Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
---
(पिछले से आगे...)
प्रगतिवाद कोई ‘मिरिकल’ चीज नहीं है,
लेकिन यह सार्वभौम चेतना की राष्ट्रीय संस्कृति का ‘बेल आइकाॅन’ अवश्य है। पूर्व की
तमाम काव्यधाराओं से जुड़ने वाली एक ऐसी कड़ी जिसमें अतीत से वर्तमान तक की पूर्वदीप्ति
मौजूद है। काव्यमनीषी जानते हैं कि किसी भी काव्य को काव्य होने के लिए उनमें चार तत्त्वों
का होना जरूरी है-1) रस, 2) अर्थ, 3) छन्द और 4) शब्द। यह आवश्यक है क्योंकि काव्य
कोई जड़ चीज नहीं है। वह आदिम कला, सौन्दर्य और संस्कृति का समन्वित रूप है। उसकी पूरी
संरचना और तात्त्विक संघटन मूर्तमान हैं। ऐसा दूसरे अनुशासनों में भी मौजूद है। इसे
भाषा की मुहावरेदानी या मुलम्मे में लपेटकर अलगाना कदापि संभव नहीं हैं। आँख होने मात्र
से चीजें साफ और स्पष्ट नहीं दिख जाती हैं, इसके लिए विचार और दृष्टिकोण भी मायने रखते
हैं, इतिहास-बोध और स्मृति-तंत्र से जुड़ा होना भी जरूरी है। प्रगतिवादी भावभूमि के
कवि बालकृष्ण राव के कहन की अभिव्यंजना और अर्थ की वृत्तीय-परिधि देख हर्षित हुआ जा
सकता है:
“सावधान, जन-नायक सावधान।
यह स्तुति का साँप तुम्हे डस न ले।
बचो इन बढ़ी हुई बांहों से
धृतराष्ट्र – मोहपाश
कहीं तुम्हे कस न ले।
सुनते हैं कभी, किसी युग में
पाते ही राम का चरण-स्पर्श
शिला प्राणवती हुई,
देखते हो किन्तु आज
अपने उपास्य के चरणों को छू-छूकर
भक्त उन्हें पत्थर की मूर्ति बना देते
हैं।
सावधान, भक्तों की टोली आ रही है
पूजा-द्रव्य लिए!
बचो अर्चना से, फूलमाला से,
अंधी अनुशंसा की हाला से ,
बचो वंदना की वंचना से, आत्म रति से,
बचो आत्मपोषण से, आत्मा की क्षति से।“
विद्यार्थीगण के लिए यह समझना महत्त्वपूर्ण
होगा कि कोई भी काव्य-परम्परा मनोगत-भाव के मानस-व्यापार द्वारा ही स्थापित होती है।
इस मनोजगत की अन्तर्भुक्त चेतना विचारधारा विशेष के सम्पर्क-संवाद मात्र से उमग ले
या उसकी जनसमाज में प्राण-प्रतिष्ठा हो ले; यह संभव नहीं है। हम कई बार कला और साहित्य
की व्याख्या और विश्लेषण मनमाने ढंग से करते हैं। पहली बात हमारी नई पीढ़ी सबकुछ जानने
की जल्दी में बहुत सामान्य कोटि की चीजों से साक्षात्कार ही नहीं कर पाती हैं, तो दूसरे
परम्परा की निहायत जरूरी चीजों को बिना पढ़े-गुने उनको तत्काल खारिज़ कर देने की सनक-सी
सवार होती हे। प्रगतिवादी कवियों ने इस अंधवृत्ति का शिकार होने से खुद को बचाया और
कविता में अपने को नए तरह से सिरजा, अपने लिए अलग पहचान बनाई। अपने काव्य-संग्रह ‘फूल
नहीं रंग बोलते हैं’ में प्रगतिशील काव्यधारा के प्रमुख कवि केदारनाथ अग्रवाल की भाषा
में फड़कती बुलंद बाहें और अकुंठ आवाज सुनी जा सकती है :
“मशाल का बेटा धुआँ,
गर्व से गगन में गया,
शून्य में खोया
कोई नहीं रोया।
मशाल की बेटी आग
यहीं धरती पर रही,
चूल्हे में आई
नसों में समाई।“
प्रगतिवाद की सतह से निकट लगाव महसूसते
हुए तद्युगीन कवियों की काव्य-प्रवृत्ति की मूल अवधारणा की नोटिस लें तो वहाँ सबकुछ
तहस-नहस, छिन्न-भिन्न, नष्ट-विनष्ट कर देने की क्रांतिकारीय उद्घोषणा नहीं दिखलाई पड़ती
है। कहा गया है कि ‘साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है’। ऊपर की कविता में मशाल की
जिस आग की बात कही गई है, कलम के सिपाही प्रेमचंद ने उसकी लौ की ताकीद करते हुए जो कहा है उसे
