Thursday, 7 December 2017

शोहरत और हक़ीकत

!! सम्पादकीय!!

शुक्रवार; 08 दिसम्बर, 2017; ईटानगर

शोहरत और हक़ीकत

मणिशंकर अय्यर ने माननीय प्रधानमंत्री को ‘नीच’ कहा। इससे पहले भी विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने बहुत कुछ कहा था। आज टीवी डिबेट में इसी बात पर जंग छिड़ी थी कि कांग्रेस के लोगों को बोलना नहीं आता है। पिछली बार कांग्रेस हारी ही नहीं बल्कि वह एकदम बौनी-ठीगनी हो गई। इस बार भी वह इसी नक़्शेकदम पर है। कांग्रेस के हाथ से गुजरात निकल सकता है। हिमाचल भी। यद्यपि कांग्रेस के भीतर बदलाव के नए संकेत मिल रहे हैं। राहुल गाँधी ने पहले मणिशंकर अय्यर को माफी माँगने के लिए कहा था। लेकिन बाद में त्वरित कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी से ही बर्ख़ास्त कर दिया गया। कांगेस के लिए इस तरह के फैसले ही निर्णायक साबित होंगे। राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नामांकित हो चुके हैं और कुछ ही दिनों बाद वह कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन होंगे। अतएव, हालिया प्रकरण का तुरंत पटाक्षेप करने के लिए अभद्र भाषा-प्रयोग के मामले में मणिशंकर अय्यर का निष्काषन स्वागत योग्य है। कांग्रेस ही नहीं राजनीति में किसी भी दल के द्वारा इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप, व्यक्तिगत टिप्पणी, लांछन, अपमानसूचक शब्दों का प्रयोग निंदनीय है। भाजपा को अब स्वयं भी भाषिक शुचिता साबित करने होंगे। उसे अपनी भाषा के बोल ठीक रखने होंगे। क्योंकि आज मणिशंकर अय्यर ने ग़लत कहा है, कल उसके नेताओं ने ऐसा कहा तो जनता माफ़ नहीं करने वाली। वह खुद भी रिकार्ड मोड पर है। नरेन्द्र मोदी आज प्रधानमंत्री हैं, कल भी रहेंगे; लेकिन हमेशा उनका सितारा आज और कल माफ़िक बुलंद ही रहे, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है। झूठ की मियाद लम्बी नहीं होती, वहीं सत्य सदैव शाश्वत होता है। झूठ का जन्म अपनी मौत मरने के लिए होता है, तो सत्य का आविर्भाव अपनी पहचान और अस्मिता को कायम रखने के लिए। उन नेताओं के चेहरे याद कीजिए जो आज से दस साल पहले मंत्री थें, उन नेताओं की प्रशंसा करते हुएलोगों से सुनिए जिनकी राजनीति में कभी तूती बोला करती थी। आप पायेंगे कि सितारे ढहते हैं, लोकप्रियता गायब होती है। आँख-दीदा होने पर लोगों को बरगलाना आसान नहीं है। लोकतंत्र की तमीज़ ने जनता को विवेकवान बना दिया है। वे बापू के तीन बंदर नहीं है। यानी अपनी न देखें, अपनी न सुनें, अपनी न बोलें; बस दूसरों का कहा देंखे, सुनें, और