Saturday 5 June 2021

ननम पोनू : लोक-कंठाहार को संग्रहनामे का शक्ल देती मोर्जुम लोयी

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भाषा के अनुशासक हैं-आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी। उनका कवित्व सहज और प्राश्निक की भाँति है। वे कहते हैं-‘सारी प्रजा निपढ़ दीन दुखी जहाँ है, कर्तव्य क्या न कुछ भी तुझको वहाँ है।’’ इस ‘वहाँ’ को मोर्जुम लोयी अरुणाचल में सही करती दिखती हैं। वह अपनी जनता की चेतना को स्थूल-सूक्ष्म ढंग से पकड़ती है। वह अपनी पुरखों की भाषा को अरजती ही नहीं है, बल्कि श्रमसाध्य ढंग से उस लोक-आख्यान को रूपाकार भी करती हैं। बकौल मोर्जुम लोयी-‘ये गीत आमतौर पर समाज, संस्कृति व स्त्री पर केन्द्रित होती हैं। उनके रहन-सहन, पहनावे, दिनचर्या आदि इन लोकगीतों में निहित रहते हैं। अपनी कोई लिपि न होने के कारण यह सिर्फ लोगों के कंठों और उनके हृदय में विद्यमान हैं। जनता अपने सरल हृदय के साथ लोकगीतों को गाती हैं। लोकगीतों में लोग अपनी भावनाओं को मधुर वाणियों में प्रकट करते हैं। ये सम्पूर्ण समाज की अमूल्य धरोहर है।’’
अरुणाचली धरा की इस धरोहर को मोर्जुम लोयी बचाने की जुगत में जुटी दिखती हैं। उनकी सद्यः प्रकाशित गालो जनजाति के लोकगीतों का संग्रह ‘ननम पोनू’ इसका गवाह है। पेशे से प्राध्यापिका मोर्जुम लोयी को पता है कि आने वाली पीढ़ी के लिए इसके क्या मायने और महत्त्व हो सकते हैं। कहना न होगा कि लोक-साहित्य का भारतीय लोकवृत्त किसी ‘पट्टी’ विशेष तक नहीं सीमित है। यथा: उत्तरपट्टी, दक्षिणपट्टी, हिन्दी पट्टी आदि। पूर्वोत्तर का जनजातीयबहुल समाज भाषा-बोली के स्तर पर समृद्ध एवं समुन्नत है। यहाँ लोकाश्रयी धाराएँ गगनउवाची नहीं, बल्कि लोक-मन की रंगरेज मालूम देती हैं। उनके कहन में अल्हड़ भावनाएँ और गाढ़ी रंगत की संवेदनाएँ दिखाई देती हैं। लोकगीत अपनी जनजातीय चेतना के वास्तविक संवाहक है जिनकी गूँज-अनुगूँज अरुणाचल प्रदेश की गालो जनजाति में स्पष्ट लक्षित की जा सकती हैं। ‘योई बाबो’ की अंतिम कुछ पंक्तियाँ आपके समक्ष रखना उचित होगा-
‘‘हीरअ गो इरमेन लाजुके, ननम सीरे गो इरमेन लाजुके, योई बाबोआ होई।
मेबाम गो बाम्मेन लाजुके, पोनु मोबाम गो बाम्मेन लाजुके, योई बाबोआ होई।
टाजेना ईतो लाके, आजेन गाद्दा ईतो लाके, योई बाबोआ होई।।’’
गालो लोक-जगत का यह मनोरंजन गीत अपने भावार्थ में जिस मर्म को उद्घाटित करता है, वह जड़बुद्धि या जड़मति के लिए उत्तम संदेशा है। मोर्जुम लोयी शब्दार्थ-सम्बन्ध के साथ कहती हैं-‘‘इस जड़बुद्धि में प्रेम की मीठी वाणियों से ऊर्जा का संचार कर देती हूँ। ताकि हम मिलकर समाज में बदलाव ला सकें, इसकी जड़ता को खत्म कर एक नवनिर्माण कर सकें। चलो मिलकर मन के सोए हुए संगीत को जागृत करें। संगीत के तारों को छेड़कर उससे गीत एक बनाएँ। ताकि इस सोए हुए संसार को, समाज में फैली हुई अराजकता को, भेद-भाव सबको दूर कर सकें। चलो, मिलकर संगीत के सुरों से माहौल को संगीतमय बना दें।’’
‘ननम पोनू’ में कहा गया है कि यह दुनिया एक समय वीरान थी। कोई गति, हिलडुल, हलचल नहीं थी। इस नीरसता को तोड़ने का प्रयत्न किया गया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। कंठ से संगीत नहीं फूटा। पशु, पक्षी, जीव, जंतु भी इस नीरव दुनिया में कोई थिरकन पैदा नहीं कर सके। ऐसे में एक स्त्री को अपनी पारम्परिक वेषभूषा और आभूषणों संग गाने को कहा गया। उस स्त्री के कंठ से गीत झंकृत हो लिए और पूरा वातावरण संगीतमय हो गया। इस दुनिया को खुशहाल और जीवंत बनाने में स्त्री की भूमिका प्राथमिक रही है, यह पुष्टि इस लोकगीत से हो जाती है जो ‘ओयो हयिया’ शीर्षक से संकलित है।
