!! सम्पादकीय!!
झींगुर नेता और युवा राजनीति
अच्छे नेताओं की देश में कमी नहीं है, लेकिन कई सारे अनाड़ी नेता होते हैं। युवा नेताओं में अनाड़ी ही अधिक हैं। निपट हरामखोर। यानी झपसू टाइप ऐसे नेता जिन्हें झाँसे में लेना अथवा रखना आसान है। इनको बस मौका चाहिए भाट और चारण बनने का। काम न धाम अलापे प्रभु नाम की तरह यह चुनावी जीत एवं जश्न मनाने के लिए लालायित होते हैं। पटाखा फोड़ने, गुलाल लगाने और बीच सड़क पर हुड़दंग करने को हरदम तैयार रहते हैं। ऐसे नेता मध्यवर्गीय टाइप के होते हैं। इनके पास भूखे मरने की नौबत नहीं है। बाप-दादे के पैसे से चिकेन उड़ाते हैं और चाय-सिगरेट भी पीते हैं। झींगुर प्रजाति के इन नेताओं को नौकरी की दरकार नहीं होती है। घर-परिवार की चिंता भी नहीं हुआ करती है। ऐसे में इन नेताओं का ईमान-धर्म फोकट में बिक जाता है। गाड़ी में पेट्रोल-डीजल डला दो बस। फिर ये झींगुर फ़लाना या अमुक सांसद-विधायक का पीपीहरी बजाने में जुट जाते हैं। अनाड़ी टाइप ये युवा नेता मुख्य नेता के साथ चिपके रहते हैं। इनका विज़न है-आराम में ही ऐश है। आज नेता बनने की खुमारी में डूबे झींगुर युवाओं से देश लबालब है। आँकड़े-रिपोर्ट सब में झींगुरों की तादाद बम-बम हैं। कांग्रेस पार्टी ने कई दशकों से इन्हें पाल-पोसकर रखा है। दूसरी पार्टियों ने भी इनका मजेदार तरीके से इस्तेमाल करती आई हंै। इन्हें थोड़ी सी पेशगी (मुर्ग-मशलम, शराब आदि) दे दो, काम हो गया। गला फाड़कर ये मोदी-मोदी कहेंगे या फिर राहुल-राहुल। जबकि बेगारी में अपनी कद-काठी-काया जोतते इन युवाओं को न उच्च शिक्षा मिल पाती है और न ही अच्छी नौकरी। इनका जीवन सदैव दूसरों की चाटुकरी करते हुए बीतता है। दूसरों को बनाने के चक्कर में यह भूल ही जाते हैं कि इनको जिसने पैदा किया है उसकी भी इनसे कुछ अपेक्षा है। उम्मीदें हैं। ज़वानी के जोश में राजनीति का अफ़ीम पीते ये झींगुर युवा नेता प्रायः असफल होते हैं। तब भी घर-परिवार के आस-विश्वास को ठेंगा दिखाते ऐसे युवाओं के लिए ‘बस इस पल जीना, इस पल मरना...और क्या करना यारों!’ फ़लसफ़ा काफी है।
लेकिन आपने कभी सोचा है? ज़वानी के जोश में अपनी बल, ऊर्जा, विवेक और विचार-शक्ति गँवाते इन युवाओं का ‘राजनीतिक हैंगओवर’ के बाद में क्या होता है? सब के सब अपनी मौत मरते हैं। गुमनामी और अँधेरे में ठिठूरते और लंगड़ाते हुए जीते हैं। तमाम ज़िल्लत बर्दाश्त करने के बावजूद कईंयों को आख़िर तक यह अहसास नहीं होता है कि उन्हें इस दशा में पहुँचाने वाला आज खुद कहाँ है और वे किस गर्त और गटर में है। राजनीति के कई धुरंधर युवा कार्यकर्ताओं को यह लगता है कि वह नपुंसक पैदा हुए हैं। उनके पास पुरुषार्थ नहीं है। बला की ऐसी सोच उन्हें दूसरों की चाकरी करने को न्योंतती है। दूसरों के नाम का झंडा उठाने के लिए अपना कंधा तैयार रखती है। पर सौ टके का सवाल है-इन सबमें उनका हिस्सा कितना अहम है। आजकल युवा सवालों से जूझना नहीं चाह रहे हैं। उनको हर हाल में जीने की जिद है। ऐश-मौज-पार्टी करने की जल्दी है। वाट्स-अप, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर मेसेज, फोटो, सेल्फी आदि ठेलने की हड़बड़ाहट है। झींगुर नेता ऐसे ही लोग बनते हैं। वे सभी लोग जो अपने बारे में बाद में और दूसरों के बारे में पहले सोचते हैं, झींगुर हैं।
कहना न होगा कि झींगुर नेता बेमकसद जीते हैं और बेवजह मर जाते हैं। उनके मरने-जीने से उन पर फ़र्क नहीं पड़ता जिनकी नेतागिरी इनके बदौलत बुलंद हुआ करती है। क्योंकि उनके पास ऐसे फ़ालतू कार्यकर्ताओं की बड़ी खेप है। बड़े नेता शातिर होते हैं। काम निकालने के लिए वे अपने झींगुर नेताओं पर निर्भर हो जाते हैं। इसके लिए बड़े नेता झींगुरों से अपनी पहचान और रिश्ता को अपना सौभाग्य मानते हैं। उनके साथ धर्म और जाति का निकट सम्बन्ध रखते हैं। आज के अधिसंख्य मालदार राजनीतिज्ञ कुछ का भला करने का दिखावा कर बहुतों को बरगलाना चालू रखते हैं। दरअसल, राजनीति पाॅवर के साथ भरपूर माइंड-गेम है। राजनीति में फ़ितूर है जो हर एक के फ़ितरत को हवा देती है। यह और बात है, हवाबाजी में असल करतब वे नेता ही कर पाते हैं जो वंशवाद से उपजे हों, बाहुबल के नवासे हों या कि जिनके धनबल के जोर-बल-दाब के आगे शासन-प्रशासन की भी एक न चलती हो। बाकी चुनावी जीत में जश्न मनाने के लिए झींगुरों की बेहिसाब फौज़ तो है ही।
नोट: प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्यार्थियों के लिए सम्पादकीय-लेखन का माॅडल
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