Tuesday, 26 September 2017

इक्कीसवीं सदी में जनपक्षधरता का पर्याय बनती वैश्विक हिंदी


नवाधुनिक विधानों एवं नवाचारी अनुशासनों में हिंदी भाषा सहज ही स्वीकार्य है। हिंदी की भाषिक-संरचना, भाषिक-प्रयुक्ति या संचार आधारित अनुप्रयोग आजकल पहले की तुलना में बेहद स्थूल-सूक्ष्म हो चले हैं। शब्दार्थ की दृष्टि से वाक्-व्यापार एवं भाषा-व्यवहार की जो समाजभाषिक मनोगतिकी हमारे सामने है; उसमें स्थायित्व एवं दीर्घजीवता कम है किन्तु तीव्रता और प्रभावशीलता कारेंजबहुत अधिक है। अतएव, वैश्विक बनती हिंदी चुनावी भाषणों, ख़रीद-बिक्री सम्बन्धी सामान्य बातचीतों, नितांत निजी अथवा घरेलू राय-विचारों, सामान्य-विशेष बहस-मुबाहिसों आदि की पटरी पर सरपट दौड़ रही है। इसके अतिरिक्त नवमाध्यमों यानीन्यू मीडियाएवंवर्चुअल मीडियामें भी उसकी भूमिका देखने योग्य है। संचार-क्रांति और सूचना-राजमार्ग वाली इस उत्तर शती में भारतीय भाषा का वैश्विक वितानहिन्दी-समयही है। यह राष्ट्रीय ही नहीं अन्तरराष्ट्रीय दबाव है कि हिंदी बौद्धिकता अंग्रेजीआईपीआर’ (इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राइट) को सीधे टक्कर दे रही है। रोजगारपरक और कौशल-निर्माणकारी भाषा की खोज में उभरे हिंदी के प्रयोजनमूलक स्वरूप को देखें, तो इक्कीसवीं सदी का भारत आज जिस ज़बान में जवान होता दिखाई दे रहा है, वह प्रयोजनमूलक हिंदी ही है। चुनाव से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। अंग्रेजी के जानकर, प्रबंधक, बौद्धिक चाहे जो कुछ भी कर ले; चुनाव की भाषा यानीमीडियम आॅफ स्पीचहिंदी की जगह अंग्रेजी नहीं हो सकती है। इसी प्रकार फ़िल्म, विज्ञापन, समाचार एवं मनोरंजन माध्यम आदि में हिंदी की पैठ एवं ठाठ जबर्दस्त है।न्यू मीडियाकी खूबियों को पूरी तरह आत्मसात कर चुकी हिंदी भाषा को जानने, देखने, समझने की जो नयी परिपाटी शुरू हुई है, उसका एक बड़ा उपभोक्ता-वर्ग हिंदी जनसमाज है। यथा: वेब, ब्लाॅग, ट्वीटर, फेसबुक, वाट्सअप, हैंगआउट, हैशटैग इत्यादि
यह समय अपनी हिंदी भाषा को लेकर रुदाली-गान करने का नहीं है। अंग्रेजी की आलोचना करने की जगह आज आवश्यकता अन्तरभाषायी तथा अन्तरानुशासनिक हिंदी अनुवाद की दिशा में उत्तरोत्तर आगे बढ़ने की है। साहित्य, कला, विज्ञान, प्रौद्योगिकी इत्यादि से सम्बन्धित ज्ञानानुशासनों को हिंदी में लेकर आना हिंदी भाषा के वैश्विक महत्त्व एवं पहचान को केन्द्रीयता प्रदान करना है। जनपक्षधरता की दृष्टि से अंग्रेजी ही नहीं, संविधान की आठवीं अनुसूची में वर्णित सभी राष्ट्रीय भाषाओं का अनुवाद सम्बन्धी कार्य महत्त्वपूर्ण है। विशेषतया विभिन्न देशज भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान-सामग्रियों का हिंदी में संग्रहण-संकलन अत्यावश्यक है। यह कार्य स्वाधीनतापूर्व बड़े जतन से किया गया। यह और बात है, आजादी से पहले जिस हिन्दुस्तानी ज़बान ने देश की गरिमा और उसका गौरवगान कायम रखा था, स्वाधीन भारत में उसे वह सर्वोचित स्थान नहीं मिला। बहुभाषिक तथा बहुसांस्कृतिक भारतीय जनसमाज में हिंदी के महत्त्व को इरादतन कम कर दर्शाना अंग्रेजीपठित भारतीय नेताओं की सोची-समझी चाल थी। बाद के दिनों में हिंदी भाषा को लेकर जो विवाद-विरोध शुरू हुए उसे भाषिक राजनीति कहा जाना उचित है। भाषा को लेकर वितंडावाद खड़े करने वाले अधिसंख्य नेताओं को अपनी-अपनी मातृभाषाओं से लगाववृत्ति होकर उनमें राजनीतिक हित-लाभ साधने की छटपटाहट और महत्त्वाकांक्षा अधिक थी। हाल के दिनों तक संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी भाषा को शामिल किए जाने को लेकर चर्चे खूब हुए; लेकिन हिंदी की दशा और दिशा में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं हुआ। ध्यातव्य है कि हम आज को लेकर अतीत के कालक्रमों पर अपना मनगढ़त आरोप मढ़ते हैं। जबकि अंग्रेजी का दबदबा अंग्रेजी राज में भी वैसी सम्मानित स्थिति में कभी नहीं रहा जिस प्रभुमान स्थिति में आज है। दरअसल, ‘‘जब अंग्रेजी शिक्षा और सभ्यता भारत के चिंतनशील लोगों के बीच में आई, उन्होंने बजाए इसके कि इसके साथ बह जाएँ, अपने अतीत की ओर देखना आरंभ किया। इससे एक नए जागरण का युग प्रारंभ हुआ।’’ स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में उपलब्ध उन सभी माध्यमों को आज़माया गया जिसमें भारतीयता की जान बसती हो, राष्ट्रीयता की चेतना अनुस्यूत हो। समाचारपत्र-पत्रिकाओं से कहीं अधिक बेजोड़ करतब दिखाने का कामआकाशवाणीऔर स्वाधीनता के पश्चातदूरदर्शनने किया। विशेषतया ‘‘इसके लिए आकाशवाणी का माध्यम सबसे सबल और प्रबल माध्यम है। क्योंकि अनेक बोलियों में, अनेक भाषाओं में प्रसारण इस संस्थान के द्वारा होता है लेकिन अभिव्यक्ति इतनी भाषाओं में, इतनी बोलियों में, मुद्रण के माध्यम से भी नहीं होती जितनी कि इसके माध्यम से होती है और इसमें अपनी अभिव्यक्ति की विविध शैलियाँ हैं जैसे कि जो आकाशवाणी के हमारे किसानों के लिए कार्यक्रम होते हैं, हमारे श्रमिकों के लिए कार्यक्रम होते हैं या अन्य विशेष वर्गों के लिए जो कार्यक्रम होते हैं उनमें ऐसी अभिव्यक्ति-शैली अपनाई जाती है जो उन तक बात पहुँचा सके।’’
हमें नहीं भूलना चाहिए कि, ‘‘गाँधीजी उन शक्तियों के साथ असहयोग करते थे जो जनता तक संदेश को, युग के संदेश को नहीं पहुँचने देते थे।...गाँधीजी ने हम अंग्रेजीदां विशेष वर्ग के लोगों को इस प्रकार सुशिक्षित किया कि हम अपने जन-सामान्य, अपनी भूमि, अपने भूमिजन, अपनी परम्पराओं से पीठ फेरे रहें। हम किसी नदी के द्वीप की तरह से अलग-अलग हो जाएँ। बल्कि हमको जन-सामान्य सापेक्ष होना चाहिए और जन-सामान्य सापेक्ष होने के लिए उन्होंने अनेक रचनात्मक कार्यक्रम चलाए।’’ यह सचाई है कि, ‘‘हमारे बहुत उच्च श्रेणी के बड़े-बड़े विचारक चरित्रवान नेता कई एक ऐसे थे कि जिन्हें अंग्रेजी शासन, अंग्रेजी संस्कृति और अंग्रेजी भाषा-इसके प्रबल प्रभाव के कारण उस भारत की खोज करनी पड़ी जहाँ उनका जन्म हुआ था।’’ यही हाल इस उत्तर शती में जन्मी पीढ़ी की है। जहाँ उनका जन्म हुआ है, उस जन्मस्थली की खोज उनको करनी पड़ रही है। क्योंकि, ‘‘उनके मन में देश के प्रति लगाव है लेकिन वह क्षमता नहीं है कि वे, जनसामान्य तक अपनी बात को पहुँचा सकें।...आज भी हम इस बात की योग्यता नहीं रखते कि भारतीय भाषाओं में अपने राष्ट्रीय जनतंत्र का सब काम-काज कर सकें।’’ स्मृतिभ्रंशता के इस मुश्किल दौर में विभिन्न समाज एवं संस्कृतियों के बीच एक सेतु बनाए जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। हिंदी अपनी जनपक्षधर प्रकृति के कारण यह सेतु बनने हेतु सर्वथा उपयुक्त है।
