Tuesday 29 November 2016

खोजी पत्रकारिता : कैसे, क्यों और विभिन्न आयाम

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 डॉ . सचिन बत्रा।

खोजी पत्रकारिता को अन्वेषणात्मक पत्रकारिता भी कहा जाता है। खोजी पत्रकारिता वह है जिसमें तथ्य जुटाने के लिए गहन पड़ताल की जाती है और बुनी गई खबर में सनसनी का तत्व निहित होता है। विद्वानों का मत है कि जिसे छिपाया जा रहा हो, जो तथ्य किसी लापरवाही, अनियमितता, गबन, भ्रष्टाचार या अनाचार को सार्वजनिक करता हो अथवा किसी कृत्य से जनता के धन का दुरूपयोग किया जा रहा हो ऐसे समाचारों को सामने लाना खोजी पत्रकारिता है। कुल मिलाकर सत्य और तथ्य का रहस्योद्घाटन करना यानी किसी बात की तह तक जाना, उसका निष्पक्ष निरीक्षण करना और उस विषय से जुड़े संदर्भ, स्थितियां परिस्थितियां व गड़बड़झाले को रेखांकित करना खोजी पत्रकारिता है।
यह भी कहा गया है कि जब तथ्यों की पड़ताल, दस्तावेजों की खोज के अलावा किसी भी गलत काम को साबित करने वाले सभी साक्ष्यों को अपने बलबूते हासिल करते हुए एक संवाददाता समाचार बनाता है उसे ही खोजी पत्रकारिता माना जाएगा। खोजी पत्रकारिता का उद्देश्य बदले की भावना या निजी हित नहीं होना चाहिए बल्कि स्वप्रेरित नैतिकता और आचार संहिता को आधार मानते हुए जिस जानकारी को बेपर्दा किया जा रहा है उसका जनहित से सीधा संबंध होना चाहिए।
खोजी पत्रकारिता को जासूसी करना भी कहा जाता है। इसे न्याय दिलाने का समानांतर मॉडल और जनता के लिए तय कानून और व्यवस्था को दायित्वपूर्ण बनाए रखने वाला मध्यस्थ भी कहा जा सकता है। यह गहन जांचपरख और अनुसंधान की एक लंबी प्रक्रिया होती है। इसे सच को सामने की प्रक्रिया भी कहा जाता है इसमेंदस्तावेजों की खोज, उनका अध्ययन, साक्षात्कार, मौके की निगरानी, सतर्कता से पड़ताल और घात लगाकर यानी छिपकर सच्चाई को तलाशने के प्रयास किए जाते हैं। खास बात यह है कि खोजी पत्रकारिता में धैर्य, अथक परिश्रम और समय का बहुत महत्व होता है। इसके अलावा खोज के लिए कई बार कई संवाददाताओं को मिलकर काम करना होता है और पर्याप्त धन की भी आवश्यकता होती है।
खोजी पत्रकार के गुण-
एक खोजी पत्रकार में अनियमितता सूंघने की क्षमता, सतर्कता, धैर्य, अथक परिश्रम, स्त्रोत निर्माण व जनसंपर्क में महारथ, निरीक्षण, संतुलन, सत्य परीक्षण, संदेह की प्रवृत्ति, दस्तावेज जुटाने का हुनर, तथ्यों को जांचने और परखने का कौशल, दबाव सहने की क्षमता, निष्पक्षता और निर्लिप्तता, लेखन में सटीक शब्दों का चयन सहित कानूनों का ज्ञान और पेचीदा विषयों पर समाचार लेखन में बचाव की तकनीक जैसे सभी गुर होने चाहिए। हालांकि उपर्युक्त गुण हर प्रकार की पत्रकारिता के लिए आवश्यक हैं लेकिन खोजी पत्रकारिता में अतिरिक्त सतर्कता, संतुलन और सावधानी की आवश्यकता होती है। उल्लेखनीय है कि आज का दौर महज समाचारों का दौर नहीं है, सम्पादक भी अपेक्षा करते हैं कि उनका संवाददाता समाचारों की तह में छिपे समाचार को खोजने और प्रस्तुत करने में समर्थ होना चाहिए। खोजी समाचारों से जनता के भीतर विश्वास की नींव मजबूत करना और पत्रकारिता में अपनी प्रतिष्ठा में उतरोत्तर वृद्धि करना आसान प्रक्रिया नहीं है। खोजी पत्रकारिता संवाददाताओं से अधिक गुणों की मांग इसलिए भी करती है क्योंकि अगर संवाददाता अपने अनुभव के आधार पर सधे और संतुलित तरीके से खोज करते हुए किसी समाचार के आगामी परिणाम का अंदाज़ा नहीं लगा सकता तो एक गलती उसके लिए गंभीर स्थितियां भी पैदा कर सकती है।

खोजी पत्रकारिता क्यों-
आम तौर पर जहां शक्ति, धन, सम्पत्ति और सत्ता होती है वहां लालफीताशाही, दस्तावेजों में हेराफेरी, अनियमितताएं, काम में लापरवाही, षड़यंत्र, गबन और नियत तोड़ने के बाद जानकारी छुपाने जैसे अपराध होने की संभावना बनी रहती है। इसके अलावा किसी व्यक्ति विशेष को लाभ या नुकसान पहुंचाने के लिए पद व धन के दुरूपयोग जैसी स्थितियां कहीं न कहीं बनती ही हैं। ऐसे उल्लंघनों पर नकेल डालने के लिए खोजी पत्रकारिता की जाती है। माना जाता है कि सरकार, कंपनियां, संगठन, संस्थान और व्यक्ति भी कई नियम, कानून, निर्णय और घटनाएं छिपाने का प्रयास करते हैं, जिनका दूसरों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। ऐसे में खोजी पत्रकारिता उन छिपे अपराधों को सामने लाकर लोगों को न्याय दिलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक तर्क यह भी है कि हमें, हमारे समाज को, कानून की बागडोर संभालने के लिए अधिकृत लोगों को और जनहित के लिए निर्णायक पदों पर बैठे लोगों को समयसमय पर सतर्क किया जाना चाहिए कि गलत क्या और कैसे हो रहा है, कानून कहां तोड़ा जा रहा है, फैसलों में पक्षपात कहां है, व्यवस्था में लापरवाही या अपराध कहां और कैसे पनप रहा है। कुल मिलाकर खोजी पत्रकारिता, संतुलन कायम रखने वाली स्वप्रेरित जिम्मेदारी का निर्वाह करती है ताकि शक्ति, सत्ता और प्रभावपूर्ण पदों पर आसीन लोग अपने अधिकृत दायित्वों का निर्वाह उचित प्रकार से करते रहें। 

