता हैं, तो शासन करने का अनुशासन हम यहीं से सीखते हैं। परिभाषा के तौर पर देखें, तो परिवार वह संस्था है जो हमारी परवरिश करता है। यहाँ परवरिश शब्द का अर्थ व्यपाक है और विस्तृत भी। यह मान लेना कि परिवार सामाजिक संस्था का उपक्रम है और मनुष्य मात्र के जन्म के लिए उत्तरदायी है, ग़लत है। प्रायः परिवार का अर्थ हम संयुक्त परिवार और एकल परिवार से लेते हैं। यह किताबी समझ है और ऐसी समझ को तत्काल बदलने की जरूरत है। यह कहना कि परिवार वह सामाजिक इकाई है जो अपने सभी सदस्यों की देखभाल, लालन-पालन, भरण-पोषण, शिक्षा-दीक्षा आदि की जिम्मेदारी उठाता है; मैं जहाँ तक सोच पाता हँू अपनी समझ को एक दायरे में बंद कर देखना है। सोचिए, उत्तर-पूर्व के राज्यों को सेवन-एट सिस्टर कहने का प्रचलन है। यह कौन-सा बहनापा और परिवारवाद है, यह समझना होगा।
दुनिया के वास्तविक यथार्थ से परिचय कराने का पहला जरिया बनता है-परिवार। इस प्रक्रिया में अपने रिश्ते-नातेदार, परिजन और हमारे शुभचिंतक मात्र शामिल नहीं हैं। यदि ऐसा होता, तो हम यह क्यों कहते हैं-गायत्री परिवार, विश्वविद्यालय परिवार, संघ परिवार, भाषा परिवार। अर्थात् परिवार का मूल अर्थ सम्बन्धों के बाह्य ढाँचे से कम हमारी सामूहिकता-बोध और तदनुकूल आचरण-व्यवहार और मेलमिलाप से अधिक सम्बन्धित है। अपनी असल कार्यवाही में परिवार निष्ठा और समर्पण की बीजभूमि तैयार करता है। भारतीय मान्यता के अनुसार इसमें किसी किस्म के छल-छद्म, झूठ-प्रपंच, ईष्र्या-द्वेष, अहंकार-श्रेष्ठता, आत्ममुग्धता और व्यक्तिवादिता की गुँजाइश नहीं होनी चाहिए। क्योंकि सभी सदस्यों को सामूहिक जिम्मेदारी उठानी होती है। गौरतलब है कि पारिवारिक ढाँचे में सक्षम और बुद्धि-विवेक सम्पन्न व्यक्ति को निर्णय करने का पूरा अधिकार होता है जिसे परिवार के अन्य सभी सदस्य मानते हंै या उसके अनुरूप आचरण करते हैं। प्रायः घर के मुखिया पर यह जवाबदेही हुआ करती है। नई पीढ़ी को यह बात अच्छी तरह समझनी होगी कि यह कोई बाध्यता नहीं है जिसके तले युवजन के पंख कुतर दिए जाएँ, उनकी स्वाभाविक आजादी छिन ली जाए। वस्तुतः सामाजिक प्रगतिशीलता के लिए सामूहिक चेेतना बेहद जरूरी है। हर व्यक्ति से परिवार की कुछ अपेक्षाएँ जुड़ी होती है, जो अपेक्षित है। यानी सभी सदस्यों के बीच सामूहिक सहभागिता, साझेदारी और एकात्म विचार-दृष्टि का होना आवश्यक है। इसके साथ हमारे दिमाग में यह बात साफ होनी चाहिए कि परिवार सामाजिक व्यवस्था का वह प्रारंभिक इकाई है जो मनुष्य के कुदरती स्वभाव और स्वाभाविक चेष्टाओं को ज़ाहिर करता है, उसे निरंतर परिष्कार द्वारा उन्नयनशील बनाता है। संस्कार-रोपण एवं चरित्र-निर्माण की इस समाजविज्ञानी व्यवस्था में मानवीय मूल्य, नैतिक-बोध और सामाजिक मर्यादा समाविष्ट होते हैं। अतएव, सामाजिक मनुष्य धीरे-धीरे अनुशासित आचरण करते हुए स्वतंत्र जीवनयापन करना तथा लोकमंगलकारी योजना बनाना स्वमेव सीख जाता है।
परिवार हमारे सामाजिक होने-बनने की गारंटी देता है। व्यक्ति का शिशु रूप यहीं आकार ग्रहण करता है, आस-पास से परिचय पाता है। एक नन्हा और अबोध बालक चीजों को देखना, उलटना-पलटना परिवार के बीच शुरू करता है। खुली छूट और मनमाफिक खेलकूद के माध्यम से एक बच्चा अपने मनोदैहिक गुणों एवं मनोजागतिक प्रत्ययों का महत्त्व इसी लाड़ और प्रगाढ़ता के बीच समझता है। अतः परिवार के सन्दर्भ में यह कहा जाना महत्वपूूर्ण है कि इन्द्रिय-बोध आधारित कार्यकलाप और मानसिक सूझ-बूझ को अपनाने और उसे बाहर प्रकट करने की दृष्टि से परिवार हमारे जीवन की पाठशाला है, फस्र्ट हैंड केयरिंग सेन्टर है।    
