(Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)
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(पिछले से आगे...)
शब्द-अर्थ
संपृक्त कविता से मनुष्य भाव की रक्षा होती है। इसलिए कविता का पाठक तक निर्बाध यानी
बेखटक पहुँचना अनिवार्य है। डा. नगेन्द्र सही फ़रमाते हैं-‘सम्प्रेषणीयता अथवा साधारणीकरण
की क्षमता ही काव्य की मूल जीवनी-शक्ति है। यही काव्य की स्थायी कसौटी है। जो काव्य
जितना अधिक सम्प्रेषणीय है, वह उतना ही श्रेष्ठ है।‘ इस दृष्टिकोण से देखें, तो कविता अपनी प्रकृति में सदानीरा होती हैं, बशर्ते वह स्फुट ढंग से अभिव्यक्त-अभिव्यंजित हुई हों। गढ़ी अथवा बनाई गई कविता में न ‘नेचुरलिटी’ का ताप होगा और न ही उजास। ऐसी कविता अपनी अर्थव्यंजना की मुलायमियत से लुभा सकती हैं; लेकिन कलात्मक सौन्दर्य अथवा औदार्य भी उनमें उच्चतम या कि विलक्षण हों; यह संभव नहीं है।
वस्तुतः कविता अपने पाठक की उपस्थिति अथवा उसका ध्यानाकर्षण ही नहीं चाहती हैं, अपितु
वह अपने सहृदय पाठकर्ता से अपने प्रति मनोदैहिक, वाचिक-लाक्षणिक-सभी स्तरों पर सम्पूर्ण
लगाव-समर्पण चाहती हैं। ठीक उसी तरह जैसा वह एक रचनाकार के समक्ष अपने को कविता रूप
में लिखे जाने से पूर्व शर्त रखती हैं।
अंतोनियो
ग्राम्शी की मानें, तो-‘हम जो कुछ भी लिखें, उसमें पैशन जरूर होना चाहिए। लिखने का यह जुनून अनुभव-साक्ष्य तथा अनुभूतिपरक होना चाहिए। विशेषतया कविता अपनी प्रकृति में भाव-संवेदना का वाहक मात्र नहीं है, बल्कि भाषा की भाँति कविता खुद भी सामाजिक प्रतीकवत्ता (सोशल सिम्बोलिज्म) और सांस्कृतिक अर्थ-विस्तार (सोशल सिमेंटिक्स) की अनन्तर कड़ी है, मुख्य साधन है।
निर्मल वर्मा की कविता के सन्दर्भ में की गई टिप्पणी मौजूं है-‘कविता का अर्थ शब्दों
के माध्यम से किसी भी भाव को पहुँचा देने के बाद भी ख़त्म नहीं होता। वह कविता समाप्त
होने के बाद भी बराबर बचा रहता है। इस मानी में यह एक अख़बारी रपट या किसी तात्त्विक
उक्ति से बिल्कुल अलग होती है जिसकी उपयोगिता एक बार पढ़ने के बाद ही ख़त्म हो जाती है
चूँकि किसी भी रचना के सारे अर्थ हम पूरी तरह कभी समझ नहीं पाते इसलिए इसकी प्रासंगिकता
हमारे लिए बराबर बनी रहती है। कोई भी कविता अपनी ज़िन्दगी या अर्थ ख़ुद भाषा से ही ग्रहण
करती है। इसी प्रक्रिया के दौरान भाषा का कायाकल्प होता है और उसमें से कविता जन्म
लेती है।‘
कविता
कल्पना और यथार्थ दोनों रूपों या कि अवस्थितियों में मूलतः संवेद्य-कला है। सदयी रचनाकार
उस कला का भोक्ता होता है जो पहले उसे अनुभूत होती है, फिर अभिव्यक्त। कला का अर्थ
बताते हुए कांट ने कहा कि यह ‘मानवीय कौशल’ है। हीगेल ने कला को ‘आइडिया’ का ऐन्द्रिक
वाहक माना। वहीं कथाकार तालस्तोय ने कला को सम्पूर्ण जीवन के संवेगों का सम्प्रेषक
माना है। रमेश कुंतल मेघ तो अपनी पुस्तक-‘अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा’ में कहते हैं-‘कला
एक प्रतीक तो है, लेकिन भाषा नहीं है।‘ कविता में कला एक ‘नेचुरल इसेंस’ की तरह शामिल
होता है और देखते ही देखते भाषा की पूरी परिपाटी, सौन्दर्यशास्त्र या कहें कि पूरा
शब्दार्थ को बदल देता है। यहाँ सौन्दर्य की बात इस रूप में कि सौन्दर्य एक गुणात्मक
मूल्य है, एक प्रकृत मूल्य जिसे मनुष्य कुछ कह पाने अथवा रच पाने की स्थिति में होता
है। उसका अनुभव संसार और सांवेगिक प्रणालियाँ इतनी द्वंद्वरहित हो जाती हैं कि मनुष्य
अपने से इतर समष्टि-जगत से सहकार सम्बन्ध स्थापित कर सके; अपने अभिप्रेत को पा
सके। डगलस एन. मोर्गन का कहा ध्यान देने योग्य है-‘मनुष्य ही कला की रचना करते हैं
और मनुष्य कला से अनुराग करते हैं, वह मानवीय आत्मा की नैसर्गिक अभिव्यक्ति है।‘
कविता
के नैसर्गिक होने का आशय है-लोकाश्रयी और जनपक्षधर होना। लोक में जन पूर्णतया शामिल
हैं। वास्तव में लोक का अर्थ ही है-सरल, सामान्य, ग्रामीण, देहाती, खांटी, देशज लोगबाग।
लोक कबीर का अनुमार्गी है जिनका कहना है-‘भाषा को क्या देखना, भाव चाहिए साँच’। कविता
साँचे में ढली उत्पाद नहीं है जिसमें हर एक प्रतिकृति समान मूल्य और प्रकृति की होती
हैं। कविता का इस रूप में न निरूपण संभव है और न तो मोलभाव। मुक्तिबोध कविता के सन्दर्भ
में दो-टूक तरीके से कहते हैं-‘काव्य में लम्बी-चौड़ी बात हाँकने वाले, स्वांग करने वाले,
अपने को मसीहा और क्रांतिकारी समझकर बात करने वाले लोग छोटी-सी मानसिक प्रतिक्रिया
को अपनी दृष्टि के अनुसार बहुत बढ़ा-चढ़ाकर रखते हैं। वे एक एक्टर हैं, नट हैं। वास्तविक
प्रेम करने का आत्मबल उनमें बिल्कुल भी नहीं है; किन्तु स्वांग ऐसा करते हैं मानों
वे अपनी प्रेमिका के बिना जी नहीं सकते।’
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