Tuesday 14 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 6

(Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
---

(पिछले से आगे...)

विद्यार्थीगण के लिए केदार जी की कविता कहन से अधिक अनुभूत का विषय है जो हमें करेर तमाचा जड़ती है और इस और हमारा मुँह फेरती है। वह सुविधासंपन्न वर्ग के नवेलों को भी सवाल के दायरे में खड़ा करते हैं जो प्रायः अपने हाल-हालात पर तमाशा मचाते हैं। जाहिर है, क्या हमेशा अपनी ही नाधने वालों को दूसरे के हक-हकूक में मिल रही विरासत को देखने की फुरसत मिलेगी; या कि सबकुछ ऐसे ही पाखएड और प्रलाप के तितर-बटोर में नष्ट-विनष्ट हो जाएगा।
केदार जी की कविता उस स्थिति का सच्चा बयान है जिस और सोचन-विचारने की प्रगतिवादी विचारशीलता आग्रही है। प्रगतिवादी विचार अपनी मूल-संकल्पना में वर्तमान से ताल्लुक ही नहीं रखती हैं; बल्कि ‘जो है’ उसकी तहकीकात भी करती हैं। भरे-पूरे पेट वाले साहित्य साधकों ने सदैव गरीबों के मसले पर अपने दिमाग को टरकाया है; इनकी ‘जेनुइन’ माँगों से इतर तुलसीपरायण का पगहा लपेटा है-‘होहिं सोईं जो राम रचिराखा’। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि भी इसकी जबर्दस्त शिकार है जिस पर नामवर सिंह ने अपनी किताब ‘दूसरी परम्परा की खोज’ में मुलम्मा लपेटने का काम बखूबी किया है। बड़े नाम-कद के समोही आलोचक नामवर सिंह द्विवेदी जी के प्रति शिष्यानुकूल आचरण करते दिखाई पड़ते हैं-‘’जनता की प्राथमिक आवश्यकताओं से वे बेखबर नहीं हैं। वे अनुभव करते हैं कि जिस जनता को पेट-भर अन्न नहीं मिलता, वह सौन्दर्य का सम्मान नहीं कर सकती। नींव के बिना इमारत नहीं उठ सकती। ‘भूखे भजन न होहिं गोपाला।’ किन्तु इसके साथ ही यह भी सच है कि-जो जाति ‘सुन्दर’ का सम्मान नहीं कर सकती वह यह भी नहीं जानती कि बड़े उद्देश्य के लिए प्राण देना क्या चीज है। वह छोटी-छोटी बातों के लिए झगड़ती है, मरती है और लुप्त हो जाती है।’’
द्विवेदी जी ने ठेठ पंडिताई के अंदाज में प्रगतिशील बदलाव से अपनी ‘नकार’ प्रत्यक्ष कर दिया है। क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि यह बड़ा उद्देश्य तय करने वाला क्या कोई देश का बहुसंख्यक-जन है या फिर अपनी सड़ी-गली मान्यता और ऊपरी लगाव संग सामाजिक अगुवाई करता दंभी और लोभी जातीय सामंत-वर्ग जो अब तक इरादतन उन जातियों को लुप्त करता आया है जो राग-दरबारी नहीं है; ‘अहो ध्वनि, अहो रूपम’ के अंधभक्त उपासक नहीं है। प्रगतिशील चेतना के विपरीत दिशा में देखने के आग्रही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं-‘जो मनुष्य को उसकी सहज वासनाओं और अद्भुत कल्पनाओं के राज्य से वंचित करके भविष्य में उसे सुखी बनाने के सपने देखाता है वह ठूँठ तर्कपरायण कठमुल्ला हो सकता है, आधुनिक बिल्कुल नहीं। वह मनुष्य को समूचे परिवेश से विच्छिन्न करके हाड़-माँस का यन्त्र बनाना चाहता है। यह न तो असंभव है, न वांछनीय’’ जनता-जनार्दन को ‘जय संतोषी माँ’ का ज्ञान पिलाते आचार्यप्रवर को उन जातियों के माल-असबाब भी देखने चाहिए थे जिनके सौन्दर्य-सर्जक समाज के प्रकट परिवेश से कटकर साहित्य-साधना में लीन थे और एक तरह की अमूर्तन सत्ता के सबल अभ्यर्थी मालूम पड़ते हैं। जैसे-रहस्यात्मकता, आध्यात्मिकता, प्रकृति-चित्रण, अभिव्यांजनात्मक वाग्विलास आदि।
