Thursday 20 September 2018

यशपाल की स्त्री-दृष्टि का अंतःपाठ

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डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद
प्रोफसर (सहायक), हिन्दी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश, पिन : 791112
ई. मेल : rrprgu@gmail.com
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यशपाल हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार माने जाते हैं। उनकी वैचारिकी एवं सृजनशीलता में क्रांतिकारिता के स्वर एवं तेवर सबसे अधिक सुनाई पड़ते हैं। यशपाल ने साहित्यिक विधाओं के जरिए समाज की हकीकत और मानव मन की परतों को खोला। उनकी रचनात्मक पड़ताल में यथार्थ के पदचाप सर्वाधिक सुनाई पड़ते हैं। यशपाल के नाम का उल्लेख आते ही उपन्यास ‘झूठा सच’, ‘दिव्या’, ‘देशद्रोही’, ‘दादा कामरेड’, ‘अमिता’, ‘मनुष्य के रूप’, ‘मेरी तेरी उसकी बात’, ‘क्यों फंसें’ आदि का नाम दिमाग में घूम जाते हैं। साहित्य के सुधि पाठकों में से जिन्होंने भी इन उपन्यासों को पढ़ा है उनकी दृष्टि में यशपाल जनता के मन-मिज़ाज का सजीव-चित्रण करने वाले लेखक हैं। उनकी कहानियों के कुछ संग्रह महत्त्वपूर्ण हैं : ‘धर्मयुद्ध’, ‘पिंजरे की उड़ान’, ‘सच बोलने की भूल’, ‘फूलो का कुर्ता’, ‘ज्ञानदान’, ‘भस्मावृत्त चिनगारी’ इत्यादि। अन्य रचनाओं में व्यंग्य संग्रह ‘चक्कर क्लब’, संस्मरण ‘सिंहावलोकन’, वैचारिक साहित्य ‘गांधीवाद की शवपरीक्षा’ बेहद पठनीय और यशपाल की लेखकीय क्षमता के प्रमाण हैं। दरअसल, एक लेखक की दृष्टि में दुनिया-ज़हान की तमाम बातें केन्द्रीभूत होती हैं 
             इस दृष्टि से देखें, तो धुर मार्क्सवादी लेखकों में शुमार यशपाल हिन्दी भाषा के ऐसे ही यशस्वी कथाकार हैं जिनकी रचना-प्रक्रिया और रचना-दृष्टि का फलक काफी विस्तृत है। कई अर्थों में बहुआयामी और भाव-वैविध्य की सम्वेदना से परिपूर्ण भी।यशपाल की कहानियों में वर्ग-संघर्ष, मनोविश्लेषण और तीखा व्यंग्य इनकी विशेषताएँ हैं।‘[1] खासतौर से स्त्री-दृष्टि उनके प्रभूत साहित्य में सर्वाधिक स्पष्ट, मुखर और सुचिन्तित ढंग से परिव्याप्त है; लेकिन, सबकुछ मानवीय सहज-वृत्ति के साथ। यशपाल अपनी रचनाओं के भाव-बिम्ब में स्त्री की जिन्दगी की तिक्तता को ओजपूर्ण वाणी देते हैं; किन्तु उनके पात्र स्यापा करते कहीं भी दिखाई नहीं देंगे। यही यशपाल की रचनाधर्मिता की मूल विशेषता है, साहित्यिक-निकष है। यशपाल के सन्दर्भ में यह कहना उपयुक्त है कि वे महत्त्वपूर्ण से महत्त्वपूर्ण कथ्य, विचार और दृष्टि को साधारण बाने में अभिव्यक्ति प्रदान करने में पूर्णतया सक्षम हैं। यानी ‘‘यशपाल पूरी धमक के साथ लेखन की दुनिया में आये और केवल आये ही नहीं, उन्होंने अपने को अपनी पीढ़ी का सबसे कद्दावर लेखक भी सिद्ध कर दिखाया। यशपाल के यहाँ शैली और शिल्प का वह चमत्कार नहीं जो अंततः रचना कोठसबना देता है, बल्कि उनके पासठोसविषयवस्तु है जिससे पाठक को बहुत कुछ हासिल होता है।’’[2]
