Thursday 30 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 23

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

विद्यार्थीगण को इस बात पर ध्यान देना चाहिए और इस बारे में संवेदनशील ढंग से सोचना चाहिए कि आँख बंद कर लेने से वास्तविकता नहीं बदल जाती है और न ही पन्ने पलटना बंद कर देने से दारुण कथा का अंत हो जाता है। उसके लिए संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है, परम लक्ष्य है। बुद्ध से लेकर ज्योतिबा फुले, विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, संविधान-निर्माता भीमराव आम्बेडकर तक ने कहा है-अपने हक की तलाश में खुद निकलो और जो अब तुक तुम जैसों को हासिल नहीं हुआ है उसे सांविधानिक तौर-तरीकों से प्राप्त करो। राह के दिग्दशी मनुष्यों ने खुद चेष्टा करने की बात कही है। अगर मंत्र चलन में है, तो मंत्र जानों; जो भाषा कारगर है उसे सीखों; साथ ही वे सब करें और उतनी ही मेहनत से करें जो दूसरे अपनी क्षमता और बुद्धि से कर रहे हैं। अन्यथा किसी भी तरीके की अतिरिक्त सुविधा हमें औसत-बुद्धि ही साबित करेगी और हम अंततः उपहास का कारण बनेंगे। इसलिए सरकारी सुविधाओं की जगह अपना आविष्कार स्वयं करना है और दुर्गम या कहें अभेद्य कहे जाने वाले लक्ष्य को प्राप्त करना है। प्रगतिवादी काव्यधारा के कवि मन्नूलाल द्विवेदी ‘शील’ अपनी कविता ‘राह हारी मैं न हारा !’ (सन् 1945) में जो कहते हैं वह देश की सर्वहारा जनता के लिए ओज और साहस की प्राणवायु है :

 “राह हारी मैं न हारा !

थक गए पथ धूल के —
उड़ते हुए रज-कण घनेरे ।
पर न अब तक मिट सके हैं,
वायु में पदचिह्न मेरे ।

जो प्रकृति के जन्म ही से —
ले चुके गति का सहारा !
राह हारी मैं न हारा !

स्वप्न मग्ना रात्रि सोई,
दिवस संध्या के किनारे
थक गए वन-विहग, मृग, तरु —
थके सूरज-चाँद-तारे ।

पर न अब तक थका मेरे —
लक्ष्य का ध्रुव-ध्येय तारा ।

राह हारी मैं न हारा !”

अक्सर कठिन घड़ी ईमानदार लोगों के लिए व्रजपात की माफिक होती है। आप अपने हक-हकूक और अधिकार से वंचित रह जाते हैं; जबकि दूसरे आप पर राज करने लगते हैं। विकल्पहीनता की स्थिति में एक ही मुहावरा चमकता है-‘मरता क्या न करता’। प्रगतिवादी कवियों ने देखा कि अमीर दिन-ब-दिन अमीर होते जा रहे हैं और ब्रिटिश हुकूमत भी उन्हीं की सुनती है जबकि देश की करोड़ो-करोड़ जनता तमाम तरह की व्याधियों और समाजजनित रोगों से त्रस्त है। उनकी पीड़ा की कहीं कोई सुनवाई नहीं; न कोई देखभाल और न ही कोई पुरसाहाल। ऐसे में साहित्य की प्रगतिवादी काव्यधारा ने इन असहायों और बेसहारों के लिए ‘मूक आवाज’ का पर्याय बनने की सोचा और आगे बढ़े। इस दौर के अधिसंख्य कवि स्वप्नजीवी नहीं थे और न ही ख्याली पुलाव पकाने वाले गप्पी क्रांतिकारी। ऐसे कवियों की जड़ें भारतीय हैं, लेकिन चिन्तन का दायरा अन्तरराष्ट्रीय हैं। जनकवि नागार्जुन की कविता जो ‘हिंदी-कविता.काॅम’ पर ‘जनकवि का प्रणाम’ शीर्षक से संकलित है के कहन की मुहावरेदानी देखते बनती है-

“भारतीय जनकवि का प्रणाम

गोर्की मखीम!
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
घुल चुकी है तुम्हारी आशीष
एशियाई माहौल में
दहक उठा है तभी तो इस तरह वियतनाम ।
अग्रज, तुम्हारी सौवीं वर्षगांठ पर
करता है भारतीय जनकवि तुमको प्रणाम ।

गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!