एक आदमी कैसा आचरण करता है, यह इस बात पर अधिक निर्भर करता है वह किस और कैसे परिवार से आता है। हमें यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि जहाँ विश्वास पलते हैं वह जगह परिवार है और जहाँ विचार आकार लेते हैं वह विद्यालय। एक बात और इसी में जोड़ दूँ तो जहाँ ये दोनों चीजें मतलब विश्वास और विचार मिलजुुल कर अपना काम करना आरंभ कर देते हैं वह जगह-स्थान राजनीति है। अतः परिवार के सभी सदस्यों में आपसी लगाववृत्ति और विश्वासोत्पादन आवश्यक है। यह सच है कि आधुनिक समय में परिवार के मायने बदले हैं, लेकिन महत्त्व निर्विवाद है। इस जगह कन्फ्यूशियस की याद आती है। उसने कहा है कि-‘‘यदि आपका चरित्र अच्छा है तो आपके परिवार में शांति रहेगी, यदि आपके परिवार में शांति रहेगी तो समाज में शांति रहेगी, यदि समाज में शांति रहेगी तो राष्ट्र में शांति रहेगी।’’ आज वैश्विक एकजुटता पर दुनिया का बल सर्वाधिक है। अतः परिवार को अन्तरराष्ट्रीय अपेक्षाओं के अनुरूप मजबूती प्रदान करना जरूरी है। ध्यान दें कि पारिवारिक गुण-धर्म घर की दहलीज तक सीमित नहीं है। यह आज सड़क से संसद तक एक बड़ी भूमिका में है। सिर्फ कामकाजी या नौकरीपेशा लोग ही नहीं बल्कि आन्दोलनकारी समाज और प्रतिरोध जताता व्यक्ति इसी परिवार-संस्था की उपज हैं। इसलिए परिवार खासकर भारतीय अर्थों में बहुत मायने रखता है। ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह महत्ता यूनिवर्सलहै जिसकी अभिव्यक्ति संसार के किसी भी भूगोल, भूभाग, भाषा और भाव में किया जा सकना संभव है। अतएव, इसे क्षेत्रीय, स्थानीय, प्रान्तीय और राष्ट्रीय खाँचे में बाँध कर नहीं देखा जाए, तो यह ज्यादा उपयुक्त होगा।
इस उत्तर शती में धुँआधार बदलाव की नवाधुनिक तकनीकी-प्रौद्योगिकी ने फिजिकल स्मार्टनेसमें अभिवृद्धि की है, किन्तु इमोशनल इंटीलिजेंसतेजी से घटे हैं। दरअसल, बदलाव और विकास एक-दूसरे के पूरक हो चले हैं जबकि हर बदलाव विकास नहीं है और विकास की हर प्रक्रिया में शत-प्रतिशत फेरफार हो, यह भी आवश्यक नहीं है। सच है, स्वरूप-संरचना बदलने वाली अवधारणा है। अवधि अथवा काल सदैव निर्णायक होते हैं। इसी तरह भौतिक एवं दृश्य चीजों का समय के साथ बदलते जाना कुदरती है। कहना न होगा कि भारतीय परिवार ऐसे बदलावों का आदी रहा है। लेकिन यह बदलाव पारिवारिक बुनियाद को हिला दें, उसे क्षतिग्रस्त कर डाले; यह देखना जरूरी है। स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श ने हाल के समय में हस्तक्षेपकारी वैचारिकी और परिवर्तनकामी राजनीतिक चेतना को उभारा है। यह स्वयं आधुनिक-उत्तर आधुनिक प्रवृत्तियाँ हैं जिसने भारतीय समाज की जड़ता और यथास्थितिवादी सोच पर प्रहार किया है। इस धारा के अन्तर्गत हुए बदलाव की सराहना एवं स्वागत श्रेयस्कर है। परिवार में स्त्री की स्थिति को देखें, तो भारतीय स्त्रियाँ अपने तेवर-मिज़ाज में मुखर हुई हैं। समान व्यक्ति समान अधिकार के तहत उन्हें हर क्षेत्र में सफल होने का अवसर मिल रहा है। अब कुकिंग वुमेन’ ‘वर्किंग वुमेनकहलाने लगी हैं। वह चुनौतीपूर्ण फैसले स्वयं लेने में सक्षम है। वह अपना हित-मंगल देखना और घर-बाहर की परेशानियों से निपटना जान चुकी हैं। यह बदलाव परिवार के धरातल पर शुभ है। लेकिन इसी के साथ जुड़ा दूसरा पक्ष भयावह है। परिवार-संस्था में आपसी सदस्यों में मनमुटाव, कलह और झगड़े बेतहाशा बढ़े हैं। व्यक्तिवादिता की संस्कृति ने संयुक्त परिवार की खटिया खड़ी कर दी है। अधिसंख्य युवा आत्मनिर्भर होते ही एकल परिवार का रास्ता चुन ले रहे हैं। वे अपने भाई-बहन क्या माता-पिता तक की परवाह नहीं कर रहे हैं। यह परम्परा से विछिन्नता है, जिसका समर्थन हरग़िज नहीं किया जा सकता है।
