Saturday 18 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 13

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
---
(पिछले से आगे...)

प्रगतिवाद के दौर के जनसमाज खातिर जो लोग प्रगतिवादी कविताएँ लिख रहे थे उनकी रचनाओं पर बात करने से पूर्व भारतीय जनसमाज के करोड़ों भूखे-नंगे-गरीब, शोषित, पीड़ित, वंचित वर्ग की पहचान जरूरी है जो कविता में खूब चित्रित-वर्णित हो रहे थे; लेकिन वे इस दशा-हाल में पहुँचे कैसे; काजी नजरुल इस्लाम के एक मशहूर गीत (चौरंगी फिल्म) के आलोक में चलिए तफ्तीश करें :

“जो हम पे गुजरती है
किसने उसे जाना है
अपनी ही मुसीबत है
अपना ही फसाना है।।

या वह थे खफा हमसे
या हम हैं खफा उनसे
कल उनका जमाना था
आज अपना जमाना है।।

आँसू तो बहुत से हैं
बँध जाए सो मोती है
रह जाये सो दाना है।।’’

इसी आर्यावत में वंश-विशेष की कुछ जातियाँ चौर्यकर्म करती थीं। काम चोरी करने का, किन्तु बताती स्वयं को चारों वेदों का ज्ञाता थीं। इतिहाससर्जकों ने इनके साहित्यिक अवदान को याद करते हुए जो लिखा है, वह ‘सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर, 1968 ई. के अंक में मौजूद है। ऐसी धूर्त ज़मात जिनका काम आमजन की बची-खुची सम्पत्ति को लूट द्वारा हड़प लेना था, अपने वंश-जाति-कुल का परिचय देते हैं-

‘अहं हि चतुर्वेदविदो प्रतिग्राहकस्य
पुत्र शर्विलको नाम ब्राह्मणः।’

चोरी जैसे जघन्य अपराध में भी जो जाति अपने को चारों वेदों का ज्ञाता और प्रतिग्राहक का पुत्र शर्विलक और जाति ब्राह्मण बताती हैं; सिर्फ उन्हीं के लिखे को अकाट्य सत्य मान लेना अपनी आँख रहते हुए अंधा होने की फितरत पालना है। शर्तिया और सप्रमाण बात कहे जाने की पक्षधर आधुनिक बौद्धिकों/साहित्यिकों को समझना होगा कि भारतीय साहित्य कुछ जातियों के बुरे कर्म को जिस तरीके से ‘ग्लोरिफाई’ करती हैं, उससे यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि भारतीय समाज अपनी प्रकृति में किस कदर कुंठित और वैचारिकी में संकीर्ण था। यह भारत का सौभाग्य रहा कि दुनिया में आधुनिकता और वैज्ञानिकता के आगमन ने यथास्थिति को बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। निःसंदेह इनमें उन जातियों के महापुरुषों का योग और अवदान भी शामिल रहा है जिन्होंने जातीय विषमता, भेदभाव, छुआछूत आदि के समूल नाश के लिए अपने तईं बड़े प्रयास किए हैं और पूरे जनसमाज को इन सामाजिक कुरीतियों से बाहर निकालने की पुरजोर चेष्टा की है।

यही नहीं संसाधनों पर कब्जे की तो बात इतनी अचूक थी कि-मुट्ठी भर जाति के लोग सम्पूर्ण भारत के भाग्य-विधाता थे; असल कर्ता-धर्ता नहीं। बकौल रविन्दर कुमार जो अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भारत का उदय’ में कहते हैं उस ओर हमारी आँख जानी चाहिए-“भूमि पर योद्धा अभिजन समुदाय का स्वामित्व और उस भूमि की उपज पर उसका अधिकार, स्थानीय राज्यवव्यवस्था पर उसकी सत्ता का आधार होता था। योद्धा अभिजन समुदाय का कृषकों और कारीगरों के समुदायों पर वर्चस्व होता था और उसकी सत्ता तथा विशेषाधिकारों को वैधता प्रदान करने का काम उस पर निर्भर एक पुरोहित-वर्ग करता था। क्षेत्रीय तथा उपमहाद्वीपीय राज्यव्यवस्थाओं से इन स्थानीय राज्यव्यवस्थाओं के सम्बन्धों का भी संकेत किया जा चुका है। इस सन्दर्भ में जो खास बात ध्यान देने लायक है, वह है इन राजनीतिक संस्थाओं की कमजोरी-विशेषकर क्षेत्रीय तथा उपमहाद्वीपीय स्तर की संस्थाओं की कमजोरी-जिसका कारण यह था कि यहाँ उस तरह के प्रशासनिक ढाँचे थे ही नहीं, जैसे कि-चीनी सभ्यता या इसी तरह की अन्य सभ्यताओं में देखने को मिलते हैं।“