निर्मल कुमार बोस द्वारा लिखित तथा श्याम परमार द्वारा अनूदित पुस्तक का नाम है-‘भारतीय आदिवासी जीवन’। इसका उल्लेख इस कारण कि उसमें आदिवासी-जन के विवाह-प्रकृति के बारे में लिखा गया है, ‘‘परिवार विवाह के द्वारा बनता है। साथी तलाश करने के बारे में प्रत्येक आदिवासी जाति समुदाय के अपने स्वतन्त्र नियम होते हैं। किससे विवाह करना चाहिए या किससे नहीं; किसे महत्त्व दिया जाए या किसके सम्बन्ध में उपेक्षा बरती जाए, उसके लिए भी नियम होते हैं। ये नियम कई रूपों में एक आदिवासी जाति (क्लान) के दूसरी आदिवासी जनजाति (क्लान) से अलग-अलग होते हैं। उनकी विचित्रताओं का वर्णन करने के लिए अनेक विशिष्ट और अनोखे उदाहरण उपलब्ध हैं।’’
पंक्तिलेखक का स्वयं का अनुभव भी इस बात की तसदीक करता है कि यहाँ शादी ‘टैबू’ से अधिक जीवन-निर्वाह का संकल्प है; सामूहिकता से प्रमाणित विधि-विधान हैं। इस बारे में मोर्जुम लोयी द्वारा शामिल शादी का लोकगीत ‘न्यीदा काबेन’ सटीक उदाहरण है। इस गीत में मुख्यतया वधू की ओर से गानेवाली निबो होती हैं जो एक तरह से इन गीतों की जानकार या कहें विशेषज्ञ होती हैं। वह वधू को नई जीवन के लिए शुभकामनाएँ देती हैं तथा उनके जीवन में आने वाले हर किस्म के संकट, अनहोनी अथवा विघ्न-बाधाओं को दूर करने की प्रार्थना करती हैं। उनके अच्छे भविष्य की कामना के साथ भलीभाँति अपनी जिन्दगी में फलने-फूलने का आशीर्वाद भी दिया जाता है। बेटी एक परायी धन होती है, यह बात गालो जनजाति में भी मान्य है जिसे वह एक मिथकीय उदाहरण के साथ रखती हैं। वे बताती हैं कि आन्यी-कारपु-कारलु नाम की बहनों ने भी कोशिश की थी कि वे बेटा बनें; पर लाख कोशिशों के बावजूद यह संभव न हो सका।
ये गीत इतनी कारुणिक होती हैं कि कई बार सुनने वाले श्रेाता रो पड़ते हैं। लोकगीत सीधे मर्म को छूती हैं और भीतर तक गहरे उतर जाती हैं। जिन कंठों सेे इन गीतों को गाया जाता है, वे भी काफी भाव-विह्वल हो उठती हैं। न्यीदा यानी गालो जनजाति की शादी में मान्यता है कि वर-वधू कोपु अर्थात एक्काम के पत्ते की कोंपलों की तरह होते हैं या कि पये पत्ते की तरह। शादी के वक्त दूर के जंगलों से जाकर कोपु लिया जाता है, दुल्हा और दुल्हन अपने हाथों से कोपु का आदान-प्रदान करते हैं। ये रीत आगे बढ़ने की संभावनाओं को व्यक्त करती हैं।
यहाँ बीच से कोई पंक्ति उठाकर देना, पंक्तिलेखक के लिए मुश्किल बात है। इसलिए मोर्जुम लोयी ने जो संग-साथ भावार्थ बताएँ हैं, उसी का उल्लेख करना सही होगा। यह इसलिए भी जरूरी है ताकि आप गालो लोकगीत के मर्म को समझ सकें तो आपका प्रयास निश्चय ही इन लोकगीतों तक पहुँचने का होगा।
‘ननम पोनू’ में लोकगीतों की बहुलता ही नहीं है, बल्कि विविधता भी अनेकानेक हैं। इसमें गालो जनजाति के जल-आह्वान सम्बन्धी इतिहास से जुड़ी एक लोकगीत संकलित है। जल की देवी एक मिथकीय स्त्री है जिनकी सुमिरन में यह कहकर बुलावा भेजा गया कि हे देवी, आपके बिना यह संसार सूना है। जमीन बंजर हो गई है। मनुष्य, पशु, पक्षी सब प्यासे हैं। हमें जीवनदान देने के लिए अपना दर्शन करा दो। आगे का प्रसंग रोचक है और इस दुनिया के हरे-भरे यानी हरीतिमायुक्त होने का मुख्य कारण भी।
