Wednesday 15 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 8

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

प्रगतिशीलता सहज परिवर्तशील प्रवाहों की सतत् धारा है। मुर्खों की चोटियाँ इसी धार से कटती है, तो उनकी जड-प्रवृत्तियों का समूल नाश इसी बरास्ते होता है। बीते जमाने के देशज आधुनिकता से लैस संत-कवियों ने कोई अलग करिश्मा या तांडव-नृत्य नहीं किया; किसी तरह के प्रपंची पराक्रम का रास-लीला रचाने की जरूरत नहीं समझी। उन्होंने बस लोक-धर्म अपनाया जिसका आधार रहे-सहज साधना, पारख पद, अनभै साँचा, आँखन देखी आदि। उन्होंने निज अनुभव से प्राप्त ज्ञान की बुद्धिवादी विवेक द्वारा परीक्षा की, परीक्षण के पश्चात लोकधर्म के रूप में स्वीकार किया। वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने इस परिवर्तनकामी चेतना और स्वनिर्मितवेद की आंतरिक जीवनी-शक्ति को लक्ष्य करते हुए अपनी पुस्तक ‘दूसरी परम्परा की खोज’ में लिखा है-‘इसी अनुभवववाद और विवेकवाद के अस्त्र से संत कवियों ने जाति-पाँति, छुआ-छूत, ऊँच-नीच के भेदभाव पर चोट की थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह अनुभवसम्मत विवेकवाद ‘लोकधर्म’ का सहज स्वभाव है।'
विद्यार्थीगण को यह जानकर अचरज होगा कि-जो लोग प्रगतिशील विचारधारा के नाम पर अपने को वामपंथी घोषित करते हैं, वे स्वयं अपनी मूलप्रकृति में चरम जड़वादी और घोर सामन्ती हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव अथवा फेरफार के लिए वे राजनीति अवश्य करते हैं; वैचारिक भूगोल में उद्धरणों-सन्दर्भों का हवाला जरूर देते हैं; लेकिन भारतीय लोकधर्म उनको खुद स्वीकार्य नहीं है। वे आम्बेडकर तक जाने या पहुँचने से डरते हैं; फूले और कबीर की तो बात ही छोड़ दीजिए। उनकी वैचारिक कूपमंडूता पढ़ी-लिखी जनता को ‘वेदों की और लौटने’ का आग्रह भले न करती हों, लेकिन मार्ग अवश्य सुझाती हैं।
  आज भी प्रगतिशीलता की बात करते किताबी वामपंथियों का भारतीय लोकधर्म से गहरा लगाव नहीं है। अपनी ही निज चेतना के अनुभाववाद और विवेकवाद पर भरोसा नहीं है; लेकिन उनकी उक्तियाँ हीगेल, कांट, फूको, देरिदा, माक्र्स, एंगल्स, लेनिन, माओत्से तुंग, एजरा पाउंड, ग्राम्शी जैसे पश्चिमी विचारकों का आरती उतारती मिल जाएंगी। भारतीय ज़मीन पर पश्चिमी घास उगाते फरेबी वामपंथियों की ठीक-ठीक पहचान आम्बेडकर ने की थी जो बौद्ध हुए, किन्तु वामपंथी नहीं। दरअसल, मूल रास्ता लोकधर्म का है जो हमें जगाती है, सिखाती है, आगे बढ़ने के लिए निरन्तर प्रेरित करती है। वास्तव में लोकधर्म साधारण जनों के विद्रोह की विचारधारा है। इसे लोकधर्म कहने का कारण तो यह है कि यह उच्चवर्गों द्वारा ज़बानी स्वीकार्य ‘जड़-शास्त्र’ नहीं है। दूसरा कारण यह है कि यह पूँजीवादी समाज के बीच निर्मित किसी एक सुनिश्चित वर्गचेतन वर्ग की विचार-प्रणाली नहीं; बल्कि सामन्ती युग के असंगठित किसानों और दस्तकारों के विविध वर्गों, उपवर्गों की मिली-जुली भावनाओं का पुंज है। आलोचक नामवर सिंह सही इंगित करते हैं कि-'‘लोकधर्म का प्राण विद्रोह है। इसलिए दमनकारी व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह के रूप में खड़े होने वाले प्रत्येक जनान्दोलन की शक्ति और सीमा को समझने के लिए उसके द्वारा मान्य ऐसे ‘लोकधर्म’ का अध्ययन आवश्यक है।‘'
