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§ राजीव रंजन प्रसाद
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सार्वजनिक जीवन में बोलना एक शऊर का काम है। तब तो और जब हम
किसी खास ओहदे पर हों। राजनीति का विस्तार और प्रभाव चैतरफा होने के नाते राजनीतिक
व्यक्तित्व से शालीन और मर्यादित आचरण की अपेक्षा अधिक की जाती है। हाल के दिनों
में राजनीति की जन-माध्यमों पर निर्भरता बढ़ी है। प्रचार-संस्कृति के
बाजारू-संस्करण ने नई चिंताओं को सिरजा है। आजकल राजनेता बिना किसी पूर्व तैयारी
और समीक्षा के बोल रहे हैं। (हाँ, वे जनता के मुद्दों का ‘गेटकीपरिंग’ खूब कर रहे
हैं) यह जानते हुए भी कि उनका बोला अब राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर तक अपनी पहुँच और
दख़ल रख रहा है। फिर वह क्यों अनर्गल प्रलाप अथवा बिलावज़ह आरोप-प्रत्यारोप करते
दिखते हैं; समझ से बाहर है। जबकि उनके द्वारा कही जाने वाली इन सब बातों से देश की
गरिमा को ठेस पहुँचता है, अपनी छवि जो धुमिल होती है सो अलग। भारत में पहले बोलना
दिल से होता था, अब दिमाग से। अब बोलने का मिज़ाज और लहजा बदला है, तो बोलने वाले
की नियत और नेक-ईमान भी बदल चुकी है। मौजूदा राजनीति में आत्मबल से हीन व्यक्ति भी
राजनेता बन सकते हैं। वे धनबल-बाहुबल, वंशवाद या फिर भाई-भतीजावाद के बूते
जन-प्रतिनिधि होने का गौरव हथिया सकते हैं। सो वे क्यों राजनीति में ज़मीनी अनुभव
और अनुभवी ज्ञान को तरज़ीह दें। किसी तजु़र्बे या तज़रबे के आगे शीश नवाए। आखिर
उन्हें जरूरत ही क्या है कि वे सही बोलने का जिम्मा उठाए जबकि उनके कुछ भी बोल
देने का रत्ती भर नुकसान उनको या उनकी पार्टी को न होता हो।.....
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नोट: पूरा आलेख माॅडरेशन पर है!
नोट: पूरा आलेख माॅडरेशन पर है!
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