ध्यातव्य है कि भारतीय परिक्षेत्र से बाहर और भारत के सभी क्षेत्रों में हिन्दी समझी जाती है। समझे जाने का मतलब वह भाषा जिसे बहुत सारे लोग बोलते हैं; अपने भाव, विचार एवं दृष्टि में बड़ी आसानी से बरतते हैं। यह सहजता हिन्दी भाषा की खूबसूरती है यानी प्राणतत्त्व। हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है। हिन्दी लिखावट और उच्चार दोनों में सादृश्यता रखती है। इस भाषिक वैशैष्टिय के कारण यह बेहद सुघड़ और सजीव भाषा है। यह कहना उपयुक्त होगा कि दुनिया की हर भाषा से मनुष्य की लगाववृत्ति जन्मजात होती है। भाषिक सामथ्र्य मनुष्य के मस्तिष्क में जन्मना कूटीकृत होते हैं। भाषा-अर्जन की प्रवृत्ति मनुष्य में इसी कारणवश है। भाषा का शाब्दबोध एक अर्थपूर्ण इन्द्रधनुष रचता है। रूपबोध, रंगबोध, गंधबोध, ध्वनिबोध आदि का मूल कारण भाषा है। अनुभूति और अभिव्यक्ति में फांक, फर्क अथवा फेरफार को भाषा ही जतलाती है, संकेत करती है। भाषा दुविधा एवं द्वंद्व निवारण की दवा है। यह एक प्रयुक्तिजन्य औजार है, एक मानवसुलभ सुविधा है।
 भाषा के माध्यम से मनुष्य प्रकृति के विभिन्न रूपों, प्रकृति की विभिन्न गतियों, प्रकृति की विभिन्न मुद्राओं का सफल अंकन करता है। इस अंकन हेतु लिपि एक जरूरी साधन है। दुनिया में भाषा की तरह लिपि भी अनेकानेक हैं। इसीलिए विद्वानों का कहना है कि लिपि की उत्पत्ति भाषा की उत्पत्ति से बहुत बाद में हुई। लिपि मानव समुदाय का महत्त्वपूर्ण आविष्कार है। लिपि की उत्पत्ति से पूर्व भावाभिव्यक्ति का दायरा बोलने और सुनने तक सीमित था। मनुष्य की उत्कट अभिलाषा रही होगी...तभी तो उसने सोचा कि उसके ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी भाव-विचार दूर-दूर तक पहुँचे और इन्हें भविष्य के लिए संचित किया जा सके, उनका संरक्षण किया जा सके। इस आवश्यकता की पूर्ति करना उनका लक्ष्य बन गया और आगे चलकर यही मनुष्य के लिपि के आविष्कार की प्रेरणा बनी। हिंदी भाषा जिसे नवजागरणकाल में बखूबी गढ़ा गया; में प्रतिरोध की चेतना और आत्मबल की शक्ति प्रचुर मात्रा में सन्निहित थी। यह शक्ति ओजमान और तेजमान थी इसलिए भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में हिंदी पत्रकारिता के अवदान एवं योगदान को लेकर बहुत कुछ कहने-सुनने को शेष है। इक्कीसवीं सदी में पैदा और विकसित हुई पीढ़ी को ध्यान में रखकर कहें, तो हमें अपनी भाषा-संस्कृति और उसमें घुली-मिली राजनीतिक चेतना को लेकर संवेदनशील होने-बनने की जरूरत सबसे अधिक है। युवाओं पर अतिरिक्त बल इस कारणवश कि, ‘‘जिस दुनिया में हम जी रहे हैं, वह बुद्धिजीवी-पैगम्बरों की दुनिया है, स्वार्थ में डूबे हुए व्यक्तियों की दुनिया है। वह ऐसी दुनिया है, जिसमें औद्योगिक और पूँजीवाद से निकली एक भयानक पद्धति राज कर रही है। जिसमें तकनीकी सफलताओं और बाहरी जीतों की धूम है, जिसमें शारीरिक सुविधाओं और अवास्तविक विलासिता सामग्री की बाढ़ है, जहाँ सार्वजनिक जीवन में भी अनियंत्रित लिप्सा का अनंत साम्राज्य है। जहाँ पाशविकता और रक्तपात का सहारा लेकर तानाशाही फैल रही है, जहाँ वास्तविकता का आदर एवं धर्म तथा आत्मा की उपेक्षा सबसे बड़ा आधार है।’’ यद्यपि सायासतन और इरादतन भाषा के महत्त्वपूर्ण प्रश्न को पीछे छोड़ दिया गया है। अतएव, अधिसंख्य भारतीय भाषाओं के समक्ष अपने को बचाए रखने की जद्दोजहद जबर्दस्त है। हमने निज भाषा से सृजित माध्यम-संस्कृति जिसमें एक-दूसरे से जुड़ने या जुड़े रहने की अभ्यर्थना होती है; का परित्याग कर दिया है। अंग्रेजी की आरोपित माध्यम-संस्कृति ने भारतीय भाषा के सत्यानाश का महानुष्ठान जारी रखा है। लेकिन यह सच है, कोई भी अनुष्ठान दीर्घजीवी नहीं होता है।
