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-राजीव रंजन प्रसाद
राजनीति राष्ट्रीय आत्मसम्मान की रीढ़ है। इस रीढ़ की मजबूती सुनिश्चित करने के लिए जनप्रतिनिधियों का चुनाव होता है। देश अपने राजनेता पर गर्व करता है जब उसका नेता सार्वजनिक रूप से बोल रहा होता है; कहीं किसी को सम्बोधित कर रहा होता है। भारतीय राजनीति के वे दिन देखें, जो ब्रिटिश राज की हुकूमत के थे; हमारे राजनीतिज्ञ जिस साहस, आत्मबल, दृढ़-संकल्प से अपनी बात लोगों के बीच रखते थे; अपनी सोच और इरादे को उनसे साझा करते थे; वह ‘कम्यूनिकेशन’ की आधुनिक शब्दावली में भी सर्वोत्तम तरीका कहा जाएगा। दरअसल, सार्वजनिक जीवन में बोलना एक शऊर का काम है। तब तो और जब हम किसी खास ओहदे पर हों। राजनीति का विस्तार और प्रभाव चौतरफा होने के नाते राजनीतिक व्यक्तित्व से शालीन और मर्यादित आचरण की अपेक्षा अधिक की जाती है। हाल के दिनों में राजनीति की जन-माध्यमों पर निर्भरता बढ़ी है। प्रचार-संस्कृति के बाजारू-संस्करण ने नई चिंताओं को सिरजा है। आजकल राजनेता बिना किसी पूर्व तैयारी और समीक्षा के बोल रहे हैं। (हाँ, वे जनता के मुद्दों का ‘गेटकीपरिंग’ खूब कर रहे हैं) यह जानते हुए भी कि उनका बोला अब राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर तक अपनी पहुँच और दख़ल रख रहा है। फिर वह क्यों अनर्गल प्रलाप अथवा बिलावज़ह आरोप-प्रत्यारोप करते दिखते हैं; समझ से बाहर है। जबकि उनके द्वारा कही जाने वाली इन सब बातों से देश की गरिमा को ठेस पहुँचता है, अपनी छवि जो धुमिल होती है सो अलग। भारत में पहले बोलना दिल से होता था, अब दिमाग से। अब बोलने का मिज़ाज और लहजा बदला है, तो बोलने वाले की नियत और नेक-ईमान भी बदल चुकी है। मौजूदा राजनीति में आत्मबल से हीन व्यक्ति भी राजनेता बन सकते हैं। वे धनबल-बाहुबल, वंशवाद या फिर भाई-भतीजावाद के बूते जन-प्रतिनिधि होने का गौरव हथिया सकते हैं। सो वे क्यों राजनीति में ज़मीनी अनुभव और अनुभवी ज्ञान को तरज़ीह दें। किसी तजु़र्बे या तज़रबे के आगे शीश नवाए। आखिर उन्हें जरूरत ही क्या है कि वे सही बोलने का जिम्मा उठाए जबकि उनके कुछ भी बोल देने का रत्ती भर नुकसान उनको या उनकी पार्टी को न होता हो।
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