Thursday, 14 December 2017

अरुण हिंदी-शब्दकोश : शब्दार्थ से साक्षात्कार

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राजीव रंजन प्रसाद

यह मैंने एक फ़ितूर के तहत शुरू किया। कोई शब्द मिलता और उसके बारे में लिखा भी। झट नोट कर लेता। यह शौक धीरे-धीरे दस्तावेज की शक़्ल अख़्तियार कर ली। प्रकाशन संभव नहीं था। क्योंकि यह मेरा कोई मौलिक लेखन नहीं था। हाँ, उसे अपनी भाषा में अपने अनुसार व्यवस्थित कर दिया था मात्र। साथ के लोगों में इसको लेकर कोई दिलचस्पी नहीं थी तो मेरे प्राध्यापकों में भी इसमें कोई नई बात नहीं दिखी। लोग इसके महत्त्व को इसलिए भी नहीं समझ रहे थे क्योंकि मैंने इसे कोई अकादमिक-परियोजना के अन्तर्गत करना नहीं शुरू किया था।

यकायक ध्यान में आया कि हूँ तो मैं एक अध्यापक; क्यों न अपने ब्लाॅग 'https://arunaai.blogspot.in' पर इसका डिजिटल संस्करण बनाकर संजो लूँ। भविष्य में साथीजन प्रोत्साहित करेंगे या उनका सकारात्मक प्रत्युत्तर मिलेगा तो और जीजान से जुटकर इसे करता जाऊँगा। वैसे भी कितने पन्ने बनारस से अरुणाचल आने के क्रम में इधर-उधर हो गए। अब जो बचे हैं उन्हें बचा लेना ही उपयुक्त है। इसी क्रम में यह नाम जे़हन में-‘अरुण हिंदी शब्दकोश’। यानी अरुणाचल प्रदेश के हिन्दी-मित्रों के लिए सहज सरल ढंग से शब्दार्थों का उल्लेख, मूल्यांकन और परिभाषा की प्रस्तुति।

इसमें एक बात की छूट ली जाएगी कि किसी भी शब्द को बाद में कभी भी ‘माॅडरेट’ किया जा सकेगा। सुधार, संसोधन एवं परिष्कार के बाद अंततः ‘अरुण हिंदी शब्दकोश’ का जो कलेवर और संयोजन होगा, उससे मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।

अतः आपसबों का अमूल्य सहयोग अपेक्षित है। अरुण हिन्दी-शब्दकोश के अन्तर्गत प्रकाशित सामग्रियों के बारे में आपलोग कुछ कहें, सुझाव दें या कि पकड़ में आई गलतियों से मुझे अवगत कराएँ तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।

सादर,

भवदीय

राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्याालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश-791112
मो. 9436848281
ई.मेल: rrprgu@gmail.com
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अरुण हिंदी-शब्दकोश


: लोकवृत्त (पब्लिक स्फियर) :

लोकवृत्त अथवा लोकक्षेत्र को विद्वानों ने आज के सन्दर्भ में बेहद महत्त्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार लोक-क्षेत्र नागरिक समाज का वह हिस्सा है जहाँ विभिन्न समुदाय और संस्कृतियाँ अन्योन्य-क्रिया करती हैं। ऐसा करके वे किसी मुद्दे पर आम-राय बनाने और उसके ज़रिए राज्य-तंत्र को प्रभावित करने का प्रयास करतीं हैं। लोक-क्षेत्र सभी के लिए खुला रहता है जिसमें अपने विमर्श के ज़रिए कोई भी हस्तक्षेप कर सकता है। हैबरमाॅस इसके महत्त्वपूर्ण प्रतिपादक हैं। यहाँ नागरिक-समाज कहने का आशय ‘सिविल सोसायटी’ से है। अर्थात् समाज का वह रूप जो राज्य एवं परिवार जैसी संस्थाओं से अलग माना जाता है। यह नागरिकों के अधिकारों और उनकी सत्ता को व्यक्त करने वाली प्रक्रियाओं और संगठनों से मिलकर बनता है। वह राज्य को सयंमित कर उसे नागरिक नियंत्रण में लाता है।  समाजविज्ञानियों के अनुसार, समाजशास्त्र में नागरिक समाज के एक ऐसे दायरे की चर्चा भी है जिसमें संस्कृति और समुदाय की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ अन्योन्यक्रिया करती हैं। साथ ही, सार्वजनिक दायरे की गतिविधियाँ किसी मुद्दे पर आम राय बनाने और उसके जरिए राज्य-तंत्र को प्रभावित करने की भूमिका निभाती हैं। सार्वजनिक दायरा सबके लिए खुला रहता है जिसमें अपने विमर्श के जरिए कोई भी हस्तक्षेप कर सकता है। फ्रैंकफुर्त स्कूल के विख्यात विचारक युरगन हैबरमास ने इस धारणा का प्रतिपादन किया था; जिसका भारत की हिन्दीपट्टी तक दृढ़ विस्तार हुआ है। इस बाबत फ्रांचिस्का आॅरसेनी लिखित पुस्तक ‘हिन्दी का लोकवृत्त’ द्रष्टव्य है। फ्रांचिस्का आॅरसेनी लिखित पुस्तक ‘हिन्दी का लोकवृत्त’ भारतीय सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण कृति है। 