विद्यार्थीगण को ध्यान देना आवश्यक है कि जब कोई व्यक्ति अपनी अहमियत नहीं पहचानता, तो उनका क्या हश्र होता है इसका इतिहास गवाह है। इरादतन किसी जाति और वर्ग विशेष की योग्यता और उनकी कथित ज्ञान-सत्ता की तूती बोलने लगती हैं और चहुँओर उनका ही कब्जा हो जाता है-सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, कला, साहित्य, दर्शन, मूल्य-सबकुछ इनकी ही बपौती हो जाती है। वे बेदखल हो जाते या फिर निर्वासित। दुर्दिन उन्हें घेर लेता है और वे अपनी महान परम्परा और विरासत से च्यूत होकर नानाविध ऐसे कार्यों में नाध दिए जाते हैं जिनकी वास्तविक कीमत दो-कौड़ी की होती है और सामंती जातियों का हिकारत-भाव उनके प्रति हर तरफ दिख जाता है। आम्बेडकर के समकालीन तथा उनकी जीवनी लेखक चांगदेव भवानराव खैरमोड़े के अनुसार-‘महाराष्ट्र की जो दलित जातियाँ हैं, उनमें महार जाति एक प्रमुख जाति है। महार लोग मूल रूप से महाराष्ट्र के ही रहने वाले थे। वे बहुत ही बुद्धिमान, प्रगतिशील और बड़े योद्धा थे। एक समय था कि वे महाराष्ट्र के शासक भी थे। महाराष्ट्र का मतलब ही ‘महारों का राष्ट्र’ इस प्रकार का प्रतिपादन करने वाले विद्वान राजाराम शास्त्री भागवत भी थे।’’

नई पीढ़ी के बच्चे जो महाराष्ट्र का अनुवाद ‘ग्रेट नेशन’ लिखते हैं, क्या वे कभी इस तरह की सचाई बिना पढ़े जान पायेंगे।

प्रगतिवाद ने मनुष्य के विवेक, उस की गरिमा, उसकी निर्णय-स्वतन्त्रता और उसकी सृजनशीलता पर गर्व करना सिखाया; दृढ़ और अडिग विश्वास की चेतना पैदा की, लेकिन इसका सारा श्रेय समाजवादी-साम्यवादी विचारधारा को न भी दें, तो भी उसने हलक में थूक घोंट चुप रहने की जगह बोलने और तर्कसहित बोलने का अधिकार हर उस स्त्री-पुरुष को दे दिया था जो उन दिनों ‘समता’, ‘स्वतन्त्रता’ और ‘भाईचारा’ के लिए आखिर थे; संघर्षरत थे। डाॅ. आम्बेडकर का नाम उनमें सबसे आगे था जो राजनीति में राष्ट्र-राज्य की पुरातन संस्कृति को भेद रहे थे और अपनी अतुलनीय योग्यता के बदौलत अपनी भूमिका में आगे होते दिख रहे थे। कई बार गाँधी जी के बरक़्स उनकी तुलना होती है, तो मन में हूल-सी उठती है कि-क्या इतने वर्षों बाद भी हमने आम्बेडकर को जाना कम उनके नाम का कीर्तन और गान अधिक किया है।

गाँधी और आम्बेडकर पूरक थे, लेकिन एक नहीं थे। गाँधीजी ने आम्बेडकरजी के समक्ष गोलमेज-प्रकरण में अनशन की बात कही, तो आम्बेडकरजी के लिए निर्णय करना इतना आसान नहीं था; लेकिन बड़े उद्देश्य हेतु फौरी नकार को सहजतापूर्वक स्वीकार करना सही होता है। गाँधी के प्रति आम्बेडकर का संवेदनशील आदर का भाव इस महान शख़्सियत की उच्चतर चिंतनधर्मिता की ओर इशारा करता है। प्रगतिवाद के विद्यार्थी के रूप में उस काल-विशेष को दर्ज करते हुए आम्बेडकरजी की इन बातों का भी समाजशास्त्रीय एवं साहित्य आधारित अध्ययन-विश्लेषण करना होगा जिस प्रसंग का उल्लेख वरिष्ठ साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय अपनी पुस्तक ‘महानायक बाबा साहेब डाॅ. आम्बेडकर’ में किया है-‘‘जिन अधिकारों को उन्होंने अथक प्रयास से गोलमेज परिषद में जबर्दस्त वकालत कर प्राप्त किया था, उन्हें महज गाँधी के लिए छोड़ना पड़ा था। न छोड़ते तो लाखों दलितों को अपने घर/गाँव/खेत छोड़ने पड़ते। हो सकता था कि कितने ही लोगों का कत्लेआम  कर दिया जाता। हजारों महिलाओं के साथ बलात्कार हो जाते। हजारों बच्चों को गर्भ में ही मार दिया जाता। लाखों घरों को जला दिया जाता। ढूँढ-ढूँढकर दलितों के शरीरों को त्रिशूल और भालों की नोंक पर लटकाया जाता। द्विज ऐसे क्रूर और जालिम बन जाते। अगर गाँधी अनशन करते-करते मर जाते।“...

No comments:

Post a Comment