Tuesday 14 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 5

(Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

 डाॅ. रंजना अरगड़े इस बारे में कहती हैं-‘काव्य-रचना की दो प्रक्रियाएँ होती हैं-या तो आप अपने निजी अनुभव क्षेत्र में वैश्विक चिंताओं को ले आएँ या फिर अपनी अनुभूतियों को व्यापक स्तर पर ले जाएँ।’ कविता के बारे में प्रस्तुत आख्यानों को पढ़ते हुए विद्यार्थियों का ध्यान इस और जाना जरूरी है कि अनुभूति के मामले में शुक्ल जी की बात सही बैठती है, तो शुक्लोत्तर काव्यधारा के सन्दर्भ में अरगड़े अधुनातन परिप्रेक्ष्य से अवगत कराती हैं। लेकिन दोनों ही सन्दर्भ में एक बात जिसकी और डाॅ. रंजना संकेत करती हैं, ध्यान आकृष्ट करना होगा। वह कहती हैं कि-‘आमतौर पर कवि अपने अनुभव के फ्रेमवर्क को फैलाता है, फैलाने की कोशिश करता है। कई बार वह अपनी रचना-प्रक्रिया के द्वारा उस मर्यादा को बढ़ा भी लेता है या उसी फ्रेमवर्क में एकदम नए रंग-संयोजनों या कल्पना द्वारा ऐसे पैटर्न बनाता है जो हमारे मन में उस कवि की अलग पहचान बनाते हैं और कवि के पोत (टेक्सचर) की हमें पहचान भी देते/कराते हैं।‘
अरगड़े कविता पर लिखने की रवानगी में अंधभक्त हो जाने की पैरोकार नहीं हैं कि कविता कहने की उतान में कवि जुमलेबाजी अथावा फिरकापरस्त हो जाए। वह साफ लहजे में स्पष्टतः ताकीद करती हैं कि-‘एक कवि के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात यही है कि अपने पक्ष की उसे साफ पहचान हो। स्थितियों व व्यक्तियों का विश्लेषण भी जरूरी है।’ शायद वह अपनी बात बल देकर इसलिए कह रही होती हैं कि-‘सच्चे साहित्य के केन्द्र में है-सम्प्रेषण व सहभागिता। कुछ महत्त्वपूर्ण सम्प्रेषित करना। यह महत्त्वपूर्ण अधिकांश समानधर्माओं के सरोकारों के साथ जुड़ा होना चाहिए। कवि केवल सूचनाएँ देने का काम नहीं करता, करना भी नहीं चाहता। वह अपनी संवेदनाओं, भावनाओं, विचारों व रचना-प्रक्रिया में हमें सहभागी बनाना चाहता है। इस प्रक्रिया में वह अपनी ही बात करने से बच जाता है। यानी उसकी बात औरों की बात बताकर प्रस्तुत होती हैं। साथ ही औरों की संवेदनाएँ उसकी निजी संवेदना में शामिल हो जाती हैं। यही तो है व्यापक चिंताओं के साथ कवि का निजी सरोकार।’
विद्यार्थीगण को यह अहसास होना आवश्यक है कि सरोकार विचार का विषय मात्र नहीं है, बल्कि संवेदनापरक उदात्त भाव अधिक है जो सदैव जीवन-मूल्य का अनुगामी होती है। इसी सरोकार के बदौलत कवि अपने को जनपक्षधर बना पाता है और प्रतिबद्ध भी। विजेन्द्र के हवाले से डाॅ. अवधेश नारायण मिश्र कहते हैं-‘वस्तुतः प्रतिबद्धता विचारधारा और जीवन-दृष्टि के सहमेल से बनती है, जिसमें संचालित होकर रचनाकार ऐसी विषयवस्तु का चुनाव करता है जो मानव-मुक्ति में सहायक हो और मेहनतकश जनता की सांस्कृतिक चेतना का उन्नयन कर उसमें ज्ञानात्मक संवेदनशीलता पैदा करे। ऐसी प्रतिबद्धता रचनाकार को यथार्थ की सही पहचान कराती है। इस पहचान में समकालिनता का जितना महत्त्व है उतना ही सर्वकालिकता का।‘
विद्यार्थीगण कवि और उसकी लिखी कविता का परिचय पाते हुए इस तथ्य को नहीं बिसारना चाहिए कि-‘‘रचना ममें अन्ततः शब्दों की भूमिका प्रधान होती है। ये शब्द ही होते हैं जो अन्य साहित्यियक विधाओं के बीच गीत के गीत या कविता के कविता होने का आभास कराते हैं। रचना के भाव-संसार तक पहुँचने में ये ही महान भूमिका का निर्वाह करते हैं और उसकी काल-यात्रा में ये न केवल उसके सहचर होते हैं अपितु स्वयं माध्यम भी बनते हैं। ये शब्द रचनाकार के आविष्कार होते हैं जिन्हें बाहर की दुनिया से खोजकर अपने रचना-संसार में लाता है और सृजनात्मक कर्म को रूप देता है।’
