Saturday 24 March 2018

बहुत कुछ कहते रहने के बीच

हम जो लिखते हैं उसमें स्वयं के होने की गूंजाइश ढूंढते हैं। मेरे पास किसी से कुछ भी कहने के लिए विशेष नहीं है। यह जो कुछ भी है अपने होने की परिपुष्टि है।
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साभार: गूगल इमेज

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              राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्रोफेसर, हिंदी 
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोइमुख
अरुणाचल प्रदेश-791112
मो. 9436848281
ई. मेल: rrprgu@gmail.com


यह युग उत्तर शती का है। मानव-संचार अथवा जन-सम्प्रेषण के लिए ‘न्यू मीडिया’ अभिव्यक्ति का नया ‘टाॅनिक’ है। यह खुराक ‘पर्सनल’ और ‘सेल्फीयुक्त’ है तो ‘ग्लोबल’ और ‘मल्टीडाइमेंशनल’ भी। हाल के दिनों में मीडिया के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन देखे जा सकते हैं। बीती सदी की आधुनिकता आज उत्तर-आधुनिकता के वेश-बाने में उपस्थित है। संचार-साधनों के प्रचार-प्रसार, विकास-विस्तार, आवाजाही-अभिसरण इत्यादि ने इस दौर में अनगिनत संभावनाओं को सृजित किया है, तो विभिन्न कार्य-क्षेत्रों में वैयक्तिक भागीदारी और यांत्रिक अनुप्रयोग सम्बन्धी क्रियाकलाप को बेहद तीव्र बना दिया है। 

थोड़ा रूकें, हल्का ‘पाॅज’ लें; अब सोचिए कि, इस तीव्रता से बचने का उपाय क्या हो? न्यू-मीडिया या सोशल-मीडिया के ऊपर सारा ठीकरा फोड़ना सही नहीं है। इस वैकल्पिक माध्यम को सबसे पहले समझना आवश्यक है। क्योंकि ‘सोशल जगत’ में प्रयुक्त भाषा विशेषकर शब्द सर्वाधिक विरुपित, विकृत, विभाजित, विखण्डित दिखाई दे रहे हैं; अर्थ तो मानो पलायित हो गए हैं। शब्द को सुनकर अर्थ लेने की प्रक्रिया हमारे भीतर चल ही रही होती है कि दूसरा शब्द आ धमकता है। हम अर्थहीन दशा में दूसरा शब्द लपक लेते हैं। इस तरह के संचार में प्रायः होता यह है कि हमारी शब्द पर निर्भरता बढ़ती जाती है और उसका अर्थ हम इस प्रक्रिया में खोते चले जाते हैं। मेरी समझ से व्यक्ति-भाषा (आइडोलेक्ट) के संज्ञान, संवेदन, अर्थबोध, प्रत्यक्षीकरण, प्रत्यय-निर्माण, विवेक-विक्षोभ, चयन, प्रस्तुति, प्रभाव आदि मनोभाषिक पक्ष भी बदल चुके हैं या इरादतन बदल दिए जा रहे हैं। मीडिया-विशेषज्ञ की राय में, हालिया अध्ययनों से पता चलता है कि सोशल नेटवर्किंग समूचे विश्व में सर्वाधिक आॅनलाइन (इंटरनेट आधारित) गतिविधि बनकर उभरी है। इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि राजनीतिक जीवन में सोशल मीडिया की प्रासंगिकता पर अब कोई संदेह नहीं रह गया है। सामाजिक और राजनीतिक कार्यों (सम्पर्क, संवाद, सामंजस्य, वैश्विक पहुँच, अपेक्षा पर खरा उतरना, कम लागत में उपयोगी शिक्षा, सूचनाओं की त्वरित साझेदारी इत्यादि) के लिए फेसबुक, ट्विटर और सोशल मीडिया के अन्य मंचों का उपयोग अब आम होता जा रहा है। राजनीतिक सक्रियता के इन रूपों से भयभीत होते हुए सरकारों ने बदले की कार्रवाई का रास्ता भी अपनाया है। अब तक जो लोग औपचारिक और संस्थागत राजनीति से जुड़े रहे हैं वे सोशल मीडिया की शक्ति से हतप्रभ हैं।