खोजी पत्रकारिता के औज़ारः

रैकी यानी छानबीन :
खोजी पत्रकारिता में रैकी का विशेष महत्व है। रैकी को निरीक्षण करना भी कहा जाता है यानि किसी प्राथमिक जानकारी की पुष्टि करने के लिए मौके पर छानबीन करना। रैकी एक प्रक्रिया है जिसमें स्पाट यानि स्थल का निरीक्षण करते हुए अवलोकन किया जाता है। इसमें संवाददाता की संदेह की क्षमता, कल्पनाशीलता और अनुभव की परीक्षा होती है। रैकी के दौरान पत्रकार मौके पर संदेह के अलग-अलग आयामों की दृष्टि-दिशा में संदेहों को परखता और विश्लेषण करता है। उदाहरण के लिए एक पत्रकार रोडवेज के किसी बस स्टैण्ड पर गया तो वहां उसके मस्तिष्क में कानून और यात्रियों को बुनियादी सुविधाओं से जुड़े कुछ सामान्य संदेह हो सकते हैं जैसे कि कर्मचारियों की सेवाओं में कमीं या लापरवाही कहां हैं, लोगों को कुछ न कुछ परेशानी तो होगी ही, टिकट बिक्री में छुट्टे पैसे अवैध रूप से लिए जा सकते हैं, जनसुविधाओं में कुछ कमी होगी, अधिकृत स्टॉल पर तय कीमत से अधिक वसूली हो सकती है, प्रतिबंधित वस्तुए यानी तंबाकू या सिगरेट आदि तो नहीं बेची जा रही आदि।

दस्तावेज हासिल करना :
खोजी पत्रकारिता में दस्तावेज का बहुत महत्व है क्योंकि दस्तावेज एक ऐसा साक्ष्य होता है जिसे नकारा या झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन दस्तावेज हासिल करना आसान काम नहीं है। सरकारी उपक्रमों, कार्यालयों और अन्य प्रतिष्ठानों से जुड़े दस्तावेज प्राप्त करने के लिए सूत्र या स्त्रोत संवाददाता के लिए वरदान होते हैं इसीलिए कहा जाता है कि एक पत्रकार की कामयाबी की कुंजी उसके सूत्रों का जाल होता है। हालांकि दस्तावेजों के मामले में खास सावधानी की आवश्यकता होती है क्योंकि कई बार कर्मचारी अपने अधिकारियों से बदला निकालने के लिए ऐसे दस्तावेज संवाददाताओं को देते हैं जिससे अधिकारी को नुकसान पहुंचे लेकिन वे दस्तावेज आरोप के लिए उपयुक्त नहीं होते और उन साक्ष्यों पर आधरित समाचार के प्रकाशन से संवाददाता और समाचार की साख भी गिरती है। लिहाजा दस्तावेजों की दोहरे और तिहरे स्तर पर जांच और पुष्टि जरूर की जानी चाहिए। कुल मिलाकर खोजी पत्रकारिता में दस्तावेज ऐसे सुबूत का काम करते हैं जिनसे समाचार की विश्वसनीयता बढ़ती है। हालांकि अब सूचना प्राप्ति के अधिकार के तहत आवेदन कर कई पत्रकार सवाल पूछते हैं और जवाब में दस्तावेज की मांग करते हैं। जिसके आधार पर समाचार बनाने में दस्तावेज के अप्रामाणिक होने का खतरा नहीं होता। यानि दस्तावेजों के लिए सिर्फ सूत्रों पर निभर्रता नहीं है।

सवाल--जवाब या साक्षात्कार
आम तौर पर पीडि़त, प्रत्यक्षदर्शी और सरकारी या निजी संस्थानों के अधिकारियों से भी बातचीत कर जानकारी प्राप्त की जा सकती है। लेकिन सवालजवाब या साक्षात्कार के दो नियम है एक यह कि आप अपनी पहचान गोपनीय रखते हुए पूछताछ करते हैं और दूसरा पहचान सार्वजनिक करते हुए जवाब प्राप्त कर सकते हैं। दोनों में से क्या ठीक रहेगा इसका फैसला संवाददाता के अनुभव और विवेक से तय होता है। क्योंकि कई बार संवाददाता को पहचान छिपाने से ही सूचना मिलती है और कुछ मामलों में पहचान सार्वजनिक किए बिना जानकारी पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। 

निगरानी या औचक निरीक्षण-
इसे आन द स्पाट वेरीफिकेशन भी कहा जाता है। इसमें संवाददाता किसी अंदाजे या सूचना के आधार पर अचानक घटनास्थल पर पहुंच जाता है और या तो चुपचाप निगरानी करता है या फिर पूछताछ शुरू कर देता है। उदाहरण के लिए एक बार संवाददाता को अकाल राहत कार्य में धांधली कि शिकायत मिली, उसके बाद संवाददाता और कैमरामैन मौके पर पहुंचे तो पाया कि वहां गांव का कोई भी आदमी काम नहीं कर रहा था। उसके बाद नजदीक ही एक ढ़ाबे पर बैठकर गतिविधियों पर नज़र रखी गई। कुछ घंटों बाद अकाल राहत स्थल की ओर से मशीनों की आवाज़ आने लगी। वहां देखा तो पाया कि अकाल राहत कार्य जेसीबी की मदद से किया जा रहा है जबकि सरकारी योजना में गांव के लोगों को 100 दिन रोजगार और पारिश्रमिक देने का दावा किया गया था। इस दृश्य को कैमरे में कैद करने ग्रामीणों से बात की तो पता चला कि गांव के सरपंच ने अपने जानकारों के नाम दर्ज कर उनके बैंक खाते खोलकर अकाल राहत का पैसा हड़प रहा है।

