Sunday 19 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 16

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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हिंदी साहित्येतिहास की विभिन्न काव्यधाराओं (खण्डकाव्य, महाकाव्य, प्रबन्धकाव्य, चरितकाव्य, श्ष्टिकाव्य आदि) में प्रगतिवाद की गूँज-अनुगूँज दूर तलक सुनाई पड़ती हैं, तो इस कारण कि पहली बार हिंदीकाव्यधारा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी के ‘मधुचर्या’ से भिन्न साहित्य की मूलभावना को सम्पोषित करने वाली निःद्वंद्व एवं निर्लिप्त ‘जनचर्या’ में संलग्न हुई। यह संलग्नता अखिल भारतीय लोक में ‘लोकायत’ का विवेक लिए हुए थी जिसमें गाँधी के अनन्तिम व्यक्ति के लिए चिंता तथा आम्बेडकर जी के बहुसंख्यक-वर्ग के अधिकार की नुमाइंदगी का प्रश्न सर्वोपरि था। इस नई अभिदृष्टि में शामिल प्रवृत्तियाँ थीं: सामाजिक सामासिकता, विद्रोही-वृत्ति, प्रतिरोधी जनचेतना, स्वतंत्र साहित्याभिव्यक्ति, सार्वभौतिक भागीदारी आदि। इससे पूर्व के कवियों की प्रतिष्ठा कराने में जिन आलोचकों को गंभीर प्रयास करने पड़े थे; प्रगतिवादी कवियों ने सहज ही उन जगहों तक अपनी पहुँच बना ली और अपनी भूमिका का शिरोरेखा रच दिया। प्रगतिवादी कवियों का वजन तौलते हुए महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला अपने मित्र और आलोचक रामविलास शर्मा 20 नवम्बर, 1936 ई. को विधिवत एक पत्र लिखते हैं-‘‘यहाँ एक दल ऐसा है, जो उच्च शिक्षित है। शायद सोश्यलिस्ट भी है। इसके कुछ लोग योरप भी हो आए हैं। स्त्री और पुरुष, हिंदी और मुसलमान दोनों इन्होंने प्रोग्रेसिव राइटर्स मिटिंग या एसोसिएशन नाम की एक संस्थान कायम की है। ये उच्च शिक्षित जन कुछ लिखते भी हैं, इसमें कुछ संशय है। शायद इसीलिए लिखने का एक नया आविष्कार इन्होंने किया है, और वह इनमें जोर पकड़ता जा रहा है।’’
‘निराला की साहित्य साधना’ में प्रकाशित इस पत्र का जिक्र करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी जी कहते हैं-‘बहुत कुछ अपने सहज ज्ञान के आधार पर तब का किया गया निराला का मूल्यांकन भी अपनी जगह है।’ छायावाद के प्रबल हस्ताक्षर और स्तंभ निराला सही थे। कई बार उत्साह और भावुकता के पराक्रम में युवा बहुत कुछ ऐसा नाध देते हैं जो रोमांचक अथवा अप्रत्याशिात होता है। लेकिन ऐसे उत्साही बालक ‘विज़न’ के अभाव में लड़खड़ाने भी लगते हैं। दरअसल, किसी भी जड़-व्यवस्था में अपने लिए जगह बना पाना टेढ़ी खीर है। खासकर भारत के जातिवादी समाज में जहाँ साहित्य, पत्रकार और प्राध्यापक तीनों की ‘कोटि’ जाति देखकर तय की जाती हो; इस तरह के परिवर्तनकामी चेतना का निर्माण होते देख निराला जी का चकित होना स्वाभाविक था जो बाद में खुद प्रगतिवाद के प्रभाव में जनोन्मुखी रचना लिखने को प्रवृत्त हुए और आज भी उनकी प्रगतिवादी रचनाएँ मिसाल हैं, बेहतरीन उदाहरण हैं। निराला जी की कविता 'राजे ने अपनी रखवाली की' सप्रमाण अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं जो उनके ‘नये पत्ते’ संग्रह में प्रकाशित है:

“राजे ने अपनी रखवाली की;
किला बनाकर रहा;
बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं।
चापलूस कितने सामन्त आए।
मतलब की लकड़ी पकड़े हुए।
कितने ब्राह्मण आए
पोथियों में जनता को बाँधे हुए।
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए,
लेखकों ने लेख लिखे,
ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे,
नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे
रंगमंच पर खेले।
जनता पर जादू चला राजे के समाज का।
लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं।
धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ।
लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।
ख़ून की नदी बही।
आँख-कान मूंदकर जनता ने डुबकियाँ लीं ।
आँख खुली--राजे ने अपनी रखवाली की।“