आइए, इस ओर बौद्धिक-घुसपैठ करें। मानव-प्रकृति के ज्ञापन अथवा बोधन की दो इकाई प्रमुख है: पहला, संवेग और दूसरा विचार-प्रणाली। संवेग जहाँ गतिशील है, तो विचार-प्रणाली में स्थिरता की माँग अपेक्षित है। लेकिन आज जनमाध्यमों का चैतरफा दबाव बढ़ जाने से संवेग और विचार-प्रणाली दोनों गतिशील हो गए हैं वह भी ‘दूरंतो’ (सुपरफास्ट) की गति से। अनुप्रयुक्त भाषा को संचार-माध्यमों द्वारा जिस रूप, आकार, बनावट और ढाँचे में पेश किया जा रहा है वह अप्रत्याशित और अजीबोगरीब माध्यम-सम्मोहन का शिकार है। यानी उसकी गति, आवृत्ति, दायरा, सूक्ष्मता, स्थूलता, कलात्मकता, प्रभावशीलता, अर्थवत्ता, शब्दार्थ आदि पूर्व में प्रचलित पारम्परिक जनमाध्यमों के मानक से सर्वथा भिन्न प्रकृति एवं स्थिति में (सायास/अनायास) उपस्थित हैं। अर्थात् संचार, भाषा, समाज, संस्कृति, कला, साहित्य, दर्शन, मनोविज्ञान, मानवविज्ञान, समाजविज्ञान आदि की अंतःगतिकी ने मानव-संचार एवं उसमें प्रयुक्त भाषा के वैचारिक भूगोल को बदल दिया है, तो अनपेक्षित उलटफेर जारी है। जनमाध्यमों से जन का जुड़ाव कम घेराव अधिक व्यापक हुआ है। वह भिन्न-भिन्न गण-गुट, समूह-समुदाय, पक्ष-विपक्ष आदि के समर्थन-विरोध या कि संवाद-विवाद द्वारा स्वयं के होने को प्रमाणित कर रहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि भारत की अधिसंख्य आबादी में असंतोष बढ़ रहा है। स्त्रियाँ असुरक्षा के पुरुष-माँद में फँसी हुई हैं, तो गरीब जनता धनिक राजनीतिज्ञों की रहनुमाई में जीने को अभिशप्त है। चारों ओर वणिक-वृत्ति हावी है तथा मुनाफे की मनचली संस्कृति ने मीडिया को ख़बरफ़रोशी के धंधे में उतार दिया है। गोया, इस मुल्क में दो-तिहाई आबादी खेती से ताल्लुक रखती है, पर खेती करने वाले गहरे संकट में हैं। किसानों की आत्महत्या हर तरह के राजनीतिक दावे और बचाव पर चोट करती दिखाई देती है। अगर संगठित क्षेत्र के एक छोटे-से हिस्से को छोड़ दें, तो किसान ही नहीं, दूसरे तबके भी आर्थिक असुरक्षा महसूस कर रहे हैं। फिर, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ दिनोंदिन महँगी होते जाने की वजह से भी उनमें अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा-बोध बढ़ा है। विभिन्न समुदायों के बीच असहिष्णुता और समाज में एक-दसरे को सहारा-संबल देने की भावना भी कमजोर पड़ती जा रही है। हमें मीडिया विशेषज्ञों द्वारा एक साथ कही जा रही दो तरह की बातों से ‘कंफ्यूज़न’ होगा पर यह सच है कि, ‘‘भारत में सोशल मीडिया का प्रभाव दिनोंदिन बढे़गा और यह कई तरह से आबादी के विभिन्न सामाजिक और आर्थिक वर्गों पर असर डालेगा। इसमें उपयोगिता सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करना, कलाओं के व्यापारिक और वाणिज्यिक सहित विभिन्न प्रवृत्तियों को प्रभावित करना, समाज में उपेक्षित वर्गों को अधिकारिता प्रदान करना और लोकतंत्र को सुदृढ़ करने जैसे रचनात्मक प्रभावों के साथ-साथ अफवाह और असत्य जानकारियों के प्रसार के जरिए अव्यवस्था तथा अराजकता पैदा करने जैसे दुष्प्रभाव भी शामिल हैं।’’ सैम पित्रोदा इसके पक्ष में तर्क देते हैं, ‘‘सरकार में संचार की प्रचलित पद्धतियों और प्रेस-विज्ञप्ति आदि परम्परागत पद्धतियों को फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब में बदला जा सकता है। इसके अलावा चूँकि परम्परागत मीडिया मौद्रिक निर्णयों और स्थापित विचारों से निरन्तर अधिशासित है, इसलिए सोशल मीडिया नागरिकों की अधिक निष्कलंक आवाज़ के रूप में उपयोग और सही अर्थों में लोकतंत्र बनेगा जिसके पास अपने कार्यों को रूपांतरित करने और सरकार के साथ इंटरफेस करने की शक्ति होगी।’’ इस बारे में पैट्रिक एस. एल. घोष और परंजय गुहा ठाकुरता के विचार समीचीन हैं, ‘‘सोशल मीडिया सामाजिक नेटवर्किंग वेबसाइटों जैसे-फेसबुक, ट्विटर, लिंकर, यू-ट्यूब, लिंक्डाइनख् पिंटरेस्ट, माइस्पेस, साउंडक्लाउड और ऐसे ही अन्य साइटों पर इस्तेमालकर्ताओं को विचार-विमर्श, सृजन, सहयोग करने तथा टेक्सट, इमेज, आॅडियो और वीडियो रूपों में जानकारी में हिस्सेदारी करने और उसे परिष्कृत करने की योग्यता और सुविधा प्रदान करता है। यह सच है कि सोशल मीडिया ने ‘इंटरनेट का लोकतंत्रीकरण’ किया है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसने भाषण और अभिव्यक्ति के आदर्शों को संरक्षित किया है, किन्तु इसके साथ यह भी उतना ही सही है कि इसने ऐसे दैत्यों को भी जन्म दिया है जो घात लगाए रहते हैं और लगता है कि उनकी संख्या बढ़ रही है। हाथ में रखे जाने वाले मोबाइल उपकरणों जैसे-स्मार्टफोंस और टैबलेट्स की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है और इन उपकरणों पर इंटरनेट की उपलब्धता से वास्तविक समाजीकरण में तात्कालिकता की भावना कई गुणा बढ़ गई है। इसके जरिए न केवल अतिसंवेदनशील और युवा दिलों को प्रभावित करने वाली अनुचित सामग्री आसानी से उपलब्ध हो जाती है, बल्कि निंदनीय मानसिकता वाले व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार के जघन्य प्रयोजनों के लिए इस माध्यम का इस्तेमाल करने की छूट भी मिल जाती है। जैसे: ‘साइबर बुलिंग’ (साइबर बदमाशी), ‘साइबर स्टाॅकिंग’ (साइबर पीछा करना), अफवाहें फैलाना, सनसनीखेज सूचना, भ्रामक तथ्य इत्यादि।