निष्कर्षतः इक्कीसवीं सदी में मातृभाषाओं को लेकर गंभीर चिन्तन एवं बहस-मुबाहिसे जारी है। भाषा का पक्ष विचारणीय है क्योंकि यह सहप्रयोग-अनुप्रयोग का मानवोचित पहलू है। अधिसंख्य समाजभाषाविज्ञानियों की बड़ी-बड़ी बातों का सार यही है कि, भाषा आन्तरिक मन तथा बाह्य सन्दर्भों के द्वंद्व के परिणामस्वरूप आविर्भूत प्रतीक-व्यवस्था है, ध्वन्यात्मक समुच्चय है। भाषावैज्ञानिक दृष्टि में भाषा के सामाजिक सन्दर्भ समरूप नहीं होते। इसलिए भाषा भी अपने प्रकृत रूप मेंविषमरूपहोने के लिए बाध्य होती है। इस तरह प्रत्येक भाषा तो मन की कैदी है, विचार की बंदी। यह तो अनुभूति, प्रत्यक्ष ज्ञान, आचरण और उन्मुक्त आदान-प्रदान पर आधारितवार्ता-कौशलहै। यह कौशल अथवा प्रवीणता अर्जित है कि प्रकृत। इस कारणवश इसका स्वरूप किंचित मात्र भी पूर्व-निर्धारित या नियंत्रित नहीं है। आज हिंदी भाषा ऐसे वितण्डावादियों को धूल चटा चुकी है। वह पूरे विश्व में ज्ञान की भाषा बनने के लिए दृढ़संकल्पित है। हिंदी में भाषिक दक्षता, कुशलता, प्रयोग, अनुप्रयोग, प्रकृति, प्रयुक्ति आदि का समाजशास्त्र बदल चुका है। अर्थशास्त्र इसकी चेरी है। विज्ञापन हो या फिल्म, हाट-बाज़ार हो या उत्तर-दक्षिण हिंदी सबको जोड़ने में सफल है। हिंदी अन्य प्रदेशों की मातृभाषाओं के संग-साथ राष्ट्र-निर्माण में जुटी है।
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हिंदी : सांविधानिक स्थिति
·         भारत के सांविधानिक नक्शे में हिंदी भाषा राजभाषा के रूप में मान्य है। यह राष्ट्रभाषा है और सम्पर्क भाषा भी।
·         राजभाषा यानी अंग्रेजी के सहप्रयोग के साथ राजकीय विधान, कार्यालयी काम-काज, अकादमिक लिखा-पढ़ी, ज्ञान-विज्ञान, अन्तरानुशासनिक-अन्तर्सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार इत्यादि में सांविधानिक रूप से मान्यता प्राप्त एक वैध भाषा।
·         राजभाषा यानी वह भाषा जिसके बारे में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के अन्तर्गत काफी कुछ लिखित एवं वर्णित है। यही नहीं अनुच्छेद 120 में संसद में भाषा-प्रयोग के बारे में हिंदी की स्थिति स्पष्ट है, तो अनुच्छेद 210 में विधान-सभा एवं विधान-परिषद में हिंदी के प्रयोग को लेकर ठोस दिशा-निर्देश उल्लिखित है।

हिंदी : व्यावहारिक स्थिति
·         हिंदी को सम्पर्क-भाषा कहने का अर्थ-आशय रोजमर्रा के प्रयोग-प्रचलन की भाषा; कुशलक्षेम, हालचाल की भाषा, आमआदमी के बोली-बर्ताव की भाषा।
·         हिंदी हमारी आय और आमदनी की भाषा भी है जिसे पारिभाषिक शब्दावली में इन दिनों प्रयोजनमूलक हिंदी कहा जा रहा है। अनुप्रयुक्ति की दृष्टि से यह नवाधुनिक क्षेत्र है जिनका महत्त्व हाल के दिनों में तेजी से बढ़े हैं।
·         हिंदी की तुलना मेंइंग्लिश मीडियम’ की सचाई का पता तब चलता है जब देश के महामहिम राष्ट्रपति तक  भारत के किसी भी एक विश्वविद्यालय को विश्व के प्रमुख 200 विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल नहीं होने का हवाला देते हैं, इसको लेकर अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं।
·         टाइम्स हायर एजूकेशन संस्था से जुड़ी रिपोर्ट भी इस बात की पूर्णतया पुष्टि करती है। रोजगार की योग्यता परखने वाली संस्थाएस्पाइरिंग माइंड्ससे जुड़ी एक ताजा रिपोर्ट पर गौर करें जो साठ हजार छात्रों का परीक्षण करके तैयार की गई है। रिपोर्ट से यह बात साफ हो जाती है कि अधिकांश छात्र अंग्रेजी में संवाद-कौशल, कंप्यूटर ज्ञान, विश्लेषण एवं संज्ञानात्मक कौशल और बुनियादी लेखों में उन शर्तों को पूरा नहीं करते जिनके आधार पर उन्हें ऊँचे पदों वाली नौकरियाँ मिल सकती हैं।
