Friday, 13 April 2018

एक ही समय में मौजूं दो किताब

राजीव रंजन प्रसाद
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पहले ‘अकाल में सारस’ का कवि

हमारा जीवन जरूरत का इश्तहार है। जरूरी होने पर हम फौरन सबकुछ ख़रीद लेते हैं। सुविधा और उपलब्धता ने कुछ और सोचने का ‘स्पेस’ ख़त्म कर दिया है।  ऐसे में कवि का मनुहार देखिए-

‘आज की शाम
जो बाज़ार जा रहे हैं
उनसे मेरा अनुरोध है
एक छोटा-सा अनुरोध
क्यों न ऐसा हो कि आज शाम
हम अपने थैले और डोलचियाँ
रख दें एक तरफ़
और सीधे धान की मंजरियों तक चलें’

आजकल आधुनिकता को ‘बाॅयकाट’ करती उत्तर आधुनिकता ने बाज़ार को जिस ख़राब तरीके से उत्पादी और उपभोगी बना दिया ही; यह संभव नहीं दिखता कि बाज़ार जाता आदमी कवि का साथ हो ले। वह चल पड़े खेत की आरियों-क्यारियों का राह पकड़ उन धान की मंजरियों के करीब जिसके धान की बाली अभी चावल का दाना बनने से पहले की प्रक्रिया में है।

‘चावल ज़रूरी हैं
ज़रूरी है आटा दाल नमक पुदीना
पर क्यों न ऐसा हो कि आज शाम
हम सीधे पहुँचे
एकदम वहीं
जहाँ चावल
दाना बनने से पहले
सुगन्ध बनने की पीड़ा से छटपटा रहा है’

यह चावल के दाने की अपनी नई बनती दुनिया है। यहाँ कवि को सृजन का सौन्दर्य दिख रहा है। वह निर्माण के इस प्रसंग को दिखाना चाहता है कि बेहाल-बेफुरसत, गरीब-विपन्न किसान की ज़मीन से तमाम विकट परिस्थितियों के बावजूद धान की बाली में चावल के दाने आने शुरू होते हैं, तो उसकी क्या स्थिति होती है। इस तरह महसूसना सबके वश की बात नहीं है। सच है, आज मनुष्य बने रहना भी तो सबके लिए संभव नहीं रहा है।एक ऐसे समय में जब यांत्रिकता और कृत्रिमता ने हमारा ‘आॅरिजनलपन’ छिन लिया है; अब मनुष्य बने रहना तभी संभव है जब हम कवि के कहे पर कान दें-

‘उचित यही होगा
कि हम शुरू से ही
आमने-सामने
बिना दुभाषिये के
सीधे उस सुगन्ध से
बातचीत करें।’

‘चैटिंग’ और ‘मैसेजिंग’ में आवश्यकता से अधिक नधायी नई पीढ़ी के लिए कवि-दृष्टि नाग़वार गुजर सकती हैं, लेकिन जीवन का असलीपन वहीं है जहाँ चावल दाना बनने से पहले सुगन्ध की पीड़ा से छटपटा रहा है।

(....जारी)

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