Saturday 25 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 20


Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

प्रगतिशील काव्य-धारा सामाजिक उत्थान और वैयक्तिक उन्नयन का साधन है। उसका चरम लक्ष्य है-समता और सम्पन्नता। तर्क एवं विज्ञान आधारित तरीके से बराबरी के सिद्धांत वाले जनतंत्र की स्थापना प्रगतिशील कवियों की मुख्य प्रवृत्ति रही है। कई लोगों को प्रगति के साथ ‘वाद’ जुड़े होने से अर्थ को समझने में कठिनाई होती हैं। ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा गया है-‘‘जीवन के कई क्षेत्रों में जब एक साथ परिवर्तन के लिए पुकार सुनाई पड़ती है तब परिवर्तन एक ‘वाद’ का व्यापक रूप धारण करता है और वह बहुतों के लिए सब क्षेत्रों में स्वतः एक चरम साध्य बन जाता है। ‘क्रांति’ के नाम से परिवर्तन की प्रबल कामना हमारे हिंदी काव्य-क्षेत्र में प्रलय की पूरी पदावली के साथ व्यक्त की गई। इस कामना के साथ कहीं-कहीं प्राचीन के स्थान पर नवीन के दर्शन की उत्कंठा प्रकट हुई।"
यह उत्कंठा विमुक्ति का पाथेय है। यह उन बहुसंख्यक लोगों के हक-हकूक और सामाजिक पुनरुत्थान की बात करती हैं जिन्हें कुछ सामंती और वर्चस्ववादी जातियों ने जानबूझकर मुख्यधारा की केन्द्रीयता से बाहर रखा है। देशज साहित्य में इस बहुसंख्यक वर्ग के रचनाकारों को या तो जगह नहीं दी गई अथवा उनके प्रति उपेक्षा का भाव बरता गया है। ऐसे में जो फार्मुलाबद्ध ‘सत्य’ जाहिर-प्रकट रूप से हमें दिखाई पड़ता है वह दरअसल शोषक-शासक वर्ग का दरबारी साहित्य है जिसकी मनमानी व्याख्याएँ और आख्यान लिखित रूप में हमारे सामने मौजूद है। इस दृष्टि से प्रगतिवादी काव्य-धारा सदियों से वंचित तथा प्रवंचना के शिकार समाज की अकथ कहानी का स्वाभाविक परिणाम है, प्रतिफल है। रेमण्ड विलियम्स ‘साहित्यिक वर्चस्व’ की ऐसी परिपाटी की पड़ताल करते हुए अपनी बात रखते हैं-‘‘लोक-परम्परा को हिकारत की नज़र से देखा जाता है। महान परम्परा को कुछ लोग हथिया लेते हैं और इन दोनों के बीच के रिक्त स्थान में वे सट्टेबाज घुस आते हैं जो विरासत-शून्यता का फायदा उठाने में माहिर होते हैं; क्योंकि खुद उनकी जड़े कहीं नहीं होतीं। इस तरह हमारे सांस्कृतिक संगठन का नियंत्रण मुख्यतः ऐसे लोगों के हाथों में चला गया है जो और कोई परिभाषा जानते ही नहीं।’’ प्रगतिशील काव्यधारा के कवि गोपाल सिंह नेपाली जब जनता को इस तरह की विषमता और भेदभाव से लड़ने-भिड़ने के लिए पुकारते हैं, तो उनके कहे में अधुनातन सामाजिक-राजनीतिक चेतना का अकुंठ स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ता है-

“कर्णधार तू बना तो हाथ में लगाम ले
क्रांति को सफल बना नसीब का न नाम ले

भेद सर उठा रहा मनुष्य को मिटा रहा
गिर रहा समाज आज बाजुओं में थाम ले

त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले

यह स्वतन्त्रता नहीं कि एक तो अमीर हो
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फकीर हो

न्याय हो तो आरपार एक ही लकीर हो
वर्ग की तनातनी न मानती है चांदनी

चांदनी लिये चला तो घूम हर मुकाम ले
त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले”