यशपाल अपने पहले कहानी-संग्रहपिंजड़े की उड़ानजो स्वाधीनतापूर्व 1939 0 में प्रकाशित हुई थी; की भूमिका में लिखते हैं-’’हमारी कल्पना का आधार जीवन की ठोस वास्तविकताएँ ही होती हैं इसीलिए कथा-कहानी के रूप में कल्पना का महत्त्व है। हमारी कल्पना या तो अतीत के सुख-दुख की अनुभूति के चित्र बनाकर उससे सुख उठाना चाहती है या आदर्श की ओर संकेत कर समाज के लिए नया नक्शा तैयार करने का यत्न करती है।’’ इस संग्रह का शीर्षकपिंजड़े की उड़ानमेंपिंजड़ाप्रतीक है बन्द मानसिकता का तथाउड़ानका अभिप्राय मुक्ति की कामना से है।  सर्वप्रथम उन्होंने कहानियों के माध्यम से (पिंजड़े की उड़ान-1939, वो दुनिया-1941) ईश्वर, ब्रह्मचर्य, पूजापाठ आदि प्राचीन मान्यताओं के विकृत विश्वासों, व्याभिचारों को अपनी लेखनी के माध्यम से प्रश्नांकित किया। यशपाल के पहले कहानी-संग्रहपिंजड़े की उड़ानकी अधिकांश कहानियों में पात्र, परिवेश और वर्णित घटनाक्रमों के मध्य अद्भुत संतुलन, प्रवाह और अन्विति का समावेशन है जो सहृदय पाठक को अंत तक संज्ञा-सम्पन्न और चेतनायुक्त बनाए रखती है। यशपाल मुख्यतः विचारों के लेखक हैं। उनकी दृष्टि में रूप, शिल्प, शैली इत्यादि द्वितीयक घटक हैं जबकि विचार का स्थान प्राथमिक और अन्यतम है। इसी विचार, कल्पना और यथार्थ ने मिलकर यशपाल को जिस सामाजिक यथार्थ का लेखक बनाया, उसमें यथार्थ-बोध या वस्तुज्ञान का सन्दर्भ बेजोड़ है। कहानी उनके लिए सामाजिक यथार्थ की सजीवता को अभिव्यक्त करने का माध्यम है। नतीजतन, कोरी भावुकता ने यशपाल को कभी प्रभावित नहीं किया। वे तर्क और युक्ति की कसौटी पर कसने के बाद ही किसी स्थापना को हृदयंगम करते थे। उनका मानना था कि प्रगतिवाद आदर्शों की उपेक्षा नहीं करता, वह मानव-समाज के लिए परिस्थिति और समय के अनुकूल आदर्शों को बनाने की मांग और इस अधिकार की दावा करता है।
दरअसल, ‘‘उन्होंने घटनात्मक रोचकता से नैतिक समझदारी की दिशा में आरम्भिक विकास यात्रा तय की और मध्यवर्गीय समस्याओं के निरूपण के लिए आर्थिक या मनोवैज्ञानिक या सांस्कृतिक आधार चुने।’’ (यशपाल की कहानियाँ: दृष्टि और रचना-प्रक्रिया) यशपाल की प्रारंभिक कहानियाँ चाहेमक्रील’, ‘नीरस रसिक’, ‘दुखी-दुखी’, ‘प्रायश्चित’, ‘मज़हब’, ‘संन्यासी’, ‘दूसरी नाक’, ‘मोटरवाली-कोयलेवाली’, ‘जहाँ हसद नहीं’; ऐसी कोई कहानी नहीं है जो समाज में से हो या जो इर्द-गिर्द के परिवेश अथवा वातावरण से अपना वास्तविक सम्बन्ध रखती हो। यशपाल की कहानियों के अधिसंख्य पात्र निम्न मध्यवर्ग या मध्यवर्गीय शहरी समाज से आते हैं जो सामाजिक विडम्बनाओं, विसंगतियों तथा अन्तर्विरोधों का शिकार हैं और त्रस्त भी। विशेषकर नारी पात्रों से सन्दर्भित कहानियाँ सामाजिक रूढ़ियों, मनोवृत्तियों, पुरुष-ग्रंथियों इत्यादि को आधार बनाकर रचे-बुने गए हैं। इन कहानियों के नारी पात्र/चरित्र स्वभाव से प्रतिक्रियावादी और प्रतिरोधी तबीयत के हैं जो यथास्थितिवाद और सामाजिक जड़ता के विरुद्ध स्वाभाविक विद्रोह करते दिखाई देते हैं। स्वाभाविक इस अर्थ में हैं कि ‘‘यशपाल की कहानियों में आर्थिक रूप से पिछड़ी नारी की परिस्थितियों और समस्याओं के विविध रूपों को प्रमुखता के साथ देखा जा सकता है। उन्होंने अपनी कहानियों में समाज में व्याप्त व्याभिचार, अनैतिकता, सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं, नैतिकता एवं मानवीय दुर्बलताओं के साथ जन्मने वाली प्रवृत्तियों को नारी पात्रों की मनोभूमि और मनोविकारों के साथ चित्रित किया है।’’[3]