विद्यार्थीगण ध्यान दें कि कविता वर्ग-वैषम्य या फिर जातिमूढ़ता का वितान नहीं रचती हैं। वे तमाम मानुषिक वृत्तियाँ जो रूढ़िवादिता, कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातीय-दंभ इत्यादि की शिकार हैं और जिन्हें इरादतन भाषा के खोल में छुपाने की चालाकीपूर्ण कोशिश हिंदी साहित्येतिहास में की जाती रही हैं; प्रगतिवादी कविता उन कूपमंडूकताओं का सघन विरोध करती हैं। ये कविताएँ अपने लिए टटका ‘कंटेंट’ और ‘फार्म’ ढूँढकर निकाल लाती हैं, ताकि बाद के बाद की पीढ़ी में शामिल नारायण सुर्वे जैसा कवि यह लिख सके कि-

“ये जात-पात में बँटी कोठियाँ, बस्तियाँ, दरवाजे की लाल नम्बरी बतियाँ
शाम को बीच में बसे चिड़ियाघर के पास कोलाहल के झुंड मंडराते

ऐसी लाल रोटी के लिए झुलसते हुए उस उदास बांदेवाड़ी बस्ती में
ताँगे आते थे, घोड़े लिटाए जाते, खड़ा था मैं नालों का डिब्बा थामे
‘ले पकड़ रस्सी-हाँ खेच, डरता है? क्या बम्मन का बेटा है रे तू साले
मजदूर है अपन; पकड़ घोड़े को, हाँ, यह, वाह रे मेरे छोटे नालवाले”

प्रगतिवाद की जनवादी काव्यधारा की पूर्वग्रहग्रस्त आलोचनाएँ-प्रतिआलोचनाएँ मिल जाएंगी जो इस बात की तसदीक हैं कि कैसे इस आन्दोलन ने साहित्य में षड़यंत्रपूर्वक स्थापित पंडों की चुरकी और इनके जातिवादी मठों के झण्डे उखाड़ने शुरू कर दिए थे। प्रगतिवाद ने ‘साहित्यिक जनतंत्र’ के निर्माण की दिशा में सबका ध्यान खींचा तथा सामाजिक विषमता-भेदभाव मिटाने के लिए एक जीवंत आंदोलन खड़ा किया। यह चेष्टा हुई कि समाज की शोषित, पीड़ित, वंचित, मुख्याधारा से जबरिया बाहर खदेड़ी गई जनता-जनार्दन को लेखन एवं प्रकाशन की वास्तविक कड़ी से जोड़ा जाए। साथ ही संवेदना, अनुभूति और भाषा के स्तर पर सीधी भागीदारी और असल कार्रवाई किया जा सकना संभव हो। प्रगतिवादी कवियों का बढ़-चढ़ कर यह प्रयास रहा कि हाशिए पर खड़ी उस ‘जनता’ को सम्बोधित किया जाए जो मुख्यधारा में जान-बूझकर शामिल नहीं की गई हैं, जो सदियों पुरानी दासता की गुलाम है, अपनी मूलभूत आवश्यकता-पूरती में ही बेहाल है। अन्यथा क्या कारण है कि जनसमाज की वैचारिकी में हर वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व न हो। एक विराट और बहुसंख्यक जनाधार वाले वर्गसमूह का अपना महान साहित्यकार, आलोचक, कवि, कलाकार, रस-मर्मज्ञ, कला-विशेषज्ञ, प्रकाण्ड आख्याता तथा राष्ट्रविख्यात आचार्य न हो! स्पष्टतः प्रगतिवाद इस तरीके से सभी वर्ग, समूह, जाति, सम्प्रदाय आदि के लोंगों को अपनी बात अपने मुख से अपनी भाषा में कहने का न्योंता दे रही थी, जो वर्चस्ववादी और सामंतवादी जातियों को स्वतःस्वीकार्य नहीं था।
 प्रगतिवादी कविताएँ जातिवादी-पुरोहितवादी संस्कारों से भिन्न भाषा में छल-प्रपंच करने की बजाए जनतंत्र का नवराग बिखेरती मालूम देती हैं। कविता अपने यथार्थ रूप् में जनतांत्रिक और चरित्र में जन-सरोकारी होती हैं। प्रगतिवादी कविता का हासिल यह है कि साहित्य का मठ अब ढहने लगा है, मिथ टूटने लगे हैं। कल तक जो जातियाँ हिकारत से देखती थीं आज उनकी सोई हुई चेतना के आद्यबिम्ब अकबका से गए हैं क्योंकि प्रगतिवादी कविताओं ने जन-जन में यह चेतना भरने की कोशिश तद्युगीन ज़माने में किया था, फर्क अब साफ दिख रहा है। फर्क डालने में अखिल भारतीय साहित्य-चेतना काम की है जिसे धार देने का काम प्रगतिवादी आंदोलन ने किया था।

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