·         आश्चर्य होगा यह जानकर कि इस संस्था के टेस्ट में मात्र दो फीसद छात्र ही काॅरपोरेट कम्यूनिकेशन और कंटेट डेवलपमेंट की नौकरी के योग्य पाए गए। केवल दो फीसद में एकाउंटिंग और तीन फीसद में विश्लेषक की नौकरी पाने की योग्यता दिखाई दी। दूसरी ओर 36 फीसद छात्र मात्र क्लर्क बनने योग्य पाए गए।
·         गौर करने लायक बात यह है कि जिस युग में साइंस और एकाउंटस में योग्य कर्मियों की सर्वाधिक मांग है ऐसे समय में हमारे काॅलेजों से कम योग्य छात्र निकल रहे हैं। इन सारे फीसदियों में हिंदी माध्यम का योग-हिस्सा बहुत कम बैठता है; अधिसंख्य अंग्रेजी पैटर्न/सिलेबस के ही अनुसरणकर्ता हैं; अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों, महाविद्यालयों अथवा विश्वविद्यालयों के पढे-लिखे उच्चशिक्षित आवेदक हैं।  
·         इस तरह अंग्रेजी के ज्ञान का आडम्बर रचकर हमें सायासतन अपनी हिंदी भाषा से दूर किया जा रहा है; क्षेत्रिय परिधि में रचे-बसे हिन्दी की केन्द्रीयता को नष्ट-विनष्ट किया जा रहा है।
·         ज्ञान-सृजन की दृष्टि से यदि अंग्रेजी हममें सही एवं सार्थक विचार-दृष्टि रोपने एवं उनके उमगने में मददगार है, तो निश्चय ही हमें अंग्रेजी भाषा को अपनाना चाहिए; आत्मविश्वास के साथ इसे सीखने-जानने में खुद को जोत देना चाहिए। लेकिन जब इससे हमें हासिल होना-जाना मामूली हो, तो उस स्थिति में अपनी मौलिकता, नवीनता, नवोन्मेषी विचार-दृष्टि आदि को अपनी मातृभाषा में फलने-फूलने देना क्योंकर ग़लत है?
·         मनोवैज्ञानिक चाल्र्स स्पीलबर्गर से सहमत होना सही प्रतीत होता है-‘‘जैसे-जैसे हमारा माहौल प्रतिस्पर्धी होता जा रहा है, काल्पनिक शत्रुओं की एक फौज तैयार होती जा रही है। स्पद्र्धी माहौल में हम खुद को भय और असुरक्षा में घिरा पाते हैं।‘’
·         अतएव, हिंदी भाषा को स्थानिक स्तर पर इस भय और असुरक्षा के माहौल से बाहर निकालना होगा। संभाव्य-चेतना के निर्माण हेतु भी इस दिशा में अथक एवं सार्थक चिंतन-मनन जरूरी बेहद जरूरी है। इसके लिए निज प्रेरणा, संकल्प एवं दृढ़निश्चय अत्यावश्यक है।

हिंदी : क्षेत्रीय एवं प्रांतीय स्थिति
·         आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी के बारे में महात्मा गाँधी की सोच का समर्थन आवश्यक है-‘प्रांतीय भाषा या भाषाओं के बदले में नहीं बल्कि उनके अलावा एक प्रांत से दूसरे प्रांत का सम्बन्ध जोड़ने के लिए सर्वमान्य भाषा की आवश्यकता है और ऐसी भाषा तो एकमात्र हिंदी या हिंदुस्तानी ही हो सकती है।
·         इस कथन के आलोक में लिपि का सन्दर्भ लेना भी उचित होगा कि भाषा मानव-व्यवहार की विलक्षणता और बुद्धिमता की सूचक है। भाषा के माध्यम से ही मानव अपने भावों, विचारों को दूसरे तक पहुँचाने में समर्थ होता है। भाषा की इसी निरन्तरता से प्राचीन साहित्य, विज्ञान, पारम्परिक धरोहर, लोकसंस्कृति आदि हमें इतने वर्षों बाद भी उपलब्ध है; और यह संभव हुआ है लिपि के कारण। लिपि ही किसी भाषा की समृद्धि और उसके व्यवहार- क्षेत्र को दर्शाती है।
·         भाषा के व्यवहार-क्षेत्र की व्यापकता के कारण ही स्वतन्त्रता के पश्चात 14 सितम्बर, 1949 को देवनागरी में लिखित हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। इस तरह अट्ठाइस स्वतंत्र राज्यों एवं सात केन्द्रशासित प्रदेशों से मिलकर बना भारत(इंडिया) एक बहुभाषाभाषी राष्ट्र है।
·         सर्वेगत आँकड़ों के अनुसार(भारतीय जनगणना सर्वेक्षण, 1961) भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 1652 मानी गई हैं। इनमें से सिर्फ 22 भाषाएँ संविधान की अष्ट्म अनुसूची में शामिल हैं। इन सबमें हिंदी भाषा की प्रकृति समन्वयकारी और समुच्चयबोधक है।