अनन्त संभावनाओं के बीच तैरते उपर्युक्त दुःश्चिंताओं के बीच हम खड़े हैं। संचार-क्रान्ति और सूचना-राजमार्ग के रास्ते हम बाज़ार में दाखिल हो रहे हैं। न्यू इंडिया प्लान में ‘डिजिटल इंडिया’ का नारा गौरतलब है। इसका सबसे बड़ा लाभार्थी युवा वर्ग है। युवाओं में स्वस्थ वैचारिकी एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के निर्माण में इज़ाफा समसामयिक चुनौती है जिससे हमें निपटना है। ‘नेट न्यूट्रीलिटी’ की पैरोकारी कंठ की मानें तो नानाविध वेबसाइटें हमारी समझ को बढ़ाने, जिज्ञासा को शांत करने, तो हमारी बहुविध अभिरुचियों के संवर्द्धन-परिष्कार में मदद पहुँचाने वाली हैं। मीडिया जानकार अतुल पंत की दृष्टि में, ‘‘सूचना संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) आधारित सोशल मीडिया के आविर्भाव ने अध्ययन और शिक्षा में नवाचार की गति को उल्लेखनीय तेजी प्रदान की है।’’ दरअसल, यह आधुनिक भारत का वह (वर्चुअल)दृश्य-चित्र है जिसका गुणगान अहर्निश जारी है। जबकि ज़मीन अब भी बंजर, ऊसर और अनउपजाऊ है। दावा है कि ब्यूरोक्रेटों, टेक्नोक्रेटों और डेमोक्रेटों की संगठित टोली सम्पूर्ण भारत का कायाकल्प कर देगी। यह और बात है, शिक्षा, स्वास्थ्य, नीति, योजना, समाज, संस्कृति, कला, संसद, शासन, न्याय, व्यवस्था, मीडिया, मैनेजमेंट आदि क्षेत्रों में संभावित बयार अब तक बही नहीं है, लेकिन जनाकांक्षा बरकरार है। 

राजनीतिक दृष्टि से देखें, तो इन दिनों प्रत्यक्ष जनतंत्र एक संवादहीन रस्म-अदायगी में तब्दील हो चुका है। संवाद और रस्म-अदायगी का शब्दार्थ और उसका भिन्नार्थ स्पष्ट है। ध्यातव्य है कि ‘संवाद’ यानी सम्पर्क का माध्यम और विचारों का आदान-प्रदान। दूसरे शब्दों में, संवाद यानी लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव, इसकी बुनियाद। लेकिन बदले हुए माहौल में आज एक नए शब्द ‘रस्म-अदायगी’ का चलन बढ़ा है। रस्म-अदायगी यानी रूढ़ियों पर आधारित, निर्जीव और यांत्रिक व्यवहारों पर टिकी शासन-व्यवस्था। लोकतन्त्र आज भी हमारा सामाजिक संस्कार या कि राजनीतिक शुचिता का वास्तविक मार्गदर्शक नहीं बन सका है। सामूहिक-बल के अभाव में व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति का लोकतंत्र में उत्तरोत्तर उभार भारतीय राजनीति की असल सचाई है जिसमें संज्ञान, संवेदनशीलता, जवाबदेही, चिंतन, विचार-प्रणाली, मानवीय संस्कार, नैतिक आस्था, धार्मिक विश्वास, लोक-मर्यादा आदि के लिए सबसे कम जगह बचा है। मनीषी बुद्धिजीवियों की दृष्टि में, आधुनिकीकरण भी ‘वरण’ न होकर ‘आरोपण’ की तरह उपजा है जो बाज़ारीकृत और वर्चस्ववादी-ताकतों का सहोदर है जिनका एकमात्र लक्ष्य ‘मुनाफे की संस्कृति’ को पैदा कर भारतीय जनमानस की चेतना और आत्मबल को सोख लेना है।

यह सब सच होते हुए भी भारतीय प्रगति एवं समृद्धि का उल्लेख किया जाना भारतीय जनमानस का महिमामंडन नहीं, अपितुु वह सचाई है जिससे मुकरना अब कतई संभव नहीं रह गया है। अन्तर्सांस्कृतिक एवं अन्तरराष्ट्रीय परिसंवाद का बदला हुआ संचार-शास्त्र ‘न्यू मीडिया’ के रूप में अवतरित है। अब इंटरनेट राजनीतिक दायरेे अथवा वैश्विक घेरेबंदी तक सीमित नहीं रह गया है। तमाम कटुक्तियों-आलोचनाओं, आरोप-प्रत्यारोपों के बाद भी न्यू मीडिया