ध्यान दें, भारत में वृद्धाश्रम संस्कृति नहीं रही है; लेकिन आज उनका स्थायी रूप लेते जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। प्राची और प्रतीचि के सहमेल वाले इस देश में भारतीयता का अर्थ विरूद्धों का सामंजस्य निहित है। इसी तरह परिवार-संस्था में संन्यास की प्राचीनतम परम्परा इच्छित हुआ करती थीं। वह जीवन से प्रस्थान नहीं बल्कि मृत्युपर्यंत प्रवास था जिसमें एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण समोये हुए थे। लेकिन आजकल बुर्जुगों की उपेक्षा बढ़ी है। मारपीट और छिनैती छोड़ दें, लोभ और स्वार्थ में बेटे-बहू-बेटियाँ अपने माता-पिता का कत्ल तक कर दे रहे हैं। ये उदाहरण भारतीयता के संस्कार को शर्मसार करते हैं। अतः इनकी संवेदनशील टोह अत्यावश्यक है। यह और बात है, ऐसी नकारात्मक ख़बरें चर्चा में तुरंत आ जाती हैं। पर ढेरों ऐसे उदाहरण हैं जिसमें यह बात साफ है कि परिवार में बुर्जुगों का कद्र वरेण्य है। आज भी युवजन बड़ों का कहा सुनते और मानते हैं। शांति और सुकून की चाह और तड़प होने पर बच्चे आज भी परिवार का आश्रय लेते हैं। बेटियाँ गलबहियाँ करते हुए माँ-बाप के गले में विभोर हो जाया करती हैं। ऐसे उदाहरण पश्चिमी समाज को कम नसीब है, जबकि भारत की यह खानदानी संस्कृति, संस्कार-विधान है।
ध्यातव्य है कि बदलाव बाहर होगा, तो भीतर की चीजें प्रभावित होंगी ही होंगी। लेकिन यह बदलाव सकारात्मक कितनी है। यह देखना आवश्यक है। पश्चिमी विचारों ने भारतीय मानस को बदला। सोच और दृष्टि में बदलाव लाए। परिणाम सामने आया। भारत में सन् 1857 में स्वाधीनता संग्राम का बिगुल फँूका गया। नवजागरण की अलख लगी। भारतीय चेतना में स्त्रियों की भागीदारी और दखल बढ़ी। साहित्यिक प्रवृत्तियों ने समाज में सुधार-जागरण की नई खेप शुरू की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सन् 1885 ई. में स्थापना इसकी महत्त्वपूर्ण कड़ी बनी। राष्ट्रीयता का यह स्वर बनने में परिवार की केन्द्रीयता प्रमुख रही है। लोग व्यक्तिगत स्वार्थ त्यागकर राष्ट्रसेवा में समर्पित होते चले गए। ऐसा हुआ क्योंकि परिवार समाज के रग-रग में घुल गया था। राष्ट्रीय पहचान का पर्याय बन गया था। यह भाईचारा या कहें बंधुत्व इकबाल के लिखे में स्पष्ट उजागर है-हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, हम सब हैं भाई-भाई। चीन से युद्ध लड़ने से पूर्व तक हम हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा गा रहे थे। यह भारतीय परिवार का उत्स है, असली ऊँचाई है। सही सोच के परिणाम कई मर्तबा नकारात्मक भी हो सकते हैं, हो भी रहे हैं। यह आधुनिक अंतर्विरोध के कारण है।
यह सचाई है कि भारतीय परिवार वसुधैव कुटुम्बकम का रहा है। लेकिन विश्व के ताकतवर देश बाज़ार की खोज में छोटे-छोटे देशों की सम्प्रभुता पर हमला कर रहे हैं। युद्ध एक कारोबार बन गया है। मौत का भय टैबलेट’(दवा की टिकीया) की तरह बेचे जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अजीब तरीके से व्यवहार करने लगा है। उसकी छटपटाहट में जीने की तड़प नहीं उन्माद और उत्तेजना अधिक घुस गई है। घर की गाय को लाठी मारने वाले लोग गौ-पूजनऔर गौ-रक्षाअभियान में शामिल हो रहे हैं। घर की लुगाई पर अपनी मर्दानगी की धौंस दिखाने वाले हमारे नेतागण