लोकधर्म के सन्दर्भ में विद्यार्थीगण को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की कही बातों को समझना चाहिए, वे कहते हैं-‘सामान्य जनों के प्रचलित विचार अपेक्षाकृत सरल और अल्प-संघटित होते हैं। अक्सर वे परस्पर विरोधी और उलझे हुए भी होते हैं और उनमें लोकवार्ताओं, मिथकों और रोजमर्रा के लोक-प्रचलित अनुभवों का पंचमेल होता है; फिर भी उन विचारों का बहुत महत्त्व है क्योंकि व्यापक जन-आन्दोलन के लिए यही कारगर होते हैं।’ नवेले वामपंथी यहीं चुक जाते हैं। पहली बात तो यह कि वे पढ़ते कम और छितराते अधिक हैं। उनके कहन में ‘स्टाइल’ अधिक होता है, ‘इंटेशन’ नकली। दक्षिणपंथी की तो बात ही जुदा है कि वे ‘शास्त्र-पूजक’ जमात को पैदा करते हैं। पर यह भी सत्य है कि जिनने भी भारतीय शास्त्र के ‘सत्व’ को ठीक से पहचाना अथवा पकड़ा है; उनको लोकधर्म सहज स्वीकार्य है, अनुगम्य है।
भारत में प्रगतिवाद की पौध उगने-उमगने से पूर्व लोकधर्म के फसल सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ताओं और प्रहारों से बचते-बचाते हुए अपने को खड़ा कर सकने में सफल रहे थे। डाॅ. आम्बेडकर तक यह चेतना लोकधर्म और जनसमूह के बरास्ते ही पहुँची थी। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग में साहित्य ‘जनसमूह’ के हृदय का विकास ही नहीं रहा, उसके ज्ञानात्मक पक्ष के विकास पर भी ध्यान दिया गया।’ यह जरूर है कि पश्चिम के प्रतिरोध-संस्कृति ने भारतीय दासता याा कि गुलामी के पगहे खोल दिए। अब एक ऐसा मुक्तावकाश था जिसमें गाँधी और आम्बेडकर एक साथ बैठकर ‘गोलमेज सम्मेलन’ कर सकते थे। उच्चस्तरीय बैठक में समान भागीदारी की यह कवायद आंतरिक गुलामी से निजात पा कर ‘मूर्ख’ को ‘मूर्ख’ कहने का अधिकार देता था चाहे वह बपौती जाति की धौंस बताने वाले कुल-खानदान से ही क्यों न हो। ठीक इसी तरह पिछड़ी और अशिक्षित जनता को भी लताड़ लगाया जा सकता था जो अपने श्रम और ज्ञान के बदौलत अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने से कतराती है और दूसरों का मुँह जोहती है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपनी आलोच्य-भाषा में कुछ इस तरह लक्षित करते हैं-‘सबसे बड़ी बात यह हुई है कि ये आन्दोलन संसार के और भागों में चलने वाले आन्दोलनों के मेल में लाये गए, जिसमें ये क्षोभ की एक सार्वभौम धारा की शाखाओं से प्रतीत हुए। वर्तमान सभ्यता और लोक की आर्थिक विषमता से जो असंतोष का ऊँचा स्वर पश्चिम में उठा उसकी गूँज यहाँ भी पहुँची। उस समय साम्राज्यवाद के साथ-साथ पूँजीवाद और सामन्तवाद के विरुद्ध किसानों और मजदूरों के कई आन्दोलन उठ खड़े हुए।’
प्रगतिवादी काव्यधारा में इन प्रगतिशील विचारों की निर्मिति होना स्वाभाविक था। कविता के क्षेत्र में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन ऐसे कवि है जिनकी रचनाओं में हमारे जातीय जीवन-संस्कृति और साहित्य की जनवादी परम्परा के तत्त्व रचनात्मक रूप में प्रकट हुए हैं।’ प्रगतिवाद में भी कवियों की दो कोटियाँ थीं या कि काव्यधाराएँ रही-1) वैयक्तिक गीति कविता धारा (प्रेम और मस्ती की काव्यधारा) : हरिवंश राय बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, भगवती चरण वर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, आरसी प्रसाद सिंह आदि और 2) प्रगतिवादी काव्यधारा : केदारनाथ अग्रवाल, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, रांगेय राघव, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर सिंह आदि।…

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