हिन्दी के मार्क्सवादी कथाकार के रूप में यशपाल का नाम अग्रिम पंक्ति में शामिल है जिन्होंने माक्र्सवाद की साहित्यिक ज़मीन तैयार करने में अपना अप्रतिम योगदान दिया है। लेखन के प्रारंभिक दौर में यशपाल अपनी पत्रिकाविप्लवमेंमाक्र्सवाद की पाठशालानाम से धारावाहिक छापते थे।विप्लव कार्यालयजिसे साथी मित्रलाल कमराकहते थे; में अक्सर यह नारा गूँजता था-’उठ मेहनतकश अब होश में , हाथ में झण्डा लाल उठा।दरअसल, यशपाल विचारधारा को रचना का मेरुदण्ड मानते थे जिसके अभाव में रचना लुंज-पुंज होकर रह जाती है। यह यशपाल की क्रान्तिधर्मिता और विचारधारात्मक संघर्ष का संकेत था जिसे वे आजीवन निभाते रहे। कर्मठ व्यक्तित्व के धनी यशपाल का जीवन के संघर्षों से घनिष्ठता थी। वे जीवन के प्रतिकूल प्रवाहों में अविचलित रूप से चलना जानते थे। विवेक और न्यायभावना से पूरित यशपाल प्रगतिशीलता के प्रकाश-स्तंभ की भाँति थे। उनकी दृष्टि में साहित्य विद्रोह की भावना पैदा करने का एक साधन है और उससे जनता की क्रान्तिकारी चेतना का विकास होता है। यशपाल जीवनपर्यंत इसी दृष्टिकोण के हामी बने रहे। साहित्य के मार्क्सवादी दृष्टिकोण ने यशपाल को क्रान्तिकारी यशपाल के रूप में स्वीकृति दी।
यशपाल का स्वयं मानना था कि व्यवहार से निर्देशित माक्र्सवाद विश्व दृष्टिकोण है। यह अपनी मूल संकल्पना में दर्शनयुक्त विज्ञान है। यह ऐसा विज्ञान है जो समाज को बदलने में विश्वास रखता है। अतः सामाजिक परिवर्तन में आस्था और परिवर्तन की प्रक्रिया में भागीदारी मार्क्सवादी व्यक्तित्व का निर्माण करती है। यशपाल के इस मार्क्सवादी व्यक्तित्व ने हिन्दी मन के सामंती संस्कारों पर तीव्र कुठाराघात किया है। एक ओर जहाँ जनवादी चेतना को मुखरित किया, वहीं दूसरी ओर स्वाधीनता पूर्व की ज्वलंत समस्याओं का चित्रण पूरी व्यापकता के साथ सशक्त रूप में किया है। संकीर्ण आध्यात्मिक दृष्टिकोण, आरोपित सयंम, कुण्ठाओं और वर्जनाओं की जो जकड़न थी, उससे यशपाल का अन्तर्मन विद्रोह कर उठा था। प्रारंभिक कहानियों में यशपाल ने पातिव्रत्य, सतीत्व, वेश्या, कुलटा आदि की परम्परित व्याख्याओं पर जबर्दस्त चोट करते हुए पुरुष के अहंवादी मिथ्याभिमानी स्वरूप को उकेरा है। सामाजिक कर्मकाण्ड की ओट में स्त्रियों को जो शारीरिक और मानसिक यंत्रणाएँ दी जाती थीं; उसकी सच्ची तस्वीर यशपाल ने खींची है। ‘‘वास्तव में पूरे विश्व मेंसभ्यताके विकास का इतिहास स्त्री के दमन शोषण का इतिहास भी रहा है। परन्तु इस लिंग आधारित दमन शोषण के प्रतिकार का इतिहास अदृश्य ही है। वर्तमान स्वरूप में, स्त्री का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष, आधुनिक राष्ट्र की उपज है।....