Monday, 4 September 2017

कविता का लोकवृत्त और त्रिलोचन







कविता: संवेदना विस्तार का माध्यम, वस्तुतत्त्व को रूप प्रदान करने वाला, कविता में अर्थ की निर्मिति का प्रश्न यानी शब्दों को अर्थवान बनाना, कविता में आंचलिकता का पुट, देशज भाषा में अर्थवान शब्दों की खोज, संवेदना के विस्तार हेतु जनपक्षधर प्रतिबद्धता, शिल्प अथवा शैलीगत प्रयोग से कविता में अपनी अनावश्यक उस्तादी को आरोपित करना...

-------------
रवि रंजन

-         सच तो यह है कि कवि त्रिलोचन का अनुभव लोक अत्यंत व्यापक है। उनकी कविता का फलक गाँव से लेकर शहर तक, ग्रामीण किसान एवं खेत मजूर से लेकर कारखनियाँ मजूर तक तथा निम्न-वर्ग एवं मध्य-वर्ग की खस्ता हालत से लेकर श्रम से विरत अवकाशभोगी धन्नासेठ एवं भूस्वामी-वर्ग तक प्रसरित है। इसलिए उनकी कविताएँ अपने पाठकों से संवेदना का विस्तार माँगती हैं।
-         वस्तुतत्व की नैसर्गिक आकांक्षा के अनुकूल उसे 'रूप' प्रदान कर श्रेष्ठ काव्य का सृजन करने में सफल हो सके हैं। कविता अन्य कलाओं से इस कारण भी भिन्न है कि इसकी संरचना मात्र भाषिक होती है तथा इसकी संरचना की व्याख्या का एकमात्र माध्यम भाषा ही है। अतः कवि के सामने अपनी 'काव्यवस्तु' को उसके अनुकूल 'रूप' प्रदान करने की जो चुनौती होती है इसके लिए उसे भाषा के स्तर पर भी एक प्रकार का रचनात्मक संघर्ष करना पड़ता है।
-         अज्ञेय ने एक स्थान पर कदाचित कविता की संरचना पर विचार करते हुए लिखा हैं कि - 'आज भी मेरे सामने…अर्थवान शब्द की समस्या है। काव्य सबसे पहले शब्द है। और अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है। सारे कवि-धर्म इसी परिभाषा से निःसृत होते है। शब्द का ज्ञान, शब्द की अर्थवत्ता की सही पकड़ भी कृतिकार को कृती बनाती हैं। ध्वनि, लय, छंद आदि के सभी प्रश्न इसी में से निकलते और इसी में विलय होते हैं। इतना ही नहीं, सारे सामाजिक संदर्भ भी यहीं से निकलते है, इसी में युग संपृक्ति का और कृतिकार के सामाजिक उत्तरदायित्व का हल मिलता है या मिल सकता है।'
-         त्रिलोचन उस देशज भाषा का इस्तेमाल करते हैं जिसमें हिंदी अंचल के लोग बोलते-बतियाते है। उनकी काव्य भाषा में एक खास तरह की जीवंतता है जो काव्य-सृजन में आम आदमी की बातचीत के लहजे के इस्तेमाल से पैदा हुई है। राजेश जोशी ने सही लिखा है कि 'बातचीत के अंदाज ही नहीं, बातचीत वाली भाषा का भी कलात्मक उपयोग त्रिलोचन ने किया है। उनकी कविता में एक ओर किसानों-सा बातूनीपन है तो दूसरे छोर पर बहुत सारी बात को कुछ शब्दों में, एक चुस्त-से वाक्य में या एक सूक्ति में समेट लेने की मितव्ययिता भी। यह द्वैत वस्तुतः इस बात का प्रमाण है कि उनकी कविता का रचाव हिंदी अंचल के किसान के चरित्र, आदतों और बोलचाल से कितने गहरे अर्थों में संपन्न हुआ है।'
-         काव्य-रचना के बहाने कवि-कर्म को मजाक बना देने वाले कवियों से ज्यादा खतरनाक चरित्र उन रचनाकारों का होता है, जो शिल्प के उस्ताद तो होते हैं, पर अपनी इस उस्तादी को ही वे कवि-कर्म की इति मान लेते हैं। ऐसे रूप-शिल्प के आग्रही रचनाकारों की कविता में जन पक्षधरता की बात तो दूर, अनेक बार वहाँ भाव पक्ष की कीमत पर चमत्कार सृजन का आत्यंतिक आग्रह दिखाई देता है।
