Monday 27 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 22

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

विद्यार्थीगण ध्यान दें कि व्यावहारिक बदलाव किसी भी किस्म के परिवर्तनकामी विचार से ज्यादा स्थायी और प्रभावी हुआ करती हैं। विचार बदलाव के सूत्र हो सकते हैं, लेकिन बुनियादी स्रोत उन्हें नहीं माना जा सकता है। प्रगतिवादी काव्यधारा के कवियों ने इस हकीकत को भली-भाँति बूझ लिया था। वे माक्र्सवादी-समाजवादी सिद्धान्तकारों के खिलाफ नहीं थे, लेकिन उनकी सीमायें बखूबी जानते थे। इसलिए तद्युगीन अधिसंख्य कवि जन-सरोकार के कवि हैं। उनका सामाजिक जुड़ाव अथवा लगाव गहन है और ज़मीनी है। 
जन-मन के आंदोलनकारी नेता और किसानों के हितचिंतक स्वामी सहजानंद सरस्वती के विचार स्तुत्य हैं-‘‘मुल्क में जितने भी प्रगतिशील विचार वाले या वामपंथी हैं सबों की अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना गीत है। कम से कम जितनी पार्टियों में ये लोग बँटे हैं उतने रास्ते तो इनके हैं ही। आपस में इनका काम करना वैसा ही है, जैसा बाघ और बकरी का। एक-दूसरे की बातें करने में भी इन्हें नफरत है। दक्षिणपंथी नेताओं की सबसे बड़ी होशियारी यही रही कि उन्होंने वामपंथी में ‘तीन कनौजिया तेरह चूल्हा’ कर दिया और एक-दसरे को हजार कोस दूर रखा। हमारी पार्टी सही, हमारी पाॅलिसी दुरुस्त और हमारी पाॅलिटिकल थीसिस खरी है, इसी धुन में हर पार्टी वाला मस्त है।’’
आज 21वीं सदी के दो दशक बीत चुके हैं। पर स्वामी सहजानंद ने प्रगतिशील काॅमरेडों को लेकर जो सटीक मूल्यांकन स्वतंत्रता-पूर्व भारत में किया था, वह आज भी सोलह आना सच है। बकौल किसान आंदोलन के अगुवा रहे सहजानंद सरस्वती-वामपंथी लोग तो बराबर चिल्लाते थें कि श्रमजीवियों को राजनीतिक चेतना दी जाय, वे तैयार किये जाएँ। लेकिन ऐसा सुनकर ये नेता ही छाती पीटते थे कि ऐसा होने पर सब चैपट होगा! फिर वही नेता आज लोगों को कैसे तैयार करेंगे? और क्या यह तैयारी बात ही बात में हो जाएगी? उसके लिए तो युग लगेंगे। तब क्या शोषक-गण हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहेंगे? क्या वे अपनी तैयारी न करेंगे और बाजी मार न ले जाएँगे? अगर वे रोके जाएँगे तो किस तरह, यह बात बताने के लिए क्या ये लीडर तैयार हैं?” जनता जानती है कि नेताओं की भाषा से जीवन की वैतरणी से पार लगना मुश्किल है। उनकी स्थिति खुद न तीन में न तेरह की होती है। नेतागिरी आज ‘उपेक्षा’ और ‘सहूलियत’ का प्रबंधशास्त्र है। वह जनता की उपेक्षा करने की शर्त पर अपनी सहुलियतें तय करता है। जहाँ तक आजादी के दौरान के प्रगतिशील-वामपंथी राजनीतिज्ञों के मंसूबे की बात है, तो  अकबर इलाहाबादी बहुत खूब फरमाते हैं-