धन का अनुवर्तन :
कहते हैं कि धन का लालच अपराध को जन्म देता है और जहां सत्ता, शक्ति और सरकार है वहां वैध और अवैध तरीके से धन जुटाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं है सभी जगह ऐसा हो मगर आम तौर पर धन से जुड़ी व्यवस्था में किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार होता ही है। इसीलिए एक संवाददाता को पैसे का लेनदेन देखना और समझना चाहिए यानी धन का पीछा करना चाहिए और असामान्य लेन-देन को जांचना-परखना चाहिए। आप अपने जीवन में ऐसे कई उदाहरण अपने इर्द गिर्द देखते होंगे वाहन चालकों से पैसे लेता हुआ ट्रैफिक पुलिस वाला, रेलवे के माल गोदाम में पैसे देते लेते लोग आदि। यह तो एक आम दृश्य है लेकिन आप सोचिए कि एक सरकारी कार्यालय के बाहर अगर कोई पान की दुकान पर नोटों की गड्डी दे रहा है तो यह निश्चय ही संदेह का विषय हो सकता है और खास तौर पर रुपये लेते समय लेने और देने वालों का विशेष सावधानी बरतना यानि अपने आस-पास सतर्कतता बरतते हुए जल्दबाजी में लेना और छिपाना भी संदिग्ध गतिविधि है। ऐसी बातों पर खास ध्यान देते हुए पड़ताल करनी चाहिए।
घात लगाकर सुबूत जुटाना-
इसे स्टिंग आपरेशन, घात पत्रकारिता या डंक पत्रकारिता भी कहा गया है। जैसा कि उपर्युक्त बिंदुओं में बताया गया है कि धन का पीछा करना, निगरानी, औचक निरीक्षण और पूछताछ आदि खोजी पत्रकारिता में सहायक होती है। उसी प्रकार स्टिंग ऑपरेशन में भी यही बिंदु काम आते हैं। दरअसल घात पत्रकारिता खोजी पत्रकारिता की कोख से ही निकली है लेकिन इसमें दस्तावेज से अधिक दृश्य या फोटो का विशेष महत्व होता है क्योंकि घात पत्रकारिता में दृश्यों को सुबूत की तरह इस्तेमाल किया जाता है। टीवी माध्यमों में स्टिंग ऑपरेशन का प्रचलन अधिक है क्योंकि यह सनसनी पैदा करती है। लेकिन आज के दौर में किसी गड़बड़ी का छिपकर फिल्मांकन करना या पहचान छिपाकर यानिडेकॉय बनकर छल से किसी कुकृत्य, गैरकानूनी काम, मिलावट, साजिश, लापरवाही, अपराध, जालसाजी या रिश्वतखोरी को प्रमुखता से दिखाया जाता है क्योंकि उस सनसनी से दर्शक उत्तेजित होते हैं।

मारे देश में इंडियन एक्सप्रेस के अश्विनी सरीन, वरिष्ठ पत्रकार व सांसद रहे अरूण शौरी, तहलका के वरिष्ठ पत्रकार अनिरूद्ध बहल व तरूण तेजपालद हिन्दू के संपादक पी साईनाथ, आजतक न्यूज़ चैनल के दीपक शर्मा व धीरेंद्र पुंडीर जैसे कई जाने माने खोजी पत्रकारों ने समाचार संकलन के क्षेत्र में गहन शोध की परंपरा को आगे बढ़ाया है। इसी प्रकार विकीलीक्स ने भी स्विस बैंक में काले धन की खोजी जानकारी सार्वजनिक कर विश्वव्यापी बहस को जन्म दिया। दरअसल स्टिंग ऑपरेशन का सीधा संबंध गोपनीयता से है, इसमें संवाददाता अपनी पहचान छिपाकर या किसी अन्य व्यक्ति की मध्यस्थता से गलत काम करने वालों की गोपनीय कारगुजारियों को अपनी नियंत्रित स्थितियों में प्रेरित करता है और उसे कैमरे में कैद किया जाता है। 
स्टिंग आपरेशन आसान काम नहीं है क्योंकि इसके लिए सही तरीका, समय और स्थितियों को बुनना पड़ता है। यही नहीं स्टिंग के लिए आपके पास पर्याप्त संसाधन होने भी जरूरी हैं। इसमें स्पाई कैमरा वॉयस रिकार्डर और कई बार मिनी सीसीटीवी कैमरे का भी इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना जरूरी है कि जब किसी स्टिंग के विरोध में कोई अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो संवाददाता को जवाब भी देना पड़ सकता है कि जो स्टिंग किया गया है वह जनहित से कैसे संबध रखता है। यही नहीं मांगे जाने पर संवाददाता को फॉरेंसिक जांच के लिए उन दृश्यों की मूल प्रति भी देनी पड़ सकती है। जिसमें वीडियो के प्रामाणिक होने की जांच की जाती है और प्रसारण में अनावश्यक संपादन पाए जाने पर कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। अक्सर निजता के अधिकार का उल्लंघन, शासकीय दस्तावेजों की गोपनीयता के कानून और किसी की मानहानि जैसे सवालों के जवाब पाने की बाद ही स्टिंग ऑपरेशन किया जाना चाहिए। लिहाजा स्टिंग ऑपरेशन के लिए अतिरिक्त सावधानी और समझदारी की आवश्यकता होती है।

Tuesday 22 November 2016

अपनी सोच, मत, क्रिया-प्रतिक्रिया लिखें ‘सम्पादक के नाम’

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जागरूक मन में ढेरों बातें चलती हैं। यह आन्तरक गतिविधि ही मनुष्य को चेतस-प्राणी सिद्ध करता है। इसे कैसे कहें और किससे कहें का प्रश्न अवश्य है; किन्तु यक्ष प्रश्न हरग़िज नहीं। हमें अपनी बात को अपने प्रिय समाचार-पत्र के सम्पादक से साझा करनी चाहिए। महत्त्व की और जरूरी बात होने पर वे प्रकाशित करेंगे, तो आपको भी सुखद आश्चर्य होगा। प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्याार्थियों के लिए यह विधा बेहद काम की है। 
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दैनिक पूर्वोदय; 21 नवम्बर, 2016

Sunday 20 November 2016

जानने के लिए रोचक तथ्य


http://www.gazabhindi.com/

- आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हिन्दी भाषा के इतिहास पर पहले साहित्य की रचना एक फ्रांसीसी लेखक ग्रासिन द तैसी ने की थी।

- 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक वोट से यह निर्णय लिया कि ‘हिंदी’ ही भारत की राजभाषा होगी।

- भारत में सबसे अधिक भाषाएं बोली जाती हैं. यहां 10 या 15 भाषाएं नहीं बल्कि पूरी 461 भाषाएं बोली जाती है, पर इनमें से 14 विलुप्त हो गईं.

- भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है. देश के 77% लोग हिन्दी बोलते और समझते हैं.

- हिंदी भाषा के बारे में एक अच्छी बात यह भी है कि आप किसी शब्द को बिल्कुल ऐसे ही लिखोगे जिस तरह उसे बोलते हो।

- देश में हर पांच में से एक व्यक्ति Internet को हिन्दी में चलाना पसंद करता है।

- हिन्दी भाषा को अनुच्छेद 343 के अंतर्गत देवनागरी लिपि में 1950 में राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया।

- हिन्दी के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि हिन्दी मूलत: फारसी भाषा का शब्द है।

- अंग्रेजी की रोमन लिपि में जहां कुल 26 वर्ण हैं, वहीं हिंदी की देवनागरी लिपि में उससे दोगुने 52 वर्ण हैं।
- हिंदी भाषा में कोई ऐसा Article नही है जैसे English में ‘the’ और ‘a’ है।

- हिन्दी की पहली कविता प्रख्यात कवि ‘अमीर खुसरो’ ने लिखी थी।

- 366,000,000 लोगों के लिए हिंदी ‘मातृभाषा’ है वहीं इस भाषा को कुल 487,000,000 लोग उपयोग करते हैं।

- आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि हिन्दी भाषा के इतिहास पर पहले साहित्य की रचना भी ग्रासिन द तैसी, एक फ्रांसीसी लेखक ने की थी।

- 1977 में विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को हिन्दी में संबोधित किया।
- हिन्दी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले हिंदी अखबार ही है। उन्होंने अंग्रेजी, अरबी और फारसी भाषा के शब्दो को जान-बूझकर अखबारों में ठूंसकर उन्हें प्रचलन में ला दिया।

- ‘नमस्ते‘ शब्द हिन्दी भाषा में सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाने वाला शब्द है।

- Google ने कहा है कि, इंटरनेट पर हिन्दी कंटेंट की खपत अब बढ़ना शुरू हो गई है। यह साल-दर-साल English कंटेंट के 19 प्रतिशत ग्रोथ के मुकाबले 94 प्रतिशत बढ़ती जा रही है।

- सन् 2000 में हिन्दी का पहला Webportal अस्तित्त्व में आया था तभी से इंटरनेट पर हिंदी ने अपनी छाप छोड़नी प्रारंभ कर दी जो अब रफ्तार पकड़ चुकी है।

- हिंदी भारत की उन 7 भाषाओं में से एक भाषा है जिसका इस्तेमाल Web addresses (URLs) बनाने के लिए किया जाता है।

- आज भी United States America के 45 विश्वविद्यालय सहित पूरे World के लगभग 176 विश्वविद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई जारी है।

Saturday 19 November 2016

प्रकाशित रिपोर्ट


10-11 नवम्बर, 2016 को सम्पन्न नागरी लिपि सम्मेलन हेतु राजीव रंजन प्रसाद का प्रस्तुतीकरण













शिक्षण व अध्‍ययन की प्रक्रिया में सुधार के लिए प्रौद्योगिकी

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सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी)
सूचना व संचार प्रौद्योगिकी उन कार्यों के लिए इस्‍तेमाल किया जाता है जो इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम से सूचना के पारेषण, संग्रहण, निर्माण, प्रदर्शन या आदान-प्रदान में काम आते हैं। सूचना व संचार प्रौद्योगिकी की इस व्‍यापक परिभाषा के तहत रेडियो, टीवी, वीडियो, डीवीडी, टेलीफोन (लैंडलाइन और मोबाइल फोन दोनों ही), सैटेलाइट प्रणाली, कम्‍प्‍यूटर और नेटवर्क हार्डवेयर एवं सॉफ्टवेयर आदि सभी आते हैं; इसके अलावा इन प्रौद्योगिकी से जुड़ी हुई सेवाएं और उपकरण, जैसे वीडियो कॉन्‍फ्रेंसिंग, ई-मेल और ब्‍लॉग्‍स आदि भी आईसीटी के दायरे में आते हैं। 'सूचना युग' के शैक्षिक उद्देश्‍यों को साकार करने के लिए शिक्षा में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के आधुनिक रूपों को शामिल करने की आवश्‍यकता है। इसे प्रभावी तौर पर करने के लिए शिक्षा योजनाकारों, प्रधानाध्‍यापकों, शिक्षकों और प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों को प्रौद्योगिकी, प्रशिक्षण, वित्‍तीय, शैक्षणिक और बुनियादी ढांचागत आवश्‍यकताओं के क्षेत्र में बहुत से निर्णय लेने की आवश्‍यकता होगी। अधिकतर लोगों के लिए यह काम न सिर्फ एक नई भाषा सीखने के बराबर कठिन होगा, बल्कि उस भाषा में अध्‍यापन करने जैसा होगा।

शिक्षा में सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) की भूमिका
शिक्षक, योजनाकार, शोधकर्ता आदि सभी लोग व्‍यापक पैमाने पर इस बात से सहमत दिखाई देते हैं कि आईसीटी में शिक्षा पर सकारात्‍मक और महत्‍वपूर्ण प्रभाव डालने की क्षमताएं मौजूद हैं। जिस बात पर अब तक बहस चल रही है, वो यह है कि शिक्षा सुधार में आईसीटी की सटीक भूमिका क्‍या हो और इसकी क्षमताओं के बेहतरीन दोहन के लिए सबसे बेहतरीन तरीके क्‍या हो सकते हैं। 

