Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)
प्रगतिवाद के दौर में साहित्य दुहरी गुलामी की पीड़ाओं से त्रस्त था। एक ओर भारतीय समाज की कुरीतियाँ एवं ढपोरशंखी मान्यताएँ अपने जघन्यतम रूप में मौजूदा थीं, तो दूसरे विदेशी आक्रांताओं ने औपनिवेशिक जड़ता से सबको बाँध रखा था। विद्यार्थियों को समझना होगा कि भीतरी गुलामी ने देश की बहुसंख्यक जनता को शोषित-पीड़ित-वंचित बनाए रखने के हजारों तरीके ईजाद किए हुए थे जिनसे उनका हर रोज सामना था। अंदर का शत्रु बाहरी ताकतों से ज्यादा शक्तिशाली होता है-क्योंकि वह व्यक्तिगत मनोवृत्तियों को बखूबी जानता है तथा सामाजिक सीमाओं को भी। व्यक्ति की ‘इम्युनिटी सिस्टम’ अच्छी न हो तो उसे दुरुस्त किया जा सकता है; लेकिन ‘कम्युनिटी सिस्टम’ गड़बड़ हो तो लड़ना दुर्जेय हो जाता है। ऐसे कठिनतम समय में प्रगतिवादी कवियों ने जन-जन में उत्साह और हर्षोल्लास भरने की मुहिम छेड़ दी। जनता को शिक्षित करने के अलावे उन्हें अपने हक-हकूक से परिचित कराया। समाज की कुछ जातियाँ जो ‘मुफ़्त की रोटी’ तोड़ रही थी और श्रमशील जातियाँ मजबूरी और भयवश उनके लिए अनाज उपजाने में जुटी थीं; के खिलाफ रणनीतिक ढंग से मुस्तैद आवाज उठानी शुरू कर दीं। उन दिनों सोहनलाल द्विवेदी के ये जनगीत अपनी मुकम्मल आकार लेने लगे थे-
“लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती”
भारत की कुछ जातियाँ जिन्होंने देश के बहुसंख्यक समाज को प्रत्यक्ष-परोक्ष अपना बंदी बनाकर रखा था और जो अंग्रेजों की गुलामी से भी बदतर थीं के खिलाफ ज्योतिबा फूले, बिरसा मुंडा, भीमराव आम्बेडकर की सामाजिक-राजनीतिक चेतना भी काम कर रही थी। चरित्र और संस्कारच्यूत लोग डाॅ. आम्बेडकर के कितने विरुद्ध थे, इसका उल्लेख करते हुए मोहनदास नैमिराशय जी अपने उपन्यास में कहते हैं-‘‘एक दिन हार्डिंग एवेन्यू पर बाबा साहेब के बंगले पर प्रदर्शनकारी घुस आए थे। कोई जूता उछाल रहा था, कोई चप्पल, कोई गंदी-गंदी गालियाँ दे रहा था। वे सब गुस्से में थे। किसी के उकसाने और भड़काने से यहाँ आए थे। वे भड़क रहे थे और तड़क रहे थे। बड़ी मुश्किल से सुरक्षा में लगे सिपाहियों ने उन्हें रोका था। यह इंतिहा थी पाखण्डी/बेरहम हिंदुओं की, जो अपनी-अपनी बहन बेटियों को पिंजरे में बंद रखना चाहते थे। जो घर में एक पत्नी होते हुए भी अनगिनत महिलाओं के साथ रंगरेलिया मनाना चाहते थे। फिर भी वे श्रेष्ठ थे, पर कैसे श्रेष्ठ?”
सही अर्थों में देशज आधुनिकता का आगमन इन्हीं दिनों हुआ था। भारत की सामाजिक चेतना की धुरी बदल रही थी; केन्द्र की स्थिति में बदलाव आ रहे थे; और इस तरह हम देख पाते हैं कि मुख्यधारा से बाहर की गई जातियाँ अब अपने वास्तविक रूप में लौट रही थीं। मेहनतकश लोग अपने पाँव के निशां अथवा छाले-बिवाई भूल अपनी एकजुटता का जनगीत गाते दिख रहे थे। साहित्य में यह एक ऐसी ‘क्रांतिक बिन्दु’ या कहें ‘कोपरनिकस प्वाइंट’ का आरंभ हो गया था जिसकी प्रतीक्षा भारत में कई सदियों-शताब्दियों से थी। प्रगतिवाद ने ‘जोर लगा के हइसा...’ की सामूहिक जबान में माननीय मूल्य को धक्का दे सत्ता से हटाने में कामयाबी पाई। उन्होंने नवचेतन काव्धारा के बरास्ते नवमूल्यों को जन्म दिया; नवकेन्द्र स्थापित किए। प्रगतिशील काव्यधारा की ये मुख्य विशेषताएँ थीं-1) बुद्धिवाद, 2) राष्ट्रीयता, 3) राष्ट्रीय इतिहास लेखन, 4) धर्मनिरपेक्षता, 5) लिंग-भेद की समाप्ति, 6)जातिवाद से मुक्ति, 7) बहुजातीय भारतीय राष्ट्र की अवधारणा, 8) जनतांत्रिक चेतना और 9) विश्वमानवतावाद।
प्रगतिवादी कविताओं के प्रति विद्वेष रखने वाले लोग भक्तिमार्गी चरणपूजक हो सकते थे, लेकिन जनतंत्र के हिमायती और पोषक कतई नहीं। आजादी के बाद भी भारत में जाति के मसले को यूँ ही छोड़ दिया गया। सारे राजनेता और उनके चेले-चपाटे सवर्ण जातियों के अभिजन-जमात से चुने और बिठाये गए जिन्होंने अन्य दूसरे जातियों के लिए कितना बुरा किया है उसका इतिहास लिखा जाना या इस दिशा में काम होना अभी बाकी है। यह और बात है कि, समय बदल गया है। सवर्णों के आरोपित साहित्य की आलोचना-प्रत्यालोचना शुरू हो गई है। यद्यपि यह पूर्णसत्य है कि साहित्य की प्रकृति सबके हित और कल्याण की होती है; इस कारण प्राचीन ग्रंथ और ऐतिहासिक साहित्य में विद्यमान ज्ञान-तंत्र और काव्य-गुण जैसे प्रतिपाद्य ग़लत नहीं ठहराये जा सकते हैं, लेकिन उनमें व्याप्त दृष्टि-दोष को दुरुस्त करना श्रेयस्कर है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि हमारी पुरानी पीढ़ी ने इस दिशा में ठोस एवं कारगर ढंग से कार्य किए हैं। इतिहास-बोध और सामाजिक-सांस्कृतिक स्मृति को लगातार अपने चिंतन-मनन का विषय बनाया है। यह प्रवृत्ति ही सच्चे मनुष्य होने का प्रमाण है और अपनी पूर्व-पीढ़ी से न्याय भी। दरअसल, उत्पीड़ित समाजों ने आधुनिकता के बगैर भी अपनी जातीय परम्परा से जीवन-शक्ति लेकर सामाजिक कुरीतियों से लोहा लिया है, तो औपेनिवेशिक ताकतों से टकराने का साहस दिखाया है। इतिहास-बोध से दूरी हमें अंततः निष्प्राण कर देता है। ठीक उसी तरह स्मृतिभ्रशंता हमारी आन्तरिक चेतना और बाह्य प्रकृति को कायर बना डलते हैं। इससे बचा जाना जरूरी है, तभी प्रगतिवादी कवियों में शुमार नरेन्द्र शर्मा की यह बात सौ फीसदी सच साबित होगी-
“कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा
तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।“
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