इसी तरह स्त्री विषयक ‘आन्नअ यो आन्ना’ गीत हैं। ‘आनअ ग आजुमा सिरि रम्यो’ शीर्षक से बिछुड़ गई बेटी के लिए माँ का क्रंदन-गीत है। बेटियों के लिए उपदेशात्मक गीत है। दुल्हन के आगमन पर गाये जाने वाली खुशियों के इजहार का लोकगीत है। शिशु के देखभाल के एवज में की जाने वाल जायज माँग पर आधारित लोकगीत है। मोपिन और मिथुन की बलि को लेकर गाए जाने वाले गीत इस संग्रह में शामिल हैं, तो एक प्यारी लोरी भी इसमें संकलित है। लोरी की दो पंक्तियाँ यहाँ देखी जा सकती हैं-
‘‘अक्कुम अम...ताकुअ अम..., गोक्कुअ अम...,
अक्कअ रअ अम..., गोक्कअ रअ अम..., ताकअ रअ अम...।’
गालो लोकगीत में दिलचस्प यह कि टिड्डी और कौए के प्रसंग में भी लोकगीत हैं। इसी तरह जायी बोनअ की मशहूर लोककथा इस संग्रह की उपलब्धि है। तोप गोन और रहस्यमय शिला की कथा भी इस संग्रह में शामिल किया जाना इस संग्रह की उपादेयता को बढ़ा देता है। स्त्री-पुरुष प्रेम में एक स्त्री के पुरुष-विशेष से आकृष्ट होने के वृत्तांत से जुड़ी लोकगीत भी ‘ननम पोनू’ संग्रह में अपना स्थान रखते हैं।
‘ननम पोनू’ की एक बड़ी उपलब्धि गालो जनजाति के विस्थापन को सम्बोधित लोकगीत का इस संग्रह में होना है। इस लोकगीत का शीर्षक है-‘तोनअ जाजिन’। यहाँ इस ऐतिहासिक लोकगीत को मोर्जुम लोयी ने अपने संग्रह में हिस्सा देकर पुरखों के प्रति अपने आभार को प्रकट किया है। अरुणाचली लोक-साहित्य में जिन पुरखों का उल्लेख मिलता है। आबोतानी की जिस संस्कृति के वे उत्तराधिकारी हैं उसका उल्लेख भारत के किसी लिखित साहित्य में न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे में ये ऐतिहासिक लोकगीत संकर होती दुनिया में अपने मूल को बचाये रखने की रोशनाई है। इस नवीन काव्य-संग्रह में बेहद संक्षेप में लेखिका ने सारगर्भित टिप्पणी देकर हिंदी-संसार के पाठकों को अपना बना लिया है। वह सहज-सरल ढंग से जनजातीय लोकगीतों की जिन विशेषताओं को उकेरती, उभारती तथा यथासंभव उसका शब्दार्थ-भावार्थ प्रस्तुत करती जाती हैं; वह उनकी लेखकीय जवाबदेही को दर्शाता है। सबसे अंत में उन्होंने लोकगीतों में प्रयुक्त शब्दावलियों का शब्दार्थ एक साथ दिया है जो गागर में सागर भरने वाली हैं।
जनजातीय अस्मिता अकादमिकपोसू निगाहबानी और फौरी करतब से नहीं बच सकती है। भारत के अधिसंख्य लोग गालो जनजाति के नाम से ही परिचित नहीं है, वे दोगीन-आयिन समयकाल के बारे में कुछ जानते होंगे; यह सोचना भी फिजूल है। तब भी मोर्जुम लोयी की करीब सौ पृष्ठों की यह पुस्तक ‘ननम पोनू’ भारतीय खोजी अध्येताओं, लोक-संग्राहक स्वाभाव के सुधिजनों, अकादमिक शोधार्थियों के लिए पठनीय और संग्रहणीय है।
अरुणाचल प्रदेश के साहित्यप्रेमी तबके और लोक-साहित्य में जीने वाले लोगों के लिए भी यह पुस्तक बेहद जरूरी पाठ है। आशा है, देश भर की जैसी सकारात्मक प्रतिक्रिया मोर्जुम लोयी के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘मिनाम’ को मिला; वैसी ही प्रेम और शुभेच्छाएँ आपसब पाठक, सुधिजन इस संग्रह पर भी वारेंगे, यह अपेक्षा होना स्वाभाविक है।
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(Credit : ICSSR-IMPRESS)