गोर्की मखीम!
दर-असल'सर्वहारा-गल्प' का
तुम्हीं से हुआ था श्रीगणेश
निकला था वह आदि-काव्य
तुम्हारी ही लेखनी की नोंक से
जुझारू श्रमिकों के अभियान का...
देखे उसी बुढ़िया ने पहले-पहल
अपने आस-पास, नई पीढी के अन्दर
विश्व क्रान्ति,विश्व शान्ति, विश्व कल्याण ।
'मां' की प्रतिमा में तुम्ही ने तो भरे थे प्राण ।

गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!

गोर्की मखीम!”

आज के सन्दर्भों में भी ये कविताएँ बिल्कुल मौजूं मालूम देती हैं। कवि निरर्थक नहीं होता है, क्योंकि उसके पाठ का अंतःपाठ और अन्तर्पाठ सदैव चलते रहते हैं। इस तरीके से हम देख पाते हैं कि प्रगतिवादी कवियों ने अपने देशकाल व परिवेश की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की न सिर्फ संवेदनशील पड़ताल की, अपितु भारत की उस जनता के पक्ष में आवाज बुलंद की जो वास्तव में धरतीपुत्र थीं और उनका पेशा था-खेती-किसानी, मजदूरी, कास्तकारी, हस्तशिल्प व कुटीर उद्योग इत्यादि। जो सदियों से शोषित-पीड़ित और समाज की धारा से बहिष्कृत थी, हाशिए पर थी। जबकि एक दूसरी जमात थी-चंद अमीरजांदों की जो सामंत और अंग्रेज के सिपाहसालार थे। दरअसल एक ही समय में कुछ लोग बिना कुछ किए सफल हो जाते हैं तो उसके पीछे स्वार्थलोलुप प्रवृत्तियाँ और अनैतिक कार्यकलाप मुख्य वजहें होती हैं। बेईमान लामबन्दी जबर्दस्त तरीके से करते हैं। लूट की ज्यामिति में वे अपनी स्थिति चतुर्भुज में उस कोने की तरह सुरक्षित रखते हैं जो प्रकृतितः ‘राइट एंग्ल’  होता है। भारत पर बेईमान और भ्रष्ट सत्ता इसी मंशा से राज करती आई है। सरकारें जनहित का करतब बहुत कर ती है; उवाचती भी जोर-शोर से है; लेकिन जन-साधारण की यथास्थिति में किंचित ही बदलाव हो पाता है। बाकी अभिजात्य वर्ग, नौकरशाह, नेता-मंत्री हुक्मरां और उनके कारिंदे खा-चिबा जाते हैं। ऐसे में जनता के प्रतिरोध का आँसू रामाधारी सिंह दिनकर जैसे प्रगतिशील कवि के कलम के बरास्ते पूरे ओज-नाद, शोर्य-साहस का हुंकार करती हुई जगजाहिर होती हैं- 

“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता? हां, लंबी – बड़ी जीभ की वही कसम,
‘जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।‘
‘सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?’
है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?’

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।“

लेकिन यह आने वाली जनता चेतस और समझदार होनी चाहिए। उसे अपने मंजिल की पहचान करते हुए आगे बढ़ने आता हो। सनद रहे कि सत्तासीन होने की आग्रही जनता सिर्फ वह अपनी ही महत्त्वाकांक्षा में नधायी रहने वाली न हो। फिर प्रश्न है कि जनता की चित्तवृत्ति आखिर कैसी हो, तो इसके लिए सामवेद की पंक्ति मार्गदर्शन करती मालूम देती है-

‘विदा मघवन् विदा गातुमनुशंसिषों दिशः।
शिक्षा शचीनां पते पूर्वीणां पुरूवसो।।’

विद्वान मनीषी इसकी व्याख्या में जोड़ते हैं-‘‘लक्ष्य निर्धारण केवल मन की भावना या इच्छा से भी नहीं करना चाहिए। अपनी ‘क्षमता’ को अपने आन्तरिक ‘स्वभाव’ को जान-समझकर ही ‘गंतव्य’ निश्चित करना होगा। हमारी अपनी चेतना, हमारा मन आदिशक्तियों का स्वामी है, उसकी बात सुने के लिए भीतर लौटना होगा अर्थात् चिन्तन-मनन व ध्यान करना होगा, तब मघवन् यानी उदाहरृदय देव हमें सही दिश-निर्देश देकर गंतव्य तक पहुँचने के साधन व शक्ति भी देगा।’’

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