·         आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिंदी का प्रयोग क्षेत्र विशाल और बहुपरतीय है। हिंदी की लिपि देवनागरी है जिसके सतत् विकास सम्बन्धी बृहद् विवेचना अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के अन्तर्गत भारतीय संविधान में प्रदत है। डाॅ. विमलेश कांति वर्मा का मत द्रष्टव्य है,-हिंदी वस्तुतः एक भाषा ही नहीं वरन् एक भाषा समष्टि का नाम है। खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी, हरियाणवी, अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी, मैथिली, मगही, भोजपुरी, मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी, गढ़वाली तथा कुमाउँनी हिंदी की प्रधान शैलियाँ हैं जो क्षेत्र -विशेष में वहाँ के रहवासियों की भावाभिव्यक्ति एवं अभिव्यंजना का माध्यम है।
·         आज हिंदी का अर्थ सामान्यतः खड़ीबोली लिया जाता है जो साहित्य शिक्षा तथा साधन के माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती है। हिंदी इस प्रकार एक जनभाषा है, सम्पर्क भाषा है, राजभाषा है और देश की राष्ट्रभाषा है। हिंदी एक समृद्ध भाषिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परम्परा की वाहिनी है। वह संस्कृत जैसी सम्पन्न भाषा की उत्तराधिकारिणी है, तो पालि-प्राकृत की सहमेली सखा-मित्र। डाॅ. शिवनन्दन प्रसाद की दृष्टि में,-हिन्दी से तात्पर्य उस भाषा या भाषा परिवार से है जो भारत की राष्ट्रभाषा है, जो प्राचीन ग्रंथों के मध्य प्रदेश कहे जाने वाले विशाल भूभाग की (जिसके अंदर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली समाविष्ट हैं) प्रधान साहित्यिक भाषा रही है और जिसके अंतर्गत अनेकानेक बोलियाँ-उपबोलियाँ सम्मिलित हैं।‘’
·         यद्यपि सभी भारतीय भाषाओं में निरंतर क्रिया-प्रतिक्रिया चलती रही हैं। अतः इन भाषाओं में इनके विविध पक्षों, स्तरों, आयामों और छायावर्तो को व्यक्त करने वाले शब्द है, जिनमें उनके प्रत्यय निहित है, क्योंकि भारतीय स्तर पर इन प्रत्ययों में समरूपता है।
·         अतः उनके प्रतीक विभिन्न भाषाओं के संज्ञा, क्रिया, विशेषण् आदि पदों में समान रूप से सुरक्षित हैं। समान परिवार की भाषाएँ हो अथवा भिन्न परिवार की, पर उनमें सांस्कृतिक समरूपता के यह प्रत्यय रूप शब्द समानार्थी हैं।
·         इन भाषाओं में एक दूसरे की समझ और निकटता कहीं अधिक है। भिन्न शब्द या पद से मूल भाव अथवा विचार तक पहुँचने में कठिनाई नहीं है, केवल पर्याय शब्द की जानकारी पर्याप्त है। जबकि एक ही परिवार की दूसरे संस्कृति की वहन करने वाली भाषा से सहज संप्रेषण संभव नहीं है।
·         विद्वतजनों के मुताबिक हिन्दी अन्य प्रदेशों तथा उनकी भाषाओं से निकट है। स्वाभाविक है, जो धाराओं के उतार-चढ़ाव, विस्तार-संकोच का भ्रम चलता आया है, उसमें बीच का क्षेत्र हर तरह से प्लावित हुआ है। उसके कारण उसकी भाषा से सबकी समान निकटता रही है। सांस्कृतिक आंदोलन उसके माध्यम से अधिक सम्मान हुआ। इधर उधर ऊपर से नीचे चिंतन विचारों, मूल्यों के विस्तार देने का और जोड़ने का काम इस भाषा से लिया जाता रहा है। यह सैंकड़ों वर्षों की बात है, केवल आधुनिक युग की नहीं।

हिंदी : वैश्विक स्थिति
