Saturday 25 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 21

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

प्रगतिवादी आन्दोलन और प्रगतिवाद के कवियों ने देखने की दृष्टि दी। बीते कुछ दशकों में भारत की जो चतुर्दिक वृद्धि हुई और भारत प्रगतिशील सोपानों पर निरंतर आगे बढ़ पाया है, तो इसमें प्रगतिशील कवियों द्वारा निर्मित सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का योग कम नहीं है। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ वाले लिहाज से कहें तो आजाद भारत के नक़्शे पर गंणतांत्रिक राष्ट्र का उदय एवं प्रतिष्ठा इसका स्वमेव सूचक है। उन दिनों पूरा भारत आधुनिकता-बोध के नवयुग में प्रवेश कर रहा था, आधुनिकता-बोध के बरास्ते अपनी कहानी खुद लिखने हेतु भारत की बहुसंख्यक जनता जिसमें अधिसंख्य स्त्री-पुरुष, वर्ग-गोत्र, अस्मिता-पहचान, भाषा-सम्प्रदाय इत्यादि शामिल थे; के साथ अपनी मुकम्मल उपस्थिति दर्ज कर रहे थी। बहुसंख्यक समाज के भीतर जिस नवचेतना का प्रस्फुटन हुआ था उसकी दिशा कौन तय कर रहा था, तो यहाँ प्रगतिवादी कवियों के प्रश्न अनुत्तरित-सा प्रत्यक्ष आ खड़े होते हैं। बालकृष्ण राय की काव्य-पंक्ति देखें-

“नदी को रास्‍ता किसने दिखाया?
सिखाया था उसे किसने
कि अपनी भावना के वेग को
उन्‍मुक्‍त बहने दे?
कि वह अपने लिए
खुद खोज लेगी
सिन्धु की गम्भीरता
स्‍वच्‍छन्द बहकर?”

इस कविता के आखिर में कवि पुनश्च जवाब के लिए प्रतीक्षातुर होता है और प्रश्न टाँकता है-

“किधर है सत्‍य?
मन के वेग ने
परिवेश को अपनी सबलता से झुकाकर
रास्‍ता अपना निकाला था,
कि मन के वेग को बहना पडा था बेबस
जिधर परिवेश ने झुककर
स्‍वयं ही राह दे दी थी?
किधर है सत्‍य?

क्‍या आप इसका जबाब देंगे?”

दरअसल, भारत की सामासिक संस्कृति की परम्परा यहीं चरितार्थ होती है। भारत का समाज ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ अद्भुत तरीके से करता है। हर साल जिस रावण का वध इस देश में रामलीला के तहत किया जाता है उसके पांडित्य और ज्ञान का लोहा आज भी समाज मानता है। यह भारतीय जनसमाज की प्रकृति है, लोकायत की अक्षुण्ण-धारा है कि इस राष्ट्र में पाप से घृणा की जाती है पापी से नहीं। आधुनिक चेतना में भारतीय ज्ञान-प्रणाली में मिथकों, प्रतीकों, परम्पराओं, प्राचीन ग्रंथों, लोक-सुभाषितों, लोक-साहित्य के बरअक्स विकसित होती है जो भारत के हर एक व्यक्ति को आत्मनिर्भर और आत्मचेतस बनने को प्रेरित करती है; उनको अपने हक-हकूक, अधिकार-प्रतिष्ठा हेतु संघर्षशील बने रहने की ताकीद करती है; उनको सदैव प्रोत्साहित करती है। 
खेत-खलिहान और विभिन्न श्रम के पेशे से जुड़े किसान-मजदूर-व्यापरी राष्ट्रनिर्माण की इसी चेतना के साथ कर्मरत दिखाई देते हैं; यह और बात है कि आजाद भारत के सत्ता पर काबिज जातियाँ अंततः जातिवादी ही थीं जो अपनी मूलप्रवृत्ति में भेदभाव वाली विषमतामूलक समाज को ही बनाए रखना चाहती थी। वह सबको शिक्षित करने और आगे बढ़ने का मौका देने के फिराक में नहीं थी; चूँकि भारत में लिखित संविधान और भारतीय दंड संहिता लागू कर दी गई थी; जो अंततः मिशनरी जातियों की जातीय मानसिकता को 'फेल' करने का मुख्य औजार साबित हुई। कहना न होगा कि अंतर्विरोधों से निपटना भारत के लोक-मानस को बखूबी आता है। वह जाति-विशेष की केन्द्रिीयता को शनै-शनै देशज आधुनिकता और भौतिकवादी आँच में पकाती है, उनका शमन करती है। दरअसल यह आधुनिकता बड़ी निक काम करती है। वास्तव में ‘‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं वह एक प्रक्रिया का नाम है। यह प्रक्रिया अंधविश्वास से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है। आधुनिक वह है जो मनुष्य की ऊँचाई, उसकी जाति या गोत्र से नहीं; बल्कि उसके कर्म से नापता है। आधुनिक वह है जो मनुष्य-मनुष्य को समान समझे।’’ 
इस तरीके से हम देखते हैं कि प्रगतिशील काव्य-धारा ने ‘दैव-विधान’ को दंडित किया और ‘दैवीय न्याय’ के अंधविश्वास को खारिज कर दिया। इसके उलट सांविधानिक अधिकार-प्राप्त लोगों ने सामाजिक समता की अनन्तर इकाइयों को महत्त्व देना शुरू किया। लेकिन यह भी सत्य है कि छद्मवेशधारी प्रगतिशील उच्चारकों की दाल नहीं गली और उन्हें भारतीय जनसमाज ने कवि के रूप में स्वीकार करने से इंकार कर दिया जबकि लोक-जबान के कवि त्रिलोचन को लोक-मानस ने हाथोंहाथ लिया और उन्हें उच्च आसन पर प्रतिष्ठित किया। कवि त्रिलोचल की कविता की धार देखते बनती है-