विकल्प का अजस्त्र स्रोत है, एक ताकतवर लोक-सत्ता है। दरअसल, अन्तर्जाल के ठिकाने पर राजनीतिक-समाज से लेकर राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय वैश्विक-आर्थिक भूगोल तक बहुत कुछ शामिल है। वैकल्पिक मीडिया की बड़ी देन और ताकत है कि व्यष्टि से समष्टि के बीच का सम्बन्धन, समूहन, साहचर्य, सम्पर्क, साझेदारी इत्यादि वर्तमान में मजबूत और प्रगाढ़ हुए हंै, तो बेहद प्रभावी भी। हाल के दिनों में जन-सहभागिता (‘सबका साथ, सबका विकास, सबकी भागीदारी’) तथा जन-मनोवृत्ति (सम्यक चाल, सम्यक चरित्र, सम्यक चेहरा) के संगुफन की दिशा में हमारा देश राजनीतिक उद्घोष कर रहा है। परिवर्तनकामी इन गतिविधियों में पारम्परिक माध्यमों (सांकेतिक, वाचिक, लिखित, मुद्रित, रंगमंचीय, तकनीकी, श्रव्य, दृश्य-श्रव्य इत्यादि) के अतिरिक्त नवमाध्यमों (न्यू मीडिया, अल्टरनेटिव मीडिया, सिविल जर्नलिज़्म, ब्लाॅगिंग, माइक्रोब्लाॅगिंग, वेब 2.0, वैकल्पिक मीडिया विमर्श, न्यू मीडिया मूवमेंट, सोशल मीडिया हैशटैग इत्यादि) की भूमिका अद्भुत कही जा सकती है। विशेषतया नई पीढ़ी का आधुनिक एवं उन्नत तकनीकी-प्रौद्योगिकी में दिलचस्पी बहुत है। यह अपनापा गहरा और मजबूत है, तो अत्यन्त संवेदनशील भी। आधुनिक शब्दावली में चिह्नित और व्याख्यायित ‘न्यू मीडिया’ से युवाओं की चरम लगाववृत्ति उल्लेखनीय है। किशोरवय से लेकर युवजन वय तक संचार की अधुनातन प्रवृत्तियों का प्रभाव एवं दख़ल जबर्दस्त है। आधुनिक ‘डिजिटल एरा’ में नवमाध्यम पहले की तुलना में अत्यधिक क्रियाशील, गतिशील और प्रतिक्रियाशील हो गए हैं। नई पीढ़ी यानी युवजन की बात करें, तो यह ‘सेल्फोफिस’ पीढ़ी है, जो अपनी इच्छा को तत्काल क्रियारूप में तब्दील कर देने को बेचैन और व्यग्रातुर है। सवाक् और सचित्र भाषिक-वैैशिष्ट्य से लैस ‘यंगस्टरों’ के लिए वाट्सअप, फेसबुक, लिंक्डाइन, माईस्पेस, ब्लाॅग, ट्विटर आदि अनेकानेक ऐसे ‘प्लेटफार्म’ हैं जहाँ किसी व्यक्ति की गैरहाज़िरी का अर्थ अन्यार्थ विशेषीकृत हो चुका है। यथा: बेकार, फ़ालतू, यूजलेस, आउटडेटेड, स्टीरियोटाइप, ट्रेडिशनल, क्लासिकल आदि। सुमित मोहन अपनी पुस्तक ‘मीडिया लेखन’ में यह बात रखते हैं कि ‘‘हर आदमी जाग्रतावस्था में लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा ‘संचार’ करने में अर्थात् बोलने, सुनने, सोचने, देखने, पढ़ने, लिखने या विचार-विमर्श में लगाता है। इसलिए यदि हम यह कहें कि ‘संचार जीवन का पर्याय है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यानी जीवन का दूसरा नाम है-‘संचार संलग्नता’ और मृत्यु का नाम है-‘संचार न्यूवता’। सूचना के आदान-प्रदान, निर्देशन, मनोरंजन, विश्वास अर्जित करने, विचार-विमर्श, संस्कृति को बढ़ावा देने, भावनात्मक एकता बढ़ाने आदि के कार्य ‘संचार’ से ही संभव हो पाते हैं।’’ न्यू मीडिया में भागीदारी तेजी से बढ़ी है। इसमें सक्रिय भागीदारी के तीन स्तर हैं: 1) हैंगिंग आउट (मित्र बनाना), 2) मेसिंग अराउंड (बुनियादी मीडिया का ज्ञान प्राप्त करना, जैसे कि फेसबुक के पेज को बेहतर कैसे दिखाया जाए) और 3) गीकिंज आउट (गेम्स जैसी और परिष्कृत डिजिटल सामग्री की रचना)।