कार्यस्‍थल पर प्रौद्योगिकी
प्रौद्योगिकी के प्रयोग से जुड़ी नीतियों, रणनीतियों और व्‍यावहारिक कदमों के प्रदर्शन के लिए दुनिया भर से ली गईं अन्‍वेषण, कामयाबी और विफलता की दास्‍तानें। इनके तहत निम्‍न विषय शामिल होंगे:

कई माध्‍यमों से अध्‍ययन
शैक्षिक टीवी
शैक्षिक रेडियो
वेब आधारित निर्देश
खोज के लिए पुस्‍तकालय
विज्ञान और प्रौद्योगिकी में व्‍यावहारिक ग‍तिविधियां
मीडिया का इस्‍तेमाल
शिक्षकों को तैयार करने और कैरियर से जुड़े प्रशिक्षण के लिए प्रौद्योगिकी
नीति-निर्माण, डिजाइन और डेटा प्रबंधन के लिए प्रौद्योगिकी
स्‍कूल प्रबंधन के लिए प्रौद्योगिकी
प्रौद्योगिकी के विभिन्‍न क्षेत्रों में अध्‍ययन के लिए मौजूद चीजों पर एक नज़र
निर्देशात्‍मक सामग्री
ऑडियो, विजुअल और डिजिटल उत्‍पाद
सॉफ्टवेयर और कंटेंटवेयर
शैक्षणिक वेबसाइट

कल की तकनीक
भविष्‍य की प्रौद्योगिकी के बारे में शिक्षा से जुड़े लोगों और नीति-निर्माताओं को जागरूक करना ताकि वे भविष्‍य के हिसाब से अपनी योजनाएं बना सकें, न सिर्फ उस आधार पर जो आज उपलब्‍ध है, बल्कि आने वाली कल की नई-नई चीज़ों को ध्‍यान में रखते हुए।

रेडियो और टीवी
20वीं शताब्‍दी की शुरुआत से ही रेडियो और टीवी का शिक्षा में इस्‍तेमाल किया जा रहा है। 
आईसीटी के ये रूप तीन मुख्‍य तरीकों से इस्‍तेमाल किये जाते हैं:
  • संवादात्‍मक रेडियो दिशा-निर्देश (आईआरआई) और टीवी पर पाठ समेत सीधे कक्षा में पढ़ाना।
  • स्‍कूल प्रसारण, जहां प्रसारित कार्यक्रम अध्‍ययन और शिक्षण के पूरक संसाधन मुहैया कराता है जो आमतौर पर उपलब्‍ध नहीं होते।
  • सामान्‍य शैक्षिक कार्यक्रम जो सामान्‍य और अनौपचारिक शिक्षा के अवसर उपलब्‍ध कराते हैं। 
  • संवादात्‍मक रेडियो दिशा-निर्देश में रोजाना के आधार पर कक्षाओं के‍ लिए प्रसारण पाठ शामिल हैं। विशेष मुद्दों और विशिष्‍ट स्‍तर पर रेडियो पाठ सीखने और पढ़ाने की गुणवत्‍ता सुधारने के लिए शिक्षकों को ढांचागत और दैनिक सहयोग मुहैया कराते हैं। संवादात्‍मक रेडियो दिशा-निर्देश दूर के स्‍कूलों और केन्‍द्रों के लिए तैयार पाठ लाकर शिक्षा के विस्‍तार में योगदान भी देता है जिनके पास संसाधनों और शिक्षकों की कमी है। 
  • टीवी के पाठ अन्‍य कोर्स सामग्री के पूरक के तौर पर भी इस्‍तेमाल किए जा सकते हैं या उन्‍हें अकेले भी पढ़ाया जा सकता है। लिखी हुई सामग्री और अन्‍य संसाधन शैक्षिक टीवी कार्यक्रमों के साथ अक्‍सर सीखने और निर्देश ग्रहण की क्षमता को बढ़ाते हैं। एशिया- प्रशांत क्षेत्र में शैक्षिक प्रसारण काफी विस्‍तारित है। भारत में उदाहरण के लिए इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी टीवी और वीडियो कॉन्‍फ्रेंसिंग कोर्स का प्रसारण करती है। 
  • विशिष्‍ट पाठों के प्रसारण के लिए इस्‍तेमाल के अतिरिक्‍त रेडियो और टीवी का इस्‍तेमाल सामान्‍य शैक्षिक कार्यक्रमों के प्रसारण के लिए भी किया जा सकता है। वास्‍तव में, शैक्षिक मूल्‍य के साथ किसी भी रेडियो या टीवी के किसी भी कार्यक्रम को ''सामान्‍य शैक्षिक कार्यक्रम'' माना जा सकता है। अमेरिका से बच्‍चों के लिए प्रसारित किया जाना वाला एक शैक्षिक टीवी कार्यक्रम ''सीसेम स्‍ट्रीट'' इसका एक उदाहरण है। दूसरा उदाहरण, कनाडा का शैक्षिक रेडियो चर्चा कार्यक्रम ''फार्म रेडियो फोरम'' है।
  • रेडियो और टीवी का इस्‍तेमाल शिक्षा के एक माध्‍यम के तौर पर क्रमश: 1920 और 1950 के दशक से बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। 
  • सामुदायिक, राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय स्‍टेशनों पर सामान्‍य शैक्षिक कार्यक्रम जो सामान्‍य और अनौपचारिक शैक्षिक अवसर प्रदान करते हैं।

विद्यार्थी केंद्रित शैक्षणिक माहौल बनाने में भूमिका
शोध रिपोर्ट के अनुसार सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के सही इस्‍तेमाल से विषय-वस्‍तु और शैक्षणिक प्रविधि दोनों में बुनियादी बदलाव किए जा सकते हैं और यही 21वीं सदी में शैक्षणिक सुधारों के केंद्र में भी रहा है। यदि कायदे से इसे विकसित किया गया और लागू किया जाए, तो सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) समर्थित शिक्षण ज्ञान और दक्षता के प्रसार में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा सकता है जो आजीवन अध्‍ययन के लिए छात्रों को उत्‍प्रेरित करता रहेगा। यदि कायदे से इस्‍तेमाल किया जाए, तो सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) और इंटरनेट प्रौद्योगिकी से अध्‍ययन और अध्‍यापन के नए तरीके खोजे जा सकते हैं, बजाय इसके कि शिक्षक और विद्यार्थी वही करते रहें जो पहले करते रहे थे। शिक्षण और अध्‍ययन के ये नए तरीके दरअसल अध्‍ययन की उन रचनात्‍मक शैलियों से उपजते हैं जो शिक्षण प्रणाली में अध्‍यापक को केंद्र से हटा कर विद्यार्थी को केंद्र में लाता है।

