Tuesday, 5 September 2017

चंद्रकांत देवताले : इक्कीसवीं सदी का देशज कवि

चंद्रकांत देवताले
परिचय

जन्म : 7 नवंबर 1936, जौलखेड़ा, बैतूल (मध्य प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, आलोचना
मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह : हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उसके सपने, बदला बेहद महँगा सौदा, पत्थर फेंक रहा हूँ
आलोचना : मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक
संपादन : दूसरे-दूसरे आकाश, डबरे पर सूरज का बिम्ब
अनुवाद : पिसाटी का बुर्ज (दिलीप चित्रे की कविताएँ, मराठी से अनुवाद)
 
सम्मान

मुक्तिबोध फेलोशिप, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, सृजन भारती सम्मान, कविता समय पुरस्कार
निधन

14 अगस्त 2017

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बच्चों और युवाओं के भविष्य के लिए 
चंद्रकांत देवताले

बच्चों और युवाओं के भविष्य के लिए
बहस में शामिल पिपलोदा के श्यामलाल गुरूजी सोच रहे हैं
इतने बड़े नेक काम के लिए याद किया गया उन जैसा
वे अहोभाग्य समझकर सपनों की टूटी हड्डियाँ
अपने भीतर जोड़ रहे हैं
पूरा राष्ट्र बहस मे में शामिल है
इसलिये इसे राष्ट्रीय बहस कहा गया
और श्यामलाल गुरू जी ने भी दो शब्द कहे
पिपलोदा गाँव की कच्ची पाठशाला में
और सोच खुश हुए - उनके शब्द भी शामिल हुए
मुद्दों के राष्ट्रीय दस्तावेज में
श्यामलाल गुरू जी टाट पट्टियों और डस्टर के बारे में
परेशान थे पूरी बहस के दौरान
और महीनों तक देखते रहे थे आसमान में
नयी टाट पट्टियों की उड़ान.

माँ जब खाना परोसती थी 

वे दिन बहुत दूर हो गए हैं
जब माँ के बिना परसे
पेट भरता ही नहीं था
वे दिन अथाह कुएँ में छूट कर गिरी
पीतल की चमकदार बाल्टी की तरह
अभी भी दबे हैं शायद कहीं गहरे
फिर वो दिन आए
जब माँ की मौजूदगी में
कौर निगलना तक दुश्वार होने लगा था
जबकि वह अपने सबसे छोटे और बेकार बेटे के लिए
घी की कटोरी लेना कभी नहीं भूलती थी
उसने कभी नहीं पूछा
कि मैं दिन भर कहाँ भटकता रहता था
और अपने पान-तंबाकू के पैसे
कहाँ से जुटाता था
अकसर परोसते वक्त वह
अधिक सदय होकर
मुझसे बार-बार पूछती होती
और थाली में झुकी गरदन के साथ
मैं रोटी के टुकड़े चबाने की
अपनी ही आवाज सुनता रहता
वह मेरी भूख और प्यास को
रत्ती-रत्ती पहचानती थी
और मेरे अकसर अधपेट खाए उठने पर
बाद में जूठे बरतन अबेरते
चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी
बरामदे में छिपकर
मेरे कान उसके हर शब्द को लपक लेते थे
और आखिर में उसका भगवान के लिए बड़बड़ाना
सबसे खौफनाक सिद्ध होता
और तब मैं दरवाजा खोल
देर रात तक के लिए सड़क के
एकांत और अँधेरे को समर्पित हो जाता
अब ये दिन भी उसी कुएँ में लोहे की वजनी
बाल्टी की तरह पड़े होंगे
अपने बीवी-बच्चों के साथ खाते हुए
अब खाने की वैसी राहत और बेचैनी
दोनों ही गायब हो गई है
अब सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी से खाते हैं
और दूसरे के खाने के बारे में एकदम निश्चिंत रहते हैं
फिर भी कभी-कभार मेथी की भाजी या बेसन होने पर
मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती टोहती
उसकी दृष्टि और आवाज तैरने लगती है
और फिर मैं पानी की मदद से खाना गटक कर
कुछ देर के लिए उसी कुएँ में डूबी उन्हीं बाल्टियों को
ढूँढ़ता रहता हूँ।

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