Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)
1953
ई. में साहित्य अकादमी ने ‘भारतीय कविता’ प्रकाशित की। भूमिका लिखी अकादमी के अध्यक्ष
होने के नाते श्री जवाहरलाल नेहरू ने। वे कहते हैं-‘मुझे इस बात का पूरा विश्वास है
कि पारस्परिक सहयोग और मैत्रीभाव से ही हमारी भाषाओं के विकास और प्रगति में तेजी आ
सकती है, उनके हिमायती और प्रेमी लोगों में पारस्परिक विद्वेष और प्रतिस्पर्धा के भाव
को उकसा कर नहीं।’
यह पाँवछुई जमात से लेकर ज़बानी क्रांतिकारिता की ज़मीन खोद झाड़ बोते
रचनात्मक पीढ़ी तक के लिए सार्थक किन्तु स्पष्ट संदेश था। विद्यार्थीगण
ध्यान दें कि कई बार निजी पराक्रम के फेर में काबिल और योग्य लोग तक घंटा न कुछ कर
पाते हैं। अपनी रचनात्मकता की अदहन देने खातिर आग जोरने की जगह अपने अब तक के किए-धरे
पर पानी ढार देते हैं। इससे मूल उद्देश्य बाधित होता ही है, विमूढ़तापोषी वर्चस्ववादियों की
चाँदी कटती है सो अलग। साहित्य मनीषी कृष्ण कल्पित याद करते हैं एक संस्मरण। बच्चन
की मधुशाला और उग्र के उपन्यास चाॅकलेट पर हिंदी साहित्य में पर्याप्त विवाद हुआ, शराब
और समलैंगिकता पर लिखी इन कृतियों को पतनशील बताया गया। चाॅकलेट के विरुद्ध तो बनारसीदास
चतुर्वेदी ने ‘घासलेटी साहित्य’ के नाम से मुहिम ही शुरू कर दी। विवाद बहुत बढ़ा, तो
दोनों कृतियों पर महात्मा गाँधी की सम्मति लेनी पड़ी। गाँधी ने दोनों किताबों को क्लिन
चिट दी, तब विवाद थमा।
यह तो
प्रगतिवादी दौर की बात है। आज भी यह हुंआ-हुंआ खूब चलता है। अब तो चाउर हथेली पर रख
साहित्य-ज्योतिष होने का दावा करने वाले नए-नवेले भी कम नहीं है जो सवाल उठने पर बिरनियों
की तरह परपराते खूब है, लेकिन सार्थक हस्तक्षेप की दिशा में चार पग चलते ही 'पैर' एवं 'पैग' पकड़ बैठ जाते हैं। यह साहित्य की प्रवृत्ति रही है जिस पर कृष्ण कल्पित वाजिब टिप्पणी
करते हैं-‘साहित्य दरअसल निंदकों का गाँव होता है। यहाँ आलोचना, निंदा, उखाड़-पछाड़,
उठाना-गिराना, चरित्र-हनन इत्यादि हिकमतें हर समय जारी रहती हैं। पत्र-पत्रिकाएँ, लेखकों
के गुट, लेखक-संघ और संचार-माध्यम इन कोशिशें में लिप्त रहते हैं। यह पुरानी परम्परा
है जो आज तक चली आती है।‘ मनबदली करने वाले ऐसे मुखौटिओं के लिए पं हरिशंकर शर्मा
‘स्वतन्त्र-परतन्त्र’ शीर्षक अपनी कविता में सन् 1957 में कहते दिखते हैं-
‘’होकर
स्वतन्त्र परतन्त्र हुए,
‘कवि’,
‘सम्पादक’, ‘साहित्यकार’।
जो लिख-लिख
आग उगलते थे,
अत्याचारों
को दलते थे,
अन्यायों
का मुँह मलते थे,
कटु कूट
कुनीति कुचलते थे,
सो गए
क्रांति के कर्णधार
‘कवि’,
‘सम्पादक’, ‘साहित्यकार’।“
कविता
के लिए मनुष्य होना जरूरी है। शंकुतला सिरोठिया ‘यह भी कविता है!’ शीर्षक आलेख में
‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से सन् 1957 ई. में कहती हैं-‘कविता मनुष्य के सुप्त भावों
को जागृत कर देती है। गद्य में कही बात का उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना पद्य में कही
बात का। कविता का संगीतात्मक प्रभाव मर्म को छूता हुआ अपना स्थायी प्रभाव डालता है।’
प्रगतिवादी दौर की अभिधात्मक कविता में सचबयानी का स्वर कविता के ‘फार्म’ में जिस तरीके
से कहे जा रहे थे उसका एक उदाहरण देवीप्रसाद ‘राही’ की कविता के माध्यम से देखा
जा सकता है-
‘‘अन्धेरे
में जाता किस और,
विवशता
की थी बेड़ी पड़ी।।
ठीक छाजन
के ऊपर चाँद था,
लुटाता
रहा रूप का दान।
तुम्हीं
सोचो क्या करता इसे,
एक भूखा
प्यासा इंसान।।’’
कविता
पर बात, बहस या कि आलोचना तोंदीले प्रोफेसर के ‘गैस्ट्रिक’ की भाँति नहीं होना चाहिए
जो मंच पर लिए डकार की कीमत भी वसूलना जानते हैं। जो प्रायः संगोष्ठियों-सम्मेलनों में
खाली दिमाग, लेकिन भारी पेट के नाम पर भुनाते हैं। ये व्यक्तिगत बात नहीं है। साठ के
दशक में ‘सरस्वती’ पत्रिका इस बारे में लिख रही थी-‘साहित्य प्रकाशन में विशुद्ध साहित्यिकों
को तो साधारण ही लाभ हुआ, किन्तु अधिकतर विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों को ही मलाई
मिली, जिनको अकादमी से मोटी रकमें ‘साहित्य प्रोत्साहन’ के नाम पर मिलीं। आज भी उसमें
प्रोफेसरों का ही बोलबाला है।’
विद्यार्थीगण
ध्यान दें कि छायावादोत्तरकालीन साहित्य में प्रगतिवाद के बरास्ते जो विचार पटल पर
आये या जिन्होंने बिल्कुल भिन्न किन्तु नए ‘गेटअप’ में कविता के पट-परदे खोले, वहाँ
भी न्याय अभी हुआ नहीं था; बस उसकी भूमिका बाँची जा रही थी। यद्यपि इस जगह प्रगतिवाद
की उन विशेषताओं को देखना होगा जो दूसरे विद्वाने गिनाते रहे हैं-1) जड़मूल जीवन मूल्यों
का त्याग, 2) रुढ़िबद्ध सामाजिक अनुष्ठानों का बहिष्कार, 3) आध्यात्मिक व रहस्यात्मक
अवधारणाओं के स्थान पर लोक-आधारित अवधारणाओं को माना, 4) हर तरह के शोषण और दमन का
विरोध, 5) धर्म, लिंग, नस्ल, भाषा, क्षेत्र पर आधृत गैर-बराबरी का विरोध, 6) स्वतन्त्रता,
समानता तथा बंधुत्व आधारित जनतंत्र में विश्वास, 7) मेहनतकश लोगों के प्रति गहरी सहानुभूति,
8) नारी पर होते किसी भी किस्म के अत्याचार का विरोध, 9) परिवर्तन एवं प्रगति में विश्वास,
10) साहित्य का मुख्य लक्ष्य सामाजिक सरोकार मानना इत्यादि।
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