आरंभिक वर्षों में स्त्री की स्थिति सुधारने की दिशा में कई ठोस कदम उठाए गए परन्तु ये सामाजिक क्षेत्र तक ही सीमित रहे। इस दौरान, स्त्रियों को स्थानीय, प्रान्तीय तथा राष्ट्रीय सरकारों में कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। उनको मताधिकार भी प्राप्त नहीं था।  हालांकि सम्भ्रान्त वर्गों की स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा मिलने से उनका बौद्धिक स्तर सुधरा लेकिन सन् 1700 तक तो उनको विश्वविद्यालयों में प्रवेश दिया जाता था और ही समान काम करने पर समान मजदूरी मिलती थी। विवाह के बंधन में ही उनका भविष्य सुरक्षित माना जाता था।’’[4]
संभवतः इसीलिए यशपाल के कथा-लेखन का केन्द्रीय बिन्दु भारतीय समाज में स्त्री की स्वाधीनता का प्रश्न है। उन्होंने बदलते हुए समाज-जीवन की नब्ज़ पहचानकर ऐसी स्त्रियों को अपने कहानियों में स्थान दिया जो अस्तित्व के लिए जागरूक और अपनी स्वतंत्रता की पक्षधर हैं। स्वभाव और प्रकृति में स्वाभिमानी ये स्त्रियाँ पुरुष के मिथ्याहंकार पर जबर्दस्त चोट करती हैं, उन्हें चुनौती देती हैं। यशपाल स्त्री-जीवन के अन्तद्र्वन्द्व, मनोव्यथा, खीझ, चुप्पी, छटपटाहट, स्त्रीजन्य भावुकता इत्यादि को स्त्री-मन के धरातल पर जाकर पकड़ने की चेष्टा करते हैं। यशपाल की कहानियों में शब्दाडम्बर का कहीं कोई स्थान नहीं है। कृत्रिम बनाव-शृंगार का लेशमात्र भी दरपेश नहीं दिखाई पड़ता है। यानी चमत्कार और रहस्योद्घाटन की प्रवंचना से दूर यशपाल की कहानियाँ स्त्री-मन और देह की गुलामी का सच बयां करती हुई प्रतीत होती हैं वह भी बहिष्कार के रूप में। यशपाल इस तथ्य से भिज्ञ हैं कि सामन्त एवं पूँजीपति वर्ग अपने स्वार्थ और कामुकता के लिए नारियों का शारीरिक एवं मानसिक शोषण करता रहता है। यह वर्ग प्रायः नारी की भावनाओं और सम्वेदनाओं के साथ खिलवाड़ करता है। कई मर्तबा ऐसी नौबत भी आते हैं कि जीवन की मामूली लेकिन जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक स्त्री को अपना देह समर्पण करने के लिए विवश होना पड़ता है। इस ध्रुवसत्य की अभिव्यक्ति यशपाल की ही कहानीदुखी-दुखीमें मिलती है-’’मैं समझता हँू, चार दिन निरन्तर भूखा रहने से मनुष्य में विवेक और व्यक्तित्व नहीं रह जाता।’’
यशपाल की विचारशील दृष्टि स्त्री के किसी भी तरह की गुलामी के ख़िलाफ है। वे स्त्री-दासता के इन जंजीरों को तोड़ना चाहते हैं। यही नहीं यशपाल नारी को समानाधिकार देने के समर्थक हैं। उन्हीं के शब्दों में-’आज हमारे समाज का आधा भागनारी, समाज की कठिनाई और संघर्ष में अपने आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दायित्वों को समझें, वे केवल पुरुषों के कंधों पर बोझ बनी रहें।’’ दरअसल, यशपाल अपनी कहानियों के माध्यम से उनमें प्रतिरोध की चेतना पैदा करना चाहते हैं। मुक्तिकामी संघर्ष की दिशा में आगे बढ़ने के लिए वे उन्हें वैचारिक ऊर्जा, शक्ति और संजीवनी प्रदान करते हैं। यशपाल का एकमात्र ध्येय भारतीय नारी को परम्पराओं और सामाजिक नैतिकता के बन्धनों से मुक्त करके, उन्हें जीवन की सहज स्वच्छन्दावस्था में देखना है।
