(Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)
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(पिछले से आगे...)
हिंदी के कवि निराला ज़मीनी अनुभव के सहारे काव्य-कर्म से जुड़े। स्वयं ख्यातनाम कवि मंगलेश डबराल वरिष्ठ जनचेतना के कवि त्रिलोचन से हुई बातचीत के बहाने कहते हैं- "उन्होंने तो उस वर्ग से सम्पर्क किया जहाँ नयी पीढ़ी भी नहीं पहुँची। श्रम करने वाले, तीर्थयात्री, नंगे पैर चलने वाले-इन लोगों के साथ ज़मीन पर बैठकर बात करते थे। तो ऐसा व्यक्ति निरंतर ताजा होता जाएगा। निराला में आखि़री समय तक ताजगी है। यही ताजगी अगर बनी रहे तो आप कवि रह सकते हैं। और किसी विचारधारा का समर्थन करने के लिए अगर आप कविता लिखें, तो याद रखिए आप कवि कम हैं, उस विचारधारा के अनुवर्ती हैं, भले ही वह विचारधारा आपकी बुद्धि को स्वीकार्य हो गयी हो।"
निराला ही नहीं बाद के कवियों ने भी कविता को जिस तरह साधा या कि उसे अपनी सृजन-चेतना में नवांकुरित किया है, द्रष्टव्य है।
विद्यार्थी सोचेंगे कि कविता उन पर क्या असर करती है, तो कहना लाजमी है कि कविता अपने पाठक को पाठ के बरास्ते बदल देती है। उनके भीतर उन मूल्यों को उपजा डालती हैं जिसकी बीज कविता के माध्यम से उनके मन-चित्त पर पड़ते हैं। संवेदनशील अंतश्चेतना इन्हें लपक लेती हैं। यहीं इसी जगह मन-चित्त की परात में भाव एवं संवेदनाओं के बीज अंकुरित होते हैं और कविता अपने ‘फुलस्केप’ स्वरूप में रूपाकार होती है। बिंब, प्रतीक, भाव-बोध, अर्थ-बोध आदि की क्यारियां इन्हीं धरातलों पर हरहराती हुई उमगती हैं। अलग से कविता कुछ जोड़-तोड़ नहीं करती, बस पढ़ने वाले को खुद से ‘कनेक्ट’ किए रखती हैं। पाठक स्वमेव शब्द-अर्थ की दृश्यावलियों में गति कर रहा होता है जिसके भीतर बजते संगीत का ग्राफ उसी तरह होगा देखने पर जैसे आॅडियो रिकार्डिंग के वाॅयस लेवल वाले ग्राफ में होता है। इस धरातल पर पाठक पाठ का श्रोता ही नहीं, उसका भोक्ता भी बन जाता है जब कविता उसके आस्वाद का विषय बनती है; उसकी अन्तरावलम्बी प्रत्ययों को संस्पर्श कर रही होती हैं।
विद्यार्थीगण समझने का प्रयास करें कि कविता ‘कनेक्ट’ हुए बगैर अपनी नवत्ता अथवा अर्थवत्ता को प्राप्त नहीं कर सकती हैं। यदि वह कविता को पकड़ने की चेष्टा में पड़ेगा, तो कविता उस तरह रिएक्ट करेगी जैसे पानी बीच मीन करती है। कवि की काव्य-दृष्टि पाठ के अनन्तर स्थूल-सूक्ष्म तरीके से सिद्ध कार्रवाई करती हैं। विष्णु खरे की कविताई पर रमेश अनुपम जो कहते हैं, वह मौजू है-‘विष्णु खरे की काव्य-दृष्टि जिस तरह से देखने का प्रयत्न करती हैं, वह हमारी कुन्द पड़ती जा रही संवेदनाओं पर न केवल प्रहार करती है अपितु हमारी ज्ञानात्मक संवेदना पर पड़ी हुई धूल को भी कुछ हद तक साफ करने की कोशिश करती नजर आती हैं। मनुष्य के साथ हो रहे हर अन्याय के खिलाफ बोलने और लड़ने की जिद उनकी कविताआं में है। वे विष्णु खरे की कविता ‘तुम्हें’ की पंक्तियाँ रखते हैं, देखिए तो सही-
‘इस देश में जब कुछ लोग
एक आदमी को घेरकर
सरेआम मार रहे होते हैं
उसे गालियाँ देते हुए
तो दूर खड़े देखते हुए
तुम वह न समझो कि यह सब
सिर्फ उस लहूलुहान अकेले आदमी पर
गुजर रही है।'
निर्वात के आर-पार तक देख सकने की संभाव्य दृष्टि रखनेवाला कवि यों ही गजानन माधव मुक्तिबोध नहीं हो जाता है। वह मुक्तिबोध होने के लिए आरजू-मिन्नत नहीं करता है। सलामीगिरी तो कतई नहीं। निद्र्वंद्व में जीते अटूट कवि की कमर सीधी होती है क्योंकि वह सरकारी लाभाश्रित नहीं होता है और न ही किन्हीं कृपापात्रों की फौज में शामिल होता है जो अपनी दया और भीख के मार्फत उसे नियुक्तियाँ-सम्मान देते हैं या कि उसकी चिरौरी सुनकर सांत्वना।
विद्यार्थी को समझना होगा कि कवि लोहे का चने चबाते हुए अपने भीतर से शब्द सिरजता है। वह खरखरी कहते-सुनते हुए अपनी पहचान बनाता है-निराला, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन या कि विष्णु खरे आदि ऐसे ही पग धरते हुए बनता है। मुक्तिबोध होना कितना मुश्किल है, इसके लिए विद्यार्थियों को कवि संग सहकार-भाव स्थापित करने की जरूरत होती है; उसके अपने बूते जिए जीवन-मर्म को बूझना होता है। बकौल मंगलेश डबराल-‘मुक्तिबोध के पास डूब जाने के लिए किताबों का अंबार नहीं था, न दैनिक चिंताओं से बेफिक्र रहने की सुविधा थी। पीड़ित दिखने वाले चेहरे, कठोर संघर्ष की करुणा से भरी आँखों और मुँह में सदा लगी रहने वाली बीड़ी के साथ वे जीवन-यापन की विकट पहेली को हल करते हुए ‘एक साहित्यिक की डायरी’, ‘अन्धेरे में’ और ‘पक्षी और दीमक’ जैसी कृतियाँ लिखते रहे। उनकी मृत्यु के बाद ही उन्हें वह दर्जा मिला जो बहुत पहले मिलना चाहिए था।"
विद्यार्थियों को यह अवश्य समझना चाहिए कि कवि परजीवी नहीं होता है, उसकी प्रकृति ही आत्मजीवी होती है। अज्ञेय के सन्दर्भ में नन्दकिशोर आचार्य हाइडेग्गर नोवालिस को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि-‘भाषा वस्तुतः आत्मालाप या स्वागत कथन है क्योंकि भाषा की एक विचित्र विशेषता यह है कि वह केवल अपने ही से सम्बोधित है। किसी भी वस्तु की अनुभूति का तात्पर्य चेतना का स्वयं वह वस्तु हो जाने जैसा है। इसीलिए शब्द की अनुभूति का तात्पर्य है स्वयं शब्द हो जाना:
‘मैं ही तो हो गया होता हूँ शब्द
फुफकारते समुद्र में लील लिया जा कर भी
सुबह के फूल-सा खिल आता हुआ।
फूल में फूट कर
अपने को ही रच रहा होता पेड़।
अरे!
तो क्या तुम भी
मुझे रच कर ही
खुद को रच पाते हो!’
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