पार्टी प्रवक्ता के रूप में अनाप-शनाप बके जा रहे हैं। अर्थात् आज का व्यक्ति अधिक अविश्वसनीय हो चला है जिस कारण परिवार की आंतरिक सुदृढ़ता और बनावट-बुनावट तार-तार हैं। इसके अतिरिक्त आज भारतीय नैतिक मूल्य, विश्वास और सद्भावना सर्वाधिक चोटिल है। अब लोग अपनी लाइफस्टाइलको लेकर अतिसजग हो चले हैं। वे भौतिकवादी आकर्षण की चपेट में हैं क्योंकि वह सबकुछ जल्दी-जल्दी पा लेने को आतुर हैं। ऐसे व्याकुल आत्माओं ने भारतीय संस्कृति और परिवार की बुनियाद को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया है। मीडियावी चकाचैंध की इस चाॅकलेटी दुनिया में सम्बन्धों के अटूट तार चटकते जा रहे हैं। पति-पत्नी शादी के बाद कोर्ट में तलाक का कागज लेकर घुस रहे हैं। बच्चे अपने माँ-बाप के ममत्व और वात्सल्य से वंचित हो चले हैं। इसलिए आज बचपना सबसे अधिक त्रासद और एकांतिक है। परिवार के टूटन की सबसे अधिक मार आधुनिक समय में बच्चे झेल रहे हैं। यह उत्तर आधुनिक बम्बारडिंगहै जिसमें बचपन सबसे अधिक असुरक्षित है।
परिवार-संस्था की नियामक रही स्त्री के सन्दर्भ में उपर्युक्त चुनौतियाँ ज्यादा अशोभनीय और अश्लील साबित हुई हैं। लेकिन बदलाव की कुछ सकारात्मक कोंपले भी फूटीं हैं जिस ओर हमारा ध्यान जाना आवश्यक है। पहली बात तो यह अच्छी तरह समझ लेना होगा कि आज स्त्री पहले की अपेक्षा अधिक ताकतवर हुई है। जागरूक और श्रमशील स्त्री के मुकाबले पुरुष-वर्ग कमजोर हुआ है। यह पैराडाइम शिफ्टअचानक नहीं हुआ है। देखें, तो भारत में पितृसत्ता को चुनौती बड़े जिगरा वाला काम है। इसे भारतीय स्त्री ने बहुत ही धैर्य से अंजाम दिया है। हाल ही में एक मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का मामला उठा। स्त्रियाँ अपनी सामूहिकता में जीतीं, शनिदेव की पूजा कीं। यह जीत जरूरी थी। आज की स्त्री विजेता होने का प्रतीकशास्त्र रचने को हर क्षेत्र में उद्धत है। वह रामकथा और कृष्णकहानी के निरीह और निःसहाय पात्रों से पूर्णतया ऊब चुकी हैं। वह राधा नहीं द्रौपदी होना चाहती है। मीरा नहीं लक्ष्मीबाई होना चाहती है। वह अब खुद जंग में कूद रही है। आग में तप रही है। चेतस स्त्री को बरगला पाना बिल्कुल आसान नहीं रहा। लेकिन यह परिवर्तन पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। इसके लिए शिक्षा, जागरूकता, अधिकार, न्याय और सामाजिक स्वतंत्रता सार्वभौम तरीके से दी जानी चाहिए। स्त्री-मनोबल को बढ़ाने के लिए पुरुष-वर्ग की सजगता और तत्परता अनिवार्य है। नहीं, तो बाज़ार उन्हें जिन्सऔर कमाडिटीसे अधिक कुछ नहीं समझने वाला। बाज़ार उनकी स्त्री छवि और देह का वस्तुकरण/पण्यीकरण करने की ताक में है। इस मोहक प्रस्ताव में फौरी लाभ तो है किन्तु स्त्रियों की सत्ता खतरे में है, उनका मूल-चरित्र कठघरे में है।
इस अमंगलकारी स्थिति का बचाव यह है कि परिवार-संस्था को सबल बनाने की पुरजोर चेष्टा हो। पश्चिमी बयार और अपसांस्कृतिक होड़ से खुद को यथासंभव दूर रखा जाए। व्यक्तिगत पहचान पाने के लिए संघर्ष जरूरी है, लेकिन ग़लत रूख अथवा निर्णय सही नहीं है। एक और बात जो सबसे दुःखद है वह यह कि स्त्री बंद चहारदिवारी में घरेलू उत्पीड़न की जबर्दस्त शिकार है। इसका कारण सामाजिक हाशियापन है। आर्थिक-निर्भरता नहीं होने से समाज का एक बड़ा तबका जीवनगत संत्रास भोग रहा है। परिवार में आय के स्रोत कम हैं पर स्त्रियाँ अधिक बच्चे पैदा करने को विवश हैं। यह शैक्षणिक असंवेदनशीलता है जिसमें जन-जागरूकता और जागरण अभियान की घंटी कम बज रही है; बड़ी-बड़ी