इस प्रकार यशपाल ने नग्न यथार्थ के विसंगतिपूर्ण अन्तर्विरोधों का खुलासा किया है, उसका नग्न कुत्सित रूप प्रस्तुत किया है ताकि समाज का क्रूरधर्मा, घिनौना, अमानवीय कृत्य प्रत्यक्ष हो सके और पूरी क्षमता के साथ स्त्री-चरित्र मुक्ति की तलाश कर सके। उन्होंने स्त्रियों की बदतर स्थिति के लिए जिम्मेदार ताकतों सत्ता के मद के चक्कों के नीचे पिसती स्त्री की कराह और संघर्ष को अपने कहानियों में सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है। यह अभिव्यक्ति सामाजिक-संरचना में वर्ग तथा वर्ण की विसंगतियों, शोषक-शासक पुरुष मात्र के उद्दाम भोग-विलास, नारियों के संत्रास उसकी विवशता का बड़ा तीखा मार्मिक चित्रण किया है। स्त्री सर्वथा पराधीन नहीं है, वह अपने अधिकारों के लिए संघर्षशील है। वह मानसिक अन्तद्र्वन्द्वों और भौतिक संघर्षों के बीच भी अपना अस्तित्व स्थापित करने में पूर्ण सफल है।  यशपाल अपने स्त्री पात्रों से मानवोचित व्यवहार की अपेक्षा करते हैं; स्त्री होने के नाते सिर्फ स्त्रियोचित व्यवहार की कामना या आकांक्षा नहीं पालते जिसे पितृसत्तात्मक समाज ने दंभपूर्वक उसके ऊपर थोप दिया है।
 उत्तर आधुनिक कहे जाने वाले इस युग में तमाम तरह की विषमताओं के मध्य लैंगिक विषमताओं का प्रधान्य निश्चित रूप से एक सामाजिक त्रुटि के रूप में विद्यमान है। आज इसके हवाले सेफ्री सेक्स’, ‘सेक्स वर्करऔरलिव इन रिलेशनकी सामाजिक स्वीकृति की माँग को वैध बनाने की आवाज धीरे-धीरे मजबूत हो रही है। इस स्थिति में यशपाल की स्त्री-दृष्टि का प्रश्न निश्चित रूप से बहसतलब है। यशपाल के यहाँ काम-प्रसंग समग्र जीवन का अंश बनकर आते हैं, जीवन-प्रसंग का समग्र नहीं। यह एक महत्त्वपूर्ण अंतर है। इस अंतर के कारण यशपाल का साहित्य अश्लील हो जाने से सिर्फ बचता है, बल्कि अश्लीलता के विरुद्ध नव सामाजिक नैतिकता की मानवीय तलाश भी करता है। खोजबिन के इस क्रम में, ‘‘यशपाल ने नारी की पराश्रिता और उसके दासत्व को मानवता के कलंक के रूप में देखा। यशपाल का जीवन-दर्शन अपने मूल में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी ही था। यह दृष्टि तो परम्परित नैतिक मर्यादाओं की जकड़न का समर्थन करती है और ही निर्बाध भोगेच्छा की हामी है। यह सोच व्यक्ति को मुक्त काम सम्बन्धों के प्रति उन्मुख होकर अराजक, उच्छृंखल होने की छूट नहीं देती वरन् नैसर्गिक सहज-सच्चे प्रेम के प्रति लगाव बरतती है जिसकी वजह से पूर्णता और आत्मविस्तार का दावा करने वाली विवाह संस्था पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा किया।’’[5]
यशपाल स्त्री के प्रेम और विवाह में उसकी अपनी इच्छा और अधिकार को भी सर्वोपरि मानते हैं। वेविवाहऔरपरिवारजैसी संस्थाओं पर पुनर्विचार करते हैं। विवाह में होने वाले धार्मिक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं। आपसी समझ, सम्वेदना और साझेदारी का भाव ही प्रेम, दाम्पत्य और परिवार जैसी संस्थाओं को सार्थक और प्रासंगिक बने रहने दे सकते हैं। इन्हें बनाये रखने की जितनी जिम्मेदारी स्त्री की है, उतनी ही पुरुष की भी है। यशपाल के यहाँ जाग्रत आत्मचेतस