Saturday 21 April 2018

पचास कविताएँ जो कहती हैं जनरागी कवियों की सूची में लिखना इनके भी नाम

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राजीव रंजन प्रसाद



कविता-संग्रह  : पचास कविताएँ (नयी सदी के लिए चयन)
लेखक  : गंगा प्रसाद विमल
प्रकाशन  : वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली.110 002
प्रथम संस्करण : 2014
मूल्य  : 65 रुप्ए
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अपन देश में देह के भूगोल में जीवित लोगों की संख्या अरबों में है। सब एक से बढ़कर एक। खासकर बौद्धिक ज़मात तो अव्वल धुरंदर है। नामचीन, नामख़ास, नामगीर इत्यादि विशेषताएँ उन्हें सुहाती अवश्य है; पर वह अपने आस-पास घटित छोटी-बड़ी घटनाओं की इरादतन अनदेखी करते हैं। इस बारे में संवेदनशील हो कर विचारते तक नहीं हैं। खुद को  क़सूरवार ठहराने की बात बहुत दूर है। गंगा प्रसाद विमल इनसे अलग हैं। भविष्य के लोगों से उनकी गुहार अलग क़िस्म की है। उनकी आत्म-स्वीकृति चौंकाती है, बरबस-

''तुम मेरा नाम जरूर लिखना
न केवल मैं चुप था
विदूषकों के बीच था
बल्कि मैं तो
सनसनीखेज सुबह के इन्तज़ार में
हमेशा सजग था।
जब कुछ नहीं घटता था तब
मैं बुझ जाता था।''

गंगा प्रसाद नये मन के पुराने कवि हैं। वह पुरातनपंथी, रूढ़िवादी नहीं हैं। उनमें मनुष्यता की लौ है जिसकी अपेक्षा एक कवि से होनी ही चाहिए। इसी कारण उनकी दृष्टि साफ़ है और अभिव्यक्ति साफ़गोई का कोठार मालूम देती है। सौ बात की एक बात कि उनके कहन में फ़ौरीपन अथवा तात्कालिकता न हो कर सचाई की करवटें बेशुमार हैं। वह जन-वेदना से पीड़ित हैं, दुःख संतप्त हैं। वह उत्तर आधुनिक करतबों के कारण ‘प्रोफेशनलिज़्म’ का चोला पहने नागरिकों को मौजूदा हाल-हालातों का कारण मानते हैं। उनका लक्षित भाव व्यापक है कि नई उत्तर आधुनिक जयकारा ने मानवीयता के पहलू को सूखा डाला है, मन बेजान तो आत्मा को बंजर कर दिया है। कोई स्फुरण्-स्पंदन नहीं, संवेग-गति नहीं। ऐसे में जीवित लोगों की तमाम उनलब्धियों, निजी निर्माणों इत्यादि को कवि-हृदय सवालिया निगाह से देखता है। 

‘‘हत्यारों में केवल
वे ही नहीं शामिल
जिनके साधन विफल हुए थे।
अख़बार
बनिये
अध्यापक
कलाकार
ये सब शामिल थे।
इसलिए कि ये अपनी-अपनी
चिन्ताओं में
अपने निर्माण में रत थे।
इन्हीं के भविष्य से कितने ही अतीत
और वर्तमान टूटे थे।

लिखना इनके भी नाम...''

कवि जन-संवेदी है और आमजन की पीड़ा से उसके ताल्लकुक़ात गहरे हैं। इस नाते वह अनाम, अलक्षित, अनुद्धृत जनसाधारण लोगों द्वारा सही गई दुनिया भर के जार, पीड़ा, यातना, त्रासदी आदि को कहने और लिखने ख़ातिर बेचैन और व्याकुल दिखता है। यह सदिच्छा आज के कराहती-तड़पती दुनिया को जीवंत-जानदार बनाने हेतु अत्यावश्यक है-
''कितना कुछ कहा गया है अब तक
फिर भी कुछ है जो नहीं कहा गया
मैं वही कहना चाहता हूँ

कितना कुछ लिखा गया है अब तक
फिर भी है कुछ बाकी जो नहीं लिखा गया
वही तो लिखना चाहता हूँ मैं

सहने की अनेक गाथाओं में
विचित्र-से भयंकर और क्रूरतम
सब कुछ जैसे सहा गया है
पर सूरज के आने और विदा होने तक
हर रोज-यह असहनीय वक्त
सहना पड़ता है। चुपचाप बिना इनकार किए
वही तो मैं खोजना चाहता हूँ मैं 

यद्यपि वह मानते हैं कि ऐसी खोजी प्रवृत्ति सदियों से चली आ रही हैं, तब भी कुछ नया पाने को, जानने को इसी बरास्ते संभव है। बकौल कवि-‘शब्द और अर्थ के बीच/अमूर्तित मूर्ति को/इतनी बार खोजा गया है सदियों से/फिर भी...’’। कवि गंगा प्रसाद का यह टोही इरादा उनकी अन्य कविताओं में भी प्रचुर मात्रा में दिखाई देती है। कविताओं में घनीभूत जो अन्तरावलम्बी बल, लगाव और चित्तवृत्ति है उन्हें ठीक-ठीक पहचानने और उनसे अपनापा गाँठने को आतुर जान पड़ती है। दरअसल, कवि गंगा प्रसाद जिनके बीच हैं उन्हें देखते खुले मन से हैं। आजकल तो हमारी दुनिया इतनी सिमट-सिकुड़ सी गई है कि हम रहते हुए अनजान और अनुपस्थित मालूम देते हैं सबके बीच। ऐसा होने पर महसूसना संभव नहीं हो पाता है; और इस तरह हमारा होना जीना एक ‘रूटीन वर्क’ मात्र बनकर रह जाता है। असल बात तो इस बात में है कि हम अपने को ही केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि समूचे वातावरण, प्रकृति, सृष्टि, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, चर-चराचर सब को हीक भर देखें-सजीव और प्राणवान बने रहते हुए। ऐसा हाने पर नज़ारे जो होंगे उसमें कवि का दख़ल कुछ इस तरह होगा-

‘‘खुले आसमान के नीचे
घाटियों से
सिर उठाये
सर्दियों में
धूप तापती हैं पहाड़ियाँ

.... 
.... 

एक निस्तब्ध प्रतीक्षा
किसी आहट की
सन्नाटे के भरे-पूरे फैलाव में
अवाक्
रूपायित होती है
नीले आकाश में।’’

(जारी...)

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