रामस्वरूप चतुर्वेदी जी अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’ में उल्लेखित
करते हैं-“वह (साहित्यकार) देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि
उनके आगे मशाल दिखाते हुई चलने वाली सचाई है’। प्रगतिशील कवियों ने अपनी चेतना में
इसी मशाल की दीप्ति जलाई है और मौजूदा पीढ़ी को सचाई के पथ पर आगे बढ़ने हेतु दिशा और
गति दोनों प्रदान की है। नंददुलार वाजपेयी रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ से प्रगतिवादी काव्यांदोलन
की शुरुआत मानते हैं जिनकी कविता ‘काँटे मत बोओ’ बेजोड़ उदाहरण की मानिंद हैं :
“संकट में यदि मुस्का न सको, भय से
कातर हो मत रोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम
से कम मत बोओ।
हर सपने पर विश्वास करो, लो लगा चाँदनी
का चंदन,
मत याद करो, मत सोचो, ज्वाला में कैसे
बीता जीवन।
इस दुनिया की है रीत यही - सहता है
तन, बहता है मन,
सुख की अभिमानी मदिरा में, जो जाग सका
वह है चेतन।
इसमें तुम जाग नहीं सकते, तो सेज बिछाकर
मत सोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम
से कम मत बोओ।
पग - पग पर शोर मचाने से, मन में संकल्प
नहीं जगता,
अनसुना - अचीन्हा करने से, संकट का
वेग नहीं थमता।
संशय के सूक्ष्म कुहासों में, विश्वास
नहीं क्षण भर रमता,
बादल के घेरों में भी तो, जयघोष न मारुत
का थमता।
यदि बढ़ न सको विश्वासों पर, साँसों
के मुर्दे मत ढ़ोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम
से कम मत बोओ”
बहरहाल, विद्वान ऐसा मानते हैं कि साहित्य
के रचना-विधान की भाषा यथार्थपूर्ण, साफगोई से भरी-पूरी और आडम्बर व भ्रम से मुक्त
होनी चाहिए। क्योंकि यदि ढोंग की कमर पकड़ ऊपर उठेंगे, तो अपने पैर की मजबूती हासिल
नहीं कर पायेंगै। सच्चा गुरु आपको अपने संगत एवं संसर्ग के एवज में ‘हाॅलिक्स’ जैसा
शक्तिवर्द्धक भले न देता हो; लेकिन आपके नियत की वास्तविक पहचान तथा क्षमता का अंतर्बोध
तो कर ही लेता है। फिर जो वह देता है उसे दुनिया की किसी भी भाषा में ‘डिकोड’ करना
संभव नहीं है। कविता भी यही काम करती है, वह सिद्ध गुरु है। कविता को उपयोगितावादी
दृष्टि से देखना सहज मनुज होने की निशानी नहीं है। इसी तरह किसी भी काव्यधारा को परम्परा
से काटकर देखना, बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती है। दाखिल-खारिज़ का चलताऊ रवैया और भी
खतरनाक है जिसमें हम ‘द्राविड़ प्राणायाम’ करते हुए विशेष कालखण्ड का खूब महिमामंडन
करते हैं या कि सौन्दर्यशास्त्रीय बखान द्वारा सर्वश्रेष्ठ बताने पर तूल जाते हें।
यद्यपि इस शब्दज संसार में कुछ भी अनंतिम
नहीं है, लेकिन हर अगला विचार पूर्व का ही उत्तर कथन है। परम्परा अपनी प्रकृति में
ही ऐसी है कि उसकी निर्मित युगधारा के सतत प्रवाह में होती है, विच्छिन्न होकर या कटकर
कतई नहीं। युगीनधारा में समोये साहित्य का काम आँख में रोशनी देना नहीं वह तो जन्मजात
है, बल्कि उसका मूल उद्देश्य स्थूल-सूक्ष्म विवेक आधारित दृष्टिकोण से परम्परा का पुनर्मल्यांकन
करना है; वैज्ञानिक प्रवृति और आधुनिकता-बोध से उमगी संचेतना संग नई विचार-यात्रा आरंभ
करना है। और कोई भी विचार अज्ञात अथवा अमूर्तन नहीं है, अंततः अनुभूति का विषय है।
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(पिछले से आगे...)