प्रगतिवाद की सार्थकता और एक आंदोलन के रूप में प्रगतिशील काव्य-धारा की शुरुआत यहाँ से होती है। साहित्यिक तौर पर सन् 1936 में प्रगतिवाद की नींव पड़ी, लेकिन उसकी पूर्वपीठिका पहले ही तैयार हो चुकी थी। गोलमेज सम्मेलन में गाँधी जी के प्रायोजित ड्रामे के बाद राजनीतिक नेतृत्व का कमान एक बार फिर उन सामंतीजनों के पास रह जाता है जिनसे गाँधी स्वयं घिरे थे। इस जगह आम्बेडकर जी यह महसूस करने को विवश हुए थे कि वे ‘बहिष्कृत भारत’ हैं जिसे ‘प्रबुद्ध-भारत’ बनने की दिशा में अभी लम्बी यात्रा तय करनी होंगी। निःसंदेहराष्ट्रीय फलक पर आम्बेडकर का अभ्युदय हुआ था। उनकी ज़मीनी बात मसीहाई नहीं थी बल्कि ‘डाउन टू अर्थ’ थी। वह लाठी-भाले या कि चुरकी-जनेऊ वाली उस परम्परा से नहीं आते थे जिसकी बलिहारी समाज तमाम नंगई और खुले व्याभिचार के बावजूद कुल-गोत्र-जाति देखकर किया करता था। आम्बेडकर के पास निरा दावे नहीं, ठोस आधार थे। बाइज्जत प्रमाण के साथ ‘सोशियो-कल्चरल रिफरेंस’ के बल पर जनचेतना की वकालत तथा जनपक्षधरता की अगुवाई करते आम्बेडकर ने ज्ञान और शिक्षा को अपनी दशा-परिवर्तन का जरूरी ‘टुल्स’ माना। यही नहीं साहित्यिमना भाव से कहें, तो ‘समता-स्वतन्त्रता’ के लक्ष्य को पाने के लिए इन्हें ही वास्तविक सौन्दर्य-बोध, रस, अलंकार और हेतु घोषित किया था।
राजनीतिक नवनिर्माण इन्हीं दिनों हो रहा था और कांग्रेस के बड़जातपन से मुक्ति को लेकर सबलोग भिन्न-भिन्न तरीके से प्रयास करते दिख रहे थे। यह तथ्य है कि-‘‘1934 ई. में कांग्रेस के बीच से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ। 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा और अखिल भारतीय छात्र फेडरेशन की स्थापना हुई। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में प्रेमचंद के नेतृत्व में, इसी वर्ष प्रगतिशील लेखक संघ की नींव पड़ी।‘’
असल में पूरी दुनिया उन दिनों साम्यवादी-समाजवादी विचारों से ओत-प्रोत थी। यह प्रगतिशील लेखक संघ जिस विचार और आदर्श से प्रेरित था उसकी स्थापना सन् 1935 में ई. एम. फोस्टर ने ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ के नाम से की थी। इसकी बुनियाद पेरिस में रखी गई। भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना सज्जाद ज़हीर और मुल्कराज आनंद ने सन् 1936 में की थी। प्रगतिवाद की नई साहित्यिक बयार जिसे 1936 में आरंभ हुआ माना जाता है; का प्रभाव अगले दो दशकों तक रहा। इसी बीच एक नए साहित्यिक मिजाज ने पाँव पसारा जिसे सचिच्दानंद हीरानंद वात्‍स्‍यायन ने गति दी। वह अज्ञेय उपनाम से लोकप्रिय कवि हैं। पद्य में प्रयोग’ करने वाले इन प्रपद्यवादियों ने जिस आधुनिक काव्यधारा को गति दी; प्रयोगवाद कहलाया जिसकी शुरुआत अज्ञेय के सम्पादन में पहली बार प्रकाशित तार-सप्तक (1943 ई.) से माना जाता है। प्रयोगवाद की धमक डेढ़ दशक तक मुख्यतः और बाद के वर्षों में छिटपुट देखा जा सकता है। इसके बाद का दौर नयी कविता का है जिसके अलग मायने हैं और इन्हीं के बीच एक दौर आता है-साठोत्तरी कविताओं का जो नयी कविता में भी टटके बिंब-प्रतीक-मिथक के साथ अपनी दखल और सीधी हस्तक्षेप के लिए जाना जाता है।
फिलहाल, विद्यार्थीयों को प्रगतिवाद के कालक्रम और कविकारों से परिचय कराये, तो इनमें मुख्य रूप से जिन कवियों का नाम आता है; वे हैं-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंश राय बच्चनए नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, भगवती चरण वर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, आरसी प्रसाद सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर सिंह, रामविलास शर्मा आदी।

No comments:

Post a Comment