-         केवल वाचन के लिए रचित वैचारिक कविता से भिन्न गीत की एक अलग रचनात्मक शर्त एवं समझ होती है और कई मायने में तो प्रभावान्वित की दृष्टि से वैचारिक कविता की अपेक्षा गीत कहीं ज्यादा श्रेयस्कर होता है।
-         समर्थ कवि पहले की कविता से मुहावरा या उक्ति वह तभी उठा सकता है जब वह मुहावरा या उक्ति उसके अपने अनुभव में संपृक्त हो। (राधावल्लभ त्रिपाठी)
-         पिछले कई वर्षों में भारतीय राजनीति में सक्रिय कुछ अवसरवादी तत्वों ने सामाजिक न्याय को सांप्रदायिक और जातिवादी घृणा का पर्याय-सा बना दिया है। फलतः जो राजनीतिक पार्टियाँ जातिवाद को जड़-मूल से उखाड़ने का संकल्प लेकर गठित हुई थीं उनमें से अनेक आज खुद जातिवाद की घिनौनी राजनीति में लिप्त है। ऐसे में डॉ. बाबा साहब अंबेडकर की चेतावनी अक्षरशः सत्य सिद्ध हो रही है कि 'जाति के आधार पर कोई भी निर्माण स्थायी नहीं रह सकेगा, वह खंड-खंड हो जाएगा।' यदि आजादी के बाद सत्तारूढ़ हुए दल ने जनतांत्रिक नैतिकता के तहत आरंभ से ही सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति के बजाए सत्ता में आम आदमी की व्यापक साझेदारी सुनिश्चित करते हुए उसके बहुमुखी विकास के लिए कुछ ठोस कदम उठाया होता तो आज यह समाजघाती तांडव भारतीय राजनीति को इतना विद्रूप और गर्हित बना पाता। दीगर बात यह कि हमारे जमाने में वृद्ध पूँजीवाद जिस तरह भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से गुजरते हुए आर्थिक उपनिवेशवाद को जन्म दे रहा है, उसके चलते विकास के नाम पर दुनिया के गरीब देशों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट मची हुई है। भारत में बड़े पैमाने पर किसानों द्वारा रोज--रोज आत्महत्याओं तथा ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का शहर की ओर पलायन आदि के मद्देनजर याद आते है क्लाद लेवी-स्त्रास, जिन्होंने अपनी आत्मकथात्मक पुस्तक 'ट्रिस्टेस ट्रापिक्यूज' में लिखा है : 'दुनिया बिना मानव प्रजाति के शुरू हुई और निश्चय ही इसी के साथ खत्म हो जाएगी। आदमी ने क्या किया है, सिवा प्रसन्नतापूर्वक खरबों संरचनाओं को तोड़ा और उन्हें ऐसी स्थिति पर पहुँचा दिया कि वे अब पुनर्गठित होने की स्थिति में नहीं हैं।'
-         कवि अवाम को धर्म-जाति आदि की सामंती दीवारों के साथ-साथ तमाम तरह की विषमताओं के घेरों को तोड़कर अपने हित में एकजुट होने की सलाह देता है।
-         कोई रचनाकार तब बड़ा होता है जब वह अपने पात्रों का वैसा उपस्थापन करता है रचना में जैसे वे हैं - चाहे वें गिरी हुई मानसिकता और आर्थिक स्थिति के हों या उत्कृष्ट मानसिकता के। इसी परिवेश के कारण कोई रचनाकार बड़ा कहलाता हैं।' (त्रिलोचन)

-         'संस्कृति' सौंदर्यबोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है काव्यानुभूति की संस्कृति लोकधर्मी है। सच तो यह है कि शिष्ट संस्कृति भी आसमान से नहीं टपकती। वह लोकजीवन की तद्भवता का ही मार्जित संस्करण होती है। विदित है कि सारी की सारी शास्त्रीय राग-रागिनियों का मूल कहीं कहीं लोक रागों में ही निहित है। लोक और शास्त्र के बीच जब तक आवाजाही बरकरार रहती है, तब तक उसमें जीवंतता उल्लास भी बना रहता है। काव्यमूल्य वस्तुतः जीवन-मूल्यों की ही पुनर्रचना हैं जिनमें उस चेतना को विकसित करने की क्षमता अंतर्निहित है, जो रेणु की शब्दावली में 'समाज को मानवीय और मनुष्य को सामाजिक' बनने के लिए प्रेरित करती है।

No comments:

Post a Comment