Wednesday 22 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 18


Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

विद्यार्थीगण को प्रगतिवाद के दौर की ‘व्यक्तिवादी गीति कविता’ को समझने के लिए इस दिशा में हुए शोध-कार्य को उलटना-पलटना चाहिए जो गंभीरतापूर्वक इस काल की मुख्य प्रवृत्तियों के साथ रचना और रचनाकार की वस्तुस्थिति एवं प्रकृति का सारगर्भित पड़ताल करते हैं। ऐसे ही एक शोध-कार्य के हवाले से कहें, तो-“व्यक्तिवादी गीति कविता अपनी रोमानी प्रवृत्ति के कारण अलग धारा का निर्वाह करती है जिसमें वस्तुजगत की प्रक्रिया से उत्पन्न अपने निजी सुख-दुःख को सहज भाव से प्रकट किया गया है।…जो जीवन की तमाम समताओं और विषमताओं से कहीं न कहीं सम्बद्ध था। उनमें वे सारी अनुभूतियाँ शामिल थीं जो एक व्यक्ति के अन्दर निहित होती हैं और उसके जीवन को समाज से जोड़ती हैं। इन कवियों का प्रेम छायावादी कवियों के प्रेम की अपेक्षा निश्चल, स्पष्ट, अनुभूतिजन्य, व्यावहारिक व बन्धनमुक्त था।“ इनमें मुख्य रूप से हरिवंश राय बच्चन, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, नरेन्द्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, आरसी प्रसाद सिंह, भगवती चरण वर्मा आते हैं। इस काल की अन्य दूसरी धारा प्रगतिवादी काव्यधारा कही जाती हैं जिसमें कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव, शमशेर बहादुर सिंह का नाम महत्त्वपूर्ण है।
प्रगतिशील कविताओं पर हल्केपन का आरोप नया नहीं है। यह जानते हुए भी कि कलात्मक सौन्दर्य का प्रस्फुटन ‘लैबोरेटरी’ में नहीं अपितु मानव-मन की गेह और गवाक्ष में ही होता है। वैसे भी कविता में साधुता अथवा अर्थ सम्बन्धी उदात्तता होनी आवश्यक है। लेकिन प्रयोग के नाम पर गढ़न में कृत्रिमता के मेहराब गढ़ देना भी उचित नहीं है। भाषिक-लालित्य या कहें कला-विलास की झोंक में कविगण रूपकों, बिम्बों, प्रतीकों आदि से अटे पड़े एक ऐसी दिवार लान खड़े करते हैं, जो पाठकों से ‘कनेक्ट’ नहीं हो पाती है और अमुक रचना दुर्बोध मालूम देने लगती है। यद्यपि कविता की अर्थच्छटाएँ रूप, शोभा, सुषमा, सौभाग्य, चारुता, लालित्य, लावण्य इत्यादि की व्यंजना से परिपूर्ण होने पर पाठक को अधिक बाँधती और उनके संवेदना-तंत्र को छूती हैं, तथापि किसी किस्म की जटिलता या दुरुहता से बचा जाना आवश्यक है।
विद्यार्थीगण का ध्यान इस पक्ष की और जाना चाहिए, दृष्टि पड़नी चाहिए कि साहित्य सात्विक सौन्दर्य और भाषिक औदार्य के सहमेल से बनता है। साहित्य चाहे वह कविता रूप में ही क्यों न हमसे जुड़े उसमें वायवीय सबकुछ नहीं होता है। साहित्य अपनी मूल प्रकृति में मानुषिक क्रियाकलापों तथा मानसिक-शारीरिक वृत्तियों का ही अंकन-प्रतिबिम्बन हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की किताब जो 1940 ई. में ‘प्राचीन भारत का कला-विलास’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी और बाद में वह ‘प्राचीन भारत में कलात्मक विनोद’ नाम से छपी; में बेहद ठोंक-बजा कर कही उनकी बात हम सबके लिए स्मरणीय है-‘‘जो  सम्पत्ति परिश्रम से अर्जित नहीं की जाती, और जिसके संरक्षण के लिए मनुष्य का रक्त पसीने में नहीं बदलता, वह केवल कुत्सित रुचि को प्रश्रय देती है। सात्विक सौन्दर्य वहाँ है, जहाँ चोटी का पसीना एड़ी तक आता है और नित्य समस्त विकारों को धोता रहता है। पसीना बड़ा पावक तत्त्व है मित्र, जहाँ इसकी धारा रुद्ध हो जाती है वहाँ कलुष और विकार जमकर खड़े हो जाते हैं।“
श्रम-जन दुनिया के सबसे कुशल कलाकार हैं जिनके जीवन में अपार संघर्ष के पद्चिह्न देखे जा सकते हैं। छायावादोत्तर काव्यधारा की दो कड़ियों में से पहली कड़ी वैयक्तिक गीति काव्यधारा की है जिसमें हरिवंश राय बच्चन की कविता अलग से अपनी मुकम्मल पहचान बनाती दिखती है। उनकी कविता ‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ उदाहरण है-

“‘‘हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं-
यह सोच थका दिन का पंक्षी भी
जल्दी-जल्दी चलता है
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

बच्चे प्रत्याशा में होंगे।,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे।-
यह ध्यान परों में चिड़ियों के
भरता कितनी चंचलता है
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

मुझसे मिलने को कौन विकल
मैं होऊँ किसके हित चंचल
यह प्रश्न शिथिल करता पद को,
भरता उर में विह्वलता है
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!”

हरिवंश जी सहजीवन का सहज साक्षात्कार कराने वाले कवि हैं। वे निज के पाट से ऐसा बहुत कुछ उद्घाटित कर देते हैं जिस अनुभूत से हमारा-सामना यदा-कदा होता ही रहता है, बस कवि ने उसे शब्द और अर्थ लिपटा बाना पहना दिया है। खासियत यह कि उनका द्वंद्व यथार्थ से सम्पृक्त है जो हमें हमारे मनुष्य होने की तसदीक कराता है-‘मनुते इति मनुष्यः’ यानी मनुष्य सोचने-समझने और लगातार चिन्तन-मनन करने वाला सांसारिक जीव है। हरिवंश जी की संवेदनशील सोचावट में दुनिया भर के लोग, आकार-आकृतियाँ, मूर्त और भौतिक जगत समोया हुआ है। अपनी चेतना में कवि बच्चन की शुभकामना भी किसी खास गिरह या चौखट से बँधी हुई नहीं हैं। कविता ‘नववर्ष की शुभकामनाएँ’ में बच्चन जी की अभिलाषा सहज मनुजता की अप्रतिम निशानी है-

(वृद्धों को)
रह स्वस्थ आप सौ शरदों को जीते जाएँ,
आशीष और उत्साह आपसे हम पाएँ।

(प्रौढ़ों को)
यह निर्मल जल की, कमल, किरन की रुत है।
जो भोग सके, इसमें आनंद बहुत है।

(युवकों को)
यह शीत, प्रीति का वक्त, मुबारक तुमको,
हो गर्म नसों में रक्त मुबारक तुमको।

(नवयुवकों को)
तुमने जीवन के जो सुख स्वप्न बनाए,
इस वरद शरद में वे सब सच हो जाएँ।

(बालकों को)
यह स्वस्थ शरद ऋतु है, आनंद मनाओ।
है उम्र तुम्हारी, खेलो, कूदो, खाओ।

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