Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)
जातिवाद
भारतीय कुंठा का जयगान है, शोषक क्षत्रपों का जयघोष है। प्रगतिवाद ने इसे ललकारा और जनपक्षधर रवायतों
के साथ इसकी मज्जमत की, लेकिन वह आज भी कायम है। दरअसल कुछ जातियाँ श्रेष्ठत्व और देवत्व
की भावना से कुंठाग्रस्त हैं। लिंग पुराण में वर्णित एक प्रसंग का उल्लेख इन प्रवृत्तियों
को समझने के लिहाज से उचित होगा। पं. गिरिधर शर्मा चुर्वेदी प्रसंगवश लिखते हैं-‘ब्रह्मा
का एक पुत्र क्षुप राजा था। उसके साथ दधीचि ऋषि की मित्रता थी। एक बार क्षुप और दधीचि
का परस्पर विवाद हो गया। क्षुप ने क्षत्रिय की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया कि क्षत्रिय
ही सर्वदेव रूप हैं। ब्राह्मण तो क्षत्रिय का भिक्षुक बनकर रहते हैं। दधीचि ने ब्राह्मण
की श्रेष्ठता प्रतिपादन करते हुए क्षुप की निन्दा की। इस पर कुपित होकर क्षुप ने दधीचि
का मस्तक काट डाला।’’
स्वयं
को अभिजात्य कहने वाले दो वर्ग की श्रेष्ठताग्रंथि और उनकी कुंठाजनित आचरण का प्रमाण
प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलते हैं। क्षत्रिय-ब्राह्मण की बर्बरता और क्रूरता अन्य
दूसरे वर्गों मसलन किसान, कारीगर, कलाकार, सैनिक आदि के साथ कैसी रही होगी, इसकी पूर्व-कल्पना
करते हुए आम्बेडकर ने गाँधीजी से जिद करने की जगह कदम पीछे खींच लेना ही उचित समझा,
तो इसे सहज विवेक-बुद्धि और दूरदर्शिता ही कहा जाएगा। यद्यपि प्रगतिशील का मुखौटा लगाने
वाले कई साहित्यकार अपनी जात पर उतर आयें, तो वह ब्राह्मण और क्षत्रिय ही होंगे, सहजमना
इंसान हरगिज नहीं।
यह बात
भारत के उत्तर से लगायत दक्षिण तक सटीक बैठती है। दक्षिण भारत जहाँ के प्रभूत साहित्य
पर कम ही नज़र जाता है; ब्राह्मण-अब्राह्मण को लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक दूरियाँ एवं
अंतहीन पीड़ा की खाई जबर्दस्त देखने को मिलती हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन 1956
के दक्षिण भारत में हिंदी को लेकर फैली दहशत के मूल कारणों में ‘उत्तर भारत के ब्राह्मणवाद’
को चिन्हित करते हैं-‘‘मद्रस में विरोध का एक कारण यह भी है कि वहाँ के 97 प्रतिशत
अब्राह्मण 3 प्रतिशत ब्राह्मणों के शोषण और उत्पीड़न के लिए हजारों वर्षों से त्राहि-त्राहि
करते रहे। अब वह सूद सहित बदला चुकाना चाहते हैं। ब्राह्मण नाम से उनको घृणा हो गई
है।’’
कहना
न होगा कि बहुत ही चालाकीपूर्वक सभ्रांत और सामंती जातियाँ अन्य दूसरी जातियों को
‘इत्यादि’ घोषित कर देती हैं-बिना नाम, पहचान और रसूख के। इस ‘इत्यादि’ में शामिल बहुसंख्यक
चेहरे आज भी सड़कों अथवा रेलवे के पटरियों पर सरपट दौड़ते-भागते हैं। वे श्रमशील हैं,
इसलिए भाषा में टिकते कम हैं। बस उन्हें ‘इत्यादि’ कह निपटाया जाता रहा है। राजेश जोशी
इसकी संवेदनशील पड़ताल करते हुए कहते हैं-
‘‘कुछ
लोगों के नामों का उल्लेख किया गया था जिनके ओहदे थे
बाकी
सब इत्यादि थे
इत्यादि
तादात में हमेशा ही ज्यादा होते थे
इत्यादि
भाव-ताव करके सब्जी खरीदते थे खाना-वाना खाकर
खास लोगों
के भाषण सुने जाते थे
इत्यादि
हर गोष्ठी में उपस्थिति बढ़ाते थे
इत्यादि
जुलूस में जाते थे तख्तियाँ उठाते थे नारे लगाते थे
इत्यादि
लम्बी लाइनों में लग कर मतदान करते थे
उन्हें
लगातार ऐसा भ्रम दिया गया था कि वे ही
इस लोकतंत्र
में सरकार बनाते हैं
इत्यादि
हमेशा ही आंदोलनों में शामिल होते थे
इसलिए
कभी-कभी पुलिस की गोली से मार दिये जाते थे।...