और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर स्त्री ही अपने अधिकार की रक्षा कर सकती है क्योंकि पूँजीवादी मनोवृत्ति स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता का विरोध करके, स्त्री को अपनी भोग की वस्तु बनाए रखना चाहती है। अतः स्त्री-स्वातंत्र्य के लिए यशपाल स्त्री की आत्म-निर्भरता आवश्यक मानते हैं। यद्यपि पूँजीवादी व्यवस्था में स्त्री-पुरुष दोनों का शोषण होता है, परन्तु पैतृक प्रणाली के चलते उत्पीड़न मात्र महिला का होता है; परिवार के भीतर भी और बाहर भी। मार्क्सवादी अवधारणा से संपृक्त नारीवाद एक ऐसी अवधारणा है जोपुरुष प्रभुत्व और महिला की अधीनताके आलोचनात्मक विश्लेषण के आधार पर सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक बदलाव का आग्रह करती है।
इस सन्दर्भ में उदारवादी नारीवादी मेरी वोल्स्टोन क्राफ्ट और मिल ब्रदर(जाॅन स्टुअर्ट मिल और हैरिएट टोलर मिल) का कथन द्रष्टव्य है जो 1851 0 में प्रचारितThe Subjection of Women’ (महिलाओं की अधीनता) में सम्मिलित है, ‘‘महिलाएँ मानवजाति का सदस्य होने के नाते तार्किक विचार में सक्षम होती हैं और पुरुषों की तरह समान प्राकृतिक अधिकारों की हकदार होती हैं। स्त्रियों पर आरोपित पतिव्रता, मृदुता और आज्ञाकारिता के गुण सामाजिक अनुकूलन की उपज होते हैं जो महिलाओं की प्राकृतिक विशिष्टताएँ होने के बजाए मुख्यतः यौन वस्तुओं के रूप में उन्हें गढ़े जाने का नतीजा होती है। उनकी कथित प्राकृतिक कमजोरियाँ, उनकी अतार्किकता और उनके स्वच्छन्द मन, वास्तव में उनकी शिक्षा की कमी, चयन की आज़ादी का अभाव, पुरुषों पर उनकी निर्भरता तथा उनके दोषपूर्ण समाजीकरण की उपज होती है। अतः उनके पास अपने पतियों के दुव्र्यवहार से बचने के लिए आर्थिक सहारा अवश्य होना चाहिए।’’[6]
यह सरलीकृत व्याख्या होकर एक परीक्षित तथ्य है कि पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को सदैव कठोर बन्धन में बाँध कर रखा गया, इसीलिए उसका स्वतंत्र बौद्धिक विकास नहीं हो पाया, ठीक उसी प्रकार जैसे पिंजरे में बन्द चिड़िया के लिए पिंजरा ही दुनिया है। कहानीतीसरी चितामें यशपाल ने इस बानगी पर दृष्टिपात किया है-’’पति के स्वयं व्यभिचारी होने पर भी भद्र समाज में उसके लिए गुंजाइश है परन्तु जिसकी स्त्री असती है उसके लिए भद्र समाज क्या, समाज के निचले तबके में भी स्थान नहीं। कोढ़ी से भी अधिक अछूत और भ्रूण-घातक से भी अधिक जघन्य वह व्यक्ति है।...एक युग था जब पुरुष असती नारी और उसके प्रेम-पात्र के रक्त से अपने पौरुष के अपमान का कलंक धो सकते थे, कलंकिनी को कमर तक गड़वा कर कुत्तों से नुचवा सकते थे। उस समय वही न्याय था, यही मर्यादा थी।’’[7] राजेन्द्र यादव लिखते हैं-’’स्त्री हमारा अंश और विस्तार है। वह हमारी ऐसी जन्मभूमि है जिसे हमने अपना उपनिवेश बना लिया है।...आदमी हमेशा से से नारी की स्वतंत्र सत्ता से डरता रहा है, और उसे ही उसने बाकायदा अपने आक्रमण का केन्द्र बनाया है। अपनी अखण्डता और स्वतंत्रता में नारी दुर्जेय और अजेय है।’’