Saturday 18 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 15

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

यह कहना जरूरी होगा कि चेतना अन्तर्वस्तु को देखने की कल्पित दिव्यदृष्टि नहीं देती है जिसके बरास्ते अधिसंख्य भारतीय हिंदी साहित्य गढ़े तथा निर्मित किए गए हैं; गढ़ों-मठों को पुजनीय बनाया गया है। लेकिन यह भी निर्विवाद सत्य है कि बहुत सारे प्राचीन ग्रंथ और शास्त्रों ने भारतीय मानस की अखिल भारतीय उच्चतर संस्कृति को जाहिर-प्रकट ही नहीं किया अपितु तद्युगीन सचाई तथा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों को नए सन्दर्भ और नई दृष्टि से देखने-खंगालने की प्रवृत्ति और चेतना भी पैदा की है। खासकर उस मनीषी परम्परा और ज्ञान-प्रणाली से भी अवगत कराया जिसे देखकर पूरी दुनिया चकित ही नहीं हुई, बल्कि उल्लेखनी व असाधारण बतलाया है। 
अतएव, प्रगतिशील ‘अप्रोच’ अपनी परम्परा और संस्कृति के सहमेल में ऊपर उठने का नाम है, क्योंकि आयातीत विचार वे चाहे अमरीका-केन्द्रित हों या यूरोप-केन्द्रित उनका भारतीय सन्दर्भ में नकल करने से अपना सर्वांगीण विकास अथवा सार्वभौम प्रगति नहीं हो सकता है। प्रगतिशील कवि अपनी मिट्टी के बाने और लहू में ऊपर उठने, लड़ने-भिड़ने की चेतना देते हैं। वह आकाशीय क्रांतिकारिता की पूँछ पकड़ पिच्छलग्गू बनने से चेताते रहे हैं क्योंकि इतिहास में यह कुकर्म खूब हुआ है और कुछ विशेष जातियों की प्राण-प्रतिष्ठा करने खातिर बहुसंख्यक समाज की चेतना को हाशिए पर ढकेला अथवा इरादतन उनको कमतर मापा जाता रहा है। त्रिलोचन की एक कविता सशक्त उदाहरण है :

"मौन भी कैसे रहूँ
कहूँ क्या कहूँ
तीखे तनाव से टूटने वाले

चाहे गड़ी हों
कई अनियाँ
अभी और भी हैं शर छूटने वाले

पीसने को अनुताप की भीड़ है
दुख भी हैं
सिर कूटने वाले

एक से
तू घबरा गया है
यहाँ एक से एक हैं लूटने वाले ।"