‘आभासी दुनिया’ (अपतजनंस ूवतसक) जो तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित स्थानिक समाजीकरण या क्षेत्रिय समुदायीकरण के अतिरिक्त वैश्विक रूपान्तरण का सशक्त औजार (जववसे) साबित हुए हैं; ने हाल के दिनों में अपरिमित एवं असीमित सूचनाओं, तथ्यों, आँकड़ों, आवाजों, दृश्यचित्रों आदि का अंबार खड़ा कर दिया है। वर्तमान समय की यह भी एक देन (विडम्बना अधिक) है कि पूरा मानवीय वातावरण सूचनाक्रांत है, तो कृत्रिम दृश्यावलियों एवं बनावटी आवाजों से ख़तरनाक तरीके से सम्मोहित-संक्रमित भी। लिहाजतन, अच्छी चीजें ख़राब चीजों की इस कुंभ-बटोर में दब गई हैं या अपनी सात्त्विक आभा-कांति खो चुकी हैं। आज संवाद स्वाभाविक जरूरत या मानवीय तलब न होकर कृत्रिम क्रिया-प्रतिक्रिया के संकेत-चिह्नों में बदल गया है। बकौल प्रियदर्शन, ‘‘सूचना-प्रौद्योगिकी के प्रभाव में विकसित हुआ सोशल मीडिया, शब्दों के आगे की एक अलग भाषा निर्मित कर रहा है? आजकल फेसबुक, वाट्सऐप, ट्विटर के सन्देशों में बहुविध नई आकृतियाँ देखने को मिल रही हैं। अब मुस्कुराहट के लिए, हँसी के लिए, गुस्से के लिए, आश्चर्य के लिए, अपना सयानापन दिखाने के लिए, चिन्तन की मुद्रा के लिए तरह-तरह के भाव-चिह्न सुलभ हैं, जिन्हें अँग्रेजी वाले ‘इमोजी’ या ‘इमाॅटिकाॅन’ कहते हैं। हालांकि फिलहाल दूर-दूर तक इस बात की आशंका नहीं है कि वे भाषा को अपदस्थ कर देंगे और उसकी जगह ले लेंगे-क्योंकि भाषा हजारों वर्षों के विकास-क्रम में अनेक-अनेक ढंग से आजमाई हुई चीज है। लिखित भाषा भी-जो अपने बिल्कुल शुरुआती दौर में एक संकेत या इमोजी ही रही होगी-इतनी विविधतापूर्ण और तहदार अभिव्यक्तियाँ विकसित कर चुकी हैं कि उसे स्थानापन्न करने में फिर से उतने ही हजार वर्ष लगेंगे और तब भी वह ख़त्म हो जाएंगी, इसमें शक है। यह अन्देशा बेमानी है कि लिखित शब्दों का हमारा संसार ख़त्म या सीमित हो जाएगा। लेकिन यह लिखित संसार बदल रहा है, इसके संकेत अभी से मिलने लगे हैं। सोशल मीडिया पर तो वाक्यों के अन्त में पूर्ण विराम या विस्मयादिबोधक चिह्न की जगह स्माइली या दूसरी इमोजियाँ इतनी आम हो गयी हैं कि धीरे-धीरे हम सबमें उनका इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। वैसे भी इन दिनों भाषा को लेकर हमारी लापरवाही बढ़ी है और एक तरह की भयावह स्थूलता हमारे भागते-दौड़ते जीवन के बीच लगातार स्मृतिवंचित और अनुभवहीन हो रहे मानस में भी है-ऐसे में खुशी, दुःख, अचरज या साझे के सपाट संकेतों वाली इमोजियों की शरण हमारे लिए नई संभावना है या नया ख़तरा, इस पर विचार करना होगा।’’
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