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(Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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काव्य जिसे हम कई विशेष रूपों में जानते हैं। जैसे-महाकाव्य, खण्डकाव्य, आदिकाव्य आदि। ‘काव्य’ कविता की विभिन्न विधाओं और शैलियों के सम्पूर्ण वाङमय को कहते हैं जबकि उसका मुख्य स्वरूप कविता में प्रकट एवं अभिव्यक्त होता है। विद्वान सुरेश कुमार कविता को भाव-संवेदना से संयुक्त अनुभूति का विषय मात्र नहीं मानते हैं। वे कविता को सर्जनात्मक कलाकृति होने के साथ-साथ सांस्कृतिक निष्पत्ति भी कहते हैं जिसमें कलात्मक और सांस्कृतिक अन्विति देखने को सर्वाधिक मिलते हैं। कविता को कलाकृति कहे जाने से अधिक संस्कृति कहा जाना महत्त्वपूर्ण है। पश्चिमी विद्वान स्पेंगलर की दृष्टि में-‘जब संस्कृति मरणासन्न होती है, उसकी कला उसके विज्ञान के सम्मुख आत्मसमर्पण कर देती है और उसका अनुसरण करने लग जाती है।‘
आधुनिक काल में विज्ञान की तरफदारी बहुत की जाती है, जबकि मानविकी के विषय उठते ही इनकी उपयोगिता और उपादेयता पर प्रश्न खड़े करने लग जाते हैं। दरअसल, कविता के लिए मनुष्य होना पहली शर्त है, जबकि विज्ञान-विषय के लिए यंत्रवत व्यवहार करना अनिवार्यता। कविता वैज्ञानिक सोच अथवा प्रवृत्ति के उलट विचार नहीं करती है। कविता और विज्ञान का पारस्परिक सम्बन्ध पूरकत्व का है जो अपनी मूलप्रकृति को छोड़े बिना आपसी तालमेल और संतुलन बनाए रखते हैं। हिंदी आलोचक नन्दकिशोर आचार्य अपनी किताब ‘सर्जक का मन’ में सही लिखते हैं कि-‘विज्ञान कविता का विरोधी नहीं बल्कि एक उपयोगी सहायक सिद्ध हुआ है-लेकिन तभी जब हम यह सहायता कविता की अपनी शर्तों पर लेना स्वीकार करें, विज्ञान की प्रक्रिया को कविता की प्रक्रिया पर प्रभावी न होने दें।‘
कविता अपने पर थोथा विचार और विचारधारा थोपे जाने का भी समर्थन नहीं करती है। गरीब-गुरबा, विषमता, भेदभाव और तमाम तरह के सामाजिक विभेदों और संस्तरों पर सवाल खड़ा करने वाला व्यक्ति अन्दर से ‘साहित्यमना’ नहीं है, तो उसकी लिखी-पढ़ी तमाम रचनाएँ किसी को छुएंगे हरगिज नहीं, संवेदित न कर सकेगी। वह अपने जैसे अंधेर-बटेर की जमात जरूर जुटा लेगी जो एक-दूसरे के ‘इगो’ सहलायेंगे, आप ही आप के निज घेरे में लहुलोट होंगे।
कविता वास्तव में कविता तभी कही जा सकेंगी 'जब वे सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों से बचते हुए नहीं, बल्कि उनमें से गुजरते हुए' अपने होने का प्रमाण दे।
कविता की भी कई श्रेणियाँ या कहें प्रकार बतलाए गये हैं-1) भावात्मक कविता 2) कथात्मक कविता, 3) निबन्धात्मक कविता, 4) नाटकीय कविता इत्यादि। वास्तव में कविता मूलतः मिश्र कोटि की कविता कही जाती हैं जिसमें भावना, संवेदना, कथात्मकता अथवा अन्य प्रवृत्तियों का व्यापार मिल-जुले रूप में सर्वाधिक होता है। देखना होगा कि कविता महज शब्दप्रधान नहीं होते हैं, बल्कि कविताओं में भाषा-प्रयोग की वास्तविकता, व्यावहारिकता और प्रकृति के अनुसार, कविता में शब्द और वाक्य का समान महत्त्व ही उपयुक्त है।