“क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ।“

भारतीय जनता इतनी बार छली गई है कि वह अपनी परछाई की परछन भी सोच-समझकर करती है। इस मामले में उसके निर्णय बेहद सतर्क और विवेकशील होते हैं। कहा भी जाता है कि जनता अपने फैसले में बहुद क्रूर होती है। दरअसल, प्रगतिवादी काव्यधारा के कविगण को भी ज़मीनी सचाई पता था। किसानों-मजदूरों की संगठित एका के असल ताकत का भान था।‘‘प्रगतिशील कवियों में शुमार आरसी प्रसाद सिंह की कविता ‘जब पानी सर से बहता है’ का हुंकार शायद ऐसे ही मौकों के लिए हो, अपने को चरितार्थ करती मालूम देती हैं-

“तब कौन मौन हो रहता है?
जब पानी सर से बहता है।

चुप रहना नहीं सुहाता है,
कुछ कहना ही पड़ जाता है।
व्यंग्यों के चुभते बाणों को
कब तक कोई भी सहता है?
जब पानी सर से बहता है।

अपना हम जिन्हें समझते हैं।
जब वही मदांध उलझते हैं,
फिर तो कहना पड़ जाता ही,
जो बात नहीं यों कहता है।
जब पानी सर से बहता है।

दुख कौन हमारा बाँटेगा
हर कोई उल्टे डाँटेगा।
अनचाहा संग निभाने में
किसका न मनोरथ ढहता है?
जब पानी सर से बहता है।“

1936-37 के चुनाव ने तो स्पष्ट ही बता दिया कि ग्रामीण जनता के पास अपरंपार शक्ति है, जो किसी को झुका सकती है। इसी भाव ने, जनशक्ति के इसी ज्ञान ने किसान्-आंदोलन को जन्म दिया। जनांदोलन का मूल तो गाँवों में ही था, उसके मूलस्तंभ किसान ही थे। असहयोग-आंदोलन का कार्यक्रम प्रधनतः उन्हीं को ध्यान में रखकर तैयार हुआ था। अधिसंख्य वही उस आंदोलन में खिंचे भी। फलतः अपनी अजेय शक्ति का ज्ञान विशेष रूप से उन्हीं को हुआ। उसने सोचा कि अगर हम अपरा बलशाली साम्राज्य शाही को पछाड़ सकते हैं, तो इन जमींदार-मालगुजारों और सूदखोरों की क्या हस्ती? ये तो उसी साम्राज्यशाही के बनाए हुए हैं। जब हमने हाथी या सिंह को पछाड़ लिया, तो बिल्ली या चुहिया की क्या बिसात? यदि संगठित जनांदोलन ने सरकार को मात किया तो संगठित किसान-आंदोलन ही जमींदार को करारा पाठ पढ़ाएगा, यह निष्कर्ष किसानों और उनके सेवकों ने स्वभावतः निकाला।’’
प्रगतिवादी कविताओं को महसूसते हुए विद्यार्थीगण इन बातों को कदापि न भूलें कि कविता प्रत्यक्ष-परोक्ष बहुत कुछ कर सकती हैं। ‘जेनुइन’ कविता दरबारी नहीं होती हैं या कि किसी की खुशामद अथवा अपने ‘स्व’ की हत्या कर स्तुतिगान में नहीं लिखी जाती हैं। वह अपने होने को हो कर साबित करती हैं। जनता के पास कुछ न हो, सिर्फ जनगीत हो, तो वह अपने तईं बड़ा पराक्रम कर दिखाती हैं। कविता की ताकत को समझने की बजाय ‘गिरगिट की पूँछ’ बनते कवि भले न समझें, लेकिन जनता के ज़बान का कवि इन बातों को बखूबी जानता और पहचानता है। उन दिनों परिस्थितियाँ भी इतनी विकट थी कि किसानों-मजदूरों में यह चेतस-भाव जगना लाजिमी था। प्रगतिशील कवि के रूप में जाने जाने वाले राष्ट्रकवि दिनकर ने शोषित-वंचित इस बहुसंख्यक वर्ग की चेतना और खोई हुई पहचान की पुनःवापसी के लिए ‘आग की भीख’ शीर्षक से एक टटके भाव-संवेदनाओं की कविता को जनता के बीच प्रकट किया-

“धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का शृंगार मांगता हूँ

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।“

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