Friday 20 April 2018

कुछ पुराने नोट्स के जरूरी वाक्यांश!


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राजीव रंजन प्रसाद

ऐसा नहीं है कि हमने कभी ग़लतियाँ ही नहीं की; और सबकुछ यूँ ही सीख गए। गैरी मार्शल की मानें, तो अपनी ग़लतियों से सीखना हमेशा मददगार होता है, क्योंकि तभी हमारी ग़लतियाँ हमारे लिए लाभाकारी साबित होती हैं। एल. फ्रैंकन तो ग़लतियों को मनुष्य की प्रकृति से जुड़ा हुआ मानते हैं। उनकी दृष्टि में ग़लतियाँ इंसान के स्वभाव का हिस्सा है। अपनी ग़लतियों को सराहें। ज़िन्दगी की सबसे कीमती शिक्षा कठिन रास्तों पर चलकर ही मिलती है। जबतक कि ग़लती घातक हो और दूसरे उससे कुछ सीख सकें।
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कई बार जब हम देखते हैं, तो हमारा देखना विशेष होता है। अख़बार या समाचार-पत्र को देखने की जहाँ तक बात है, तो उसमें कई चीजें शामिल होती हैं जिसे पाठक का मन-मस्तिष्क चाहे-अनचाहे पृष्ठ-दर-पृष्ठ ढूँढता है। जैसे-संतुलन, विरोधाभास, अनुपात, गति अथवा दृष्टि-संचालन, एकता अथवा अन्विति।
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आजकल ‘विमर्श शब्द जोरों पर है। सब के अपने-अपने अनुसार विमर्श है। इसे आप अगले को चाहे जैसे-जिस तरह समझा दें, बता दें, जता दें। लेकिन ‘विमर्श अपनी मूल स्थापना में बेहद महत्त्वपूर्ण किन्तु पुराना शब्द है। 9वीं-10वीं शताब्दी में अभिनवगुप्त ने ‘तन्त्रालोक में ‘विमर्श शब्द का पहली बार प्रयोग किया है। भाषा जो अपनी है उसे देखने की दृष्टि आत्मीय होनी चाहिए। नहीं, तो आधुनिक शब्दावली के वर्चस्व में अपनी भाषा के शब्दों को खो देना आसान है।
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आजकल जिस ‘डिसकोर्सशब्द की धूम है उसका हिन्दी में स्थानापन्न है-‘प्रोक्ति। अर्थात् आप अपनी बात को भाषिक शब्दावली में कह कैसे रहे हैं; कहाँ किस शब्द पर बल अधिक है; कहने वाला किस शब्द को अधिक उभारना चाह रहा है या किस शब्द का प्रयोग किए जाने के बावजूद उसे गौण महत्त्व दे रहा है। भाषा में अथवा भाषा केस्तर पर घटित ऐसी तमाम चीजों के पीछे की मंशा, नियत या उद्देश्य हमेशा सही ही हो, जरूरी नहीं हैं। अतः किसी भी कथन को सत्य मानने से पूर्व उसका व्यावहारिक परख-जाँ होना जरूरी है।
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प्रकाशित चीजें सब अच्छी हों, यह जरूरी नहीं है। कई तो औसत से भी नीचे ठहरती हैं। अज्ञेय की दुष्टि में आज का काव्य-सम्पादन भी नितान्त गै़र-जिम्मेदार है। हिन्दी में ऐसी कोई पत्रिका नहीं है, जिसमें कविता का सम्पादन खरा और प्रामाणिक माना जा सके। इससे बहुत-सी ऐसी रचनाएँ प्रकाशित हो जाती हैं जो कविता कहलाने के योग्य भी नहीं होती।
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विश्वभर की अनेक भाषाओं का सूक्ष्म-अध्ययन करके विद्वानों ने उनमें अनेक प्रकार की समताओं और विषमताओं का अन्वेषण कर के उनमें जो पारस्परिक सम्बन्ध ढूँढने का प्रयास किया, उसके तीन मुख्य क्षेत्र निर्धारित किए गए हैं-ध्वनि, अर्थ, रूप। इनके वैज्ञानिक नामकरण है-ध्वनिशास्त्र (फोनोलाॅजी), अर्थ-विचार (सिमेण्टिक्स), रूप्-विचार (मोर्फोलाॅजी)।
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भाषा समाज-सापेक्ष होने के साथ है व्यक्ति अथवा समूह-विशेष की मानसिक प्रक्रियाओं से भी जुड़ी हुई है। ये प्रक्रियाएँ भाषा को जीवन देती हैं; शक्ति देती हैं और यथावश्यक तथा यथावसर परिवर्तन भी करती रहती हैं।       

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