Thursday 16 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 9

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

कहा जाता है कि मानक आपके बदल गए। मूल्य आपके बदल गए, तो बाकी कुछ भी चीज का महत्त्व नहीं। प्रगतिवादी कवि होने का तमगा जिन कवियों को मिला उनके अलावे और कितने कवि इस धारा या कि चलन में थे; उनकी चर्चा नहीं होती है। आलोचना ने भी जिन कवियों को उठाया उनके अपने सहोदरी नाते-रिश्ते हैं, लेकिन जो गिरे या कि फिसल गए; उनके लिए दैवीय न्याय (पोएटिक जस्टिस) वाली मुद्रा बना ली जाती है। कविता की ब्लाइंड रिव्यू कराई जाये, तो कई नामचीन और कमलदल पर सुशोभित कवि उड़ जाएंगे। इनकी जगह ‘जेनुइन’ कवि अपना खोया मूलधन पा लेंगे यह भी संभव नहीं है, क्योंकि कुछ कविताएँ अपने कथ्य की प्रकृति द्वारा ही ‘नोमिनेशन’ नहीं पा पाती हैं, चाहे उनके बिंब-प्रतीक-अर्थाभिव्यक्ति कितने भी गूढ़ और गहरे क्यों न हों; क्योंकि कविताओं में चयन का मसला भी न्यायपूर्ण और तर्कसंगत हरगिज नहीं है।
प्रगतिवादी कवियों में से चंद नाम ही साहित्य में जगह बना सके या फिर चमक सके। स्थापित कवियों की रचनाओं को भी मुकम्मल पहचान कितना मिल सकी है, यह भी द्रष्टव्य है। देखना होगा कि काल-विशेष के कवियों के अपने स्वभाव-संस्कार और अपने-अपने अंतर्विररोध होते हैं। प्रतिभाओं के उठाने-गिराने अथवा आगे बढ़ाने का काम इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण सर्वाधिक होता है। संस्थान अथवा संगठन विशेष में नाम और चेहरे अपने प्रतिभानुकूल योग्यता के कारण शायद ही कभी-कभार अपनी सही उपस्थिति दर्ज करा पाते हैं या कि उनके वास्तविक हस्तक्षेप और प्रभाव का उपयुक्त मूल्यांकन हो पाता है। अधिकांशतः कुल-गोत्र-जाति के सनातनी संस्कारवश सबसे अधिक मौका-अवसर तथा पद-प्रतिष्ठा मिलते हैं। कई बार निजी खुन्नस या व्यक्तिगत कारणों से भी कवियों की रचनाओं को कमतर आँका जाता है या कि उन्हें नजरअंदाज करने की तिकड़म भिड़ाई जाती है।  
प्रगतिवाद इन सब विषमताओं पर प्रहार था, लेकिन पूर्णतया मुक्त था यह नहीं कहा जा सकता है। यह नवीन चेतना थी जिसने छायावाद से उलट तो नहीं, लेकिन भिन्न राह जरूर चुनी। प्रगतिवाद ने जन-संस्कृति का ‘मेटाफर’ चुना। एक ऐसी राह जिसमें कविता हमारे जीवन का हिस्सा मात्र न हो, बल्कि हमारे होने का अहसास कराती निर-द्वंद्व चेतना हो। प्रगतिवाद की प्रकृति आधुनिक थी, तो विषय विवेक-विज्ञान आधारित। प्रगतिवाद ने समाज में भारतीय जन की अपनी स्थिति का नक्शा दिखलाया तथा आदमी और आदमी के बीच के विभेद को हाशिए और केन्द्र की राजनीति के रूप में समझाने की चेष्टा की। मंगलेश डबराल जब कहते हैं-‘कविता हमारे जीवन में शामिल नहीं है और न हम कविता में शरीक हैं’ तो हमें समझना होगा कि बहुसंख्यक समाज भी सत्ता में सीधी भागीदारी से बाहर है, जबकि सियासत का शिकार सर्वाधिक है। यानी आमजन जिन बातों एवं एकतरफा निर्णयों से प्रभावित होते हैं या कि उनके रोजमर्रा के संकटों पर जो चीजें सर्वाधिक हावी हैं; नियामक सत्ता अथवा शक्ति-केन्द्र उसे महसूसने को तैयार नहीं है; क्योंकि हमने ऐसे लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाया है जो आज की ‘सटाइलिश’ कविता की तरह ही वावयीव हैं, हवाई और ऊपरी सहलाव मात्र हैं। कविता का जन-गण की स्थिति-परिस्थिति से आँख मूँद लेना इस बात का सूचक है कि वे जनतांत्रिक और जनपक्षधर लोगों द्वारा नहीं रची-बुनी गई हैं। बस उनपर ‘बेस्ड’ मात्र हैं।
विद्यार्थीगण को यह समझना परम आवश्यक है कि कक्षा में कविता पर बोलना सहज है। लेख लिखना आसान है, किन्तु कविता करना कठिन। इस जद्दोजहद और तकलीफ को एक कवि ही महसूस सकता है। मंगलेश डबराल अपनी किताब ‘लेखक की रोटी’ में कहते हैं-‘कविता लिखना कितना कठिन और तकलीफ़देह होता जा रहा है। एक कोई ख्याल आता है, कोई स्मृति आती है या कोई स्वप्न और वह थोड़ी दूर चलकर बिला जाता है या जैसे कागज पर आगे बढ़ने से इंकार कर देता है। शायद जीवन के अनुभव ही इतने सिकुड़ गये हैं कि उनसे कविता की कोई  पोशाक नहीं बन पाती। छोटे-छोटे रुमाल जरूर बनते हैं।‘
इसी तरह आलोचना में चयन का मसला मायने रखते हैं। कविता से बिना बतियाए या कि उनके स्थूल-सूक्ष्म रंध्रों को देखे बगैर कविता की चमात्कारिक प्रदर्शनी अक्सर भाषा के बरास्ते जाहिर-प्रकट कर दी जाती है। इसमें आलोचक लिखे के बारे में नहीं बल्कि जिसका लिखा हुआ है उसको ‘डिकोड’ करने में लिजलिजाया रहता है; वह भुवनेश्वर की तरह ‘सच’ कह अपने कैरियर का सत्यानाश नहीं कराना चाहता है। वह ऐसे में अपना लिखा कम, किंतु परोक्ष-प्रत्यक्ष अपनी जाति, क्षेत्र, धर्म, वर्ग आदि का ‘रिफरेंसेज’ अधिक कैश करा रहा होता है।
आलोचना के नए स्वर कृष्ण मोहन बड़ी ईमानदारी के साथ इस बात को उद्घाटित करते हैं-‘...आलोचना में सक्रिय यथास्थितिवादी शक्तियों ने जानबूझकर साहित्यिक बहसों को सतही चर्चाओं, फ़तपवों और जुमलेबाजी में उलझाए रखा ताकि वास्तविक मुद्दे न उठ सके। और परिदृश्य पर कुहरा और घना होता रहे। जिन लेखकों ने अपनी रचनाओं के बल पर साहित्य के गढ़ों और मठों को चुनौती देने का साहस किया उनकी या तो उपेक्षा की गई या फिर समस्त आलोचकीय नैतिकता को ताक़ पर रखकर उनकी मनमानी व्याख्याएँ की गई।’’

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