बोलें। यह राज कांग्रेस ने कायम रखा। आज देखिए उसके दुर्दिन आ गए हैं। राहुल गाँधी की जन्मकुंडली में सारे संयोग ‘इंजेक्ट’ करने के बावजूद इस पार्टी का क्या और कितना भला होगा? यह तो भविष्य ही बताएगा। पर एक बात तो तय है कि अभी भी राहुल राजनीति के मँजे उस्ताद नहीं हैं। इस कारण कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से पार्टी को नवजीवन देना उनके लिए एक कठिन चुनौती है। जहाँ तक बात नरेन्द्र मोदी की है वे देश के प्रधानमंत्री हैं। उम्मीदों का सितारा। युवाओं को आसमान में मुक्के उछालने की सीख देने वाला। मेक इन इंडिया। डिजिटल इंडिया। न्यू इंडिया। कई नामों से गढ़े जा रहे हिन्दुस्तान के स्वप्नद्रष्टा हैं। उस हिंदुस्तान के नवनिर्वाचित नेता जिसे कांग्रेस ने पिछले कई दशकों से दीमक की तरह चाट रखा था। नरेन्द्र मोदी ने भारतीय युवाओं को झिंझोड़ा। उनकी चेतना को गति दी। युवजन मोदी की जय-जयकार करता हुआ चुनावी मुहिम में उनके साथ हो गया। अन्य लोगों को भी आस जगी। निराशा के बादल छँटे। उन्हें लगा जैसे कि उनका जनसमाज एकबारगी पुनर्नवा हो गया है। नई पीढ़ी को जीने की मकसद और मुक़ाम मिल गई है। कहन के ‘रेंज’ और साफगोई में नरेन्द्र मोदी का राहुल गाँधी से कोई तुलना नहीं है। उनकी लोकप्रियता का ‘ग्राफ’ भी बिल्कुल अलग है। सनद रहे, पाँचों ऊंगलियों की तरह हर व्यक्ति एकसमान नहीं है। प्रत्येक दूसरे से भिन्न है। यह भिन्नता जनसामान्य में है और पद-प्रतिष्ठा से लैस हुक्मरानों के बीच भी है। दरअसल, मनुष्य शरीर में रहता है, पर तैरता मन में है। चूँकि वह सोचने वाला प्राणी है। इसलिए बोलना उसकी नियति है। लेकिन ‘बोलना’ महज एक क्रिया मात्र नहीं है। भाषिक अभिव्यक्ति में मनुष्य का आंतरिक स्वभाव प्रकट होता है। यद्यपि इसकी प्रकृति बेहद सूक्ष्म, गहन और विस्तृत होती है। ध्यान रहे कि जब कभी आदमी बोलने की प्रक्रिया को ‘अंडरस्टिमीट’ करता है वह भारी गच्चा खाता है। मशहूर कहावत है-‘ज़बान की धार छुरे से भी तेज होती है’। खासकर राजनीति में इसका विशेष ख्याल रखना होता है। वैसे भी इन दिनों  चुनावी मौसम है। दो प्रान्तों हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। चुनाव में नेतागण दौरा करते हैं, रैलियों में भाषण देते हैं। अभिव्यक्ति के साधन के रूप में वे जो कुछ बोलते हैं वह सब भाषा में सम्बोधित होता है। भाषा में प्रयुक्त वाक्य, पद, शब्द आदि का विशेष महत्त्व होता है। हर भाषा चाहे जिस भी तरह व्यक्त-व्यंजित हो वह सामाजिक-माध्यम बनकर पेश होती है। उसका सामाजिक दायरा होता है, तो लोकानुशासनभी। 

