Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)
प्रगतिवाद
ने छुआछूत के ज़मीनी सवाल को गहरा किया। साथ ही धर्म के उन आदर्श रूपों की घोर भत्र्तसना
की, जिसने सामाजिक जातिवाद को धार्मिक संरक्षण दी। जातिवाद में उच्चस्थ पदासीन सामंतों
ने श्रम से खुद को किनारा किया और दरबारी मंगलगान के मानसिक पराक्रम द्वारा समाज के
बँटवारे की कुनीति चली, जिसमें वे कामयाब ही नहीं रहे; बल्कि आश्चर्यजनक तरीके से हजारों
साल तक बहुसंख्यक जनता का शोषण किया तथा उन पर नानाविध अत्याचार किए। जातीय आडम्बर से बँधी उच्चस्थ जातियाँ
प्रायः डरपोक और अंदर से खोखली होती हैं जो अपने निकम्मेपन के कारण उत्पन्न जातीय दंभ
और श्रेष्ठता-बोध से विलग होना चाहती ही नहीं हैं।
आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल इस प्रवृत्ति को ‘असाध्य भय’ कहते हैं। बकौल शुक्ल जी-‘असाध्य भय वह
है जिसमें यह पूरा निश्चय हो जाए कि चाहे हम किसी अवस्था में रहे। दृःख अवश्य ही पहुँचेगा।’
इस भय ने उनके मन में इरादतन मानसिक घृणा को उपजाया है जिसे जातिवादी अपनी मूलप्रवृत्ति
मान संस्कारवश ढोते रहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं-‘मानसिक घृणा मन में
कुछ अपनी ही क्रिया से आरोपित और कुछ शिक्षा द्वारा प्राप्त आदर्शों के प्रतिकूल विषयों
की स्थिति से उत्पन्न होती हैं। यह मानसिक घृणा स्थूल घृणा से भिन्न है।’ दरअसल, सूक्ष्मातिसूक्ष्म
इस घृणा के कारोबारी उच्च जाति का हर व्यक्ति नहीं है, लेकिन अधिसंख्य में यह दबे-छुपे
तौर पर या कहें प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से जरूर पैठा होता है। कवि एवं लेखक विष्णु नागर
इन प्रवृत्तियों की पड़ताल करते हुए साफ शब्दों में कहते हैं कि-‘‘श्रम के सबसे निकृष्ट
रूप उन जातियों के हिस्से में आए हैं जो सामाजिक विभाजन में सबसे नीचे समझी जाती हैं
और जब इनमें से किसी जाति का कोई व्यक्ति किसी संयोग से आर्थिक सीढ़ी पर ऊँचा चढ़ जाता
है और शारीरिक श्रम के बजाय बौद्धिक श्रम करने वालों की श्रेणी में आ जाता है तो उच्च
कही जान वाली जातियों के लोग इससे अक्सर उद्वेलित हो जाते हैं और अपनी घृणा तथा अन्दर
की हिंसक भावना इजहार करने से नहीं चूकते।’’ इस तरह की विक्षिप्त मनोवृत्ति का मूल
कारण भय ही है, कारण कि ‘भय से व्यक्ति के भीतर आक्रामक प्रवृत्ति बढ़ जाती है जो परिवेश
में विकृति को जन्म देती है।’
प्रगतिवादी
कविता ने जातिवाद को लेकर व्यक्तिगत ईमानदारी बरतने की शर्त रखी। सच को अभिव्यंजना
भाषाई लालित्य के बाने में न कह सीधे-सपाट अभिधा में कहना इतना आसान काम उन दिनों न
था; लेकिन प्रगतिवादी विचारधारा ने कविता के ‘कंटेंट’ और ‘फार्म’ में इस किस्म का क्रांतिकारी
बदलाव कर दिया था। विद्यार्थीगण को समझाने के लिहाज से मुक्तिबोध द्वारा व्यक्तिगत
ईमानदारी के बारे में कही बात से अवगत कराना जरूरी है-‘व्यक्तिगत ईमानदारी का अर्थ
है-जिस अनुपात में, जो भावना या विचार उठा है, उसको उसी मात्रा में प्रस्तुत करना।
जो भाव या विचार जिस स्वरूप को लेकर प्रस्तुत हुआ है, उसको उसी स्वरूप में प्रस्तुत
करना लेखक का धर्म है।...संस्कृति के इतिहास में, कोई महत्त्वपूर्ण पार्ट अदा करना
है, तो उसे काव्य की प्रकृति तथा शिल्प में आत्मपक्ष और वस्तुपक्ष का समन्वय स्थापित
करना होगा।’
प्रगतिवादी
कवियों ने सदैव ‘क्वेश्चनिंग’ को सही ठहराया और ताकीद की कि-‘अपने शिक्षक या किसी भी
लिखित सामग्री को बिना जाँचे-परखे अपने पर लागू न करो और न उन अधिकारों को रूढ़ तरीके
से ग्रहण करो; इसके उलट सदैव स्वयं से पूछो, अंतहीन प्रश्न करो।’ वैज्ञानिक चेतना की
पत्रिका ‘विज्ञान प्रगति’ के आलोक में तत्कालिन विचारधारा को देखें, तो वह प्रगतिवाद
के तर्कों को जायज ठहराती हैं जिनमें आधुनिकता-बोध है और सत्य को स्वीकार्य करने के
लिए झूठ को नकारने की अंतश्चेतना एवं विवेक पर खासा बल है।
पत्रिका के अनुसार-‘व्यक्ति
को स्वतः प्राप्त होने वाली बुद्धि को स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि अनुभवजन्य प्रमाणों
की सदैव तलाश करनी चाहिए। संविधान भी नागरिकों के मूलभूत कर्तव्यों के अन्तर्गत वैज्ञानिक
प्रवृत्ति, मानवतावाद और पूछताछ व सुधार की मनोवृत्ति के विकास पर जोर देता है।’ देश
के सर्वप्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इसी सरोकार को साधने की वकालत की है।
वे कहते हैं- पहला तो, विज्ञान को मानव-जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाना चाहिए।; दूसरे, मानवीय
गतिविधियों के हर क्षेत्र, जिसमें राजनीति भी शामिल है, में वैज्ञानिक मानसिकता प्रतिफलित
होनी चाहिए और तीसरे, वैज्ञानिक मानसिकता को ज्ञान से जोड़ना चाहिए।’ सुकून है कि प्रगतिवादी
कवियों ने अपनी कविताओं में इसी चेतना के साथ प्रभूत लेखन किया और अपनी जगह बनाई।
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