यह सच है कि प्रगतिवाद के निकष आमजन की फेरी है, उठन-बैठन है, उनके लिए या उनका होकर नहीं; उनके संग-साथ जीते-भुगतते हुए समय व परिस्थिति के नंगे प्रश्नों से टकराना है, हर रोज मल्लयुद्ध करना है। किताबी क्रांतिकारिता और दिवास्वप्न को भारत के अधिसंख्य प्रगतिशील कवियों ने नकारा और भारतीयता की धुरी पर प्रगतिवादी कविताओं का सृजन किया है, उनकी भूमिका का समर्थन किया है। त्रिलोचन की उपर्युक्त कविता 'मौन भी कैसे रहूँ' अपनी आत्मशक्ति का जिस तरीके से आह्वान करती है, चेतना को जरूरी संबल देती है; वह द्रष्टव्य है।
विद्यार्थीगण देख पायेंगे कि प्रगतिवाद के ठेठ और देशज आधुनिकता से लैस रचनाकारों में कोरी भावुकता के परचम, चुनर या कि धार्मिक/विचार-विशेष का ध्वज नहीं हैं; अपितु यथार्थ से जूझती एक आत्मा है जो लावारिस अलगाव, अकेलापन, अधूरापन, अजनबीयत, एकाकीपन आदि के अतिरिक्त सामूहिक यातना और सामाजिक संत्रास को भोगती हैं-लगातार और निरन्तर। व्यक्ति-समूह और समाज सभी संस्तरों पर। लिहाजतन, सामाजिक सरोकार और आमूल-चूल परिवर्तन को लेकर प्रगतिवादियों का आग्रह कई बार अतिरेकी मालूम दे सकता है, लेकिन उनकी दिशा और चेतना जाग्रत और विवेकी सर्वाधिक है। 
हाँ, तद्युगीन कुछ कविताओं में एक किस्म की जल्दबाजी और होड़ भी दिख सकते हैं, लेकिन ऐसी रचनाओं की उम्र अधिक नहीं होती हैं। लोक तक तो पहुँचती ही नहीं, बौद्धिको द्वारा भी वे जल्द ही बिसार दी जाती हैं।  काॅलेजिया क्रांतिकारिता को आगाह करते हुए लेनिन ने जो कहा है, वह आज के नकली और फिरंगी वामपंथियों के लिए भी आईना है-‘‘क्रांति के लिए केवल जुल्म का बढ़ना ही काफी नहीं है, सबसे पहले एक क्रांतिकारी विचारधारा और मजबूत राजनीतिक संगठन चाहिए। क्रांतिकारी विचारधारा एक झंझटवाली चीज है और व्यापक जनाधार वाली राजनीतिक पार्टी का निर्माण एक कठिन कार्यभार है, इसलिए अधिक क्रांतिकारी लोग क्रांति के लिए शोषकों और उत्पीड़िकों का ही भरोसा करते हैं।’’
भारतीय राजनीति में प्रगतिशीलता का चोला ओढ़े लोगों का हश्र बहुत बुरा हुआ। भारत में प्रगतिवाद औंधे मुँह गिरी या असफल हुई, तो क्यों? इस पर विचार करना आवश्यक है। रुमानियत की पैग बना ऊँचे-ऊँचे स्वर में बाँग देते वामियों की प्रगतिशीलता भारत में इसलिए भी जवाब दे दी कि उन्होंने अंततः उन्हीं जातियों और वर्गों को अपना शीर्ष-नेतृत्व माना जिसमें से अधिसंख्य रंगे सियार थे, अवसरवादी थे, उन संभ्रात और सामंती जातियों से थे; जिन चंद जातिदारों का देश में पहले से सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व रहा था। पी. सी. जोशी जैसे जननेता को अपनी भूल का खामियाजा भुगतना पड़ा था। नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित पुस्तक 'पी. सी. जोशी' की सचबयानी देखी जा सकती है-‘‘धीरे-धीरे सभी काॅमरेड जो कल तक जोशी को आश्चर्य, आदर और सम्मान से देखते थे; उनसे दूर हो गए। चूँकि नेतृत्व उनके खिलाफ था। उनके सभी मेधावी, कैम्ब्रिज-आॅक्सफोर्ड छाप काॅमरेड-मोहन कुमारमंगलम, अरुण बोस, एन. के. कृष्णन बारी-बारी से जोशी को छोड़कर नए नेतृत्व के साथ हो गए। वे पूरी तरह मान रहे थे कि एक क्रांति अनिवार्य है। ऐसा इसलिए हुआ कि जोशी ने बिना किसी राष्ट्रीय पृष्ठभूमि या जनाधार वाले इन बुद्धिजीवियों को पार्टी की अग्रपंक्ति में खड़ा किया था। असल ट्रेड यूनियन एवं किसान नेताओं की जगह इन लोगों पर भरोसा करने की कीमत जोशी को चुकानी पड़ी।“ रेमण्ड विलियम्स इस जगह याद आते हैं जो कहते हैं-‘स्वतन्त्रता अकेले उल्लास और आह्लाद का कोई स्वर्ग नहीं हैं, बल्कि समकालीन यथार्थता में यह लम्बी क्रांति तथा क्रांति की ट्रेजेडी से भी जुड़ी हैं।“
प्रगतिशील वैचारिकी में जमीनी जुड़ाव अथवा देशजपन महज जीवन-दर्शन का विषय नहीं है अपितु इसका सीधा सम्बन्ध हमारी चेतना से है, चित्तवृत्ति से है। यदि आपका गाँव से लगाव नहीं है, तो आप गाँव के प्रति उदासीन होंगे; जो आपकी गाँव के प्रति बसी घृणा का सूचक होगा। प्रगतिवाद में ‘मास कैडर’ की बात इसीलिए की जाती है क्योंकि उनमें दुचित्तापन प्रायः नहीं देखने को मिलता है। साहित्य में ‘लोक’ इसलिए सर्वोपरि है, गरिमामय है। ‘कसौटी’ पत्रिका में यू. आर. अनंतमूर्ति की बात सदा सत्य है-‘‘लोगों में अपने अतीत के साथ निरन्तरता का एक बोध हो, इसमें भाषा हमेशा उनकी मदद करती है। इसके साथ-साथ वह इसमें भी उनकी मदद करती है कि वे अनेक युगों से जो स्वप्न देखते आए हैं और उनमें उन्होंने जो उपलब्धियाँ की हैं; उन्हें अपनी स्मृति में सुरक्षित रख सके। हमारे ग्रामीण जीवन की सारी अतीत स्मृतियाँ हमारी लोककथाओं, लोकगीतों, लोकनाटकों और मिथकों में सुरक्षित हैं।“
आइए अब प्रगतिवाद की कवियों की बात प्रगतिवादी काव्यधारा के सन्दर्भ में करें, तो ऐसा नहीं है कि प्रगतिवाद के रचनाकारों में राष्ट्रीयता, देशप्रेम, प्रतिबद्धता इत्यादि से जुड़े राग-अनुराग नहीं हैं, बल्कि वे उत्पीड़ित आवाजों और वंचित जनसमूहों की दुरावस्था एवं दारुण स्थिति को अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखते हैं। कहना यथोचित होगा कि राजनीति की तुलना में प्रगतिशील चेतना की कविताएँ सहज, सम्प्रेषणीय तथा स्वीकार्य हैं। माखनलाल चतुर्वेदी की बहुचर्चिता कविता 'पुष्प की अभिलाषा' की निम्न पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं :

"चाह नहीं मैं सुरबाला के
                  गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
                  बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
                  पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
                  चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
                  उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
                  जिस पथ जावें वीर अनेक"

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