Thursday 16 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 11

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

यथास्थिति स्वीकार नहीं होना प्रगतिवाद की मुख्य प्रवृत्ति है। कोई भी व्यक्ति या संस्थान चाहे कितने भी महान हो जड़ता नहीं होनी चाहिए। जडबद्ध होने से परिवर्तन रूक जाता है। बिना परिवर्तन के विकास नहीं हो सकता है और यह सब नहीं हुआ तो सम्पन्नता और समृद्धि आने से रही। लेकिन इसके लिए ज्ञानमार्गी होना पड़ता है; अपनी भीतरी जिज्ञासा के बूते दुनिया को अपने तईं जानने की कोशिश करनी होती है। जननायक आम्बेडकर खाली-पिली नहीं कहते हैं कि-‘संगठित होओ, संघर्ष करो और शिक्षित बनो’। भारतेन्दु भी अपने बलिया उद्बोधन में कहते हैं-‘इस महामंत्र का जप करो, जो हिन्दुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जाति का क्यों न हो, वह हिंदु है। हिंदु की सहायता करो। बंगाली, पंजाबी, मद्रासी, वैदिक, जैन, बौद्ध, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ों।’  सनद रहे, अब यहाँ ‘हिंदु’ शब्द को लेकर महाभारत खड़ा करना उचित होगा न तर्कसंगत।
प्रगतिवादियों से अपेक्षा की जाती है कि वे कथनी और करनी में साम्य रखें। बड़बोलेपन की हरमुठाई से अलग सचमुच में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें जिससे लोक-मंगल और लोक-हित अधिकाधिक हो। ज़माने की जार-मार सहते हुए कबीर या फूले होना आसान नहीं है। वैसे ही चलन में जारी अन्यायपूर्ण और असंगत सामाजिक पदानुक्रम में ‘उच्च वर्ण’ कहलाने के बावजूद खुले और स्वतन्त्र मन से ‘जाति क्षय’ की बात करना हँसी-ठठा नहीं है। दरअसल, अविवेकी ढंग से आपा खोने या अपनी भाषा की मर्यादा भूलने से बड़का काम है-‘छोटे-बड़े अनेक अंतर्विरोधों को अपने में समोए और शमित रखना। असाधारण व्यक्तित्व का निर्माण इसी व्यवहार-चलन से होता है, तैश खाने या कि एक-दूजे को उखाड़ने-पछाड़ने की डींग हाँकने से नहीं। औरों के तिकड़मबाज होने से अपनी ईमानदारी छोड़ देना समझदारी नहीं कही जा सकती है। यह स्वार्थसिद्धि सम्यक् आचरण नहीं है जिसके बल पर सामन्ती लोग श्रेष्ठताग्रंथि के शिकार दिखते हैं या फिर अपनी कुल-जाति को ‘उच्च’ कह सिर्फ अपनी ही जात-बिरादरी की पीठ सहलाते हैं। आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी अपनी किताब ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’ में कहते हैं-‘पुरोहित, तांत्रिक और मंत्री आदिम समाजों से आज तक शासन-प्रमुख को खुशफहमी में रखकर अपना स्वार्थ साधते हैं, इसका विश्लेषण बहुत से समाज-विचारकों तथा विधि-विशेषज्ञों ने किया है।‘
विद्यार्थीगण का ध्यान इन अंतरों की और जाना चाहिए कि जहाँ एक ओर, छायावाद में रहस्यवाद, प्रकृति-चित्रण, आध्यात्मिकता, भारतीय अंश-अंशि, इतिहास का वस्तु-अंश, प्रकृति-दर्शन, वैयक्तिक स्तरीय मांसल भाव, कसक, पीड़ा, करुणा, आत्मा-परमात्मा जैसे विषय-विधान काव्य-प्रवृतियाँ थीं, तो दूसरी तरफ प्रगतिवाद में इतिहास-बोध एवं इतिहास-चेतना, सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ-दृष्टि, वर्ग-चेतना आधारित विचारधारा, जन-पक्षधरता एवं प्रतिबद्धता, गहरी जीवन-शक्ति, परिवर्तन के लिए सजगता एवं वैज्ञानिकता, विवेकपूर्ण विश्लेषण और तार्किकता इत्यादि पर बल सर्वाधिक था। सहज, तेज-प्रखर, व्यंग्यात्मक काव्य-शैली का वाचक है जिसकी चर्चा समर्थ विद्वानों ने की है। उनका यह भी माना है कि जनता के लिए साहित्य में जनता की उपस्थिति और उनकी सीधी हिस्सेदारी को साकार एवं सुनिश्चिता करना नितांत आवश्यक है।
प्रगतिवाद खुले तौर पर ‘कला कला के लिए’ के सिद्धांत में यकीन नहीं करता है। प्रगतिवाद आनंदवादी मूल्यों के बजाय भौतिक उपयोगितावादी मूल्यों में विश्वास करता है। कलम के सिपाही प्रेमचंद की टिप्पणी इस बारे में विचारणीय है-‘मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि मैं और चीजों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ। निःसंदेह कला का उद्देश्य सौन्दर्य-वृत्ति की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनंद की कुंजी है; पर ऐसा कोई रुचिगत तथा आध्यात्मिक आनंद नहीं जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो।’
इस तरह यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि 1936 ई. के बाद लिखी जा रही रचनाओं में प्रगतिवाद का असर सर्वाधिक मिलता है और इस देशकाल की कविताएँ अपने समय के सच को जाहिर-प्रकट करने में बढ़-चढ़ कर अगुवाई कर रही। थीं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के लेखन का स्वर प्रगतिवादी हुआ, तो उनकी कविता सच के अधिक करीब और सहजबयानी हो गई। निराला अपनी कविता ‘बेला’ में कहते हैं-

‘जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ
आओ, आओ!
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, तेली

खोलेंगे अन्धेरे की ताला।’

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