उपाधियाँ और डिग्रियाँ थोकभाव बाँटी जा रही है। इसी तरह निम्न-मध्यवर्ग के पास कमाई कम है। रोजगार के मौके तो और भी सीमित हैं। जरा सोचिए, घर में खाने-पीने की सामग्री नहीं होगी, रहने को घर-छत नहीं होगा, बीमार पड़ने पर जरूरी इलाज की सुविधा नहीं होगी। ऊपर से घर का पुरुष नशा और शराब में डूबा मिले, तो घरेलू विवाद क्यों नहीं होंगे। अधिसंख्य भारतीय स्त्रियों की कमजोर नस यह है कि वह आर्थिक मामले में आशिंक अथवा पूर्णरूपेण पुरुषों पर निर्भर हुआ करती हैं। इस कारण सारा मार-जार उन्हें ही सहना और भुगतना पड़ता है। सब दुःख उनको ही भोगना होता है। घरेलू उत्पीड़न के लिए स्त्रियों को आर्थिक अधिकार मुहैया कराया जाना प्रासंगिक कदम कहा जा सकता है, जिसकी पहलकदमी सरकारी-तंत्र तथा उच्चशिक्षित वर्ग की ओर से ही हो सकता है। हर स्त्री को पति की सहधर्मिणी होने के नाते उसकी आर्थिक साझेदारी को कानूनी जामा पहनाया जाना आवश्यक है। यदि इस दिशा में ठोस प्रयास हुए, तो भारतीय स्त्रियों को दूसरों का मुँह नहीं जोहना होगा। घरेलू उत्पीड़न का शिकार तो वह कतई नहीं हो सकेंगी। 
अतः परिवार के बारे में सजग और संवेदनशील रणनीति ही इस समस्या का एकमात्र निदान है। भारतीय युवजन को अपनी पारंपरिकता के सदानिरा सोतों को सूखने नहीं देना चाहिए। समझना होगा कि परिवार स्थूल ढाँचा अथवा स्थान मात्र नहीं है। यह जीवन-सर्वद्धन का रचनात्मक उपक्रम है जिसके सभी सदस्य सामूहिक जवाबदेही से अभिन्न रूप में जुड़े होते हैं। वे स्वतंत्र स्थिति में स्वेच्छापूर्वक अपनी-अपनी जवाबदेही और कार्यवाही को पूरा कर रहे होते हैं। नैतिक मूल्य एवं संस्कार परिवार के सभी लोगों के आचरण में स्पष्ट दिखाई दें, यह जरूरी है। आपसी सम्बन्धों की नैसर्गिक बुनावट में भविष्य की मंगलाशा छुपी होती है जो परिवार के टिकाऊ और मजबूत होने की निशानी है। तमाम वैश्विक दबावों और आधुनिक सम्मोहनास्त्र के बावजूद भारत में परिवार-संस्था आज भी सबल है। भारत में एक हद के बाद भौड़ापन बर्दाश्त नहीं किया जाता है। कारण कि अश्लीलता भारतीय समाज की सार्वजनीन प्रकृति नहीं है। लेकिन पश्चिम में यह सब चल जाता है। पोर्नोग्राफी वहाँ की ओपेन कल्चरहै। वहीं भारत में वेश्यावृत्ति कुकर्म और अधर्म है। पश्चिमी समाज के लिए दैहिक भूख मानवीय लिप्सा की काॅमन नेचरहै। यद्यपि वैश्विक संस्कृति के प्रभाव एवं सम्मोहन में उपर्युक्त गड़बड़ियाँ भारत में तेजी से पैदा होनी शुरू हो गई हैं। सभ्रान्त एवं नवशिक्षित भारतीय युवा आधुनिक-उत्तर आधुनिक प्रभाव में अपनी मूल इयत्ता यानी आत्मचेतना को खो रहा है। अधिसंख्य युवजन पीढ़ी स्मृतिभ्रंशता का शिकार है। इसलिए अन्तरराष्ट्रीय परिवार दिवस की प्रासंगिकता सचमुच बढ़ गई है। हमारी पीढ़ी को यह समझना होगा कि परम्परा एक निर्जीव बंधन नहीं है और न ही परिवार-संस्था यूज एंड थ्रोजैसी चीज़। भारतीय परिवार हर व्यक्ति अथवा स्त्री-पुरुष से अनुशासित आचरण-व्यवहार की अपेक्षा रखता है। विश्व की एकात्मक शक्ति अटूट बनाए रखने के लिए इस अपेक्षा का जुड़ा होना स्वाभाविक है। गोकि बिखरे हुए समाज और बिखरे हुए लोग से कुछ भी बन सकता है, किन्तु रहने लायक दुनिया, प्यार करने योग्य परिवार नहीं बन सकते हैं। इसी अभिदृष्टि को समर्पित युवा कवि लक्ष्मण प्रसाद गुप्त की निम्न पंक्तियाँ हमें विचारणीय लगती हैं: ‘‘घर पहुँचते ही/मेरी बेटी/निकाल लेती है डायरी/चुनती है कुछ नई/और कुछ पुरानी भी/उसकी जिद को हवा देता/मेरा बेटा/जो अक्षर चिन्हने की प्रक्रिया में लगा है/सुनाता है, ‘तानपूरा पे चिड़ियाकी/कुछ पंक्तियाँ/कुछ और कविताओं की दो-चार कड़ियाँ/दोनों समझते हैं मेरी भाषा/पाते हैं अपना अर्थ/मेरे साथ प्रवेश करते हैं/उस दुनिया में/जिसे मैं बचाना चाहता हूँ/जिसे वे बचा देखना चाहते हैं/वे बचा देखना चाहते हैं/अपने बचपन को/विज्ञान की बेहद गतिशील सवारी पर/ताकि उन्हें मंगल की ऊँचाई से धरती पत्थर नहीं/एक दुनिया की तरह दिखे।’’