(राजेन्द्र यादव, आदमी की निगाह में औरत) इससे स्पष्ट है कि पुरुषों ने किस तरह स्त्री के आर्थिक असुरक्षा के भाव का दोहन और अपने साधन के रूप में उपयोग उपभोग किया है। जबकि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और वास्तविकता इसके ठीक उलट है। यशपाल अपने कहानी-संग्रहपिंजड़े की उड़ानमें संकलित कहानीसमाज सेवामेंसभ्यता के विकास में नारी का स्थानविषय पर प्रसंगानुकूल टिप्पणी करते हैं-’’प्रोफेसर आदरे ने दक्षिण द्वीपों के अर्ध-जंगली समाज, आस्ट्रेलिया के बुश्मैन तथा नीग्रो और रेड-इण्डियन लोगों की सामाजिक व्यवस्था के चित्र दिखा कर यह बताया कि समाज में संयोजक और व्यवस्थापक का स्थान दरअसल नारी का है। पुरुष समाज निर्माण और सुव्यवस्था के लिए नारी का आभारी है और भविष्य में नारी फिर अपना स्थान ग्रहण कर समाज को पागल हो जाने से बचाएगी।’’[8]
दिव्या’, ‘अमिता’, ‘झूठा सच’, ‘अप्सरा का शाप’, ‘मेरी तेरी उसकी बातइत्यादि बहुचर्चित बहुप्रशंसित उपन्यासों के लेखक यशपाल की कहानियों में विवेक-विक्षोभ से पूरित एक सक्रिय आलोचनात्मक दृष्टि उपस्थित है जो स्त्री की स्वतंत्रता का पक्षधर है। सन् 1939 0 में प्रकाशित कहानी-संग्रहपिंजड़े की उड़ानसे लेकर अन्तिम कहानी-संग्रहलैम्पशेडजो सन् 1979 0 में प्रकाशित हुई थी; तक के रचनात्मक सफ़र में यशपाल ने जीवन के कई उतार-चढ़ाव, पड़ाव, रूप और स्तर देखें; लेकिन उन्होंने कभी अपने विचारधारा, मूल्य और जीवन-दृष्टि से समझौता नहीं किया। यशपाल स्वयं एक पुरुष होते हुए भी स्त्री को पुरुष के हाथ की कठपुतली कभी नहीं माना। उनकी दृष्टि में आर्थिक रूप से स्वतंत्र नारी सामाजिक बंधनों के संकुचित दायरे में बंद दाम्पत्य जीवन की कृत्रिम नैतिकता एवं अत्याचार और दमन के विरुद्ध कठोर कदम उठा सकती है। यहाँ वह अपने व्यक्तित्व की आहुति नहीं देती, बल्कि समाज की प्रगति में पुरुष के समानांतर चलती है। मार्क्सवादी दर्शन की प्रतिबद्धता के कारण यशपाल हर प्रकार के सामाजिक शोषण का मुख़ालफत करते हैं-वह शोषण चाहे पूँजीपतियों द्वारा सर्वहारा वर्ग का हो या पुरुष द्वारा नारी का। कोई भी मार्क्सवादी कलाकार समतामूलक समाजवादी व्यवस्था की स्थापना को अपना प्रमुख उद्देश्य मानता है, जिसके लिए शोषणमूलक समाज-व्यवस्था का निमूर्लन आवश्यक होता है। यशपाल मार्क्सवादी कलाकार हैं, इसलिए उनके साहित्य का सर्वप्रमुख प्रयोजन है समाज के शोषण का अन्त।....शोषण का अन्त तभी संभव है जब समाज की जीवन-दृष्टि वैज्ञानिक चिन्तन पर आधारित हो। शोषक वर्ग अपना शोषण क्रम बनाए रखने के लिए परम्परागत नैतिकता और न्याय, कर्मकाण्ड और धर्म तथा ईश्वर आदि का सहारा लेकर समाज को दिग्भ्रान्त करने का हरसंभव प्रयास करता है। ये शोषक वर्ग के सबसे बड़े शोषण-अस्त्र हैं। इन संहारक अस्त्रों का मुलम्मा उतार फेंकने और उन्हें शोषकों का हथकंडा सिद्ध करने के लिए यशपाल सोद्देश्य साहित्य-सर्जना करते हैं।