: अभिजात वर्ग : 

अभिजात-वर्ग औद्योगिक पूँजीवाद के कारण उभरा वह वर्ग था जो आर्थिक रूप से मालामाल था। जिसके पास लाखों के आभूषण-जेवरात थे, तो धन-माल की कहीं कोई कमी नहीं थी। इस वर्ग को सामाजिक-राजनीतिक विशेषाधिकार प्राप्त था। माक्र्स के शब्दों में ‘privileges bestowed by blood’। ऐसे विशेषाधिकार जरूरी थे जो रक्त-सम्बन्ध के कारण प्राप्त थे अर्थात् जो लोग वंशगत अभिजात थे, उनको चर्च में उँची जगहें मिलती थीं। चर्च और फौज दोनों में कुछ जगहें ऐसी होती थीं जो बेच ली जाती थीं। एक तरफ तो सामन्ती ढंग से अभिजात वर्ग अपने बेटों के लिए फौज और चर्च में कुछ पद सुनिश्चित कर लेता था, दूसरी तरफ सौदागिरी ढंग से ये पद बेचे जाते थे। ब्रिटिश पूँजीपति वर्ग को अभिजात-वर्ग ने रहन-सहन के तौर-तरीके जैसे भी वे थे, सिखाए, उसके लिए फैशन ईजाद किए, उसने फौज और जलसेना के लिए अफसर जुटाए। इस तरह अभिजात वर्ग विशेष दबाव समूह के रूप में अपना दखल और दबदबा ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों में बनाए हुआ था। भारत में भी अभिजात-वर्ग की पैठ बहुत अधिक थी। बाद में यहाँ यह एक प्रवृत्ति के रूप में फैला और जनमानस को अपनी अभिजात मानसिकता में दबोच लिया। वर्तमान में परिवारवाद, वंशवाद, भाई-भतीजावाद की जड़े अभिजात वर्ग की इसी अंतहीन शृंख्ला से जुड़ी हुई हैं। जनतंत्र में आम-आदमी बहिष्कृत है, कारण की अभिजात-वर्ग पहले से कुंडली मारे बैठा हुआ है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध कवि शेली ने ब्रिटिश सदन के सन्दर्भ में जो कहा था वह आज भी समीचीन है, ‘‘अभिजात वर्ग के पास ‘हाउस आॅफ पियर्स अथवा हाउस आॅफ लाॅडर्स नाम का सदन अभी भी है, इसके सिवा बादशाह भी इसी अभिजात-वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए आम-जनता के लिए कम-से-कम एक सदन तो होना चाहिए जहाँ उसके प्रतिनिधि इकट्ठे हो सकें।’’


: पूँजीवादी आधिपत्य :