Tuesday 3 May 2016

प्रगति-पथ पर हिंदी और उसकी प्रयोजनीयता


-राजीव रंजन प्रसाद







भारत के सांविधानिक नक्शे में हिंदी भाषा राजभाषा के रूप में मान्य है। यह राष्ट्रभाषा है और सम्पर्क भाषा भी। ज्ञान-विज्ञान, अन्तरानुशासनिक एवं अन्तर्सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार इत्यादि में सांविधानिक रूप से मान्यता प्राप्त यह एक वैध भाषा है। इस बारे में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के अन्तर्गत काफी कुछ लिखित एवं वर्णित है। यही नहीं अनुच्छेद 120 में संसद में भाषा-प्रयोग के बारे में हिंदी की स्थिति स्पष्ट है, तो अनुच्छेद 210 में विधान-सभा एवं विधान-परिषद में हिंदी के प्रयोग को लेकर ठोस दिशा-निर्देश उल्लिखित है। वहीं सम्पर्क-भाषा कहने का अर्थ-आशय रोजमर्रा के प्रयोग-प्रचलन की भाषा, कुशलक्षेम, हालचाल की भाषा, आमआदमी के बोली-बर्ताव की भाषा। यह हमारी आय और आमदनी की भाषा भी है जिसे पारिभाषिक शब्दावली में इन दिनों प्रयोजनमूलक हिंदी कहा जा रहा है। दरअसल, प्रयुक्ति की दृष्टि से यह नवाधुनिक क्षेत्र है जिनका महत्त्व एवं प्रासंगिकता हाल के दिनों में तेजी से बढ़े हैं। जैसे मीडिया, विज्ञापन, सिनेमा, अनुवादक, राजभाषाधिकारी, पुस्तक प्रकाशन, अकादमिक क्षेत्र, व्यावसायिक अनुप्रयोग, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आदि। यह सचाई है कि देश के अंदर और बाहर हिंदी की स्थिति में सुखद परिवर्तन आया है। हिंदी बाज़ार की भाषा बन रही है। हिंदी के व्यावसायिक क्षेत्र का निरंतर विस्तार हो रहा है। यह स्थिति भारत में ही नहीं, बाहर भी है। आज दुनिया के सभी प्रमुख राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है।
सूचना-प्रौद्योगिकी के इस बदलते परिवेश में अनगिन चुनौतियों के बावजूद हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं ने धीरे-धीरे अपना स्थान बना लिया है और प्रगति के पथ पर अग्रसर है। हमें इस तथ्य को भी नहीं बिसारना होगा कि सूचना प्रौद्योगिकी के सन्दर्भ में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं का भविष्य उज्ज्वल तो है, परन्तु बहुत कुछ प्रयोक्ता की माँग पर निर्भर करता है। यद्यपि एक सर्वेक्षण के अनुसार 44 प्रतिशत भारतीय हिंदी वेबसाइटों और सर्च इंजनों की माँग करते हैं। अर्थात् हिंदी भाषा के प्रयोग-व्यवहार से सम्बन्धित प्रयुक्ति-क्षेत्र में इज़ाफा एक ऐसी सचाई है जिसे झुठला सकना अब मुमकिन नहीं है। डाॅ. श्याम शंकर सिंह अरुणाचल प्रदेश स्थित राजीव गाँधी विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा के अध्यापक हैं। वे हिंदी भाषा की बुनियादी खूबी बताते हुए कहते हैं-‘‘हिन्दी अपनी सरलता के कारण देश के बहुसंख्यक वर्ग में महत्त्वपूर्ण बनी हुई है; जनभाषा बनी हुई है; लोकभाषा बनी हुई है। संभवतः यही एकमात्र भाषा है जिसे बोलने के लिए व्याकरण की कक्षा में बैठने की अनिवार्यता नहीं है। हमारे भाई जो कुली हैं, रिक्सा खींचने का काम करते हैं; खोमचे वाले हैं; श्रमजीवी हैं-सभी व्याकरण की शिक्षा लिए बिना ही सहर्ष इस भाषा के साथ जुड़ चले। ऐसा इसलिए हुआ कि हिन्दी में सम्प्रेषण वाला पक्ष सफलतापूर्वक साध लिया। कमा चलाने की दृष्टि से हिन्दी बेजोड़ सिद्ध हुई है। उदारीकरण-भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद-बाज़ारवाद एवं सूचना क्रांति जनसंचार की प्रमुखता के इस युग में हिन्दी ने अपने महत्त्व को प्रमाणित किया है।