Wednesday 15 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 7

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

कविता साहित्य-संधान का साधन है, सेतु है; साथ ही अलक्षित की प्राप्ति अथवा संभावना की फुल गारंटी भी है। प्रगतिवादी कविता जो मूलतया नवीन सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना है, जिसमें प्रमुखतः शामिल प्रवृत्तियाँ हैं : 1) वर्ग-वैषम्य, 2) शोषक एवं शोषित वर्ग की फाँक समझ पाने की दृष्टि, 3) उत्पीड़ित आवाजों की केन्द्रीय सत्ता, 4) साम्प्रदायिक ताकतों की मुखालफत में उठी विरोधी स्वर, 5) नारी जागरण की सामूहिक आकांक्षा, 6) लैंगिक-बोध, 7) प्रश्नाकुल विवेक एवं तर्कणा-शक्ति और 8) आधुनिक चेतना एवं विश्व-दृष्टि इत्यादि।
विद्यार्थीगण देख सकते हैं कि छायावादोत्तर काल जिसे शुक्लोत्तर युग भी कहा गया है की कविताएँ बहुमुखी और अन्तर्विषयी मालूम पड़ती हैं। वह देश-काल के अन्तर्गत चल-पिस रही वस्तुस्थितियों से लोहा लेती मालूम पड़ती हैं। इस काल की कविताओं में आत्मपरकता के साथ वस्तुपरकता का गहरा संयोजन और सहमेल दिखाई पड़ता है। यथार्थवाद की मूलप्रवृत्तियों को केन्द्र में रखकर छायावादोत्तर कविता की बात करें, तो इन कविताओं में राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन की सांस्कृतिक चेतना अधिकांश है। यही नहीं कविता अपने कहन के भाव-संवेदन में यथार्थवादी ‘अप्रोच’ अपनाती है जिसका सारा श्रेय-प्रेय तत्कालिन भारतीय समाज के उन नेतृत्वकर्ताओं को जाता है जिन्होंने राष्ट्रीयता के हर स्तर पर प्रगतिवादी साहित्य को लिखने और रचने का उत्तरदायित्व संभाला। 
विद्यार्थीगण को समझना होगा कि प्रगतिवादी साहित्य मुख्यतः साहित्य के बरास्ते सामाजिक उन्नति और सांस्कृतिक पुनरुत्थान को लक्षित एवं समर्पित विचार-प्रणाली है। प्रगतिवादी साहित्य विचार का ‘फ्रेम’ मात्र नहीं है वह बने-बनाए परिपाटी का पूर्व-निर्धरित ढाँचा भी नहीं है। कविता की मूल प्रकृति क्रियात्मक यानी ‘इंटरेक्टिव’ होती है। बकौल अच्युतानंद मिश्र-‘कविता की भाषा व्यक्तिगत संवाद की संभावनाओं को विस्तृत कर उसे सामाजिक संवाद में बदल देती है। कविता में यह सब किस तरह होता है? कविता की भाषा निजता से आरम्भ होकर निजता के परे किस तरह चली जाती है? वह किसी एक को सम्बोधित होकर भी हर किसी को सम्बोधित कैसे होती है, विचारणीय है।'  निराला की कविता स्वमेव उदाहरण है-

‘वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर’

छायावादी कवियों में मुख्य स्तंभ और प्रगतिवादी काव्यधारा के कवि के रूप में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला छायावादोत्तर काल के उन कवियों में से हैं जिनकी रचनाएँ प्रगतिशीलता की चासनी में पगी हुई हैं। जैसे-नये पत्ते, बेला, कुकुरमुत्ता, अस्वीकार, आत्यंतिक विच्छेद, मूत्तिभंजन इत्यादि। आज प्रगतिवादियों के ढेरों संस्करण मौजूद हैं-निराला खुद में एक संस्करण थे निश्चित तौर पर।

‘लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो,
भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा।
उन्ही बीजों को नये पर लगे,
उन्ही पौधों से नया रस झिरा।