सक्रिय अध्‍ययन
सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) समर्थित शिक्षण और अध्‍ययन परीक्षा, गणना और सूचनाओं के विश्‍लेषण के औजारों को प्रेरित करते हैं जिससे छात्रों के पास सवाल उठाने को मंच मिलता है और वे सूचना का विश्‍लेषण कर सकते हैं और नई सूचनाएं गढ़ सकते हैं। काम करते वक्‍त इस तरह छात्र सीख पाते हैं। जब बच्चे जीवन की वास्‍तविक समस्‍याओं से सीखते हैं जिससे शिक्षण की प्रक्रिया कम अमूर्त बन जाती है और जीवन स्थितियों के ज्‍यादा प्रासंगिक होती है। इस तरह से याद करने या रटने पर आधारित शिक्षण के विपरीत आईसीटी समर्थित अध्‍ययन बिल्‍कुल समय पर शिक्षण का रास्‍ता देता है जिसमें सीखने वाला जरूरत पड़ने पर उपस्थित  विकल्प में से यह चुन सकता है कि उसे क्या सीखना है।

स‍ह-अध्‍ययन
सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) समर्थित अध्‍ययन छात्रों, शिक्षकों और विशेषज्ञों के बीच संवाद ओर सहयोग को बढ़ावा देता है, इस बात से बिल्‍कुल जुदा रहते हुए कि वे कहां मौजूद हैं। वास्‍तविक दुनिया के संवादों की मॉडलिंग के अलावा आईसीटी समर्थित अध्‍ययन सीखने वालों को मौका देता है कि वे विभिन्‍न संस्‍कृतियों के लोगों के साथ काम करना सीख सकें जिससे उसकी संचार और समूह की क्षमता में संवर्धन होता है तथा दुनिया के बारे में उनकी जागरूकता बढ़ती है। यह आजीवन सीखने का एक मॉडल है जो सीखने के दायरे को बढ़ाता है जिसमें न सिर्फ संगी-साथी, बल्कि विभिन्‍न क्षेत्रों के संरक्षक और विशेषज्ञ भी सिमट आते हैं।

सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) समर्थित शिक्षण की प्रभावकारिता
सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) की शैक्षणिक क्षमताएं उनके इस्‍तेमाल पर निर्भर करती है और इस बात पर कि उनका इस्‍तेमाल किस उद्देश्‍य के लिए किया जा रहा है। किसी अन्‍य शैक्षणिक उपकरण के विपरीत सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) सभी के लिए समान रूप से काम नहीं करता और हर जगह एक तरीके से लागू नहीं किया जा सकता है। 

सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) की पहुंच 
यह गणना करना मुश्किल है कि सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) ने किस हद तक  बुनियादी शिक्षा को प्रसारित करने में मदद की है क्‍योंकि इस किस्‍म के अधिकतर प्रयोग या तो छोटे स्‍तरों पर किए गए हैं या फिर इनके बारे में जानकारी उपलब्‍ध नहीं है। प्राथमिक स्‍तर पर इस बात के बहुत कम साक्ष्‍य मिलते हैं कि सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) ने कुछ भी किया है। उच्‍च शिक्षा और वयस्‍क  प्रशिक्षण में कुछ साक्ष्‍य हैं कि उन व्‍यक्तियों और समूहों के लिए शिक्षा के नए अवसर खुल रहे हैं जो पारंपरिक विश्‍वविद्यालयों में नहीं जा पाते। दुनिया के सबसे बड़े 33 मेगा विश्‍वविद्यालयों में सालाना एक लाख से ज्‍यादा छात्र पंजीकरण करवाते हैं और एक साथ मिल कर ये विश्‍वविद्यालय करीब 28 लाख लोगों की सेवा कर रहे हैं। इसकी तुलना आप अमेरिका के 3500 कॉलेजों और विश्‍वविद्यालयों में पंजीकृत एक करोड़ 40 लाख छात्रों से कर सकते हैं। 

गुणवत्‍ता में वृद्धि
शैक्षणिक रेडियो और टीवी प्रसारण का मूलभूत शिक्षा की गुणवत्‍ता पर असर अब भी बहुत खोज का विषय नहीं है, लेकिन इस मामले में जो भी शोध हुए हैं, वे बताते हैं कि यह क्‍लासरूम शिक्षण के ही समान प्रभावकारी है। कई शैक्षणिक प्रसारण परियोजनाओं में संवादात्‍मक रेडियो परियोजना का सबसे ज्‍यादा विश्‍लेषण हुआ है। इसके निष्‍कर्ष बताते हैं कि शिक्षा का स्‍तर ऊपर उठाने में यह काफी प्रभावशाली साबित हुआ है। इसके सबूत बढ़े हुए अंक और उपस्थिति की दर है। इसके उलट कंप्‍यूटर, इंटरनेट और संबंधित प्रौद्योगिकी के प्रयोग का आकलन एक ही कहानी कहता है। अपनी शोध समीक्षा में रसेल कहते हैं कि आमने-सामने शिक्षा ग्रहण करने वालों और सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के माध्‍यम से पढ़ने वालों के अंकों के बीच कोई अंतर नहीं रहा है। हालांकि, दूसरों का दावा है कि ऐसा सामान्‍यीकरण निष्‍कर्षात्‍मक है। वे कहते हैं कि सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) समर्थित दूरस्‍थ शिक्षा पर लिखे गए तमाम आलेख प्रयोगिक शोध और केस स्‍टडी को ध्‍यान में नहीं रखते। कुछ अन्‍य आलोचकों का कहना है कि सूचना व संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी)  समर्थित दूरस्‍थ शिक्षा में स्कूल छोड़ने की दर काफी ज्‍यादा होती है। कई ऐसे भी अध्‍ययन हुए हैं जो इस दावे का समर्थन करते नजर आते हैं कि कंप्‍यूटर का इस्‍तेमाल मौजूदा पाठ्यक्रम को संवर्धित करता है। शोध दिखाता है कि पाठन, ड्रिल और निर्देशों के लिए कंप्‍यूटर के इस्‍तेमाल के साथ पारंपरिक शैक्षणिक विधियों का इस्‍तेमाल पारंपरिक ज्ञान समेत पेशेवर दक्षता में वृद्धि करता है और कुछ विषयों में अधिक अंक लाने में मदद रकता है जो पारंपरिक प्रणाली नहीं करवा पाती। छात्र जल्‍दी सीख भी जाते हैं, ज्‍यादा आकर्षित होते हैं और कंप्‍यूटर के साथ काम करते वक्‍त वे कहीं ज्‍यादा उत्‍साही होते हैं। 