‘’ इसी प्रकार विपणन-बाज़ार की मोटी आय का साधन हिंदी विज्ञापन किस कदर प्रमुख भूमिका में हैं, यह अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है। बाॅलीवुड फिल्मों का भारत से बाहर जलवा कितनी जबर्दस्त है; इस सचाई से हम-सब अवगत हैं। इसी तरह हाॅलीहुड फिल्मों का हिंदी में रूपांतरण और उसकी लगातार माँग हिंदी माध्यम में दिख रहे अवसर का बेमिसाल नमूना है।  
हिंदी के वैश्विक परिदृश्य आज तेजी से बदल रहे हैं। भारत से बाहर रचे-बसे प्रवासी भारतीयों का हिंदी के प्रति राग-अनुराग-वैराग अलग धरातल पर है जिस ओर हमारा ध्यान जाना लाज़िमी है। प्रवासी भारतीयों ने हिंदी-अंग्रेजी का विवाद खड़ा किए बिना हिंदी को जो ऊँचाई, मान और तवज्ज़ों प्रदान की है। इसका अनुमान फेसबुक, ट्विटर, सोशल मीडिया के जानकारों को सर्वाधिक होना चाहिए। आज हिंदी भाषा यूनीकोड संस्करण के अन्तर्गत अमेरिकी आलाकमानों तक से बतिया ले रही है तो माॅरीशस के सचिवालय तक में अपनी मजबूत पैठ रखने में सफल है। भाषाविद् महावीर सरन जैन भी इस बात की पुष्टि करते हैं। उनके मुताबिक हिंदी का वैश्विक परिप्रेक्ष्य समुन्नत, नवाचारी और विचारान्वेषी है। केन्द्रीय हिंदी निदेशालय से प्रकाशित भाषापत्रिका में प्रो- जैन ने भाषा के व्यवहार एवं व्यक्तित्व के लोकमनोविज्ञान को गंभीरतापूर्वक देखने-समझने की चेष्टा की है। इसके लिए उनके द्वारा चुना गया प्रविधिगत उपकरण बेजोड़ हैं। वस्तुतः वे भाषा की निरन्तरता(रेगुलरिटी), ढाँचा(स्ट्रक्चर), कार्य(फंक्शन), परिवर्तन(चेंज), अर्थ का सम्बोध(कन्सेप्ट आॅफ मीनिंग) आदि पर विशेष बल देते हैं जिसका अनुसरण करते हुए क्षेत्रियता के बाहर और वैश्विकता के अन्दर हिंदी भाषा का आधुनिक संदर्भ निःसंदेह महत्त्वपूर्ण है और अप्रतिम सृजनात्मकता का परिचायक भी।
इस घड़ी हिंदी के बारे में महात्मा गाँधी की सोच हमें बेजोड़ मालूम देती है-‘’प्रांतीय भाषा या भाषाओं के बदले में नहीं बल्कि उनके अलावा एक प्रांत से दूसरे प्रांत का सम्बन्ध जोड़ने के लिए सर्वमान्य भाषा की आवश्यकता है और ऐसी भाषा तो एकमात्र हिंदी या हिंदुस्तानी ही हो सकती है।‘’ इस कथन के आलोक में लिपि का सन्दर्भ लेना भी उचित होगा कि भाषा मानव-व्यवहार की विलक्षणता और बुद्धिमता की सूचक है। भाषा के माध्यम से ही मानव अपने भावों, विचारों को दूसरे तक पहुँचाने में समर्थ होता है। भाषा की इसी निरन्तरता से प्राचीन साहित्य, विज्ञान, पारम्परिक धरोहर, लोकसंस्कृति आदि हमें इतने वर्षों बाद भी उपलब्ध है और यह संभव हुआ है लिपि के कारण। लिपि ही किसी भाषा की समृद्धि और उसके व्यवहार-क्षेत्र को दर्शाती है। भाषा के व्यवहार-क्षेत्र की व्यापकता के कारण ही स्वतन्त्रता के पश्चात 14 सितम्बर, 1949 को देवनागरी में लिखित हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। इस तरह अट्ठाइस स्वतंत्र राज्यों एवं सात केन्द्रशासित प्रदेशों से मिलकर बना भारत(इंडिया) एक बहुभाषाभाषी राष्ट्र है। सर्वेगत आँकड़ों के अनुसार(भारतीय जनगणना सर्वेक्षण, 1961, भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 1652 मानी गई हैं। इनमें से सिर्फ 22 भाषाएँ संविधान की अष्ट्म अनुसूची में शामिल हैं। इन सबमें हिंदी भाषा की प्रकृति समन्वयकारी और समुच्चयबोधक है।