विद्यार्थियों के मन में यह जानने की जिज्ञासा होनी चाहिए कि काल के प्रवाह में विचरते शब्दों से आखिरकार कविता की भाषा कैसे बनी? इसकी पड़ताल समालोचक सुधीर रंजन सिंह ने बेहतरीन ढंग से की है। वे अपने लेख ‘आज की कविता और भाषा’ में कहते हैं-‘लिखने-पढ़ने की गद्य भाषा को आधार बनाकर आधुनिक हिंदी कविता आगे बढ़ी। छायावाद में आकर उसमें लालित्य अवश्य पैदा हुआ, लेकिन उसका सम्बन्ध बोलचाल की भाषा से नहीं था। प्रगतिवाद और नई कविता में बोलचाल की भाषा का समुदाय ही कायदे से इसी दौर में विकसित हुआ।’
अब बिना किसी भूमिका की चासनी में डूबोये शुक्लोत्तर युग की बात करें, तो यही वह समय-प्रवाह है जिसे नंददुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह, शिव कुमार मिश्र जैसे मूर्धन्य आलोचक कविता में ‘पैराडाइम शिफ्ट’ की घोषणा करते हैं और इसी जगह छायावादोत्तर काव्यधारा के रूप में प्रगतिवाद का श्रीगणेश होता है, मंगलाचरण भी।
छायावादोत्तर काव्य : 1936 का वर्ष छायावाद के बाद का कविता-युग माना जाता है। इस नये युग में भले ही छायावाद के ही कई कवि कविता लिख रहे थे लेकिन उनकी कविता का स्वर, कथ्य और शैली में बदलाव स्पष्ट दिखता है। बदलाव की नई प्रवृत्तियों को सुधि आलोचकों ने छायावादोत्तर काव्य कहा है। इसे प्रायः तीन खण्डों में बाँटा गया है-1) प्रगतिवाद, 2) प्रयोगवाद और 3) नयी कविता।
प्रगतिवाद के दौर में भाषा की मुहावरेदानी में एक शब्दावली चमका-‘यथार्थवाद’। सरलतापूर्वक समझने के लिए केदारनाथ अग्रवाल का आश्रय लें तो-‘यथार्थवाद के कई प्रयोग हो सकते हैं। एक तो यह है कि वर्तमान के प्रति असंतोष। दूसरा यह कि वर्तमान पर केन्द्रित प्रहार। तीसरा यह कि समता का प्रचार। चौथा यह कि प्रश्नों का उत्तर देना। पाँचवा यह कि व्यंग्य से जनता की चेतना को जागृत करना। छठा यह कि मानवीय व्यवहार के मूल में निहित भावना को उभार कर प्रत्येक कार्य की वास्तविकता को दिखाना। सातवाँ यह कि मानव की महत्ता को स्वीकार करके अन्य किसी सत्ता का बहिष्कार करना। आठवाँ यह कि समस्त मानवजाति सूत्र में बँध कर एक राज्य व्यवस्था की निर्माता बन जाये। नवाँ यह कि मानव अतीत का नहीं वर्तमान का प्राणी है। इसके अतिरिक्त अन्यान्य प्रयोग भी संभव है।’ 
विद्यार्थीगण यहाँ ध्यान दें कि छायावादोत्तर कविता के मुख्य रचयिता के रूप में अग्रवाल जी यथार्थवाद की जितनी मणिकाएँ फेर रहे हैं आज के अधिसंख्य प्रगतिशील बिल्कुल उलट आचरण करते दिखाई देंगे। वे अभी चालीस से अस्सी के दशक की कविताओं के ‘हैंगओवर पीरियड’ के उम्दा रसिक हैं, प्रगतिशीलता उनकी महज नेमप्लेट हैं। केदार जी की रचना स्वमेव प्रमाण है:

‘जब बाप मरा तब यह पाया
भूखे किसान के बेटे ने:
घर का मलवा, टूटी खटिया
कुछ हाथ भूमि-वह भी परती
चमरौधे जूते का तल्ला, छोटी, टूटी, बढ़िया औगी
दरकी गोरसी, बहता हुक्का
लोहे की पत्ती का चिमटा।...दीमक, गोजर, मच्छर, माटा-
ऐसे हजार सब सहवासी
बस, यही नहीं, जो भूख मिली
सौ गुनी बाप से अधिक मिली।’

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