जीवित रहने के लिए मनुष्य खाने-पीने की चीजें पैदा करते हैं; पहनने के लिए कपड़े बनाते हैं, रहने के लिए घर बनाते हैं। इस क्रम में वे आपस में उत्पादन का सम्बन्ध कायम करते हैं। भारत में लोक की भूमिका निर्णायक थी जो सभी को आपसी सामंजस्य और संतुलन के साथ गुजर-बसर करने की अनुमति प्रदान करता था। बाद में औद्योगिक पूँजीवाद ने लोक-संस्कृति अथवा ग्राम-स्वराज की सार्वभौम धारणा को खंडित कर दिया। उसने औद्योगि पूँजीवाद की जो अवधारणा रखी उसमें बड़ा पूँजीपति छोटे पूँजीपति को खा जाता है। वह मजदूरों की श्रम-शक्ति का ही अपहरण नहीं करता, वरन् छोटे पूँजीपतियों का, उनके व्यवसाय का, अपहरण भी करता है। वर्तमान में पूँजी का केन्द्रीकरण जिस खतरनाक तरीके से हो रहा है, भयावह है। यह पूँजीवादी आधिपत्य की नई स्थिति है जिसमें बाज़ार पूँजीकरण के सहारे वैश्विक कब्जे की तैयारी अन्दर ही अन्दर की जाती है। पूँजीपति जो काम करते हैं वह यह है कि उत्पादन के साधनों में तेजी से तरक्की करते हैं। इस तरह वे बड़े पैमाने पर बिकाऊ माल पैदा करते हैं। इस बिकाऊ माल से पिछड़े हुए देशों के बाजार को तोप देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ये जो पिछड़े हुए लोग थे, जिन्हें किसान जातियाँ कहा जा सकता है, ये अब परिवर्तित हो जाते हैं। बड़े देशों के पूँजीपति इन्हें भी पूँजीपति बना देते हैं। इससे पहले जो प्रक्रिया घटित होती है, वह यह है कि किसानों की जातियाँ पूँजीपतियों की जातियों पर निर्भर हो जाती हैं, उनके अधीन हो जाती है। पूरब के देश पश्चिम के देशों के अधीन हो जाते हैं। अभी तक का इतिहास गवाह है कि बड़े देशों के पूँजीपतियों ने, जब अन्य देशों पर अधिकार किया, तो वहाँ पूँजीवादी परिवर्तन नहीं हुआ। वे ऊपर उठकर बड़े पूँजीवादी देशों के बराबर नहीं आ गए, वे जहाँ थे उसके भी नीचे ढकेल दिए गए। उनकी हालत और भी ख़राब हो गई। वित्तीय पूँजी की प्रमुख विशेषता, जैसा कि लेनिन ने बताया था; यह है कि वह प्रभुत्व करना चाहती है। यह किसी विशेष कार्यक्षेत्र के अन्दर शांतिपूर्ण ढंग से, ‘आम कारोबार’ के लिए नहीं; बल्कि अधिग्रहण के लिए प्रयासरत रहती है। इसलिए यही पर्याप्त नहीं है कि विŸाीय पूँजी की विचारधारा जनता को सामूहिक प्रतिरोध की क्षमता से वंचित करे और उनको ऐसे अलग-अलग व्यक्ति बनाकर रख दे जो अपनी वस्तुगत परिस्थितियों को मन मारकर स्वीकार कर लें, बल्कि वह लोगों के भीतर (लुकाच के शब्दों का प्रयोग करें तो) एक ‘प्रतिक्रियावादी क्रियाशीलता’ को संगठित किया जा सके। सामाजिक अर्थविज्ञानियों द्वारा पूँजीवाद की सात विशेषताएँ गिनाई गई हैं, 1) अन्तरराष्ट्रीय पूँजी एक नई इकाई का उदय है जो किसी विशेष राष्ट्र पर आधारित या किसी विशेष राष्ट्रीय पूँजीवादी रणनीति से जुड़ी हुई नहीं है। मनमाने मुनाफ़ों की चाहत में यह दुनिया के स्तर पर बेहद गतिशील है और इसका चरित्र ऐसा नहीं है कि यह कहीं की औद्योगिक पूँजी से जुड़ जाए, किसी राष्ट्रीय औद्योगिक पूँजी की बात तो जाने ही दीजिए; 2) अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के उभार ने राजसत्ता की प्रकृति को भी बदल दिया है जिसके कारण अब वह पूरी तरह वित्तीय