·         भाषाविद् महावीर सरन जैन काहिंदी भाषा: वैश्विक व्यवहार एवं अन्तरराष्ट्रीय भूमिका’ शीर्षक से लिखा आलेख द्रष्टव्य है। यह आलेख केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से निकलने वालीभाषापत्रिका के सद्यःप्रकाशित अंक में शामिल है। इस आलेख के अन्तर्गत कहा गया है कि हिंदी का वैश्विक परिप्रेक्ष्य कितना समुन्नत, नवाचारी और विचारान्वेषी है।
·         उन्होंने भाषा के वैश्विक व्यवहार एवं व्यक्तित्व के लोकमनोविज्ञान को गंभीरतापूर्वक देखने-समझने की चेष्टा की है। क्षेत्रियता के बाहर और वैश्विकता के अन्दर हिंदी भाषा का यह आधुनिक संदर्भ निःसंदेह महत्त्वपूर्ण है और अप्रतिम सृजनात्मकता का बेमिसाल उदाहरण भी।
·         आज हिंदी भाषा इनका अनुसरण करते हुए विश्व के बहुविध क्षेत्रों-स्थानों में अपनी मजबूत पहचान और पैठ बना सकने में सफल हुई है। लेकिन हमें उन संभावित खतरों को भी अपनी जे़हन में रखना होगा जिससे हमारी भाषा लगातार जूझ रही है।
·         साहित्यकार रमेशचंद्र शाह के शब्दों में कहें तो,-‘‘एक तरफ लोग तकनीकी विकास की अंधी दौड़ में पुरानी भाषाओं को भूलते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर एक ऐसा वर्ग पनप रहा है जो किसी भी कीमत पर अपनी लुप्त होती भाषाओं को बचाना चाहता है। हिब्रू तो संस्कृत से भी ज्यादा डेड भाषा है, पर लोग उसे बचाने का भी प्रयास कर रहे हैं। इंगलैंड मेंव्हेल्सभाषा को बचाने के लिए कितने ही लोगों ने अपना जीवन दाँव पर लगा दिया।
·          यह सच है कि भूमंडलीकरण इतिहास की अनिवार्यता है। जितने भी लोग भाषाओं को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, वे सभी जानते हैं कि यह एक हारी हुई लड़ाई है। जरूरत इस बात की है कि हम किसी तरह दस्तावेजीकरण करके सभी भाषाओं के संस्कार को बचा लें। सभी विलुप्त हो रही भाषाओं को संगृहीत करके उनके संस्कार को जीवित रखना बहुत जरूरी है।
·         दरअसल, भाषा का सम्बन्ध जिस तरह मन एवं बुद्धि से होता है उसी तरह उसका सम्बन्ध हर व्यक्ति की रोजी-रोटी तथा पारिवारिक विकास से जुड़ा होता है। हमें यह बात भलीभाँति समझ लेनी चाहिए। संकुचित स्वार्थ के कारण भारतीय भाषाओं को नकारना अथवा उनके प्रति हीनभावना दर्शाना हमारी मानसिक दासता का परिचायक है और इस पर अंग्रेजियत का प्रभाव दर्शाता है, जो पिछले कई दशकों से हिंदी की प्रगति में बाधक बना हुआ है।
·         हमें इस तथ्य को भी नहीं बिसारना चाहिए कि-‘‘सूचना प्रौद्योगिकी के सन्दर्भ में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं का भविष्य उज्ज्वल तो है; परन्तु बहुत कुछ प्रयोक्ता की माँग पर निर्भर करता है। यद्यपि एक सर्वेक्षण के अनुसार 44 प्रतिशत भारतीय हिंदी वेबसाइटों और सर्च इंजनों की माँग करते हैं।‘’ अर्थात् हिंदी भाषा के प्रयोग-व्यवहार से सम्बन्धित प्रयुक्ति-क्षेत्र में इज़ाफा एक ऐसी सचाई है जिसे झुठला सकना अब मुमकिन नहीं है।
·         विपणन-बाज़ार की मोटी आय का साधन हिंदी विज्ञापन किस कदर प्रमुख भूमिका में हैं; यह अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है। हिंदी के वैश्विक परिदृश्य आज तेजी से बदल रहे हैं।
·         आज हिंदी भाषा यूनीकोड संस्करण के अन्तर्गत अमेरिकी आलाकमानों तक से बतिया ले रही है, तो माॅरीशस के सचिवालय तक में अपनी मजबूत पैठ रखने में सफल है। ध्यान देने योग्य है कि हिंदी ने देशों को नहीं चुना; बल्कि विभिन्न देशों के भारतीय रहवासियों ने हिंदी को अपनाया और विचार अभिव्यक्ति हेतु एक साझा एवं सक्षम मंच बनाया है।