विद्यार्थीगण को कविता से परिचय कराने का मुख्य ध्येय है-समर्थ शब्दार्थ और अनुभवसिद्ध व्याख्या-विश्लेषण द्वारा उनमें उन भावों एवं संवेदनाओं को जगाना जिसे लक्ष्य कर अमुक कवि ने अपनी अनुभूति को शब्दबद्ध यानी भाषाबद्ध किया है। सुरेश कुमार इस सहजानुभूति को विद्याार्थी के चित्त-मन में दाखिल होने का साधन मानते हैं। वे कहते हैं-’कविता-पाठ का बोध (ज्ञान तथा अनुभव) होता है जिसकी परिणति छात्रनिष्ठ आनांदानुभूति में होती है। विद्यार्थियों को प्रस्तुत कविता की अर्थाभिव्यक्ति तक पहुँचने के लिए कविता के दो तहों पर विचार करना होता है जिससे कविता स्पष्ट रूप से खुल जाती है-पहला, भाषिक अर्थ और दूसरा, काव्यार्थ। भाषिक अर्थ असल में शब्दार्थ-बोध को कहते हैं जिसके अन्तर्गत एक-एक करके हमें शब्दों, पदबंधों और वाक्यों के अर्थ-ग्रहण को समझना होता है। इस तरह जब विद्यार्थी किसी कविता का पाठ या कि उनका वाचन करना आरंभ करते हैं, तो इसी वाचन में भाषा-प्रयोग की चयन-विचलन सम्बन्धी संतुलतन तथा विसंगतियों का भी ज्ञान होता है। काव्यभाषा में ध्वनिविन्यास, शब्दचयन, सहप्रयोग तथा वाक्य-रचना में पाए जाने वाले विचलन प्रमुख होते हैं। कई बार कविता में प्रयुक्त विशिष्ट अभिव्यक्तियों को भी समझना होता है। विद्यार्थी को सर्वप्रथम चाहिए कि वह कविता में प्रयुक्त विशिष्ट शब्दों के भार्षिक अर्थ का बोध प्राप्त करते हुए उसकी काव्यात्मक विशिष्टता को भी अनुभव करने का प्रयास करता चले।
विद्यार्थी को यह समझने पर बल देना होगा कि कविता लघुता में विराट का दर्शन करा सकती है, यदि पाठक सहृदय हो। सहृदयता समष्टि की सोच है जिससे यह सृष्टि विराजमान है। भाव-संवेग द्वारा इस शब्दज संसार को अनुभूत एवं अभिव्यक्त करना कविता का धर्म है। यहाँ धर्म का अर्थ धारिता से है यानी ग्रहण करने की क्षमता से। आजकल यहीं हम सर्वाधिक चुक रहे हैं। हममें ग्रहणशीलता का आवेग तो दिखाई देता है; किन्तु उसकी उपयुक्त पात्रता नहीं है। सबसे बड़ा पेंच यह है कि कविता को हमने एक ढर्रे की तरह देखना शुरू कर दिया है। उसके आने की गति तीव्र है। अब चूँकि आने वाली हर चीज ‘कविता’ घोषित कर दी जा रही है; इस कारण समस्या बढ़ी हुई है। मुर्दा आलोचकों पास ज़बान है, लेखन की तबीयत नहीं। जब तक हम लेखन के माध्यम से आलोचनापरक प्रतिपाद्य नहीं प्रस्तुत करते; अच्छी और बुरी कविता के बीच अंतर कर पाना आसान नहीं होगा।
लिहाजतन, ‘बिकाऊ कवि’ कई बार सहृदय आलोचकों के अभाव में कवि बना रहता है क्योंकि वह अपने ‘कवि’ होने की घोषणा करता है। आजकल हिंदी में ‘कवि’ ऐसे हैं। वे कवि होने का ‘टैग’, ‘लेबल’, ‘बैनर’ आदि लटकाए फिर रहे हैं; पर ऐसे धांसू/जुगाड़ू कवि भी पाठकों के न होने का रोना रोते हैं।
विद्यार्थीगण यह सोच सकते हैं या कि उनके दिमाग में यह विचार आना लाजमी है कि कविता के नाम पर पुराने कवियों, कविताओं, वाद एवं प्रवृत्तियों को क्यों पढ़ा जाना आवश्यक है। दरअसल, पुरानी कविताओं के कोठार से रचनाओं को निकालकर इसीलिए रखना पड़ता है क्योंकि नए कवियों में अधिसंख्य ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ एवं ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ के धरातल पर फिसड्डी हैं जिस और गजानन माधव मुक्तिबोध संकेत करते हैं। ध्यान दें कि सहृदय पाठक अपनी चेतना में भावग्राही होता है। उसे जो बातें निक लगती है, उनकी वह तत्काल वाहवाही करता है; बकियों को खारिज कर देता है। अब खारिज होने वाले गरज के कवि ज्यादा हैं। ये गरजू कवि असली कवियों तक को ढाँक-तोप चुके हैं। यह स्थिति क्योंकर बनी, इसकी पड़ताल आवश्यक है।
इस जगह सरकारी सैलरी उठाते हम जैसे टीचर कविता को कितना ठीक-ठीक समझते हैं-यह बहसतलब है, प्रश्न के घेरे में रखे जाने का मसला है!
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