(Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)
कविता सिर्फ सामान्य सूझ से नहीं समझी जा सकती है। हाँ, सूझ भरी चालाकी से कविता पर बोला जा सकता है। कविता
इतनी असाधारण हुआ करती है कि गिरी और उथली हुई बातों को पासंग भर महत्त्व नहीं देती
है। चाहे ऐसी दोयम दरजे की बातें राष्ट्रीय संगाष्ठियों में बघारी जायें या अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में। अच्छी कविता पुरस्कारों के चकलाघर चलाने वालों से रिश्ता नहीं रखती है। मुक्तिबोध
के लहजे वाली कविता ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ की परात में से उमगती
हुई बाहर कदम रखती है। कविता अपने अर्थ का संधान शब्द की बाजीगिरी से नहीं बल्कि भाव-विचार
की एकात्मकता द्वारा करती हैं। साठोत्तरी ज़माने
की कुशेश्वर की एक कविता देखिए जरा जो ‘पहल 110’ में प्रकाशित हुई है-
‘दिखाते हैं खूबसूरत दाँत
मंजन करने वाले
दिखाते हैं चमकता चेहरा
अपना चेहरा बेचने वाले
मैं क्यों दिखाऊँ दाँत अपना
दाँत पीसना मेरी आदत में नहीं शामिल
यह करतूत बन्दरों की हुआ करती है
मैं तो खुलकर हँसना चाहता हूँ
हँसने में दिख जाये यदि दाँत
तो उसमें मेरा क्या दोष
लगे रह गए होंगे। कहीं दाँतों के बीच
मकई के कुछ सफेद दाने
जो खाये थे बचपन में
कोई अमेरिकन डायमंड तो सटा नहीं रक्खा
मेरा चेहरा भी ऐसा नहीं
कि मेरी मुस्कान की लगाये कोई कीमत
एक गरीब बच्चे की मुस्कान की कीमत नहीं हो सकती
सच कह रहा हूँ’
यह सचबयानी पंडिताई के घीव घोरने से हासिल नहीं हो सकता है। गरीबी के
प्रति हिकारत अमीरों की फैशन और मध्यवर्ग का ट्रेंड बन चुका है। सरकारी और गैर-सरकारी
मौत के आँकड़ों में गरीबी से मौत के चेहरे की कीमत क्या होती है, इसका अंदाजा सेंसस
रिपोर्ट पढ़कर ‘राजनीतिक संवाद-विमर्श’ करने वाले को मालूम नहीं दे सकता है। यह कवि
कुशेश्वर जैसा जीवट कवि ही कह सकता है जिनके नाम को मुखौटाधारी कविकारों और आलोचकों
ने कहाँ और कितनी जगह महत्त्व दिया है; देखा जा सकता है।
विद्यार्थीगण ध्यान दें कि कविता को पढ़ने की तमीज परम्परा को बरतने
के नाते विकसित होती है। बीते हुए को टेरना और कोंचना जरूरी है, तभी सहज-विशेष अंतःदृष्टि
विकसित होती है। खासकर अध्यापकीय पेशे में कविता की व्याख्या-विश्लेषण हेतु जरूरी है
कि हम अपना निर्माण उन सुधि आलोचकों के अवगाहन से करें जिन्होंने अपना सबकुछ काव्य,
कविता और साहित्य पर वार दिया है, लुटा दिया है। युवा कवि अविनाश मिश्र सही फरमाते
हैं कि-‘आलोचना का नसीब जो मेरे उत्साह में मुझ तक विष्णु खरे के जरिए, विष्णु खरे
तक मुक्तिबोध के जरिए, मुक्तिबोध तक निराला के जरिए, निराला तक कबीर के जरिए, कबीर
तक बाणभट्ट के जरिए और बाणभट्ट तक वाल्मीकि के जरिए आए।’
इस जगह विद्यार्थीगण स्वयं यह तय करें कि उन तक कविता और काव्य-दृष्टि
किसके बरास्ते पहुँच रही है अथवा पहुँच सक रही है भी या नहीं? कविता मानवीय भावनाओं
और संवेदनाओं को माँजने भर का काम नहीं करती हैं या इसे इस तरह समझें कि कविता उसे
रसानुभूति के स्तर पर महज उदात्त ही नहीं बनाती है, अपितु कविता कवि के व्यक्तित्व
में भी करिश्माई फेरफार कर देती है। इसीलिए, तो कविता पर बात करने वाले नकली आलोचकों
की दिमागी नस ढीली हो जाती है क्योंकि वे इतने वैचारिक रूप से नपुंसक हो चुके होते
हैं कि औरों को शक्तिबर्द्धक-बलवर्द्धक टाॅनिक बेचने का कारोबार ही कर सकते हैं क्ययोंकि
वे खुद बुरी तरह चुक चुके होते हैं। यहाँ अविनाश मिश्र द्वारा कृष्ण कल्पित को याद
करते हुए लिखी कृष्ण कल्पित की यह कविता द्रष्टव्य है-
‘जिसकी एक भी पंक्ति नहीं बची
उसके
पास सर्वाधिक तमगे बचे हुए हैं'
विद्यार्थीगण, अब यदि हम बीती हुई सदी के आलोक में बनती बनती हुई कविता
या कि रची-बुनी जा रही कविता या की काव्य-रूपों की बात करें, तो बीसवीं सदी का पाठ-अंतःपाठ
आवश्यक जान पड़ता है। इस सन्दर्भ में युवा समीक्षक अच्युतानंद मिश्र की इन पंक्तियों
से गुजरना महत्त्वपूर्ण होगा-‘बीसवीं सदी विचार के अंत और पुनर्विचार के प्रारंभ दोनों
के सह-अस्तित्व की सदी रही। इन तमाम अंत और शुरुआत के बीच बीसवीं सदी की कविता सतत
प्रवाहमान रही। हालांकि, कविता के अंत की घोषणाएँ भी किन्हीं और सन्दर्भों और अर्थों
में होती रही। ऐसे में यह जरूरी हो उठता है कि कविता के सन्दर्भ में हम आरम्भ, मध्य
और अंत को ओझल करते हुए समाज में कविता की भूमिका और प्रासंगिकता पर बात करें।'
कविता के सन्दर्भ में अपनी ठीक-ठाक राय बनाने से पहले विद्यार्थियों
को आवश्यक है कि वे कविता के अर्थ औ प्रयोजन को सर्वप्रथम समझें। कविता के सन्दर्भ
में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की बात माननी आवश्यक है। वह काव्य के दो उपयोगी कार्य निर्धारित
किए हैं-1) कल्पना की वृद्धि और 2) मनोवेगों का परिष्कार।..
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