दूसरी ओर कुछ लोगों का मानना है कि ये सब मामूली लाभ हैं और जिन तमाम शोधों पर ये दावे आधारित हैं, उनकी प्रणाली में ही बुनियादी दिक्‍कत है। ऐसे ही शोध बताते हैं कि पर्याप्‍त शिक्षण सहयोग के साथ कंप्‍यूटर, इंटरनेट और संबद्ध प्रौद्योगिकी का इस्‍तेमाल वास्‍तव में सीखने के वातावरण को सीखने वाले पर केंद्रित कर देता है। इन अध्‍ययनों की यह कह कर आलोचना की जाती है कि ये विवरणात्‍मक ज्‍यादा हैं और इनमें व्‍यावहारिकता कम है। उनका कहना है कि अब तक कोई साक्ष्‍य नहीं हैं कि बेहतर वातावरण बेहतर अध्‍ययन और नतीजों को जन्‍म दे सकता है। अगर कुछ है, तो वह गुणात्‍मक आंकड़े हैं जो छात्रों और अध्‍यापकों के सकारात्‍मक नजरिये को ध्‍यान में रखकर बनाए गए हैं जो कुल मिला कर सीखने की प्रक्रिया पर सकारात्‍मक असर को रेखांकित करते हैं। एक बड़ी दिक्‍कत इस सवाल के मूल्‍यांकन में यह आती है कि मानक परीक्षाएं उन लाभों को छोड़ देती हैं जो सीखने वाले पर केंद्रित वातावरण से अपेक्षित हैं। इतना ही नहीं, चूंकि प्रौद्योगिकी का इस्‍तेमाल पूरी तरह सीखने के एक व्‍यापक तंत्र में समाहित है, इसलिए यह काफी मुश्किल है कि प्रौद्योगिकी को स्‍वतंत्र रख कर यह तय किया जा सके कि क्‍या उसके कारण कोई फायदा हुआ है या इसमें किसी एक कारक या कारकों के मिश्रण का हाथ है।

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Tuesday 15 November 2016

पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


          जन्म  सं. 1922 ( सन 1865 ई.),  मृत्यु सं. 2004 ( सन 1947 ई.)
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जीवन वृत्त

पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय  'हरिऔध' का जन्म बैशाख कृष्ण तृतीया संवत 1922 में हुआ. इनके पिता का नाम पं. भोलासिंह उपाध्याय और माता का नाम रुक्मणि देवी था. यद्यपि इनके पूर्वज बदायूं के रहने वाले थे परन्तु लगभग अढाई तीन सौ वर्षों में आजमगढ़ के समीप तमसा नदी के किनारे निजामाबाद कसबे में आ बसे थे. उपाध्याय जी पर पिता से अधिक चाचा ब्रह्म सिंह का जो कि ज्योतिष के बड़े विद्वान थे प्रभाव पड़ा और उन्ही की  देख-रेख में इनकी शिक्षा भी आरम्भ हुई. पांच वर्ष की अवस्था में उन्होंने इनका विद्यारम्भ प्रारम्भ किया और घर पर छोटी छोटी पुस्तकें पढ़ते रहे. सात वर्ष की अवस्था में वह निजामाबाद के मिडिल स्कूल में भरती किये गए जहाँ से सं. 1936 में इन्होने मिडिल वर्नाक्युलर की परीक्षा उत्तीर्ण की. इसके उपरान्त यह बनारस के क्वींस कालेज में प्रविष्ट हुए परन्तु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण यह आगे न पढ़ सके और घर पर ही संस्कृत, फ़ारसी, उर्दू, गुरुमुखी व पिंगल का अध्ययन करते रहे. सं. 1939 में इनका विवाह अनंतकुमारी देवी के साथ हुआ और सं. 1941 में यह निजामाबाद के तहसील स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए. निजामाबाद में यह बाबा सुमेरसिंह से विशेष प्रभावित हुए और 'हरिऔध' उपनाम इसी बीच रखा गया. सं. 1946 में इन्होने कानूनगो की परीक्षा उत्तीर्ण की और कानूनगो का स्थायी पद प्राप्त किया, जिसमे यह निरंतर उन्नति करते रहे. 1 नवम्बर सन 1923 में पेंशन लेकर हिंदी काशी  विश्व विद्यालय में अवैतनिक अध्यापक का काम करते रहे और निरंतर हिंदी साहित्य की सेवा में रत रहे.  हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी बनाये गए और 'प्रियप्रवास' पर इन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया तथा सम्मेलन की 'साहित्य वाचस्पति' उपाधि से भी विभूषित किये गए.