इत्यादि
हर जगह शामिल थे पर उनके नाम कहीं भी
शामिल
नहीं हो पाते थे
इत्यादि
सब कुछ सिरफिरे कवियों की कविता में
अक्सर
दिख जाते थे।’’
प्रगतिवाद ने भारतीय जड़ताओं पर जबर्दस्त
प्रहार किए। कवि लिख भले बहुत कम रहे थे, लेकिन जनता ‘डिकोड’ उसे बहुत शाइस्तगी से
कर रही थी। राजेश जोशी की कविता का हवाला लें, तो-भारत की बहुसंख्यक जनता के हक-हकूक
और अधिकार की बात आज भी ‘इत्यादि’ श्रेणी में रख कुछ विशेष जातियाँ अपनी क्षुद्रताओं
का परिचय दे रही हैं। अपने ही को भारतीय ज्ञान-मीमांसा में सर्वोपरि कहे जाने को लेकर
न सिर्फ आग्रही दिख रही है; बल्कि साम-दाम-दण्ड-भेद की कुनीति द्वारा हर वह खुल्लमखुला
खेल कर रही हैं जिससे उनका क्षत्रिय-ब्राह्मणनुमा इतिहास अटा पड़ा है।
भारतीय साहित्येतिहास में भी यह मनमानापन
जबर्दस्त पसरा हुआ है। भारतीय मूलवासियों को ऐतिहासिक कालानुक्रम या फिर प्राचीन ग्रंथों
में जिनको आज भी पढ़ाना अनिवार्य समझा जाता है; में यह खिलवाड़ साफ-जाहिर तौर पर दिखाई
देते हैं। ओमप्रकाश सिंह के सम्पादन में प्रकाशित ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली’
का सन्दर्भ लें, तो यह सबकुछ भाषा के अन्दरखाने में जानबूझकर किया गया ताकि जाति-विशेष
की प्रतिष्ठा की राजनीति सफलीभूत की जा सके-“पहले कहा जा चुका है कि प्राकृत की रूढ़ियों
से बहुत कुछ मुक्त भाषा के जो पुराने काव्य जैसे बीसलदेवरासो, पृथ्वीराजरासो आजकल मिलते
हैं वे संदिग्ध हैं। इसी संदिग्ध सामग्री को लेकर थोड़ा-बहुत विचार हो सकता है, उसी
पर हमें संतोष करना पड़ता है। इतना अनुमान तो किया ही जा सकता है कि प्राकृत पढ़े हुए
पंडित ही उस समय कविता नहीं करते थे। जनसाधारण की बोली में गीत, दोहे आदि प्रचलित चले
आते रहे होंगे जिन्हें पंडित लोग गँवारू समझते रहे होंगे। ऐसी कविताएँ राजसभाओं तक
भी पहुँच जाती रही होंगी। 'राजा भोज जस मूसरचंद' कहने वालों के सिवा देशभाषा में सुंदर
भावभरी कविता करने वाले भी अवश्य ही रहे होंगे।“ क्षत्रिय तो और भी हास्यास्पद तरीके
से विभिन्न साहित्यिक ग्रंथों में पैदा हो रहे थे। बानगी इसी ग्रंथावली के वाक्य से
देखिए-“पृथ्वीराजरासो में आबू के यज्ञकुंड से चार क्षत्रिय कुलों की उत्पत्ति तथा चौहानों
के अजमेर में राजस्थापन से लेकर पृथ्वीराज के पकड़े जाने तक का सविस्तार वर्णन है।“
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