उन्ही खेतों पर गये हल चले,
उन्ही माथों पर गये बल पड़े,
उन्ही पेड़ों पर नये फल फले,
जवानी फिरी जो पानी फिरा।

पुरवा हवा की नमी बढ़ी,
जूही के जहाँ की लड़ी कढ़ी,
सविता ने क्या कविता पढ़ी,
बदला है बादलों से सिरा।

जग के अपावन धुल गये,
ढेले गड़ने वाले थे घुल गये,
समता के दृग दोनों तुल गये,
तपता गगन घन से घिरा।‘

निराला कविताई में प्रखर थे, लेकिन स्वभावतः उनकी प्रकृति अक्खड़ थी। निराला की कविताओं पर कथाकार भुवनेश्वर ने लिखा, तो निराला जी आलोचना पचा नहीं सके। एक उभरते हुए रचनाकार के साथ निराला का सलूक सही नहीं रहा जिसे भुवनेश्वर की ज़बानी कहें, तो ‘अगर यह निरालाजी का विंडिकेशन (बचाव) है, तो कुरुचिपूर्ण, अगर रिवेंज (बदला) तो बहुत सख्त। इगोटिज़्म (अहंभाव) निरालाजी का स्वभाव-व्यसन है।’ इस विवाद से निराला हल्के नहीं हो जाते हैं, लेकिन भुवनेश्वर की प्रतिभा पर चोट करने की शर्त पर ही।
आलोचना में किसी किस्म का ढोंग उसकी आत्मा को बदशक्ल कर देता है, आत्मा चोटिल होती है सो अलग। आज के नकली आलोचकों जो एक ही समय में दुनिया की तमाम रवायतों पर लिख सकते हैं, अपनी उलीच अथवा फेंक सकते हैं। विद्यार्थियों को समझना होगा कि बिना तैयारी की आलोचना बिन पेंदी के लोटे की तरह होती है। गीति परम्परा के कवि बुद्धिनाथ मिश्र तल्ख़ किन्तु सही लहजे में कहते हैं-‘साहित्य और कविता की आलोचना के लिए उन्हें पढ़ना पड़ेगा। टीका करने के लिए आपको उसके विधान की जानकारी होनी चाहिए। गाल बजाने के लिए आपको इसकी कोई जरूरत नहीं।‘
भुवनेश्वर द्वारा निराला की आलोचना प्रसंग में कृष्ण कल्पित को उद्धृत करना जरूरी जान पड़ता है। वे कहते हैं-‘हिंदी के एक विद्रोही नाटककार, कथाकार और कवि भुवनेश्वर प्रसाद ने 1937 में लखनऊ से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ में सूर्यंकात त्रिपाठी निराला पर एक लेख लिखा। यह रेखाचित्र और आलोचना की मिश्रित शैली में लिखा गया था, जिसमें निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व का तीक्ष्ण भाषा में अद्भुत आकलन है।‘ फिर महाकवि को भुवनेश्वर निक क्यों नहीं लगे, विचारणीय है। तिलमिलाए निराला ने भुवनेश्वर की खूब मज्जमत की और औरों से भी कराई। ऐसा होता है प्रायः कि जो अपनी लीक के राही (फाॅलोवर) नहीं होते उनकी एक ही पहचान बना दी जाती है-दुश्मन। ऐसी मनसाहत ने कई प्रतिभाओं को असमय काल-कलवित कर दिया है, भुवनेश्वर उनमें से एक हैं। इस जगह याद आती है-कृष्ण कल्पित की ही एक कविता:

‘कुछ कवि हो गए मशहूर कुछ काल-कलवित
कुछ ने ढूँढ लिए दूसरे धंधे मसलन शेयर बाजार
कुछ डूबे हैं प्रेम में कुछ घृणा में
कुछ ने ले लिया संन्यास कुछ ने गाड़ी
कुछ लिखने लगे कहानी कुछ फलादेश

इनके बीच एक कवि है जिसे अभी याद है
पिछली लड़ाई में मारे गए साथयों के नाम
उसके पास अभी है एक नक्शा!”

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