भाषा शैली -

हरिऔध जी का भाषा पर व्यापक अधिकार है. इन्होने ब्रज और खड़ी बोली दोनों भाषाओँ में समानाधिकार से रचनाएं की हैं. ये जैसी सफलता से संस्कृतमयी भाषा में अभिव्यक्ति करते हैं; उतनी ही सफलता से बोल-चल की मुहावरेदार हिंदी में भी रचनाएं करते हैं.
हरिऔध जी की ब्रज भाषा में सरलता, प्रांजलता, सरसता आदि गुण मिलते हैं. इनकी रचनाओं में ना तो क्लिष्टता है और न ही शब्दों की तोड़-मरोड़ ही है.
खड़ी बोली हिंदी में हरिऔध जी के 'प्रियप्रवास', 'वैदेही-बनवास' और 'चोखे चौपदे' प्रमुख ग्रन्थ हैं. 'प्रियप्रवास'  और 'वैदेही-बनवास' की भाषा संस्कृत निष्ठ है. कहीं पर तो यदि हिंदी क्रियाओं को निकाल दिया जाय तो भाषा हिंदी के स्थान पर विशुद्ध संस्कृत ही बन जाती है.

काव्य की विशेषताएं -

काव्यधारा  - हरिऔध जी की काव्यधारा युग की परम्पराओं और मान्यताओं की सच्चाई को  साथ लेकर प्रवाहित हुई है. इसमें बुद्धिवादी युग का नपा जीवन-दर्शन मानवीय दृष्टिकोण और प्रगतिशील विचारधारा का समन्वय हुआ है. 'रस कलश', 'प्रियप्रवास' और वैदेही बनवास' में पुरानी कथा वस्तु इन्होने आधुनिक बुद्धिवादी जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत की है.

विविधता - इनके काव्य में विषयवस्तु, भाषा और शैली की दृष्टि से विविधता मिलती है. शैली की दृष्टि से इन्होने मुक्तक और प्रबंध दोनों ही प्रकार के काव्य लिखे हैं. शुद्ध साहित्यिक और संस्कृत तत्समता प्रधान भाषा में रचनाएँ की हैं.

ब्रज भाषा - हरिऔध जी की काव्य साधना का प्रारंभ ब्रज भाषा से होता है तो इन्होने प्रारंभ में श्री कृष्ण की भक्ति सम्बन्धी रचनाएं लिखीं. 'रस-कलश' ब्रजभाषा में इनकी प्रौढ़तम रचना है. यह रीति ग्रन्थ है. इसमें अलंकार और नायिका भेद आदि का निरूपण है. नायिका वर्णन के साथ इनका ऋतू वर्णन भी बहुत सुन्दर है. प्रेमाकर्षण का आधार शारीरिक सौन्दर्य मात्र न होकर मानसिक सौन्दर्य और उदात्त विचार है.

खड़ी बोली - आगे चलकर हरिऔध जी का मोह ब्रजभाषा में नहीं रहा और खड़ी बोली की ओर आ गए. पहले इन्होने बोलचाल की खड़ी बोली में उर्दू छंदों को अपनाया. इसके पश्चात पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से संस्कृत  वर्ण वृतों और संस्कृत की समस्त पदावली में महाकाव्य 'प्रिय-प्रवास' की रचना की. 'प्रिय-प्रवास' में  इन्होने प्रकृति चित्रण बड़े विस्तार से किया है. 'वैदेही-बनवास' में प्रकृति का संश्लिष्ठ चित्रण अधिक मिलता है.

रस योजना - हरिऔध जी के काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार और वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति हुई है. 'रस-कलश' में श्रृंगार रस का विस्तार से विवेचन हुआ है. इसमें संयोग श्रृंगार के बड़े ही सुन्दर चित्र मिलते हैं. इनमे वासना की गंध नहीं है. एक गोपी कहती है -
"मन्द मन्द समंद की सी चालन सों,
  ग्वालन लै लालन हमारी गली आइये ! "
इनकी रचनाओं  में करुण विप्रलंब बहुत ही गहरा है. ब्रज बालाओं के वियोग में विप्रलंब करुण है, वहाँ माता यशोदा का वात्सल्य अकुलाहट और टीस में करुणा की सीमा में पहुँच गया है.

छंद योजना -
हरिऔध जी के काव्य में अनेकों छंदों का प्रयोग मिलता है. इनके काव्य में ग्रामीण छंद जैसे चुभते चौपदे और चौखे चौपदे हैं. रीतिकाल छंदों में कवित्त-सवैया छंद, मात्रिक छंद अर्थात वैदेही बनवास में प्राचीन और नवीन छंदों पर समान अधिकार मिलता है. और प्रिय प्रवास में संस्कृत के वर्णवृत छंद मिलते हैं.

अलंकार योजना - इन्होने शब्दालंकारों और अर्थालंकारों का सफल प्रयोग किया है. यमक, शलेश, अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, विभावना आदि हरिऔध जी के प्रिय अलंकार हैं. इनकी नजर में अलंकारो का आश्रय कल्पना की उड़ान नहीं थी बल्कि सर्वत्र इसका सीधा साधा प्रयोग करना था.  एक रूपक का उदाहरण देखिये -
"ऊधो मेरा हृदय तल था एक उद्यान न्यारा !
शोभा देती अमित उसमे कल्पना क्यारियाँ थीं !
प्यारे प्यारे कुसुम कितने भाव के थे अनेकों !
उसके विपुल विटपी मुग्धकारी महा थे".

कृतियाँ
हरिऔध जी प्रतिभा बहुमुखी थे और इन्होने कविता, उपन्यास, नाटक, निबंध व् समालोचना सभी क्षेत्रों में अत्यधिक कार्य किया.

काव्य - प्रियप्रवास, वैदेही बनवास, रस-कलश, पद्य-प्रसून, चोखे-चौपदे, चुभते चौपदे, बोलचाल, प्रेमाम्बु-प्रश्रवन, प्रेमाम्बु वारिधि, प्रेमाम्बु प्रवाह, प्रेम-पुष्पोहार, प्रेम-प्रपंच, कल्पलता, पारिजात औत सतसई आदि.

उपन्यास अनुवाद - वेनिस का बांका, रिपवान विकल,

मौलिक - ठेठ हिंदी का ठाठ, अधखिला फूल

नाटक - रुक्मिणी परिणय और प्रद्युम्न विजय व्यायोग !

समालोचनात्मक - हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, कबीर वचनावली की भूमिका, साहित्य सन्दर्भ !

सं. 2004 (सन 1947 ई.) में यह चमकता सितारा हमारे साहित्य की सेवा करते करते विलुप्त हो गया.