उपर्युक्त कविता में बदलाव की बात कवि पूरी ताकत से करता है और वह पलायनवादी प्रवृत्ति से बचने की सलाह देता है। प्रगतिवादी समाज का वास्तविक चित्रण करते हुए एम. एन. श्रीनिवास अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन’ में जिन बदलावों की रूपरेखा सामने रखते हैं, वह गौरतलब है-‘‘भारतीय ग्रामीण समुदाय में जो परिवर्तन हुए हैं उनके परिणामस्वरूप उसका अधिक व्यापक आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक व्यवस्थाओं से अधिक प्रभावी एकीकरण हुआ है। पिछले कुछ दशकों में, विशेषकर दूसरे महायुद्ध के बाद से, ग्रामीण संचार-साधनों में व्यापक सुधार, राष्ट्रीय से लगाकार ग्राम तक विभिन्न स्तरों पर सर्वव्यापी बालिग मताधिकार और स्वशासन का प्रारम्भ, अस्पृश्यता का उन्मूलन, देहाती जनता में शिक्षा की बढ़ी हुई लोकप्रियता और सामुदायिक विकास योजना-इन सबसे गाँव वालों की आकांक्षाएँ और धारणाएँ बदलती जा रही हैं। शिक्षा और ‘अच्छी जिन्दगी’ की इच्छा व्यापक है और बहुसंख्यक लोग अब अपने पूर्वजों की तरह रहते जाने को तैयार नहीं हैं।“
प्रगतिवादी कवियों में निराला शक्ति-सम्पन्न प्रभु-सत्ता को चुनौती देने की दिशा में लोगों को अपनी चेतना को मौलिक ढंग से जगाने और उस दिशा में दृढ़ता से आगे बढ़ने के लिए कहते हैं। उन्हें लगता है कि-‘‘शक्ति की परिकल्पना अनुकरण में संभव नहीं, शक्ति को सदा मौलिक रूप में ही परिकल्पित किया जा सकता है। शताब्दियों से पराधीन देश को इससे बड़ी और सार्थक दृष्टि कोई नहीं दे सकता।...मनुष्य-मात्र के जीवन में कभी-न-कभी ऐसी मनःस्थिति आती है जब उसके मुँह से निकल पड़ता है-‘अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति’। पर मनुष्य का साहस और सर्जन-क्ष्मता उसका अतिक्रमण भी करती है।’’ बकौल निराला-

‘‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो रघुनन्दन।’’

भारत में प्रगतिवादी कवियों ने बहुसंख्यक समाज को शिक्षा से जोड़ा और उनको अपने वर्ग की नुमाइंदगी और नेतृत्व स्वयं करने के लिए पढ़ने-लिखने और संगठित रहने पर बल दिया। प्रगतिवादी कवियों ने सघर्ष और प्रतिरोध की अपनी लड़ाई को रचनात्मक तरीके से लड़ने हेतु प्रेरित किया उन्होंने स्पष्ट किया कि सशस्त्र क्रांति के उलट सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की चेष्टा शोषित, पीड़ित एवं वंचित बहुसंख्यक जनसमाज की लड़ाई को अधिक जनातांत्रिक और मजबूत बनाने की पुरजोर कोशिश है। पढ़ाई-लिखाई के साथ आधुनिक ज्ञान-प्रणाली एवं तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित सूचना-संस्कृति के साथ गरिमामय जिंदगी जीना आज के हर एक व्यक्ति के लिए जरूरी हो गया है। आधुनिकता इन्हीं अर्थों में वरेण्य है। तार्किक-प्रायोगिक ज्ञान आधारित शिक्षा का सर्वव्यापी प्रसार आधुनिकता की सूचना देते हैं। पोगापंथी और पुरोहितवादी समाज ने सदियों से भारतीय जनसमाज के बहुसंख्यक वर्ग को हाशिए के बाहर ही नहीं रखा था, बल्कि उनको साजिशतन बन्द समाज में तब्दील कर दिया था। 
बदलाव के नए कारक जब 20वीं शताब्दी में अपनी पैठ जमाने शुरू किए तो बन्द समाज के भीतर ‘पैक्ड’ लोगों ने अपनी स्थिति से बाहर निकल खुली हवा में साँस लेनी शुरू की और इस तरह भारत में आजादीपूर्व ही जनतांत्रिक भारत के स्वप्न का साक्षात रूप साकार होता दिखने लगा। प्रगतिवादी कवियों ने नई चेतना की अनुभूति कराई और उन्होंने भारत के बहुसंख्यक समाज में ‘वैयक्तिक गरिमा और सामाजिक अधिकार संग जीने’ की वकालत की। साथ ही अपने अभूतपूर्व प्रयास द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन की पूरी नींव रखी। इस बारे में राष्ट्रकवि रामाधारी सिंह दिनकर का कहा द्रष्टव्य है-‘‘बन्द समाज वह है जो अपने सदस्यों को भी धन या संस्कृति की दीर्घा में ऊपर उठने की खुली छूट नहीं देता जो जातिप्रथा और गोत्रवाद से पीड़ित है जो अंधविश्वासी, गतानुगतिक और संकीर्ण है। बन्द समाज मध्यकालीनता का समाज होता है। आधुनिक समाज में उन्मुक्तता होती है। इस समाज के लोग अन्य समाजों से मिलने-जुलने में नहीं घबराते।’’

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