प्रगतिवाद कोई ‘मिरिकल’ चीज नहीं है,
लेकिन यह सार्वभौम चेतना की राष्ट्रीय संस्कृति का ‘बेल आइकाॅन’ अवश्य है। पूर्व की
तमाम काव्यधाराओं से जुड़ने वाली एक ऐसी कड़ी जिसमें अतीत से वर्तमान तक की पूर्वदीप्ति
मौजूद है। काव्यमनीषी जानते हैं कि किसी भी काव्य को काव्य होने के लिए उनमें चार तत्त्वों
का होना जरूरी है-1) रस, 2) अर्थ, 3) छन्द और 4) शब्द। यह आवश्यक है क्योंकि काव्य
कोई जड़ चीज नहीं है। वह आदिम कला, सौन्दर्य और संस्कृति का समन्वित रूप है। उसकी पूरी
संरचना और तात्त्विक संघटन मूर्तमान हैं। ऐसा दूसरे अनुशासनों में भी मौजूद है। इसे
भाषा की मुहावरेदानी या मुलम्मे में लपेटकर अलगाना कदापि संभव नहीं हैं। आँख होने मात्र
से चीजें साफ और स्पष्ट नहीं दिख जाती हैं, इसके लिए विचार और दृष्टिकोण भी मायने रखते
हैं, इतिहास-बोध और स्मृति-तंत्र से जुड़ा होना भी जरूरी है। प्रगतिवादी भावभूमि के
कवि बालकृष्ण राव के कहन की अभिव्यंजना और अर्थ की वृत्तीय-परिधि देख हर्षित हुआ जा
सकता है:
“सावधान, जन-नायक सावधान।
यह स्तुति का साँप तुम्हे डस न ले।
बचो इन बढ़ी हुई बांहों से
धृतराष्ट्र – मोहपाश
कहीं तुम्हे कस न ले।
सुनते हैं कभी, किसी युग में
पाते ही राम का चरण-स्पर्श
शिला प्राणवती हुई,
देखते हो किन्तु आज
अपने उपास्य के चरणों को छू-छूकर
भक्त उन्हें पत्थर की मूर्ति बना देते
हैं।
सावधान, भक्तों की टोली आ रही है
पूजा-द्रव्य लिए!
बचो अर्चना से, फूलमाला से,
अंधी अनुशंसा की हाला से ,
बचो वंदना की वंचना से, आत्म रति से,
बचो आत्मपोषण से, आत्मा की क्षति से।“
विद्यार्थीगण के लिए यह समझना महत्त्वपूर्ण
होगा कि कोई भी काव्य-परम्परा मनोगत-भाव के मानस-व्यापार द्वारा ही स्थापित होती है।
इस मनोजगत की अन्तर्भुक्त चेतना विचारधारा विशेष के सम्पर्क-संवाद मात्र से उमग ले
या उसकी जनसमाज में प्राण-प्रतिष्ठा हो ले; यह संभव नहीं है। हम कई बार कला और साहित्य
की व्याख्या और विश्लेषण मनमाने ढंग से करते हैं। पहली बात हमारी नई पीढ़ी सबकुछ जानने
की जल्दी में बहुत सामान्य कोटि की चीजों से साक्षात्कार ही नहीं कर पाती हैं, तो दूसरे
परम्परा की निहायत जरूरी चीजों को बिना पढ़े-गुने उनको तत्काल खारिज़ कर देने की सनक-सी
सवार होती हे। प्रगतिवादी कवियों ने इस अंधवृत्ति का शिकार होने से खुद को बचाया और
कविता में अपने को नए तरह से सिरजा, अपने लिए अलग पहचान बनाई। अपने काव्य-संग्रह ‘फूल
नहीं रंग बोलते हैं’ में प्रगतिशील काव्यधारा के प्रमुख कवि केदारनाथ अग्रवाल की भाषा
में फड़कती बुलंद बाहें और अकुंठ आवाज सुनी जा सकती है :
“मशाल का बेटा धुआँ,
गर्व से गगन में गया,
शून्य में खोया
कोई नहीं रोया।
मशाल की बेटी आग
यहीं धरती पर रही,
चूल्हे में आई
नसों में समाई।“
प्रगतिवाद की सतह से निकट लगाव महसूसते
हुए तद्युगीन कवियों की काव्य-प्रवृत्ति की मूल अवधारणा की नोटिस लें तो वहाँ सबकुछ
तहस-नहस, छिन्न-भिन्न, नष्ट-विनष्ट कर देने की क्रांतिकारीय उद्घोषणा नहीं दिखलाई पड़ती
है। कहा गया है कि ‘साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है’। ऊपर की कविता में मशाल की
जिस आग की बात कही गई है, कलम के सिपाही प्रेमचंद ने उसकी लौ की ताकीद करते हुए जो कहा है उसे