“आज जो गाजते हैं
कल गाज लें
क्या बरसों वह गाजते जाएंगे

शक्ति की ऎंठ में
लूट के माल को
लुटक गर्व से साजते जाएंगे

जो लुटे हैं
वह भीतरी हाय को
भीतर-भीतर मांजते जाएंगे

क्या इन लूटकों
और लुटे हुओं को
दिन-रात ये गाजते जाएंगे।“

विद्यार्थीगण को यहाँ यह देखना आवश्यक होगा कि प्रगतिशील कवि हू-हा के कवि नहीं हैं और न ही वे मनुष्य को जबरन महान और उदात, वीर और तेजस्वी दिखाने पर तुले दिखाई देते हैं। प्रगतिशील काव्यधारा के लेखन में जुटे लोकमना कवियों ने यह स्वीकार किया कि-‘‘भारतीय लोक शक्तिमना है। उसमें तमाम तरह की मानुषिक प्रवृत्तियों का समावेश है। साथ ही भारतीय संस्कृति की प्रबल ग्रहणशीलता और प्रवाहमयता विद्यमान दिखाई देती है। वे सामाजिक धुरी पर बाहरी-भीतरी खाई को लगातार पाटने में जुटे दिखाई देते हैं; ताकि संवाद का पुल बन सके न कि युद्ध का अखाड़ा। उन्होंने उन चीजों की पहचान की जो बहुसंख्यक समाज की त्रासदी के मूल में रहा है। जैसे-रहस्य, कर्मकाण्ड और व्यवहारच्यूत मंत्र। कविता के सौन्दर्यशास्त्र को लेकर प्रगतिशील कवियों की समझ और ज्ञान स्पष्ट थी। उनका मानना था कि-‘‘कविता में नैतिक औचित्य और कलात्मक-औचित्य दोनों की बात होनी आवश्यक है। इससे रचनात्मक जनतंत्र का निर्माण होता है। साथ ही रचनाकार की अपनी प्रतिबद्धता और जनपक्षधरता सिद्ध होती है।’’ जनकवि नागार्जुन की कविता ‘मैं तुम्हें अपना चुंबन दूँगा’ ऐसी ही जनपक्षधर और प्रतिबद्ध कवि की प्रगतिशील घोषणापत्र है जिससे मुमकिन तौर पर याद रखा जाना चाहिए-

“मैं तुम्हीं को अपनी शेष आस्था अर्पित करूंगा
मैं तुम्हारे लिए ही जिऊँगा,मरूँगा

मैं तुम्हारे ही इर्द गिर्द रहना चाहूँगा
मैं तुम्हारे ही प्रति अपनी वफादारी निबाहूँगा
आओ, खेत-मजदूर और भूदास किसान
आओ, खदान-श्रमिक और फैक्ट्री वर्कर नौजवान
आओ, कैंपस के छात्र और फैकल्टियों के नवीन-प्रवीण प्राध्यापक

हाँ,हाँ,तुम्हारे ही अंदर तैयार हो रहे हैं
आगामी युगों के लिबरेटर।“

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