निगमों को बढ़ावा दे रही है; उसका अब अपनी उस छवि से कुछ लेना-देना नहीं जिसमें वह हर वर्ग के हितों की नुमांइदगी करने वाली दिखती थी, अब तो एक ही तर्क दिया जा रहा है कि पूरे समाज के हित तो वित्तीय पूँजी के हितों के जरिए ही बेहतरीन ढंग से पूरे किए जा सकते हैं; 3) राजसत्ता की प्रकृति में इस बदलाव के चलते सार्वजनिक हित पर और कल्याण कार्यों पर खर्चे में कटौतियाँ की जा रही हैं और आमतौर पर इस तरह के खर्च घटाने की नीतियों को अपनाया जा रहा है। वित्तीय पूँजी हमेशा राल्य के व्यय में कटौती को प्राथमिकता देती है; 4) पूँजीवादी दुनिया में विकास की दर के धीमे पड़ने पर एक दीर्घकालिक परिवर्तन आया है अर्थात् प्राथमिक मालों और उसके उत्पादों के बीच व्यापार के मामले में उतार-चढ़ाव के द्वारा औसत में तब्दीली हुई है जो कि प्राथमिक मालों के हितों के खि़लाफ है। इसके चलते पूरी दुनिया में जहाँ-जहाँ किसानी उत्पादन होता है, किसान काफी हद तक बदहाल हुआ है। इसी तरह विश्व के स्तर पर मांग में आई कमी के कारण छोटे उत्पादकों का एक पूरा दायरा बदहाली का शिकार हुआ है; 5) छोटे उत्पादन का यह संकट ऐसे उत्पादकों के साधनों के और खासकर भूमि के छिन जाने का कारण बन रहा है। उन्नीसवीं सदी में पूँजीवाद का फैलाव ऐसे हालात में हुआ था जब दुनिया के शीतोष्ण क्षेत्र के खासे बड़े-बड़े हिस्सों को उन्नत देशों ने अपने उपनिवेश बना लिए थे जहाँ ज़मीने या तो खाली पड़ी थीं या ‘मूलनिवासियों’(इंडियन) के हाथ में थी जिनसे उन्हें खदेड़ दिया गया। संक्षेप में इन दोनों कारणों से, पूँजीवाद के सामने एक ‘खुला मैदान’ मौजूद था। इसके अलावा उपनिवेशों के छोटे उत्पादकों की कीमत पर वहाँ अपने औद्योगिक मान बेचकर और वहाँ के उद्योग-धंधे तबाह करके पूँजीवाद ने अपने अधीन उपनिवेशों में भी अपनी ‘घरेलू बेरोजगारी का निर्यात’ किया; 6) किसानों की ज़मीन का यह अधिग्रहण पूँजीवाद के इस चरण की एक कहीं अधिक सामान्य विशेषता का सिर्फ एक हिस्सा है। यह ‘कब्जे के जरिए संचय’ (एक्युमुलेशन थू्र एनक्रोचमेंट) है। यह ‘प्रसार के जरिए संचय’ के सर्वथा विपरीत है जिसमें पूँजी के बड़े-बड़े जखीरे एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाए बिना बढ़ते, और बढ़ते जाते हैं। वहीं अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के वर्चस्व के मौजूदा दौर की विशेषता यह है कि ‘कब्जे के जरिए संचय’ की सापेक्षतया भूमिका काफी बढ़ चुकी है। राजकीय क्षेत्र की परिसंपत्तियों का निजीकरण और ‘कौड़ियों के मोल’ उनका अधिग्रहण, किसानों का शोषण और उनकी ज़मीनों पर कब्जे, छोटे उत्पादकों का विस्थापन और उनके अब तक के कार्यक्षेत्र पर कब्जा तथा बड़ी पूँजी के हाथों छोटी पूँजी का विस्थापन-यह ऐसा परिदृश्य है जिसमें ये प्रवृत्तियाँ आज के दौर में बहुत अधिक बढ़ रही हैं; 7) दुनिया को फिर से उपनिवेश बनाने का एक सुव्यवस्थित प्रयास जारी है, खासकर कच्चे मालों और सबसे बढ़कर तेल की चाहत में, जिसके लिए तेल उत्पादक देशों के ऊपर घातक हमले करके युद्ध छेड़े जा रहे हैं जिनके भयानक परिणाम सामने आ रहे हैं।

(जारी....,)

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