रामस्वरूप चतुर्वेदी जी अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’ में उल्लेखित
करते हैं-“वह (साहित्यकार) देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि
उनके आगे मशाल दिखाते हुई चलने वाली सचाई है’। प्रगतिशील कवियों ने अपनी चेतना में
इसी मशाल की दीप्ति जलाई है और मौजूदा पीढ़ी को सचाई के पथ पर आगे बढ़ने हेतु दिशा और
गति दोनों प्रदान की है। नंददुलार वाजपेयी रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ से प्रगतिवादी काव्यांदोलन
की शुरुआत मानते हैं जिनकी कविता ‘काँटे मत बोओ’ बेजोड़ उदाहरण की मानिंद हैं :
“संकट में यदि मुस्का न सको, भय से
कातर हो मत रोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम
से कम मत बोओ।
हर सपने पर विश्वास करो, लो लगा चाँदनी
का चंदन,
मत याद करो, मत सोचो, ज्वाला में कैसे
बीता जीवन।
इस दुनिया की है रीत यही - सहता है
तन, बहता है मन,
सुख की अभिमानी मदिरा में, जो जाग सका
वह है चेतन।
इसमें तुम जाग नहीं सकते, तो सेज बिछाकर
मत सोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम
से कम मत बोओ।
पग - पग पर शोर मचाने से, मन में संकल्प
नहीं जगता,
अनसुना - अचीन्हा करने से, संकट का
वेग नहीं थमता।
संशय के सूक्ष्म कुहासों में, विश्वास
नहीं क्षण भर रमता,
बादल के घेरों में भी तो, जयघोष न मारुत
का थमता।
यदि बढ़ न सको विश्वासों पर, साँसों
के मुर्दे मत ढ़ोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम
से कम मत बोओ”
बहरहाल, विद्वान ऐसा मानते हैं कि साहित्य
के रचना-विधान की भाषा यथार्थपूर्ण, साफगोई से भरी-पूरी और आडम्बर व भ्रम से मुक्त
होनी चाहिए। क्योंकि यदि ढोंग की कमर पकड़ ऊपर उठेंगे, तो अपने पैर की मजबूती हासिल
नहीं कर पायेंगै। सच्चा गुरु आपको अपने संगत एवं संसर्ग के एवज में ‘हाॅलिक्स’ जैसा
शक्तिवर्द्धक भले न देता हो; लेकिन आपके नियत की वास्तविक पहचान तथा क्षमता का अंतर्बोध
तो कर ही लेता है। फिर जो वह देता है उसे दुनिया की किसी भी भाषा में ‘डिकोड’ करना
संभव नहीं है। कविता भी यही काम करती है, वह सिद्ध गुरु है। कविता को उपयोगितावादी
दृष्टि से देखना सहज मनुज होने की निशानी नहीं है। इसी तरह किसी भी काव्यधारा को परम्परा
से काटकर देखना, बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती है। दाखिल-खारिज़ का चलताऊ रवैया और भी
खतरनाक है जिसमें हम ‘द्राविड़ प्राणायाम’ करते हुए विशेष कालखण्ड का खूब महिमामंडन
करते हैं या कि सौन्दर्यशास्त्रीय बखान द्वारा सर्वश्रेष्ठ बताने पर तूल जाते हें।
यद्यपि इस शब्दज संसार में कुछ भी अनंतिम
नहीं है, लेकिन हर अगला विचार पूर्व का ही उत्तर कथन है। परम्परा अपनी प्रकृति में
ही ऐसी है कि उसकी निर्मित युगधारा के सतत प्रवाह में होती है, विच्छिन्न होकर या कटकर
कतई नहीं। युगीनधारा में समोये साहित्य का काम आँख में रोशनी देना नहीं वह तो जन्मजात
है, बल्कि उसका मूल उद्देश्य स्थूल-सूक्ष्म विवेक आधारित दृष्टिकोण से परम्परा का पुनर्मल्यांकन
करना है; वैज्ञानिक प्रवृति और आधुनिकता-बोध से उमगी संचेतना संग नई विचार-यात्रा आरंभ
करना है। और कोई भी विचार अज्ञात अथवा अमूर्तन नहीं है, अंततः अनुभूति का विषय है।
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