आजकल कुछ भी बोलने की रवायत ने ‘वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का मजाक बना दिया है। राजनीति में बोलने का ढंग ही नहीं बदला है, बल्कि बोले जा रहे कथ्य का स्तर भी गिरा है। बोलने का लहजा और शैली तो बदचलनी का शिकार हो गई हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी पर ख़राब से ख़राब टिप्पणी की गई। उन पर भद्दी भाषा में तंज कसे गए। भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी ने स्वयं अपने ऊपर सयंम नहीं रखा। जवाबी हमले में उनकी भाषा भी दोयम दरजे की ठहरी। राहुल गाँधी और अरविन्द केजरीवाल जैसे कम राजनीतिक अनुभव वाले नेताओं के आगे उनका डर जिस तरह ज़ाहिर हुआ उससे इस बात की पुष्टि हुई कि नरेन्द्र मोदी डरपोक राजनेता हैं। लोहिया और जयप्रकाश जैसी हुंकार सुनने में जितनी कर्णप्रिय और शोभनीय है, उसके भीतर का माल-असबाब रेत का ढेर है। आम-अवाम अगर अपने लोकप्रिय नेता के बारे में ऐसी राय रखने लगे अथवा मंतव्य ज़ाहिर करने लगे, तो समझिए जनता अब ज्यादा दिन उन्हें बर्दाश्त करने वाली नहीं है। यह सच है, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बीच वाक्युद्ध नई बात नहीं है; लेकिन उसका स्तर छिछोरा नहीं होना चाहिए। भाषा की तमीज़ खोने का अर्थ अपनी आदमीयत को बिकाऊ बनाना है, अपने संस्कारों पर तोहमतजड़नाहै। लेकिन आजकल यही सब जोरों पर है। राजनीति की उठाईगिरी अपने बरअक़्स इतिहास, दर्शन, कला, साहित्य, स्थापत्य, सभ्यता, संस्कृति इत्यादि को समझ और समझा रही है। राजनीतिज्ञों के अगंभीर चाल-चलन नेभारतकी जीवंतता और सांस्कृतिक उपादानों पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। हमारे नेतागण सोशल मीडिया यानी फेसबुक, टिवटर, व्हाट्स-अप आदि की भाषा में लोगों का राजनीतिक मनोरंजन कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसा प्रभावशाली वक्ता खुद इसी ज़मात में शामिल है। वह नेता जिसे सुनने का चाव हर एक भारतीय को रहता है। वह नेता जिससे आमजन की अपेक्षा रहती है कि कम बोले, लेकिन बोले तो धारदार बोले; आज उसकी वाग्मिता ‘इको’ अधिक हो रहे हैं, जबकि अर्थ गायब है। इस तरह अर्थहीन हो जाना नरेन्द्र मोदी जैसे वाग्मी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा कलंक है। राहुल गाँधी से नरेन्द्र मोदी की कोई मुकाबला नहीं थी, पर अब दोनों विज्ञापनी राजनीति में इस कदर सराबोर हैं कि उन्हें एक-दूसरे से अलगा पाना संभव नहीं रह गया है। दुःख के साथ लेकिन कहना पड़ रहा है कि हमारा प्रधानमंत्री लोकप्रियता के पीछे पागल दिख रहे हैं। वे अपनी ही शोहरत के गुलाम हो गए हैं। अर्थात् व्यक्तिवादी राजनीति में अपनी ही छवि को लगातार प्रस्तावित करने की उनकी भूख ने बाकी नेताओं की पहचान को निगल लिया है। वैसे अमित शाह, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, रविशंकर प्रसाद, स्मृति ईरानी, योगी आदित्यनाथ इत्यादि नेता कल की तारीख़ में बचे रहेंगे, क्योंकि उनका अपना कुछ भी दाँव पर नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नहीं संभले, तो 2019 उनको पटखनी देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा। मैनेजमेंट का ‘रूल आॅफ थम्ब’ है जिसका सिक्का चलता है वह उसका गुणगान करती है, किन्तु जिस दिन नरेन्द्र मोदी जन-अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे; मार्केट उनके सारे पोस्टर उतार डस्टबीन में डाल देगा। अपने अनुभवों के तईं देखें तो, अच्छे बच्चे और सच्चे बच्चे की तरह किसी को ज्यादा देर बेवकुफ़ बनाकर नहीं रखा जा सकता है। सम्मोहन, तिलिस्म, चमत्कार या मुलम्मा हटते ही सारी शोखी नौ दो ग्यारह हो जाती है। जनता के साथ नैतिक नंगई करने वालों को जनता जो मौत मारती है वह बेहद जानलेवा सजा है। राजनीति में खतरा होना स्वाभाविक है, लेकिन खतरे को पहले ही भाँप लेना सबसे बड़ी समझदारी है।

नोट: प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्यार्थियों के लिए सम्पादकीय-लेखन का माॅडल

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