यशपाल की स्त्री-सापेक्ष्य दृष्टि और उनके सम्पूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व के बारे में कुंवर नारायण लिखते हैं-’’माक्र्सवाद या किसी भी विचारधारा को लेकर वे एक आसानीपसंद जीव नहीं थे। वे मानते थे कि साहित्य को केवल माक्र्सवाद का साहित्यिक उदाहरण नहीं होना है, सबसे पहले अपनेआप में एक जायज़ साहित्यिक कृति होनी चाहिए।’’[9] यशपाल की कहानियों में अभिव्यक्त स्त्री-दृष्टि सदैव जहाँ कहीं भी अत्याचार, दमन, शोषण, उत्पीड़न है, वहाँ केन्द्रित रही। स्त्री दोहरे शोषण का मार झेलती है, अतः यशपाल के कहानियों के मूल में स्त्री है। वह स्त्री को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्वतन्त्र देखना चाहते हैं। उनका विचार है कि आर्थिक रूप से सबल नारी को ही पुरुष सत्तात्मक समाज, जब चाहे तब आँखों के इशारे से कठपुतली की तरह नचा नहीं सकता। आर्थिक रूप से सशक्त स्त्री अपने विचारों और अपनी अस्मिता के लिए आवाज उठाती है, परिस्थितियों से संघर्ष करती है। स्त्री विचार की स्वतंत्रता, निर्णय की स्वतंत्रता चाहती है। वह परिवार रूपी पिंजरे में बन्द पंक्षी की भाँति जीवन नहीं गुजारना चाहती। वस्तुतः यशपाल स्त्री के सदियों से सुप्त मन को जगाना चाहते हैं। वे उनके भीतर संभाव्य चेतना विकसित कर यह दिखाना चाहते हैं कि धर्म और नैतिकता के नाम पर सृजित सामाजिक संस्थाओं ने सदा स्त्री की परिधि को समेटा है, पुरुषोचित सीमा या लक्ष्मण-रेखा में घेरा है। यह व्यवस्था पवित्रता के नाम पर एकनिष्ठतापूर्ण समर्पण, सतीत्व और यौन-शुचिता की माँग करता है। यह सम्पूर्ण व्यवस्थागत घेराबन्दी, नियम सिद्धान्त स्त्री पर ही आरोपित और उन्हीं के लिए प्रक्षेपित है। अपनी मूल सम्वेदना में यशपाल की अन्तर्भेदी विचार-दृष्टि इसकी जड़ों को तलाश कर स्त्री को वैचारिक संघर्ष और व्यक्तिगत विद्रोह के लिए प्रेरित करती है।
अतः अजस्त्र प्रेरणा के स्रोत होने के कारण यशपाल आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने छह दशक पूर्व थे। अब तो छिद्रान्वेषी आलोचक तक यह स्वीकार कर चुके हैं कि यशपाल तीव्र राष्ट्रीय चेतना के लेखक हैं। उनके लेखन में वर्ग-भेद और लिंग-भेद के प्रश्न सर्वाधिक मुखर हैं। यशपाल स्पष्टतः यथास्थिति के खिलाफ खड़े हुए लेखक हैं। अतएव, नारी-विमर्शकारों और नारीवाद समर्थक बौद्धिकों को यशपाल-साहित्य में अन्तर्विष्ट व्यापक स्त्री-दृष्टि के पुनर्मूल्यांकन पुनर्पाठ को लेकर सम्वेदनशील ढंग से विचार करने की आवश्यकता है, ताकि भारतीय साहित्य की स्त्री-दृष्टि सही सन्दर्भो और वास्तविक अर्थों में अद्यतन और विस्तीर्ण किया जा सके।
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[1] https://www.bharatdarshan.co.nz/author-profile/44/yashpal-jan-biography.html
[2] पंत, प्रदीप;इन्द्रप्रस्थ भारती
[3] वर्मा, (डाॅ) अनुपम कुमार, पृ0 126
[4] जोशी, गोपा; भारत में स्त्री असमानता; पृ0 3
[5] वर्मा, (डाॅ) अनुपम कुमार, पृ0 109
[6] आर्य, (सं) साधना;नारीवादी राजनीति, संघर्ष एवं मुद्दे’; पृ0 23
[7]तीसरी चिता’ कहानी में, ‘पिंजड़े की उड़ान’ कहानी-संग्रह से उद्धृत; पृ0 70
[8]समाज सेवा’ कहानी में, ‘पिंजड़े की उड़ान’ कहानी-संग्रह से उद्धृत; पृ0 25
[9] नारायण, कुंवर;क्रान्तिकारी यशपाल’, पृ0 43