·         अतः स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद के भारतीय समाज को एकजुट और एकाग्र् करने में हिंदी भाषा की भूमिका अनिर्वचनीय है। अर्थात् यह हिंदी ही है जिसने हमारे राष्ट्राध्यक्षों के सीने को चैड़ा किया है; विदेशी सरजमीं पर भारतीय हमज़बान लोगों के बीचमेक इन इंडियाका गर्जन-तर्जन करने का सुअवसर प्रदान किया है।
·         आज भी हिंदी ही वह सबसे माकुल भाषा है जिसमें चुनाव लड़ा जाता है; फिल्मी गाने गाए जाते हैं, कविता, कहानी और उपन्यास लिखे जाते हैं। हिंदी का दायरा भारतीय परिक्षेत्र तक सीमित-परिसीमित नहीं है।
·         हिंदी बन-सँवर और निखर रही है; क्योंकि उससे जुड़ी देश की एक बड़ी आबादी अपनी भाषा निधड़क बोलती समझती है। उसे यूजीसी भी पता है और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी। उसे रेल पता है, तो सवारी गाड़ी भी। वह मिरर भी जानती है, और आइना-दर्पण भी। वह दिस-दैट भी जानती है, तो आप-तुम-तू भी। यह क्षेत्रिय भी और वैश्विक भी। इंटरनेटी है, तो कविताकोशी भी।

हिंदी : अतिरेक एवं अतिश्योक्ति
·         हिंदी में आज भी कहन का चलन बहुत दिव्य है, जबकि करनी में अपने द्वारा ही कही गई बातों को अमल में लाने से साफ परहेज़ दिखाई देता है। इसी तरह हिंदीभाषी क्षेत्रों में राजनीतिक आलाप-प्रलाप बेशुमार है, तो अधिसंख्य ढपोरशंखी अकादमिक विद्वजनों द्वारा कराए जा रहे स्तरहीन शोध-अनुसन्धान इसी समिधा में खेत हैं। हिंदी-अंग्रेजी-शोध की स्तरीयता का निकष यह है कि पूरा प्रबन्ध सूचनाक्रांत या किविजुअल एड्स’(आँकड़ों, तथ्यों, टेबुलों, ग्राफों, फिगरों, चित्रों आदि) से अटा पड़ा हुआ।
·         अक्सर ज्ञान, विज्ञान, प्रविधि और बहुमुखी विकास के नाम पर हिंदी की दुहाई दी जाती है और इस जगह सभी प्रदेशों के लोगों को एकजुट होने की बात कही जाती है। किन्तु, हिंदीभाषी वास्तिविक ज्ञान-सृजन एवं नवाचारी शोध-अनुसंधान के नाम पर क्या-कुछ कर रहे हैं; उस ओर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
·         पढ़े लिखे बौद्धिक वर्ग की एक विडंबना है, वह बौद्धिक स्तर पर भले ही परिस्थिति के यथार्थ को समझ सके और कारणों को विश्लेषित भी कर सके, पर उसके मन में सुख सुविधाओं का ऐसा आकर्षण रहता है कि इस वृत्त में शामिल होने के लिए लालायित रहा है। तब इसका इस्तेमाल आसान हो जाता है। ये सारे लोग और इस सतह का समाज अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए भाषा के सवाल उलझाता रहता है।
·         इसी समाज ने हिन्दी बनाम भारतीय भाषाओं का सवाल उठा लिया है। इस सवाल को लेकर धुंध इस प्रकार फैलाई गई है कि जैसे हिन्दी और भारतीय भाषाओं के अलग पक्ष हैं, उनमें कहीं विरोध है। जब कि सीधा सवाल अंग्रेजी बनाम सभी भारतीय भाषाओं का है।
·         भारतीय विद्वानों की मानें, तो हिन्दी भारतीय भाषाओं के साथ ही है, अलग नहीं, ऊपर नहीं। हिन्दी अंग्रेजी के स्थान पर नहीं है, यह स्पष्ट है। कुछ अतिवादी लोग हर जगह और हर युग में होते हैं, पर उनकी बात व्यर्थ है। यह तो नितांत स्पष्ट है और सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने स्पष्टतः कहा है कि हर प्रदेश के भाषा अपने प्रदेश के संपूर्ण व्यवहार और अभिव्यक्ति की भाषा है।
·         अंग्रेजी के बारे में आज भी यह राय कायम है कि वह ‘जेन्टलमैन’ की भाषा है। सुविधा के कमोबेश सभी साधन अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। कैरियर निर्माण से लेकर फैशन से पैशन तक सबकुछ अंग्रेजी माध्यम के लोगों द्वारा बनायी और परोसी गई है।

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