दरअसल, आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिंदी का प्रयोग क्षेत्र विशाल और बहुपरतीय है। हिंदी की लिपि देवनागरी है जिसके सतत् विकास सम्बन्धी बृहद् विवेचना अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के अन्तर्गत भारतीय संविधान में प्रदत है। डाॅ विमलेश कांति वर्मा का मत द्रष्टव्य है,-‘’-हिंदी वस्तुतः एक भाषा ही नहीं वरन् एक भाषा समष्टि का नाम है। खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी, हरियाणवी, अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी, मैथिली, मगही, भोजपुरी, मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी, गढ़वाली तथा कुमाउँनी हिंदी की प्रधान शैलियाँ हैं जो क्षेत्र-विशेष में वहाँ के रहवासियों की भावाभिव्यक्ति एवं अभिव्यंजना का माध्यम है। इस भाषा का अपना लोक-साहित्य समृद्ध है। इनमें परिनिष्ठित खड़ीबोली को भारतीय संघ की राजभाषा होने का गौरव प्राप्त है। आज हिंदी का अर्थ सामान्यतः खड़ीबोली लिया जाता है जो साहित्य शिक्षा तथा साधन के माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती है। हिंदी इस प्रकार एक जनभाषा है, सम्पर्क भाषा है, राजभाषा है और देश की राष्ट्रभाषा है। हिंदी एक समृद्ध भाषिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परम्परा की वाहिनी है। वह संस्कृत जैसी सम्पन्न भाषा की उत्तराधिकारिणी है, तो पालि-प्राकृत की सहमेली सखा-मित्र। डाॅ शिवनन्दन प्रसाद की दृष्टि में-“-हिन्दी से तात्पर्य उस भाषा या भाषा परिवार से है जो भारत की राष्ट्रभाषा है, जो प्राचीन ग्रंथों के मध्य प्रदेश कहे जाने वाले विशाल भूभाग की जिसके अंदर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली समाविष्ट हैं( प्रधान साहित्यिक भाषा रही है और जिसके अंतर्गत अनेकानेक बोलियाँ-बोलियाँ सम्मिलित हैं।“
संक्षेप में कहें, तो स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय समाज को एकजुट और एकाग्र्र करने में हिंदी भाषा की भूमिका अनिर्वचनीय रही है। अर्थात् यह हिंदी ही है जिसने हमारे राष्ट्राध्यक्षों के सीने को फुलाया है; विदेशी सरजमीं पर भारतीय हमज़बान लोगों के बीच ’मेक इन इंडियाका गर्जन-तर्जन करने का सुअवसर प्रदान किया है। आज भी हिंदी ही वह सबसे माकुल भाषा है जिसमें चुनाव लड़ा जाता है; फिल्मी गाने गाए जाते है; कविता, कहानी और उपन्यास लिखे जाते हैं। हिंदी का दायरा भारतीय परिक्षेत्र तक सीमित-परिसीमित नहीं है। अंग्रेजी के दावतखाने में तथाकथित बौद्धिकों के लामबंद होने के बावजूद हमारी हिंदी बन-सँवर रही है, क्योंकि उससे जुड़ी देश की एक बड़ी आबादी अपनी भाषा निधड़क बोलती समझती है। उसे यूजीसी पता है और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी। उसे रेल पता है, तो सवारी गाड़ी भी। वह मिरर जानती है और आइना-दर्पण भी। वह दिस-दैट जानती है, तो आप-तुम-तू भी। यह क्षेत्रिय है और वैश्विक भी। इंटरनेटी है, तो कविताकोशी भी। अतएव, हिंदी दिवस पर ऊपरी आर्तनाद और चीत्कार करने वाले विकलांग बौद्धिकों से यह इल्तज़ा है कि यदि वे वर्तमान समस्याओं अथवा भविष्य की संभावनाओं को लेकर कुछ विशेष और मौलिक नहीं रच सकते, तो अपनी अयोग्यता भी किसी पर नहीं थोपे। नई पौध, नौजवान पीढ़ी, यशस्वी है; ऊर्जावान है, वह अपना असली मुकाम पा लेगी; सही ठीकाना खोज लेगी।

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